श्रृद्धांजलि : असगर अली इंजीनियर
Author: सुभाष गाताडे
(10 मार्च, 1939 – 15 मई, 2013)
मेरा अज्म इतना बुलंद है कि पराये शोलों का डर नहीं
मुझे खौफ आतिशे गुल से है कहीं ये चमन को जला ना दें।- शकील बदायूनी
साल भर से अधिक वक्त गुजर चुका है। और वर्धा की उस चाय की दुकान पर असगरसाब के साथ ली चाय की चुस्कियां अभी भी याद हैं। उस वक्त मुझे यह क्या गुमान हो सकता था कि मैं उनसे आखरी बार मिल रहा हूं।
वर्धा के उस सेमिनार में उनसे मुलाकात भी इत्तेफाक ही था। 'आल इंडिया सेक्युलर फोरम' के बैनर तले सांप्रदायिकता विरोधी मुहिम में मुब्तिला मित्रों ने मुल्क के बदलते हालात पर बात करने के लिए उस कन्वेन्शन का आयोजन किया था और उनकी ख्वाहिश थी कि हिंदुत्व आतंक पर अपनी समझदारी साझा करने के लिए मैं भी आऊं। कुछ ऐसी मसरूफियत थी कि आखरी वक्त तक जाने को लेकर असमजंस में रहा। भारत में बहुलतावाद और जनतंत्र के सामने चुनौती विषय पर बोलने के लिए असगर अली इंजीनियर और राम पुनियानी आने वाले थे।
कन्वेन्शन के एक रोज पहले 'मगन संग्रहालय' में आयोजित जनसभा को इन्हीं दोनों ने संबोधित किया था, असगरसाब ने अपने खास अंदाज में श्रोतावृन्द के सामने राजनीति एवं समाज के बढ़ते सांप्रदायिकीकरण के खतरे को रेखांकित किया था। भाषणों के बाद गुजरात से आए सांस्कृतिक समूह ने अपनी प्रस्तुतियां दी थीं। शहर के इस आयोजन को सफल बनाने के लिए 'नवनिर्मिती' नामक पत्रिका के संपादक एवं सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन के कार्यकर्ता अमीर अली अजानी एवं उनके साथी सक्रिय थे।
कन्वेन्शन के पहले दिन की व्यस्तताएं ऐसी थीं कि औपचारिक नमस्कार आदि के अलावा असगरसाब से बात नहीं हो पायी थीं। इत्तेफाक ऐसा था कि सम्मेलन के दूसरे दिन सुबह हम तीनों को एक साथ निकलना था, असगरसाब एवं मुझे अपने अपने घरों की ओर लौटना था तो राम (पुनियानी) को नागपुर शहर में अन्य किसी मीटिंग में जाना था। वर्धा में आने के कुछ समय पहले ही असगरसाब इरान के एक शहर में आतंकवाद को लेकर आयोजित किसी सम्मेलन में वह शिरकत करने गए थे, जहां से उन्होंने इस्लाम को आतंकवाद से जोडऩे की कोशिशों के खिलाफ अन्य सहभागियों के साथ मिल कर कोई साझा बयान जारी किया था। मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि मेरे फुटकर लेखन से भी वह बखूबी वाकीफ थे, इतनाही नहीं उन्होंने मेरी किताबें मंगवाई भी थीं।
उनसे गपशप के दौरान मुझे उनका एक लेख याद आया जिसमें उन्होंने अपने आप को 'गैररूढिवादी मार्क्सवादी' कहा था और फिर मैंने उनसे यह जानना चाहा कि आज वह अपने आप को क्या कह सकते हैं। कार की अगली सीट पर बैठे राम ने हंसते हुए असगरसाब की तरफ से जवाब दिया कि वह पैंगम्बर को पहला मार्क्सवादी समझते हैं। थोड़ी देर बाद वह उतर कर चले गए। चाय की चुस्कियां लेते हुए उन्होंने मुझे साफ बताया कि वह ईश्वर पर यकीन रखते हैं, आस्थावान हैं। मैने उनसे उनकी भविष्य की योजनाओं के बारे में पूछा और जाहिर था कि कामों की लंबी चौड़ी योजना उनके पास थी।
