आदिवासियों की जल जंगल जमीन और आजीविका से बेदखली के मुद्दे बहुजन आंदोलन के दायरे से बाहर रहे हैं शुरू से…
आरक्षण बचाओ आंदोलन बनकर रह गया अंबेडकर आंदोलन…
बुनियादी मुद्दों पर वंचितों को सम्बोधित करने के रास्ते पर सबसे बड़ी बाधा बहुजन राजनीति के झण्डावरदार और आरक्षण-समृद्ध पढ़े लिखे लोग हैं…
पलाश विश्वास
बहुजन राजनीति अब तक कुल मिलाकर आरक्षण बचाओ राजनीति रही है। वह आरक्षण जो अबाध आर्थिक जनसंहार की नीतियों, निरंकुश कॉरपोरेट राज, निजीकरण, ग्लोबीकरण और विनिवेश, ठेके पर नौकरी की वजह से अब सिरे से गैरप्रासंगिक है। आरक्षण की यह राजनीति जो खुद मौकापरस्त और वर्चस्ववादी है और बहुजनों में जाति व्यवस्था को बहाल रखने में सबसे कामयाब औजार भी है। आरक्षण की यह राजनीति अंबेडकर के जाति उन्मूलन के एजेंडे को हाशिये पर रखकर अपनी-अपनी जाति को मजबूत बनाने लगी है। अनुसूचित जनजातियों में एक दो आदिवासी समुदायों के अलावा समूचे आदिवासी समूह को कोई फायदा हुआ हो, ऐसा कोई दावा नहीं कर सकता। संथाल औऱ भील जैसी अति पिरचित आजिवासी जातियों को देशभर में सर्वत्र आरक्षण नहीं मिलता। अनेक आदिवासी जातियों को आदिवासी राज्यों झारखंड और छत्तीसगढ़ में ही आरक्षण नहीं मिला है। इसी तरह अनेक दलित और पिछड़ी जातियाँ आरक्षण से बाहर हैं। जिस नमोशूद्र जाति को अंबेडकर को संविधान सभा में चुनने के लिये भारत विभाजन का दंश सबसे ज्यादा झेलना पड़ा और उनकी राजनीतिक शक्ति खत्म करने के लिये बतौर शरणार्थी पूरे देश में छिड़क दिया गया, उन्हें बंगाल और उड़ीशा के अलावा कहीं आरक्षण नहीं मिला। मुलायम सिंह यादव ने उन्हें उत्तर प्रदेश में आरक्षण दिलाने का प्रस्ताव किया तो बहन मायावती ने वह प्रस्ताव वापस ले लिया और अखिलेश ने नया प्रस्ताव ही नहीं भेजा। उत्तराखण्ड में उन्हें शैक्षणिक आरक्षण मिला तो नौकरी में नहीं और न ही उन्हें वहाँ राजनीति आरक्षण मिला है।
जिन जातियों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्थिति आरक्षण से समृद्ध हुयी वे दूसरी वंचित जाति को आरक्षण का फायदा देना ही नहीं चाहतीं। मजबूत जातियों की आरक्षण की यह राजनीति यथास्थिति को बनाये रखने की राजनीति है, जो आजादी की लड़ाई में तब्दील हो भी नहीं सकती। इसलिए बुनियादी मुद्दों पर वंचितों को सम्बोधित करने के रास्ते पर सबसे बड़ी बाधा बहुजन राजनीति के झण्डावरदार और आरक्षण-समृद्ध पढ़े लिखे लोग हैं। लेकिन बहुजन समाज उन्हीं के नेतृत्व में चल रहा है। हमने निजी तौर पर देश भर में बहुजन समाज के अलग अलग समुदायों के बीच जाकर उनको उनके मुहावरे में सम्बोधित करने का निरन्तर प्रयास किया है और ज्यादातर आर्थिक मुद्दों पर ही उनसे संवाद किया है, लेकिन हमें हमेशा इस सीमा का ख्याल रखना पड़ा है।
