Thursday, January 16, 2014

धसाल के बहाने शैलेश मटियानी की प्रेतमुक्ति

धसाल के बहाने शैलेश मटियानी की प्रेतमुक्ति


पलाश विश्वास


नामदेव धसाल  लिखे हस्तक्षेप में प्रकाशित आलेख की लिंक बांग्ला विद्वतजनों के ग्रुप गुरुचंडाली में जारी करने पर मुझे चेतावनी दे दी गयी,तो मैं उस ग्रुप से बाहर हो गया। अब इस आलेख के लिए इंटरनेट सर्वर से भी हमारी शिकायत दर्ज कराय़ी गयी,जिस माध्यम के जरिये हम बात करते हैं,वहां से भी चेतावनी जारी हो चुकी है।जाहिर है कि मित्रों,इस माध्यम से संवाद जारी रखना अब मुश्किल है।


नामदेव धसाल बेहतरीन कवि ही नहीं हैं,हम उन्हें विश्वकवि तो नहीं कहते न हम ओम प्रकाश बाल्मीकी को प्रेमचंद से बड़ा कथाकार मानेंगे और न धसाल को मुक्तिबोध से बड़ा कवि,लेकिन दलित पैंथर आंदोलन के जरिये अपने कवित्व से बड़ा योगदान धसाल कर गये हैं।


धसाल बना दिये जाने की प्रक्रिया से निकलने को बेताब हिंदी के एक और बहुजन लेखक एचएल दुसाध जी ने अपनी श्रद्धांजलि में धसाल और दलित पैंथर आंदोलन का सटीक मूल्यांकन किया है,जिसे हमने पहले ही आपके साथ साझा किया है।


धसाल को हिंदुत्व में समाहित करने लायक परिस्थितियां बनाने का जिम्मेदार अंबेडकरी विचलित आंदोलन का जितना है,उससे कम प्रगतिशील खेमे का नहीं है।


इसी सिलसिले में शैलेश मटियानी के त्रासद हश्र पर भी विवेचन जरुरी है,जो बाल्मीकि और तमाम मराठी साहित्यकारों से भी पहले दलित आत्मकथ्य लिख रहे थे,जिन्हें कसाई पुत्र होने की हैसियत से लेखक बनने की वजह से मुंबई भाग जाना पड़ा,फिर सुप्रतिष्ठित होने के बावजूद  इलाहाबाद की साहित्य बिरादरी में अलगाव में रहना पड़ा।


बहुजनों ने शैलेश मटियानी और उनके साहित्य को जाना नहीं,अपनाया नहीं,पहाड़ चढ़ने की इजाजत भी उस कसाईपुत्र को  थी नहीं।


अल्मोड़ा में किंवदंती सरीखा किस्सा प्रचलित है कि किसी सवर्ण लड़की से प्रेम की वजह से वे हमेशा के लिए हिमालय से निष्कासित कर दिया और देवभूमि ने आजतक बाद में उनके हिंदुत्व में समाहित हो जाने के बाद उनके अतीत के इस कथित दुस्साहस के लिए उन्हें माफ नहीं किया।वे हल्द्वानी में ही स्थगित हो गये।


हमने सत्तर के दशक में देखा,हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी शैलेश मटियानी की कहानी प्रेतमुक्ति को सर्वश्रेष्ठ कहानी मानते थे।


हमसे कभी संवाद की स्थिति में न होने के बावजूद लक्ष्मण सिंह बिष्ट उनके प्रशंसक थे,तो पूरे पहाड़ में तब शायद सन तिहत्तर चौहत्तर में गढवाल से प्रकाशित होने वाली पत्रिका अलकनंदा के एक शैलेश मटियानी केंद्रित अंक के सिवाय हमें लिखित पढ़त में पहाड़ के लोगों की ओर से शैलेश मटियानी के समर्थन में आज तक कुछ देखने को नहीं मिला।


मेरे सहपाठी प्रिय सहयात्री कपिलेश भोज और हम अचंभित थे पहाड़ में शैलेश मटियानी के सामाजिक साहित्यिक बहिस्कार से जबकि शिवानी की भी पहाड़ में भयानक प्रतिष्ठा थी,है।


प्रगतिशील खेमा ने शैलेश मटियानी जी को कभी नहीं अपनाया और जब अपने बेटे की इलाहाबाद में बम विस्फोट से  मृति्यु के बाद सदमे में इलाहाबाद छोड़कर वे हल्द्वानी आकर बस गये और धसाल की तरह ही हिंदुत्व में समाहित हो गये,तब शैलेश मटियानी के तमाम संघर्ष और उनके रचनात्मक अवदान को एक सिरे से खारिज करके तथाकथित जनपक्षधर प्रगतिशील खेमा ने हिंदी और प्रगतिशील साहित्य का श्राद्धकर्म कर ही दिया।शैलेश मटियानी की लेखकीय प्रतिष्टा से जले भुने लोगों को बदला चुकाने का मौका आखिर मिल गया।


धर्मवीर भारती के खिलाफ मानहानि मुकदमा के जरिये आदिविद्रोही शैलेश मटियानी ने हिंदी के संपादकों,पत्रकारों, आलोचकों,प्रकाशकों और देशभर में उन्हें केंद्रित हिंदी और हिंदी समाज के चहुंमुखी सत्यानाश के लिए प्रतिबद्ध माफिया समाज के खिलाफ महाभियान छेड़ दिया था,जिसका अमोघ परिणाम भी उन्होंने भुगत लिया और ताज्जुब की बात हिंदी समाज में किसी ने न उफ किया और न आह। अपने ही समाज के सबसे बड़े लेखक को अर्श से फर्श पर पछाड़ दिये जाने की खबर तो खैर बारतीयबहुसंख्यबहुजन समाज को हो ही नहीं सकी है।लावारिश से शैलेश मटियानी की यह प्रेतगति तो होनी ही थी।


धसाल हिंदुत्व में समाहित थे और गैरप्रासंगिक है,ऐसा फतवा देना हगने मूतने जैसी सरलतम क्रिया है और इसका वास्तव में न कोई यथार्थ है और न सौंदर्यबोध। लेकिन इससे भी जरुरी सवाल है कि आखिर वे कौन सी परिस्थितियां है कि हमारे सबसे जाबांज,समर्थ और प्रतिबद्ध लोग अपनी राह छोड़कर आत्मध्वंस के लिए मजबूर कर दिये जाते हैं।


यह एक सुनियोजित प्रक्रिया है,जिसके तहत जनप्रतिबद्ध जनमोर्चे पर आदमकोर बाघों का हमला निरंतर जारी है। धसाल और मटियानी अतीत में स्वाहा हो गये,अब देखते रहिये कि आगे किसकी बारी है।हमारे ही अपने लोग घात लगाये बैठे होते हैं कि मौका मिले तो रक्तमांस का कोई पिंड हिस्से में आ जाये।


जाहिर है कि शैलेश मटियानी की प्रेतमुक्ति असंभव है।अंबेडकरी बहुजन खेमा तो शायद ही शैलेश मटियानी को जानते होंगे क्योंकि उन्होंने जाति पहचान के तहत न लेखन किया और न जीवन जिया है।वे अस्मिता परिधि को अल्मोड़ा से भागते हुए वहीं छोड़ चुके थे।


विष्णु खरे का धसाल के प्रति जो रवैया है ,वह अभिषेक को गरियाते हुए नाम्या को मौकापरस्त करार देने के बाद धसाल की मृत्यु के बाद बीबीसी पर उनके रचनाकर्म के महिमामंडन की अतियों तक विचलित है।


खरे जी हमारे अत्यंत आदरणीय संपादक और कवि हैं,उनका जैसा कवि संपादक बनने के लिए मुझे शायद सौ जनम लेना पड़े,लेकिन कहना ही होगा कि मसीहाई हिंदी के प्रगतिशील साहित्यकार,संपादक,आलोचक,प्रकाशक गिरोह किसी को भी जब चाहे तब आसमान पर चढ़ा दें और जब चाहे तब किसी को भी धूल चटा दें।


हमारे प्रिय कैंसर पीड़ित कवि मित्र वीरेन डंगवाल और उनके मित्र कवि मंगलेश डबराल की कथा तो आम है कि कैसे उनके खिलाफ निरंतर एक मुहिम जारी रही है।


लेकिन हिंदी के तीन शीर्ष कवि त्रिलोचन शास्त्री, बाबा नागार्जुन और शमशेर बहादुर सिंह प्रगति के पैमाने में बार बार चढ़ते उतरते पाये गये हैं।


बाबा तो फकीर थे और उन्हें इस बात की परवाह नहीं थी।संजोग से बाबा नागार्जुन और हमारे प्रियकवि शलभ श्रीराम सिंह उन इने गिने लोगों में थे जो शैलेश मटियानी के लिखे को जनपक्षधरता के मोर्चे का विलक्षण रचनाकर्म मानते थे।


कोलकाता में एक बार त्रिलोचन जी से पंडित विष्णुकांत शास्त्री के सान्निध्य समेत हमारी करीब पांच छह घंटे बात हुई थी,तब उन्होंने प्रगतिशाल पैमाने से तीनों बड़े कवियों के प्रगतिशील प्रतिक्रियाशाल बना देने की परिपाटी का खुलासा किया,जिसका निर्मम प्रहार पहले मटियानी और फिर धसाल पर हुआ।


नैनीताल डीएसबी से एमए अंग्रेजी से पास करने पर अंग्रेजी की मैडम मधुलिका दीक्षित और अपने बटरोही जी के कहने पर शोध के लिए हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय निकल पड़े।बटरोही जी साठ के दशक में मटियानी जी के यहां रहकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ते थे। तो उन्होंने मुझे सीधे मटियानी जी के घर पहुंचने को कहा।


तदनुसार शेखर पाठक से रेल किराया लेकर हम पहाड़ छोड़कर मैदान के बीहड़ जंगल में कूद गये और सहारनपुर पैसेंजर से सुबह सुबह प्रयाग स्टेशन पहुंच गये।वहां से सीधे शैलेश जी के घर,जिन्होंने तुरंत मुझे रघुवंश जी के यहां भेज दिया।रघुवंश जी और मटियानीजी दोनों चाहते थे कि मैं अंग्रेजी में शोध के बजाय हिंदी में एमए करुं।


जिस कमरे में बटरोही जी शैलेश जी के घर ठहरे थे, वह कमरा शायद उनके भतीजे या भांजे का डेरा बन गया था। तब मैं अपना बोरिया बिस्तर उठाकर सीधे सौ,लूकर गंज में इजा की शरण में शेखर जोशी के घर पहुंच गया।


आम पहाड़ियों की आदत के मुताबिक मैंने छूटते ही जैसे मटियानी जी की आलोचना शुरु की तो शेखर दाज्यू ने बस जूता मारने की कसर बाकी छोड़ दी।इतना डांटा हमें,इतना डांटा कि हमें पहले तो यह अच्छी तरह समझ में आ गया कि हर पहाड़ी मटियानी के खिलाफ नहीं है।


फिर यह अहसास जागा कि कोई जेनुइन रचनाकार किसी जेनुइन रचनाकार की कितनी इज्जत करता है।


हम लोग मटियानी जी की बजाय हमेशा शेखरदाज्यू को बड़ा कथाकार मानते रहे हैं। लेकिन उस दिन शेखर जोशी जी ने  साफ साफ बता दिया कि हिंदी में शैलेश मटियानी के होने का मतलब क्या है।


मेरा सौभाग्य है कि मुझे इलाहाबाद में करीब तीन महीने के ठहराव में शैलेश मटियानी और शेखर जी का अभिभावकत्व मिला।मेरे लेखन में भी उनका हमेशा अभिभावकत्व रहा है।


तब लूकरगंज से कर्नलगंज मैं अक्सर पैदल चला करता था।विकल्प के विज्ञापन के जुगाड़ में मैं भी मटियानी जी के साथ भटकता रहा हूं।अमृत प्रभात और लोकवाणी नीलाभ प्रकाशन भी जाता रहा हूं उनके साथ तो व्हीलर के वहां भी।थोड़ पैसे उन्हें मिल जाते थे,तो बेहिचक खाने पर भी बुला लेते थे वे। वह आत्मीयता भुलायी नहीं जा सकती।

लेकिन अंबेडकरी प्रगतिशील दुश्चक्र में मैंने अभी तक इस प्रसंग में कुछ नहीं लिखा था।


आदरणीय खरे जी के सर्कसी करतब से मुझे धसाल प्रसंग में शैलेश जी पर लिखना ही पड़ रहा है,जिनके बारे में धसाल पर बेहतरीन लिखने वाले एचएल दुसाध जी भी नहीं जानते थे कि उनकी समामाजिक पृष्ठभूमि और पहचान क्या थी और बहुजन जीवन का कैसा जीवंत दस्तावेज उन्होंने किसी भी दलित साहित्यकार से बेहतर तरीके से पेश किया है।


फिर जब उन्होंने धर्मवीर भारती के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दर्ज कराया,तब भी मैंने उन्हें नजदीक से देखा है।


इतने गुस्से में थे कि राजीव गांधी से जुड़ जाने के अभियोग के खंडन के लिए सामने होते धर्मवीर भारती तो उन्हें कच्चा चबा जाते।


उनके रोज के संघर्ष,उनके रचनाकर्म के जनपक्ष और उनके पारिवारिक जीवन को बेहद नजदीक से देखने के बाद हम अवाक यह भी देखते गये कि कैसे हिंदी समाज ने संघी होने के आरोप में उनके आजीवन जीवन संघर्ष,सतत प्रतिबद्धता और दलित जीवन के प्रामाणिक जीवंत रचनाकर्म को एक झटके के साथ खारिज कर दिया।लेकिन हमने भी हिंदी परिवेश की तरह अपने पूर्वग्रह से बाहर निकलकर सच कहने की कोशिश नहीं की,यह मेरे हिस्से का अपराध है।


हम सारे लोग बाल्मीकि को प्रेमचंद से बड़ा साहित्यकार साबित करते रहे,लेकिन बहुजन पक्ष के सबसे बड़े कथाकार को पहचानने की कोशिश ही नहीं की और उनके व्यक्तित्व कृतित्व को हमेशा सवर्ण सत्तावर्गीय दृष्टि से खारिज करते चले गये।


यह किसी अकेले धसाल या अकेले मटियानी की त्रासदी नहीं है,मेरे ख्याल से भारतीय बहुजन समाज और उससे कहीं अधिक हिंदी और हिंदी समाज की त्रासदी है।




Ghnalunk Ghlipkriv আপনাকে আগেও জানানো হয়েছে : একসঙ্গে এতগুলো থ্রেড ( রীপিটেসন ও আছে ) খোলার আগে মেম্বারদের রেসপন্স দেখুন . অযথা ফ্লাড করবেননা . প্রচুর থ্রেড খুললে প্রচুর মতামত আসবে এরকম সরলরৈখিক নয় ব্যাপারটা . বুঝতে না চাইলে এবার ব্যবস্থা নিতে বাধ্য হব . Palash Biswas


I am now out of Guruchandali group as they have serious objection to my interactive insertions.Whichever other group or individual is not interested in most important issues that we face and interactive discussion,they may kindly exclude me or unfriend me.Given the limit of networking ,it would rather help me to connect those who happen to be seriously concerned as much as I am.Thanks.I am sorry that Guruchandali being only West Bengal based forum, I opted for it and disturbed the whole lot.However,I would not disturb them in future.


