Thursday, January 30, 2014

और दरअसल यह अंध राष्ट्रवाद सबसे भयानक राष्ट्रद्रोह है। अंध राष्ट्रवाद ही कालाधनमूलक कारपोरेटराज की असल पूंजी है जागो रे जिन जागणा जब जागण की बार, फिर क्या जागे नानका जब सोवे पाँव पसार !

  • और दरअसल यह अंध राष्ट्रवाद सबसे भयानक राष्ट्रद्रोह है।

  • अंध राष्ट्रवाद ही कालाधनमूलक कारपोरेटराज की असल पूंजी है

जागो रे जिन जागणा जब जागण की बार, फिर क्या जागे नानका जब सोवे पाँव पसार !


पलाश विश्वास
The Economic Times

JUST IN: Sikh groups hold anti-Congress protests in Delhi, demand Rahul Gandhi should name the perpetrators. Delhi CM Arvind Kejriwal says, "SIT probe of 1984 riots will be taken up before cabinet." Your reactions? http://ow.ly/t66yN

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Kolkata:Gandhi Murteer Badaley Y Channel ( Esplanade Metro'r pichhane  Pechhap khanar samne ) agami kaal Sukrabar 31 january bela 12 tay Morichjhanpi Dibas Swaran sava anusthheta habe.

आज का संवाद

  • अंध राष्ट्रवाद ही कालाधनमूलक कारपोरेटराज की असल पूंजी है

नैनीताल से हमारे डीएसबी के पुराने मित्र उमेश तिवारी विश्वास ने सही लिखा है।जागो रे जिन जागणा जब जागण की बार, फिर क्या जागे नानका जब सोवे पाँव पसार !


अब सवाल है कि जागणा संभव कैसे हो,अंध राष्ट्रवादी इस महादेश के सगे रक्त संबंधी देशों बांगलादेश,पाकिस्तान और भारत में अज्ञानता की मौनी अमावस्या शाश्वत है उपभोक्तावादी ग्लोबल चकाचौंध के बावजूद।


सर्वोच्च तकनीक ले लैस तमाम पापी आत्माएं अविराम पुण्यस्नान में निष्णात जो बीज मंत्र से दीक्षित होते रहते हैं,वह कुरुक्षेत्र का रणक्षेत्र का निर्माण ही करता है।


गनीमत है कि बांग्लादेश भारत के लिए सशस्त्र चुनौती है नहीं और नेपाल में बारंबार भारतीय हस्तक्षेप के बावजूद कोई प्रतिक्रिया की संभावना है ही नहीं।


लेकिन कुरु पक्ष और पांडव पक्ष भारत और पाकिस्तान  की हुकुमतों के जरिये रणहुंकार की अभिव्यक्ति में पारमाणविक महाविनाश क्षेत्र बना ही चुके हैं इस उपमहाद्वीप को,जिसका इतिहास भूगोल साझा है।


अब संजोग देखिये, दुनियाभर में भारत और पाकिस्तान में ही सबसे ज्यादा बालिग अपढ़ है।हमारे मेधा संप्रदाय के लोग उत्तर भारत की गायपट्टी को ही मध्ययुगीन अंधकार में फंसे बताते हैं लेकिन यह फंसान और धंसान सीमा के आर पार पूरे महादेश में समान है और पूरा क्षेत्र आत्मघाती युद्धस्थल में तब्दील है।


आज और कल दो दिनों से आनंद तेलतुंबड़े से इसी मुद्दे पर चर्चा हो रही है कि मध्यवर्ग के लोग चाहे कितने ही क्रांतिकारी हों,हालात तब तक नहीं बदल सकते जबतक न हम इन अपढ़ लोगों को अंध राष्ट्रवाद के तिलिस्म से बाहर निकाल लें।


यह हमारी मुख्य चिंता है।मुख्य चिंता यह है कि जिस भाषा के जरिये हम पूरे देश से संवाद कर सकते हैं,उसमें संवाद और लोकतंत्र की तहजीब  ही नहीं है।दूसरी ओर क्षेत्रीय अस्मिता की वजह से संवेदनशील मुद्दों पर जिन्हें हम संबोधित करना चाहते हैं,उनसे हिंदी में संवाद हो नहीं सकता।


अपने लोगों से बात करने के बजाय हमारे लोग दूसरों की मध्यस्थता के मोहताज है। देश की सत्ता में बैठे लोग और देश के बहुसंख्य नागरिक अलग अलग वर्ग के हैं।हम लोग सिर्फ सत्ता से ही संवाद और विमर्श के अभ्यस्त हैं ,आम लोगों के साथ नहीं।