अपनी आत्मकथा 'द लिविंग फेथ' में उन्होंने लिखा है कि बंटवारे के वक्त उन्होंने उन तमाम किस्सों को सुना था कि किस तरह धर्म के नाम पर लोगों ने एक दूसरे का कत्लेआम किया था। उनके छात्राजीवन में 1961 में जबलपुर में दंगे हुए थे, जिन्हें आजादी के बाद के सबसे बड़े दंगों के तौर पर संबोधित किया गया था। वे दंगे एक तरह से सांप्रदायिकता की चुनौती एवं अंतरसामुदायिक सद्भाव के लिए उनके ताउम्र संघर्ष की शुरुआत बने। 1993 के बंबई दंगों की बीसवीं सालगिरह पर बंबई में आयोजित एक जनसभा में बीमारी के बावजूद वह शायद इसी पीड़ा की वजह से शामिल हुए थे, जिसमें उन्होंने कहा था कि इन दंगों को बदले की भावना की वजह से नहीं बल्कि इसलिए याद रखना चाहिए कि ऐसे दंगे फिर न हों।
उन्हें अर्पित की गई श्रद्धांजलि में उनके बारे में बहुत कुछ लिखा गया कि वह इस्लाम के विद्धान थे और किस तरह इस्लाम को लेकर फैली गलतफहमियों को दूर करने में मुब्तिला रहते थे। यह भी बताया गया कि उनका मानना था कि मूल इस्लाम में तो महिलाओं के लिए समानता की बातें लिखी हुई हैं, बाद में आनेवालों ने उसे गड़बड़ कर दिया है। उनके हिसाब से धर्म में लिखी तमाम अच्छी चीजों को बाद में आए लोगों ने गड़बड़ कर दिया। सांप्रदायिक सद्भाव कायम करने के लिए उनकी कोशिशों के बारे में, दंगों पर उनके अध्ययन के बारे में भी चर्चा हुई।
यह बात समझ से परे है कि दाउदी बोहरा समुदाय – इस्माइली शिया इस्लाम से जुड़ा संप्रदाय – जिससे वह ताल्लुक रखते थे, उसमें आंतरिक सुधारों के लिए उन्होंने समानधर्मा लोगों के साथ मिल कर जो संघर्ष चलाया और समुदाय के धर्मगुरु (सैदना) और पुरोहितशाही (कोठार) के जरिए धर्म के नाम पर लोगों पर व्यापक नियंत्रण को चुनौती देने की जो कोशिश की, उसके बारे में अधिक नहीं लिखा गया। बोहरा समुदाय को जाननेवाले बता सकते हैं कि सैदना का व्यक्तित्व इस कदर बोहरा मानसिकता में घुला मिला है कि उनके नेतृत्व में चल रही अधिनायकवादी प्रणाली के खिलाफ बोलना भी मुमकिन नहीं हो पाता। जन्म से मृत्य तक के लिए उपस्थित टैक्स की प्रणाली, कोठार से हर मसले पर रजा (अनुमति) लेने की बंदिश, समुदाय के प्रति वफादारी की कसम – मिसाक – जो एक तरह से आम बोहरा को धर्मगुरु का गुलाम बना देती है और ऐसे लोग जो इन बंदिशों का पालन नहीं करते हैं उनक सामाजिक-धार्मिक बहिष्कार का सिलसिला, आदि के जरिए समुदाय के सदस्यों पर अंकुश रखा जाता है।
बहुत कम लोग जानते होंगे कि जब 'सेंट्रल बोर्ड आफ दाउदी बोहराज' के बैनर तले समुदाय के अंदर के विद्रोही स्वरों को एकजुट करने की कोशिश हुई, तो असगरसाब – जो खुद एक आमिल (धार्मिक गुरु) के बेटे थे – उन्हें उदयपुर में आयोजित स्थापना सम्मेलन में उसका महासचिव बनाया गया। (1977) जानकारों के मुताबिक छह बार उन्हें उन तत्वों के हमले का शिकार होना पड़ा, जो उनके इन प्रयासों के खिलाफ थे। कुछ साल पहले बंबई स्थित उनके दफ्तर पर ऐसे ही तत्वों द्वारा किए गए हमले की तस्वीरें भी तमाम राष्ट्रीय अखबारों में प्रकाशित हुई थीं, समुदाय में वर्चस्वशाली धर्मगुरु का दबदबा इतना था या यह कह सकते हैं आज भी है कि उनकी मां का जब इंतकाल हुआ, तो समुदाय के स्मशान में भी उन्हें दफनाने में तमाम मुश्किलें झेलनी पड़ी थीं।