बांग्ला में विमर्श और संवाद का माहौल नहीं है औक संवाद से विद्वतजनों को गहरा ऐतराज है,इसलिए शुरु से जुड़े रहने के बावजूद अब बांग्ला ग्रुप गुरुचंडाली से मैंने अपनी सदस्यता खत्म कर ली है।ऐसे जो भी ग्रुप संवाद के खिलाफ हैं,वे सूचित करें तो मैं उन ग्रुपों की नींद में लगातार खलल जालने के बजायुनसे तुरंत अलग हो जाउंगा।मेरे लगातार पोस्ट से जिन मित्रों का हाजमा खराब हो रहा है,वे अविलंब मुझे अनफ्रेंड कर दें ताकि संवाद के इच्छुक मित्रों को मैं अपने सीमाबद्ध नेटवर्क से जोड़ सकूं।


Dear Palash Babu, I extend my love and gratitude for the detailed coverage at the sad demise of Kavi Namdeo Dhasal, the pioneer poet and activist of Indian Dalit Literary movement. Thanks you once again and I believe that you are the only man/journalist/Dalit from Bengal who can do it.-Manohar Mouli Biswas  

Manohar Biswas

651 V.I.P nagar.

Gouranga Palli.

Kolkata 700100

Tel # : (033) 23451294

Cellular : +919433390044

मनोहर बाबू बांग्ला दलित साहित्य संस्था के संस्थापकों में हैं और बंगाल में मेरी रिहाइस के दौरान शुरु से हम पर उनका विशेष स्नेह है,हम उनके आभारी हैं।

नामदेव धसाल संबंधी लिंक देने पर गुरुचंडाली ने हमें चेतावनी जारी की,जिसके जबावमें मैंन उस ग्रुप से ही अपने को अलग कर लिया।


Ghnalunk Ghlipkriv mentioned you in a comment in গুরুচন্ডা৯ guruchandali.

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Ghnalunk Ghlipkriv

10:30am Jan 16

আপনাকে আগেও জানানো হয়েছে : একসঙ্গে এতগুলো থ্রেড ( রীপিটেসন ও আছে ) খোলার আগে মেম্বারদের রেসপন্স দেখুন . অযথা ফ্লাড করবেননা . প্রচুর থ্রেড খুললে প্রচুর মতামত আসবে এরকম সরলরৈখিক নয় ব্যাপারটা . বুঝতে না চাইলে এবার ব্যবস্থা নিতে বাধ্য হব .Palash Biswas

Original Post

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Palash Biswas

2:51am Jan 16

http://www.hastakshep.com/hindi-news/शख्सियत/2014/01/15/धसाल-हिंदू-राष्ट्रवाद-मे

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धसाल- हिंदू राष्ट्रवाद में स‌माहित हो गये, तो उनसे स‌ंवाद की प्रयोजनीयता महसूस ही नहीं हुयी

दलित पैंथर,कवि पद्म श्री नामदेव धसाल नहीं रहे पलाश विश्वास पिछले ही स‌ाल दिवंगत स‌ाहित्यकार ओम प्रका...




  • प्रचंड नाग आप ग्रुप्स पर निर्भर न रहें । अपनी वाल में लिखें । गुस्ताखी माफ करें अगर मैं यह कहूँ कि एक बार में उतना ही लिखें जितना पब्लिक डाइजेस्ट कर सके । फेसबुक की पब्लिक संवाद करना चाहती है और भाषण पसंद नहीं करती ।

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Anita Bharti

आज सुबह 4 बजे मराठी के सुप्रसिद्ध रचनाकार नामदेव ढसाल जी परिनिर्वाण हो गया है। सादर पुष्पांजलि अर्पित करते हुए उनकी अपनी लिखी हुई सबसे प्रिय कविता पोस्ट कर रही हूँ।

मुझे नहीं बसाना है अलग से स्वतंत्र द्वीप

मेरी फिर कविता, तू चलती रह सामान्य ढंग से

आदमी के साथ उसकी उँगली पकड़कर,

मुट्ठीभर लोगों के साँस्कृतिक एकाधिपत्य से किया मैंने ज़िन्दगी भर द्वेष

द्वेष किया मैंने अभिजनों से, त्रिमितिय सघनता पर बल देते हुए,

नहीं रंगे मैंने चित्र ज़िन्दगी के ।


सामान्य मनुष्यों के साथ, उनके षडविकारों से प्रेम करता रहा,

प्रेम करता रहा मैं पशुओं से, कीड़ों और चीटियों से भी,

मैंने अनुभव किए हैं, सभी संक्रामक और छुतही रोग-बीमारियाँ

चकमा देने वाली हवा को मैंने सहज ही रखा है अपने नियंत्रण में

सत्य-असत्य के संघर्ष में खो नहीं दिया है मैंने ख़ुद को

मेरी भीतरी आवाज़, मेरा सचमुच का रंग, मेरे सचमुच के शब्द

मैंने जीने को रंगों से नहीं, संवेदनाओं से कैनवस पर रंगा है


मेरी कविता, तुम ही साक्षात, सुन्दर, सुडौल

पुराणों की ईश्वरीय स्त्रियों से भी अधिक सुन्दर

वीनस हो अथवा जूनो

डायना हो या मैडोना

मैंने उनकी देह पर चढ़े झिलमिलाते वस्त्रों को खांग दिया है


मेरी प्रिय कविता, मैं नहीं हूँ छात्र 'एकोल-द-बोर्झात' का

अनुभव के स्कूल में सीखा है मैंने जीना, कविता करना : चि निकालना

इसके अलावा और भी मनुष्यों जैसा कुछ-कुछ

शून्य भाव से आकाश तले घूमना मुझे ठीक नहीं लगता,


बादलों के सुंदर आकार आकाश में सरकते आगे आते-जाते हुए

देखने से भर जाता है मेरा अंतरंग ।

मैं तरोताज़ा हो जाता हूँ, सम्भालता हूँ, समकालीन जीवन की

सामाजिकता को ।

धमनियों से बहता रक्त का ज़बरदस्त रेला,

तेज़ी से फड़फड़ाने वाली धमनी पर उँगली रखना मुझे अच्छा

लगता है ।


जिस रोटी ने मुझे निरंतर सताया,

वह रोटी नहीं कर पाई मुझे पराजित,

मैंने पैदा की है जीवन की आस्था

और लिखे हैं मैंने जीने के शुद्ध-अभंग

मनुष्य क्षण भर को अपना दुख भूले-बिसार दे

कविता की ऐसी पंक्ति लिखने की कोशिश की मैंने हमेशा,

भौतिकता की उँगली पकड़कर मैं चैतन्य के यहाँ गया,

परन्तु वहाँ रमना संभव नहीं था मेरे लिए, उसकी उँगली पकड़

मैं फिर से भौतिकता की ओर ही आया,

अस्तित्त्व-अनस्तित्त्व के बीच स्थित

बाह्य रेखाओं का अनुभव मैंने किया है,

मैंने अनुभव किया है साक्षात ब्रह्माण्ड

कविता मेरी, बताओ

इससे अधिक क्या हो सकता है

किसी कवि का चरित्र ?


हे मेरी प्रिय कविता

नहीं बसाना है मुझे अलग से कोई द्वीप,

तू चलती रह, आम से आम आदमी की उँगली पकड़

मेरी प्रिय कविते,

जहाँ से मैंने यात्रा शुरू की थी

फिर से वहीं आकर रुकना मुझे नहीं पसंद,

मैं लाँघना चाहता हूँ

अपना पुराना क्षितिज ।


(मूल मराठी से सूर्यनारायण रणसुभे द्वारा अनूदित)

(कविता कोश से साभार)

Uday Prakash

अलविदा कवि-क्रांतिकारी

नामदेव ढसाल (१५ फरवरी १९४९-१५ जनवरी, २०१४)



''आज हमारा जो भी कुछ है

सब तेरा ही है

यह जीवन और मृत्यु

यह शब्द और यह जीभ

यह सुख और दुख

यह स्वप्न और यथार्थ

यह भूख और प्यास

समस्त पुण्य तेरे ही हैं''

(बाबा साहेब अंबेडकर के लिए लिखी गयी नामदेव ढसाल की कविता के अंश)


''The Self sheds its dead skin in water

Again a growing creeper climbs the new skin

The tree of yearning that begins to burn in the artificial summer /

Beyond them are your sailorly eyes and the lightning flashing in them/

From somewhere in your absece comes the signal

And the sea arrives strolling to the shore.....''