वैसे ही मुख्यधारा के समाज और राजनीति ने भी आरक्षण से इतर बाकी मुद्दों पर उन्हें अब तक किसी ने सम्बोधित ही नहीं किया है। जाहिर है कि जानकारी के हर माध्यम से वंचित बाकी मुद्दों पर बहुजनों की दिलचस्पी है नहीं, न उसको समझने की शिक्षा उन्हें है और बहुजन बुद्धिजीवी, उनके मसीहा और बहुजन राजनीति के तमाम दूल्हे मुक्त बाजार के कॉरपोरेट जायनवादी, धर्मोन्मादी महाविनाश को ही स्वर्णयुग मानते हैं और इस सिलसिले में उन्होंने वंचितों का ब्रेनवाश किया हुआ है। बाकी मुद्दों पर बात करें तो वे सीधे आपको ब्राह्मण या ब्राह्मण का दलाल और यहाँ तक कि कॉरपोरेट एजेंट तक कहकर आपका सामाजिक बहिष्कार कर देंगे।
बहुजनों की हालत देशभर में समान भी नहीं है। मसलन अस्पृश्यता का रूप देश भर में समान है नहीं। जैसे बंगाल में अस्पृश्यता उस रूप में कभी नहीं रही है जैसे उत्तर भारत, महाराष्ट्र, मध्य भारत और दक्षिण भारत में। इसके अलावा बंगाल और पूर्वी भारत में आदिवासी, दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों के सारे किसान समुदाय बदलते उत्पादन सम्बंधों के मद्देनजर जल जंगल जमीन और आजीविका की लड़ाई में सदियों से साथ-साथ लड़ते रहे हैं।
मूल में है नस्ली भेदभाव, जिसकी वजह से भौगोलिक अस्पृश्यता भी है। महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश की तरह बाकी देश में जाति पहचान सीमाबद्ध मुद्दों पर बहुजनों को सम्बोधित किया ही नहीं जा सकता। आदिवासी जाति से बाहर हैं तो मध्य भारत, हिमालय और पूर्वोत्तर में जाति व्यवस्था के बावजूद अस्पृश्यता के बजाय नस्ली भेदभाव के तहत दमन और उत्पीड़न है।
उत्पादन प्रणाली को ध्वस्त करने, कृषि को खत्म करने की जो कॉरपोरेट-जायनवादी-धर्मोन्मादी राष्ट्र व्यवस्था है, उसे महज अंबेडकरी आन्दोलन और अंबेडकर के विचारों के तहत सम्बोधित करना एकदम असम्भव है। फिर भारतीय यथार्थ को सम्बोधित किये बिना साम्यवादी आंदोलन के जरिये भी सामाजिक शक्तियों की राज्यतंत्र को बदलने के लिये गोलबन्द करना भी असम्भव है।
ध्यान देने की बात है कि अंबेडकर को महाराष्ट्र और बंगाल के अलावा कहीं कोई उल्लेखनीय समर्थन नहीं मिला। पंजाब में जो बाल्मीकियों ने समर्थन किया, वे लोग भी कांग्रेस के साथ चले गये। बंगाल से अंबेडकर को समर्थन के पीछे बंगाल में तबदलित-मुस्लिम गठबंधन की राजनीति रही है, भारत विभाजनके साथ जिसका पटाक्षेप हो गया। अब बंगाल में विभाजनपूर्व दलित आंदोलन का कोई चिन्ह नहीं है। बल्कि अंबेडकरी आंदोलन का बंगाल में कोई असर ही नहीं हुआ है। अंबेडकर आंदोलन जो है, वह आरक्षण बचाओ आंदोलन के सिवाय कुछ है नहीं। बंगाल में नस्ली वर्चस्व का वैज्ञानिक रूप अति निर्मम है, जो अस्पृश्यता के किसी भी रूप को लज्जित कर दें। यहाँ शासक जातियों के अलावा जीवन के किसी भी प्रारूप में अन्य सवर्ण असवर्ण दोनों ही वर्ग की जातियों का कोई प्रतिनिधित्व है ही नहीं। अब बंगाल के जो दलित और मुसलमान हैं, वे शासक जातियों की राजनीति करते हैं और किन्हीं किन्हीं घरों में अंबेडकर की तस्वीर टाँग लेते हैं। अंबेडकर को जिताने वाले जोगेंद्रनाथ मंडल या मुकुंद बिहारी मल्लिक की याद भी उन्हें नहीं है।
इसी वस्तु स्थिति के मुखातिब हमारे लिये अस्पृश्यता के बजाय नस्ली भेदभाव बड़ा मुद्दा है जिसके तहत हिमालय और पूर्वोत्तर तबाह है तो मध्य भारत में युद्ध परिस्थितियाँ हैं। जन्मजात हिमालयी समाज से जुड़े होने के कारण हम वहाँ की समस्याओं से अपने को किसी कीमत पर अलग रख नहीं सकते और वे समस्याएं अंबेडकरी आंदोलन के मौजूदा प्रारुप में किसी भी स्तर पर सम्बोधित की ही नहीं जा सकती जैसे आदिवासियों की जल जंगल जमीन और आजीविका से बेदखली के मुद्दे बहुजन आंदोलन के दायरे से बाहर रहे हैं शुरू से।
ऐसे में अंबेडकर का मूल्याँकन नये सन्दर्भों में किया जाना जरूरी ही नहीं, मुक्तिकामी जनता के स्वतंत्रता संग्राम के लिए अनिवार्य है।
हमारी पूरी चिंता उन वंचितों को सम्बोधित करने की है, जिनके बिना इस मृत्युउपत्यका के हालात बदले नहीं जा सकते। किसी खास भूगोल या खास समुदाय की बात हम नहीं कर रहे हैं, पूरे देश को जोड़ने की वैचारिक हथियार से देशवासियों के बदलाव के लिये राजनीतिक तौर पर गोलबंद करने की चुनौती हमारे सामने है, क्योंकि बदलाव के तमाम भ्रामक सब्जबाग सन् सैंतालीस से आम जनता के सामने पेश होते रहे हैं और उन सुनामियों ने विध्वंस के नये-नये आयाम ही खोले हैं।
"आप" का उत्थान कॉरपोरेट राजनीति का कायकल्प है जो सामाजिक शक्तियों की गोलबन्दी और अस्मिताओं की टूटन का भ्रम तैयार करने का ही पूँजी का तकनीक समृद्ध प्रायोजिक आयोजन है। इसका मकसद जनसंहार अश्वमेध को और ज्यादा अबाध बनाने के लिये है। लेकिन वे संवाद और लोकतंत्र का एक विराट भ्रम पैदा कर रहे हैं और नये तिलिस्म गढ़ रहे हैं। उस तिलिस्म को ढहाना भी मुक्तिकामी जनता के हित में अनिवार्य है।
अगर बहुजन राजनीति का अभिमुख बदलने की मंशा हमारी है तो आनंद तेलतुंबड़े, कांचा इलेय्या, एचएल दुसाध, उर्मिलेश, गद्दर, आनंद स्वरुप वर्मा जैसे तमाम चिंतकों और सामाजिक तौर पर प्रतिबद्ध तमाम लोगों से हमें संवाद की स्थिति बनानी पड़ेगी। ये लोग बहुजन राजनीति नहीं कर रहे हैं। अंबेडकर के पुनर्मूल्यांकन अगर होना है तो संवाद और विमर्श से ऐसे लोगों के बहिष्कार से हम बहुजन मसीहा और दूल्हा संप्रदायों के लिये खुला मैदान छोड़ देंगे, जो बहुजनों का कॉरपोरेट वधस्थल पर वध की एकमुश्त सुपारी ले चुके हैं।
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