कह सकते हैं कि उनके साथ अंतक्रिया करने का मौका दरअसल उन्हीं दिनों मुझे मिला था, जब वह इसी मुहिम में मुब्तिला थे। सत्तर के दशक के उत्तराद्र्ध में, मेरे खयाल से 78 की गर्मियों में, उनसे पहली मुलाकात पुणे में हुई थी, जब समाजवादी नेता बाबा आढाव की पहल पर बनी 'विषमता निर्मूलन समिति' के शिविर में वह बात रखने के लिए आए थे। उनकी बातचीत का फोकस बोहरा समुदाय की आंतरिक स्थिति पर था, जिसमें किस तरह तमाम बंदिशें लोगों को झेलनी पड़ती है और उसके खिलाफ वह किस मुहिम में संलग्न हैं। उन्होंने बताया था कि न केवल हर दाउदी बोहरा को अपनी आय का निश्चित हिस्सा धर्मगुरु तक पहुंचाना अनिवार्य था बल्कि अगर धर्मगुरु की बात न मानें तो वह 'बारात' लगा सकता है अर्थात आप का सामाजिक बहिष्कार हो सकता है।
बोहरा समाज की इस आंतरिक स्थिति को लेकर उन्हीं दिनों प्रबुद्ध समुदाय की तरफ से 'नाथवानी कमीशन' का गठन भी हुआ था, जिसका मकसद था, जगह जगह जाकर वह ऐसे प्रताडि़त लोगों से मिले और सच्चाई जानने की कोशिश करे। कमीशन जगह जगह गया था और वहां उसके सामने सैकड़ो लोगों ने हाजिर होकर अपनी आपबीती सुनायी थी और बोहरा पुरोहितशाही के गैरजनतांत्रिक व्यवहार को उजागर किया था। वर्ष 1979 में नाथवानी कमीशन ने अपनी रिपोर्ट पेश की थी जिसने 'बोहरा लोगों के नागरिक आजादी पर अंकुश और उनके मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात की थी जो सैयदना और आमिलों के आदेशों को मानते नहीं है'। उसने यह भी बताया था कि किस तरह सेक्युलर मामलों में भी आप पर बारात लग सकता है अर्थात आप का सामाजिक बहिष्कार हो सकता है या आप को मानसिक यातना दी जा सकती है या आप पर शारीरिक हमला भी हो सकता है।' इस स्थिति में सुधार के लिए उसने चंद विधेयकों को लागू करने की बात की थी। जैसे कि उम्मीद की जा सकती है कि जगह जगह प्रस्तुत कमीशन को विरोध का सामना करना पड़ा था।
पुणे के गोखले हॉल में नाथवानी कमीशन की तरफ से रखी गई सुनवाई में एक उत्साही युवा के नाते मैं भी पहुंचा था। (1978) जनाब नाथवानी किन्हीं कारणों से पहुंच नहीं पाए थे, असगरसाब को शायद नहीं आना था। मंच पर बाबा आढाव तथा आयोजन में सक्रिय लोग बैठे थे और समूचा हाल धर्मगुरु के समर्थकों से भरा था, जो कुर्सियों पर खड़े होकर नारे लगा रहे थे कि 'नाथवानी गो बैक।' स्थिति बेहद नाजुक थी। जनसुनवाई में शामिल शहर के ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता वि_ल गुजराती ने जब पीछे खड़े होकर कहा कि आप लोग बैठ जाइए तो प्रदर्शनकारियों ने वहां रखी कुर्सियां फेंक कर जनाब गुजराती को खामोश कर दिया था।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय लौट कर, जहां उन दिनों मैं पढ़ रहा था, मैंने असगरसाब को पत्रा लिख कर बोहरा समाज में चल रहे इस आंदोलन के बारे में साहित्य मंगवाया था। मुझे याद है कि लौटती डाक से पुस्तिकाओं, पर्चों का एक बंडल मेरे छात्रावास के पते पर पहुंचा था।
अखबारों यह बात प्रकाशित हुई है कि उन्हें बोहरा समुदाय के कब्रगाह में नहीं बल्कि सुन्नी कब्रगाह में दफनाया गया। स्पष्ट है कि धार्मिक प्रतिष्ठान के आंतरिक जनतांत्रिकीकरण के लिए उन्होंने एक समय जिस मुहिम में अहम भूमिका अदा की थी, उसके बाद उनका अघोषित बहिष्कार कायम ही रहा।
अलविदा, असगरसाब!
- सुभाष गाताडे
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