(From Khel, 1983, Trans: Dilip Chitre)

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Dilip C Mandal

नामदेव ढसाल साहब को नमन. वे आजादी के बाद के देश के सबसे शानदार व्यक्तित्वों में से एक हैं. वंचित समूहों के सामाजिक आंदोलनों का ठाट और गौरव आप उनमें देख सकते हैं. उन्होंने सिखाया कि जीत नामुमकिन दिखे तो भी चलो, लड़ते हैं. जीत के लिए न सही, सच के लिए और न्याय के लिए. बाबा साहब के निधन के बाद लंबे सन्नाटे को तोड़ने के लिए दलित पैंथर मूवमेंट की जरूरत थी. ढसाल साहब ने उस जरूरत को पूरा किया और जोरदार तरीके से यह काम किया.


ढसाल साहब की राजनैतिक यात्रा की सीमाओं को लेकर जो लोग इस समय तुच्छ बातें कर रहे हैं, वे ढूंढ लें अपने लिए शुद्ध देसी गाय का घी या 24 कैरेट के अपने नायक और नायिकाएं. आदमी अपनी कमजोरियों के साथ ही महान या जैसा भी है, वैसा होता है. मेरी नजर में ढसाल साहब महान रहेंगे.


सादर नमन ढसाल साहब. आप याद आएंगे.

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Abhiram Mallick

On the occasion of Viswa Ratna Boddhisatwa Baba saheb Dr.Bhimrao Ambedkars Mahaparinirvan Diwas 6th dec.2013. at Angul.Organised by Baba Saheb Ambedkar Foundation.Angul.

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Abhiram Mallick

State level special discussion about Unification of State dalit-Adivasi Organisations at Buddha vihar,Bhubaneswar.

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Amalendu Upadhyaya

मुख्यधारा के किसी भी बड़े चैनल ने देश की इस सबसे बड़ी रैली का लाइव कवरेज नहीं किया वे किसी 'बिन्नी' में व्यस्त थे। यह मीडिया का वह चरित्र है जिसे लेकर क्षेत्रीय दल सवाल उठाते रहते हैं और आज मायावती ने भी उठाया।

हवाई राजनीति करने वालों के लिये सन्देश है मायावती की सावधान रैली

hastakshep.com

दिल्ली में जितने वोटों पर सरकार बन जाती है उससे ज्यादा लोग आज मायावती की लखनऊ की रैली में मौजूद थे अंबरीश कुमार लखनऊ 15 जनवरी। बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने आज फिर अपनी वह जमीनी ताकत दिखाई जिसके लिये वे मशहूर हैं। छोटे-मोटे राज्य में जितने वोटों पर सरकार बन जाती है…

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Dalit Mat

बसपा रैली (15 जनवरी) की झलक।

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Dilip C Mandal

नामदेव ढसाल के दम का भारतीय साहित्य में पिछले 50 साल में मुझे तो कोई नजर नहीं आता. बाकी आप लोग ज्ञानी हैं बताएं.

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Faisal Anurag

महेंद्र सिंह ने आदिवासिओं दलितों अल्संख्यकों और समाज के वंचित समूहों के समाजिक आर्थिक इन्साफ के संघर्ष को वर्ग चेतना से लैस झारखंड विरासत को आज के सन्दर्भ में गति दिया। उनकी हत्या के राजनीतक सूत्रधार एक बड़ी पार्टी का राज्य प्रमुख बना दिया गया और पोलिवे अधिकारी रिटायर हो कर मानवाधिकार संगठन के साथ उसी पार्टी का हिसा बना हुआ है। महेन्द्रजी के लिए साम्पर्दायिक फासीवाद एक बड़ा सवाल था ।हम इन ताकतों को ज़मींदोज़ कर ही उन्हें सच्ची श्रधांजलि दे सकते हैं। महेंद्र सिंह की तरह लड़ना होगा ताकि समुन्नत झारखण्ड की लड़ाई मुकाम तक पहुंचे। इसका कोई सरल राह नहीं है ना ही कोई अवसरवादी तरीका।

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Ak Pankaj

पता नहीं कौन इतना भोला है जो वे अभी भी यही कह रहे हैं सूरज सात घोड़ों पर सवार हो धरती की परिक्रमा कर रहा है. दिलचस्प यह भी कि वे खुद को विज्ञान का आधिकारिक विद्यार्थी कहते हैं.


सगीना, लड़ाई सचमुच बहुत मुश्किल है संगी.

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  • गंगा सहाय मीणा, Manish Ranjan and 10 others like this.

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  • Rash Bihari Lal बीरसा मुण्डा को भी हम धरती आबा कहते है !! मतलब हम ऊनहे देव की ऊपाधी देते है ऐसा मेरा बिचार है

  • 58 minutes ago · Like · 1

  • Pramod Sharma अच्छा, ये घोड़े सात ही क्यों हैं, छ: या आठ क्यों नहीं?

  • 44 minutes ago · Like · 1

  • Ak Pankaj सात ऋषि, सात जनम, सात फेरे, सात दिन, सात बहन ... सात घोड़े. पता नहीं कोई संबंध इनका है या नहीं.

  • 41 minutes ago · Like

  • Ak Pankaj भाई रास बिहारी धरती आबा का मतलब देव नहीं धरती पिता होता है. धरती का रखवाला जो आदिवासी विश्वास है.

  • 39 minutes ago · Like · 1

Ashok Dusadh

बड़ा दिलचस्प है ब्राह्मणवाद को समझना --

एक ब्राह्मण या भूमिहार (राजपूत कम ही होते है ) कम्युनिष्ट हो जाता है .

एक दलित को जन्मजात कम्युनिष्ट मान लेता है .

ब्राह्मण लाल पीला धागा बंधता है और वर्णवाद का विरोध करने की उसकी न आवश्यकता है न जरूरत .

दलित जब वर्णवाद पर सवाल उठाता है और कहता है आप थोडा साइड घसको हमे आगे आने दो .

ब्राह्मण /भूमिहार कम्युनिष्ट कहता है तुम जातिवादी हो ,हमे जात का सवाल नहीं उठाना चाहिए हम कम्युनिष्ट है .

दलित कहता है की तुम काहे का कम्युनिष्ट जब तुम्हे गैर बराबरी से कोई मतलब ही नहीं

कम्युनिष्ट उस दलित को बदनाम करता है देखो यह कम्युनिष्ट विरोधी है ,मार्क्सवाद का विरोधी है !!


उसी तरह सारे सेठ लोग और खास आदमी आम आदमी हो गए है .

सवाल उठाने पर तुरंत कहेंगे ये देखो यह 'आम आदमी' विरोधी है !!

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Jagadishwar Chaturvedi

कवि नामदेव ढसाल का निधन,उनकी स्मृति में पढ़ें-


मेरी प्रिय कविता / नामदेव ढसाल


मुझे नहीं बसाना है अलग से स्वतंत्र द्वीप...See More

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Ak Pankaj

सगीना महतो की बांहों में जब क्रांतिकारी अमल दम तोड़ रहा होता है तो वह कहता है, 'तुम तो हमारे भाई हो. हमारे जैसे. हम तुम्हारी शहादत बेकार नहीं जाने देंगे. हम सब इस लड़ाई को जारी रखेंगे.' इसके बाद जनांदोलन के साथ गद्दारी और अमल की मौत से गुस्साई जनता छद्म वामपंथी अनिरूद्ध पर टूट पड़ती है.


इस संकल्प के बावजूद भी अगर लोग देश के सगीनाओं यानी आदिवासियों-मूलवासियों और स्त्री सवालों को अस्मितावाद मानते हैं, तो सोचना होगा आखिर वे कौन हैं जो देश के तमाम उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं-अस्मिताओं के साथ एकता नहीं चाहते. किसने रोक रखा है फूले, टंट्या भील, बिरसा मुंडा, फूलो-झानो, भगत सिंह, जतरा टाना और अंबेडकर जैसे लोगों का सपना.

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परसो हमें कुछ कम्प्यूटरों पर अंबेडकर स‌ाहित्य खोजने पर स‌ाइट हैक हो जाने की स‌ूचना मिली थी।इसकी जानकारी तत्काल हमने आनंद तेलतुंबड़े जी को दे दी थी। दलित वायस के हैक हो जाने और अंबेडकर स‌ाहित्यके प्रकाशन में व्यवधान के मद्देनजर यह हमें अत्यंत स‌ंवेदनशील मामला नजर आया।कल हमने रोजनामचा स‌ंवाद नमें इसका जिक्र किया तोादरणीय अशोक बारती जी और अशोक भारती जी ने जानकारी दी कि हमें स‌ावधानी स‌े खोजने की जरुरत है ौर कुछ भी गायब नहीं है।आज भी हमने कुछकंप्यूटर नेटवर्क पर अंबेडकर स‌ाहित्यहासिल करने की कोशिश पर फिर हैकिंग की स‌ूचना के मुखातिब हुए।जबकि मेरे घर ौर दफ्तर के पीसी पर आज दिनभर घर में नेट स‌ेबाहर होने के बाद शाम को अंबेडकर डाटआर्ग खुला।नेटपर बाकी स‌ामग्री जिस अबाध तरीके स‌े खुला ,वैसा अंबेडकर स‌ाहित्य कै स‌ाथ कैसे नहीं है ौर अंबेडकर स‌ाहित्य खोलने के लिए विशे, द&ता की जरुरत क्.ों है।हम आईटी विशेषज्ञ नहीं हैं लेकिन हम विशेषज्ञों की दृष्टि इस ओर खींच रहे हैं कि किसी किसी कंप्यूटर नेटवर्क पर अंबेडकर के हैक हो जाने का तकनीकी मतलब क्या है और ऎसी स‌मस्या स‌े कैसे निपटा जा स‌कता है।

नामदेव ढसाल की राजनीति के संदर्भ में विष्‍णुजी बीबीसी पर लिखते हैं कि ''इस दिग्भ्रमित, नासमझ अवसरवादिता का कोई भी कुप्रभाव उसकी कविता पर सिद्ध नहीं किया जा सकता''।

बड़ी दिलचस्‍प बात है। क्‍या किसी कवि की कविता और राजनीति अविच्छिन्‍न हो सकती है? क्‍या कविता कुछ और हो और राजनीति कुछ और, तो चलेगा? ''...सिद्ध नहीं किया जा सकता'' लिखकर क्‍या विष्‍णु खरे यह समझाना चाह रहे हैं कि किसी कवि की राजनीति का प्रभाव उसकी कविता पर अगर ''सिद्ध'' न किया जा सके, तो कवि ''चूत्‍या बनाने वाली राजनीति'' करने के लिए स्‍वतंत्र है?

Panini Anand Ashutosh Kumar Arvind Shesh Anita Bharti Ashok Dusadh Mangalesh Dabral Ranjit VermaRangnath Singh Prabhat Ranjan Hareprakash Upadhyay Uday Prakash Pankaj Srivastava Reyazul Haque Kanwal Bharti Ramji Yadav Palash Biswas

जनपथ : मूर्खों सावधान, मैं सिंह हूं जो तुम्‍हें आहार बना सकता हूं: विष्‍णु खरे

www.junputh.com

विष्‍णु खरे का इशारा पाणिनी आनंद की वेबसाइट www.pratirodh.com की तरफ था जिस पर उन्‍होंने विष्‍णु जी और मेरी जवाबी चिट्ठी निम्‍न शीर्षक से लगाई है

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  • Reyazul Haque, Ashok Dusadh and 6 others like this.

  • Palash Biswas अभिषेक ,यह मुद्दा अत्यंत गंभीर है।आज नामदेव धसाल पर लिखते हुए लगा कि हम लोगों ने शैलेश मटियानी को भी हिंदुत्व में स‌माहित हो जाने दिया और अपनी जनप&धरता की विरासत कायदे स‌े स‌हेजने की तमीज और तहजीब हमारी नहीं है।हमारे आदरणीय लोग खेमापरस्ती के मुताबिक राय पेंडलुम की तरह बदलते रहते हैं।िस पर अब खुली बहस हो ही जानी चाहिए।मुझे थोड़ा वक्त दो,विस्तार स‌े लिकने वाला हूं।अंबेडकरी मसीहा स‌े कम नुकसान हमें आत्मध्वंसी प्रगतिशील। खेमे स‌े नहीं हुआ ौर इस प्रवृत्ति पर अभी स‌े अंकुश लगाने की जरुरत हैचाहे िससे हमारे मित्र नाराज हों या तमाम आदरणीय।


H L Dusadh Dusadh

23 hours ago ·

  • श्रद्धांजलि
  • नहीं रहे दलित पैंथर के संस्थापक :नामदेव ढसाल
  • एच एल दुसाध
  • मित्रों!एक माह पूर्व मैंने विश्वकवि नामदेव ढसाल की अस्वस्थ्यता से आपको अवगत कराया था.पहले से ही कई रोगों से जर्जरित ढसाल साहब विगत कुछ माह से बॉम्बे हॉस्पिटल में पड़े-पड़े कैंसर से लड़ रहे थे.किन्तु आज 15 जनवरी की सुबह 4.30 बजे जालिम कैंसर के खिलाफ उनकी लड़ाई खत्म हो गयी.मैं दून एक्सप्रेस में सवार कोलकाता से बनारस जा रहा था.सुबह पौने पांच बजे मोबाइल घनघना उठा.गहरी नीद से जगकर जब जेब से मोबाइल निकाला,स्क्रीन पर दलित पैंथर के महासचिव सुरेश केदारे का नाम देखकर कुछ अप्रिय संवाद की आशंका से मैं काँप उठा.मोबाइल ऑन किया तो भाई केदारे ने रोते हुए बताया कि दादा नहीं रहे.मैं स्तब्ध रह गया.१०-१५ मिनटों तक सदमे में रहने के बाद मैंने सबसे पहले पलाश विस्बास,डॉ विजय कुमार त्रिशरण और ललन कुमार को फोन पर सूचना दी.कई और मित्रों को भी फोन लगाया पर गहरी नीद में होने कारण उनका रिस्पोंस नहीं मिला.फिर एक –एक कर बुद्ध सरण हंस,डॉ ,डॉ संजय पासवान,अरुण कुमार त्रिपाठी,वीर भारत तलवार ,सुधीन्द्र कुलकर्णी,अजय नावरिया,शीलबोधि वगैरह को एसएमएस कर दुखद समाचार की सूचना दी.
  • मित्रों अपनी पिछली मुंबई यात्रा के दौरान मैंने संकल्प लिया था कि अगले डेढ़-दो साल में ढसाल साहब की जीवनी पुस्तक के रूप में आपके समक्ष लाऊंगा.अब उनके नहीं रहने पर उनकी बायोग्राफी लिखना और जरुरी हो गया है.अभी तक उनके विषय में जो सूचनाएं संग्रहित कर पाया हूँ उसके आधार पर दावे के साथ कह सकता हूँ कि धरती के नरक(रेड लाईट एरिया) से निकल कर पूरी दुनिया में ढसाल जैसी कोई विश्व स्तरीय शख्सियत सामने नहीं आई है.दुनिया में एक से एक बड़े लेखक,समाज सुधारक,राजा –महाराजा ,कलाकार पैदा हुए किन्तु जिन प्रतिकूल परिस्थितियों को जय कर ढसाल साहब ने खुद को एक विश्व स्तरीय कवि,एक्टिविस्ट के रूप में स्थापित किया ,वह बेनजीर है.मैंने दो साल पहले 'टैगोर बनाम ढसाल' पुस्तक लिख कर प्रमाणित किया थी कि मानव जाति के समग्र इतिहास में किसी भी विश्वस्तरीय कवि ने दलित पैंथर जैसा मिलिटेंट आर्गनाइजेशन नहीं बनाया.दुनिया के दुसरे बड़े लेखक-कवियों ने सामान्यतया सामाजिक परिवर्तन के लिए पहले से स्थापित राजनीतिक/सामाजिक संगठनों से जुड़कर बौद्धिक अवदान दिया.किन्तु किसी ने भी ढसाल की तरह उग्र संगठन बनाने की जोखिम नहीं लिया.दलित पैंथर के पीछे कवि ढसाल की भूमिका का दुसरे विश्व –कवियों से तुलना करने पर मेरी बात से कोई असहमत नहीं हो सकता.इसके लिए आपका ध्यान दलित पैंथर की खूबियों की ओर आकर्षित करना चाहूँगा.
  • अब से चार दशक 9 जुलाई 1972 को विश्व कवि नामदेव ढसाल ने अपने साथी लेखकों के साथ मिलकर 'दलित पैंथर' जैसे विप्लवी संगठन की स्थापना की थी.इस संगठन ने डॉ.आंबेडकर के बाद मान-अपमान से बोधशून्य दलित समुदाय को नए सिरे से जगाया था.इससे जुड़े प्रगतिशील विचारधारा के दलित युवकों ने तथाकथित आंबेडकरवादी नेताओं की स्वार्थपरक नीतियों तथा दोहरे चरित्र से निराश हो चुके दलितों में नया जोश भर दिया जिसके फलस्वरूप उनको अपनी ताकत का अहसास हुआ तथा उनमें ईंट का जवाब पत्थर से देने की मानसिकता पैदा हुई.इसकी स्थापना के एक महीने बाद ही ढसाल ने यह घोषणा कर कि यदि विधान परिषद् या संसद सामान्य लोगों की समस्यायों को हल नहीं करेगी तो पैंथर उन्हें जलाकर राख कर देंगे,शासक दलों में हडकंप मचा दिया.
  • दलित पैंथर के निर्माण के पृष्ठ में अमेरिका के उस ब्लैक पैंथर आन्दोलन से मिली प्रेरणा थी जो अश्वेतों को उनके मानवीय,सामाजिक,आर्थिक व राजनैतिक अधिकार दिलाने के लिए 1966 से ही संघर्षरत था.उस आन्दोलन का नामदेव ढसाल और उनके क्रन्तिकारी युवकों पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने ब्लैक पैंथर की तर्ज़ पर दलित मुक्ति के प्रति संकल्पित अपने संगठन का नाम दलित पैंथर रख दिया.जहाँ तक विचारधारा का सवाल है पैन्थरों ने डॉ.आंबेडकर की विचारधारा को न सिर्फ अपनाया बल्कि उसे विकसित किया तथा उसी को अपने घोषणापत्र में प्रकाशित भी किया जिसके अनुसार संगठन का निर्माण हुआ.यद्यपि यह संगठन अपने उत्कर्ष पर नहीं पहुच पाया तथापि इसकी उपलब्धियां गर्व करने लायक रहीं.बकौल चर्चित मराठी दलित चिन्तक आनंद तेलतुम्बडे ,'इसने देश में स्थापित व्यवस्था को हिलाकर रख दिया और संक्षेप में बताया कि सताए हुए आदमी का आक्रोश क्या हो सकता है.इसने दलित राजनीति को एक मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान की जोकि पहले बुरी तरह छूटी थी.अपने घोषणापत्र अमल करते हुए पैन्थरों ने दलित राजनैतिक मुकाम की खातिर परिवर्तनकामी अर्थो में नई जमीन तोड़ी.उन्होंने दलितों को सर्वहारा परिवर्तनकामी वेग की पहचान प्रदान की तथा उनके संघर्ष को दुनिया के अन्य दमित लोगों के संघर्ष से जोड़ दिया.' बहरहाल कोई चाहे तो दलित पैंथर की इन उपलब्धियों को ख़ारिज कर सकता है किन्तु दलित साहित्य के विस्तार में इसकी उपलब्धियों को नज़रंदाज़ करना किसी के लिए भी संभव नहीं है.
  • दलित पैंथर और दलित साहित्य एक ही सिक्के के दो पहलूँ हैं.इसकी स्थापना करनेवाले नेता पहले से ही साहित्य से जुड़े हुए थे.दलित पैंथर की स्थापना के बाद उनका साहित्य शिखर पर पहुँच गया और देखते ही देखते मराठी साहित्य के बराबर स्तर प्राप्त कर लिया .परवर्तीकाल में डॉ.आंबेडकर की विचारधारा पर आधारित पैन्थरों का मराठी दलित साहित्य हिंदी पट्टी सहित अन्य इलाकों को भी अपने आगोश में ले लिया.दलित साहित्य को इस बुलंदी पर पहुचाने का सर्वाधिक श्रेय ढसाल साहब को जाता है.'गोल पीठा'पी बी रोड और कमाठीपुरा के नरक में रहकर ढसाल साहब ने जीवन के जिस श्याम पक्ष को लावा की तरह तपती कविता में उकेरा है उसकी विशेषताओं का वर्णन करने की कुवत मुझमे तो नहीं है.
  • ढसाल साहब और उनकी टीम ने सिर्फ साहित्य सृजन ही नहीं बल्कि मैदान में उतर कर आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी के लिए भी प्रेरित किया.आज हिंदी पट्टी के दलित लेखक अगर मैदान में उतर कर शक्ति के सभी स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन का मुद्दा जोर-शोर से उठा रहे हैं तो उसका बहुलांश श्रेय ढसाल जैसे क्रन्तिकारी पैन्थर को जाता है..
  • दिनांक:15 दिसम्बर,2014 जय भीम-जय भारत-जय ढसाल
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    • You, Dilip C Mandal, Parmeshwar Das, Satyendra Pratap Singh and 36 others like this.

    • Vishram Ram tribute to Let Dhasal .

    • 23 hours ago · Like

    • Satyendra Pratap Singh RIP

    • 23 hours ago · Like

    • Kailash Wankhede जीवनी लिखकर आप इस कमी को पूरा कीजिये .उनका जीवन संघर्ष सभीके सामने आना जरुरी है .

    • 22 hours ago · Like

    • Firoz Mansuri Keraze Akeedat miss u Namdev Dhasal.jai bhim

    • 21 hours ago · Like

    • Chandra Shekhar खबर पढकर गहरी निराशा हुई सर । भगवान उनकी आत्मा को शान्ति देँ । सर आप उनकी बायोग्राफि को पूरा करे

    • 21 hours ago · Like

    • रजक एकता जन चेतना विनम्र श्रद्धांजली..!!!

    • 20 hours ago · Like · 1

    • Rakesh Yadav Aise mahamanav ko bar bar naman sir unki koi achchhi si akele photo post kare

    • 18 hours ago · Like · 1

    • Ajay Rai dukhad . dalet kranti ke jan nayel ko lal salam

    • 16 hours ago · Like · 1

    • Bhoopendra Bauddh सादर नमन।

    • 15 hours ago · Like · 1

    • Shailendra Mani DALIT KRANTI DOOT KO ASRUPURIT SRIDHANJALI

    • 14 hours ago · Like · 1

    • Ashok Dogra Bhavpurna shradanjali

    • 13 hours ago · Like · 1

    • Palash Biswas दुसाध जी,आपने जो लिखा है,उसपर बहस जारी रहेगी।

    • 11 hours ago · Like · 1

    • Santosh Kumar नामदेव जी नही रहे लेकिन उनका जीवन संघर्ष मानव समाज के मुक्तिकमियों के लिए पथप्रदर्शक सितारे कि तरह चमकता रहेगा ।

    • 6 hours ago · Like · 1

    • Kamlesh Kismat Namdev ji ko bhavbhini shridhanjli.

    • 4 hours ago · Like · 1

    • Mahesh Kumar Rajan HUMEIN UNKE JEEVAN SANGHARSH SE PRERNA LEKAR TATHA MAAN -SAMMAN KI PARWAH KIYE BEENA BAHUJANO KO JAGRIT KAR MANUWAAD SE MUKT KARNA HAI.

    • 3 hours ago · Like · 1

    • Kunjan Kesari shrdha suman arpit bhagwan aatma ko santi de

    • 3 hours ago · Like · 1

    • H L Dusadh Dusadh उनकी जीवनी अवश्य सामने आएगी.मेरा मानना है कि ढसाल साहब में जीवन के जो विविध रंग रहे ,वह अन्ययत्र दुर्लभ है.दुनिया भर में कहावत मशहूर है-कीचड़ में कमल खिलता है.खिलता होगा.किन्तु दुनिया भर में मौजूद छोटे-बड़े पीबीरोड,गोल पीठा,कमाठीपुरा के नरक से ढसाल जैसा सिंगल पीस व्यक्ति ही उभरा जिसने साहित्य,राजनीति,एक्टिविज्म को एक साथ विश्व स्तर पर पहुचाया.लोग कहते हैं मैडोना कचरे दान के अन्न पर बचपन गुजारते हुए शोहरत की बुलंदियों को छुई;विश्व श्रेष्ठ फिल्म नायिका सोफ़िया लोरेन इटली के नेपल्स की स्लम बस्ती से निकल हॉलीवुड को धन्य किया ,माइकल टाइसन एवं अन्य कई लोगों ने भी अपार विषम परिस्थितयों में रहकर बुलंदी हासिल की.किन्तु मैडोना,सोफ़िया,टाइसन इत्यादि एक क्षेत्र विशेष में शीर्ष पर पहुंचे .पर धरती के महानरक से निकले ढसाल ने साहित्य ,राजनीति इत्यादि विभिन्न क्षेत्रों में जो कुछ किया वह सर्वस्व-हाराओं की मुक्ति के लिए था.इसलिए मैं कहता हूँ दुनिया में एक से एक महँ हस्तियाँ आईं किन्तु ढसाल कुदरत द्वारा गढ़े गए सिंगल पीस हस्ती रहे.वह भारत में रविन्द्र नाथ टैगोर से बड़े कवि रहे,जिस समय पूर्वांचल में नक्सलवाद यथास्थितिवादियों के लिए आतंक का सबब था ,पश्चिम भारत में वही असर महज़ २२ साल के युवक ढसाल की व्यवस्था-विध्वंसक परिकल्पना से निकली'दलित पैंथर 'का था .यह दलित पैंथर का असर था की १९३४ में जन्मे बहुजन नायक मा.कांशीराम अपने से १५ साल छोटे ढसाल के नेतृत्व में काम करने से खुद को नहीं रोक पाये.नायपाल जैसा नोबेल पुरस्कार विजेता मुंबई आने पर उस नरक को करीब से देखने लिए जाता था,जहाँ से ढसाल जैसा विश्व-रत्न निकला..जिस देश में रातो-रात अन्ना हजारे ,केजरीवाल इत्यादि को गाँधी-जेपी,राम-कृष्ण बना देने की परम्परा रही उस देश की मीडिया और बुद्धिजीवी कायदे से ढसाल का मुल्यायन किये होते तो ढसाल 'नोबेल पुरस्कार'जीत कर इस देश को धन्य कर गए होते.ढसाल साहब के बहु आयामी व्यक्तित्व को देखते हुए कह सकता हूँ कि नोबेल पुरस्कार किसी योग्यता का सूचक है तो भारत उसके सबसे बड़े पात्र ढसाल और ढसाल ही रहे.नोबेल पुरस्कार विजेता रविन्द्र टैगोर से तुलना करने पर कोई भी मेरी बात से सहमत हो सकता है यह भारत भूमि की बदनसीबी है ढसाल के रूप में उसे एक और नोबेल विजेता बही मिल पाया.देश के बुद्धिजीवियों को इसका प्रायश्चित करने की पहलकदमी करनी चाहिए.

    • 3 hours ago · Like · 1

    • Mahesh Kumar Rajan Bharat ka Media to 100% Manuwadi hai. Is desh mein jo Budhijeevi hain wo Imaandaar nahi Hai. Agar Media Imaandaar hoti to Dhashal sahab ko jaroor Nobel Prize milta.

    • 3 hours ago · Like

    • Palash Biswas दुसाध जी,धसाल के बहाने आप पहले छोटे छोटे मंतव्यों के जरिये आज तक के बहुजन आंदोलन के इतिहास की चीरफाढ़ करें और बहुजन स‌ाहित्य की पूरी विरासत को स‌हेजने का काम कर दें,जिसमें आप ।स‌&म है,तो पुस्तक लेखन स‌े भी बेशकीमती होगा आपका यह अवदान,जिसके जरिये देश जोड़ने की दिसा में हम आगे बढ़ेंगे

    • a few seconds ago · Like

    • Palash Biswas वैसे ापके हर आलेख को हम आपकी इजाजत के बिना अपने ब्लागों में डाल रहे हैं।


  • H L Dusadh Dusadh पलाश दा आप सिर्फ मेरे लेखों को ही नहीं,बहुजन हित में जैसे चाहे वैसे खुद मुझे इस्तेमाल कर सकते हैं.अब तो हमारे महानायक ढसाल नहीं रहे कितु उनका कुछ-कुछ अक्स आप में झलकता है.आप और आपकी पत्नी सविता बिस्वास ,जो मेरे लिए सविता दी हैं,का एक इशारा नायक पूजक दुसाध के लिए आदेश जैसा है,जिसकी अवहेलना नहीं कर सकता.

  • 18 minutes ago · Like · 1

  • Palash Biswas हम मसीहा ,नायक,दूल्हा स‌बकुछ देख चुके हैं।अब उस दुश्चक्र स‌े निकलना है।हमारे लिए हर स‌ाथी का महत्व स‌मान है।हर स‌ाथी का मतामत महत्वपूर्ण है ।सिर्फ हमें ेक दूसरे को उनकी भूमिका निबाहने में मदद करनी चीहिए,जो मैं करने की कोशिस करता हूं।कृपया इसे निर्देश न मानें स‌ंवाद तक स‌ीमितरखें तो मुझे प्रसन्नता होगी।हमाे मूरित तोड़ने का स‌िलसिला अपने आचरण स‌े ही शुरु करना चाहिए।हम मूर्ति बनने की कोशिश न करें तो हम इस दुश्चक्री तिलिस्म स‌े अपने लोगों को निकालन का कोई रास्ता जरुर निकाल स‌केंगे।

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Namdeo Dhasal: A poet of the underbelly by Shougat Dasgupta, LiveMint, First Published: Wed, Jan 15 2014. 07 43 PM IST


http://www.livemint.com/Leisure/vaCEvauD0SFLzImbdc9NLL/Namdeo-Dhasal-A-poet-of-the-underbelly.html


Namdeo Dhasal, the radical poet and founder of the Dalit Panther party, dies of illness at the age of 64


It's not for his politics that Namdeo Dhasal will be remembered. Not perhaps even for the Dalit Panthers. He will remembered for his maverick spirit, for the poetry that writer Kiran Nagarkar says "gives it to you in the solar plexus, leaves you unable to breathe". Dhasal died in Mumbai early on Wednesday morning at the age of 64, losing a long, debilitating struggle with illness. He was fighting colon cancer but also suffered from a rare neuromuscular disease.


Speaking on the phone, Kumar Ketkar, the veteran journalist and former editor-in-chief of the Marathi daily Loksatta, said Dhasal was a "complete rebel; he just wanted to be his own self". Ketkar had known Dhasal from the time the latter was a lodestar of Dalit politics, an uncompromising radical on the verge of founding the Dalit Panthers in 1972, an organization, as is apparent from its name, inspired by the political radicalism of the Black Panthers.


Ketkar spoke of a group of young, educated Dalits who were angered by "miserable lives of Dalits in Mumbai chawls despite the work of (B.R.) Ambedkar." They expressed that anger, that frustration through poetry, through verses given impetus and heat by protest.


"Literature first, politics later," as Ketkar put it, a distinctive but appealing attribute for a political movement.


It's a background that made Dhasal a darling of the Left, a radical icon. But Dhasal was not an easy man to co-opt. His support for prime minister Indira Gandhi during the Emergency and later for the Shiv Sena—he wrote a column for the Shiv Sena's newspaper Saamna, and in Anand Patwardhan's 2011 film Jai Bhim Comrade he is shown sharing a stage with Bal Thackeray—lost him many comrades.


The publisher, S. Anand, said in a phone interview that he would rather "savour (Dhasal's) poetry than his politics". In 2007, Anand's press, Navayana, published a comprehensive anthology of Dhasal's poetry translated by the poet and critic Dilip Chitre.


Anand quotes the last three lines from Speculations on a Shirt, one of the poems published in that volume, as a way to explain Dhasal's expansive, contradictory, sometimes ornery character: A human being shouldn't become so spotless / One should leave a few stains on one's shirt / One should carry on oneself a little bit of sin. Chitre, who died in 2009, wrote in an essay that his friend Dhasal's judgement may have been flawed, that his politics "may have been errant", but that he was "transparent and direct, human and honest".


Ketkar believes Dhasal's politics were misunderstood, that he had not shifted to the right but retained his core allegiances to the disenfranchised, the poor and the radical.


"Essentially," Ketkar says, "the Shiv Sena was a loud and spontaneous movement of anger and protest. Dhasal wasn't moved by the Shiv Sena's ideology but by the fact that most of its members were working class." Even his support for Indira Gandhi during the Emergency, Ketkar says, was because of her land reforms, her willingness to waive loans to villagers.


His politics may have appeared "superficially incoherent, but he did not want to be disconnected from the masses, from their concerns".


There was nothing incoherent about his poetry, about the white heat not of his anger but of his genius. V.S. Naipaul wrote at considerable length about Dhasal in A Million Mutinies Now but, Chitre argued, he had misunderstood Dhasal as a kind of rage poet. As crude as Dhasal reportedly was in speech and manner, he was a profoundly schooled and sophisticated poet. His position was adversarial, his use of the demotic calculated to shock.


It was more than just epater le bourgeois (shock to the middle-class), it was an aesthetic choice.


The critic Ranjit Hoskote said in a phone conversation that Golpitha, his 1973 masterpiece, was "still startling in the manner in which Dhasal creatively profanes language, desacralizes it." Anand describes the same poem as "absolutely breathtaking", as still giving him goosebumps.


Golpitha, of course, is the Mumbai neighbourhood where Dhasal grew up, a rough, red-light district filled with prostitutes and small-time gangsters. His father was a butcher's assistant. Dhasal's formal education was erratic but he was an assiduous autodidact. Ketkar, recalling his meetings with Dhasal "back in 1970 or 1971", describes him as "extraordinarily, sparklingly intelligent. Not everyone was as well read—Herbert Marcuse, Sartre, Camus, Angela Davis... he used to confront upper-caste academics in the colleges with the same books they used to flaunt their intellectualism."


It's not difficult to imagine the kind of charisma Dhasal had, the appeal he must have held for his contemporaries. He was a radical poet in the Beat mould, except it wasn't just a literary pose; he lived his words. Read, for instance, lines from one of the poems in Golpitha: Man you should explode / Yourself to bits to start with / Jive to a savage drum beat... Man, you should keep handy a Rampuri knife / A dagger, an axe, a sword, an iron rod, a hockey stick, a bamboo / You should carry acid bulbs and such things on you / You should be ready to carve out anybody's innards without batting an eyelid". The words are an exhortation, a plea for necessary revolution.


His wife, Malika Sheikh, daughter of the Communist folk-singer and poet Shahir Amar Sheikh, was a partner on that revolutionary road. Theirs was a tempestuous, often troubled marriage. Dhasal was not an easy man. He contained, to borrow from Walt Whitman, multitudes. It is for that complexity, that unrefracted humanity, that he will be remembered.



Social anthropologist Gerald Berreman dies at age 83 By Kathleen Maclay, Media Relations | BERKELEY, January 14, 2014


http://newscenter.berkeley.edu/2014/01/14/social-anthropologist-gerald-berreman-dies-at-age-83/


Gerald D. Berreman, a UC Berkeley emeritus professor of anthropology who was widely recognized for championing socially responsible anthropology and for his work on social inequality in India, died at an elderly care home in El Cerrito, Calif., on Dec. 23 following a long illness. He was 83.


A native of Portland, Ore., Berreman joined the UC Berkeley Department of Anthropology in 1959 as an assistant professor. He retired in 2001 after a distinguished career that featured a 41-year study of caste, gender, class and environment in and around the Indian village of Sirkanda and the urban area of Dehra Dun.


In later work, Berreman explored how lower-caste individuals in Northern India could escape the stigma of belonging to the so-called "untouchable" class. With a lifelong interest in South Asia and the Himalayas, he also worked on environmental and development issues in India and Nepal.


Berreman was known among anthropologists for his campaign to establish an ethics code that said anthropologists' primary responsibility should be to the people they study. He also was an early proponent of transparency in social science research. In the 1970s and '80s, he contributed to efforts that helped debunk a 1970s hoax about the discovery of a Stone Age tribe in the Philippines.


Berreman was an outspoken critic of the Vietnam War and the United States' Cold War entanglements. Related to that, he refused to participate in Peace Corps training for volunteers going to India "because he thought that a nation which was annihilating a people in one country cannot be truly interested in doing good to another," according to Berreman's longtime Indian colleague, the poet and folklorist Ved Prakash Vatuck.


UC Berkeley colleagues recalled that Berreman was profoundly affected by the segregation he witnessed around him and across the South while stationed in Montgomery, Ala., with the U.S. Air Force from 1953 to1955, before the civil rights movement took hold in the 1960s.


"Gerry considered those years decisive with respect to his development of a broadly comparative theory of social inequality that allowed him … to compare caste relations in India, the American South and, by further extension, to South Africa during apartheid," said UC Berkeley anthropologist Nancy Scheper-Hughes, who was Berreman's former graduate student, colleague and friend.


She said his "masterful theoretical and methodological contributions…shaped and transformed generations of Berkeley graduate students, among whom I was extremely lucky and extremely grateful to have been numbered."


Friends, colleagues and students recalled Berreman's "smashing humor," love of travel, and his regular "breakfast club" meetings with friends.


Berreman earned a bachelor's and a master's degree in anthropology from the University of Oregon in 1952 and 1953, respectively. He received his Ph.D. in cultural anthropology from Cornell University in 1959. Berreman spent almost three years in a Ford Foundation Foreign Area Fellowship and also had several Fulbright Fellowships. He received honorary degrees from the University of Stockholm and Garhwal University in India, and taught in Sweden, India and Nepal.


Berreman conducted several studies in Japan and Nepal with his wife, Keiko Yamanka, a lecturer in UC Berkeley's Ethnic Studies Department who researches transnational migration and social transformation in East Asia, primarily in Japan and South Korea.


"Gerry and I traveled together, worked together on research trips, and had lots of fun in the many places we visited," said Yamanka. "I cherish these memories."


In addition to Yamanka, Berreman's survivors include daughters Janet Berreman of Albany, Calif., and Lynn Holzman of Santa Barbara, Calif.; a son, Wayne Berreman of Berkeley, Calif.; eight grandchildren; one great-granddaughter; and a brother, Dwight Berreman of New Jersey.


Memorial donations may be made to Alzheimer's Services of the East Bay, 2320 Channing Way, Berkeley, CA 94704 or at http://www.aseb.org/. A campus memorial will be held later.


RELATED INFORMATION· Click here to see "In Safri's Home," a first-hand account of Berreman's fieldwork in Sirkanda, India, via his own photos and commentary that reflect encounters with a blacksmith named Safri and his family. It was compiled in 2008 for a special Magnes Memory Lab project by UC Berkeley's Magnes Collection of Jewish Art and Life.


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