हमें तकलीफ यह है कि कश्मीर,सिख राजनीति,पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत से संवाद के लिए हमें अंग्रेजी में बात करनी होती है।वे हमारी भाषा में बात करने को तैयार नहीं हैं और हम उनकी भाषा जानते नहीं हैं या जानने समझने की कोशिश ही नहीं करते।


आज विषय विस्तार से पहले एक खबर बहुत अच्छी है। आपरेशन के बाद हमने पहली दफा वीरेनदा से बात की है।डाक्टरो के अब उनके जल्द ठीक होने की उम्मीद है,इसकी पुष्टि करने के बाद वीरेनदा से बात किये बिना रह नहीं गया।डाक्टरों ने उन्हें बात करने की मनाही कर रखी है।फिर भी वे बोलने लगे तो मैंने पोन पर रीता भाभी को बुला लिया और उनसे ही बात की।


वीरेनदा अभी इलाज की इस कवायद में बेहद कमजोर हो गये हैं,उनको सेहतमंद होने में वक्त लगेगा। वीरेनदा से खुलकर बात करने के लिए अभी हमें और सब्र करना होगा।यशवंत को फोन लगाकर वीरेनदा की ताजा हालत जानकर ही हमने फोन लगाने की हिम्मत की थी।अब जैसा कि मैं शुरु से कहता रहा हूं कि वीरेन दा फिर सक्रियतौर पर हमारे साथ होंगे,इसका पक्का यकीन हो गया है।


अरविंद केजरीवाल के लिए स‌िख दंगों की जांच की मांग परः इस मांग पर आपका दो स‌ौ फीसद स‌मर्थन।सिखों को न्याय दिलाने की पहल करके आपने पूरे तीन दशक स‌े जारी राष्ट्र के अन्यायपूरण असमतामूलक मौन को तोड़ने का काम किया है।आभार।

क्या पैंतीस स‌ाल स‌े मरीचझांपी नरसंहार पर राष्ट्र का मौन अब टूटेगा या फिर किसी केजरीवाल की अराजकता की जरुरत होगी?


हमारे युवा साथी,बेहद काबिल भाषाविद भाषा योद्धा रियाजुल हक

गोरख पाण्डेय की याद को सलाम जो किया है ,बहस जारी रखने से पहले उस पर तनिक गौर जरुर करें।


गुलमिया अब हम नाही बजइबो, अजदिया हमरा के भावेले।

गुलमिया अब हम नाही बजइबो, अजदिया हमरा के भावेले।


झीनी-झीनी बीनीं, चदरिया लहरेले तोहरे कान्‍हे

जब हम तन के परदा माँगी आवे सिपहिया बान्‍हे

सिपहिया से अब नाही बन्‍हइबो, चदरिया हमरा के भावेले।

गुलमिया अब हम नाही बजइबो, अजदिया हमरा के भावेले।


कंकड चुनि-चुनि महल बनवलीं हम भइलीं परदेसी

तोहरे कनुनिया मारल गइलीं कहवों भइल न पेसी

कनुनिया अइसन हम नाहीं मनबो, महलिया हमरा के भावेले।

गुलमिया अब हम नाही बजइबो, अजदिया हमरा के भावेले।


दिनवा खदनिया से सोना निकललीं रतिया लगवलीं अँगूठा

सगरो जिनगिया करजे में डूबलि कइल हिसबवा झूठा

जिनगिया अब हम नाहीं डुबइबो, अछरिया हमरा के भावेले।

गुलमिया अब हम नाही बजइबो, अजदिया हमरा के भावेले।


हमरे जंगरवा के धरती फुलाले फुलवा में खुसबू भरेले

हमके बनुकिया के कइल बेदखली तोहरे मलिकई चलेले

धरतिया अब हम नाहीं गंवइबो, बनुकिया हमरा के भावेले।

गुलमिया अब हम नाही बजइबो, अजदिया हमरा के भावेले।

मैत्रेयी पुष्पा को किन परिस्थितियों में आप ने दिल्ली महिला आयोग का अध्यक्ष बनाया है,हम वह चर्चा नहीं करना चाहते। बहरहाल  मैत्रेयी की नियुक्ति का अरविंद केजरीवाल का यह कदम भी स‌कारात्मक है।इसका तहेदिल स‌े स‌्वागत है।अपनी प्रिय लेखिका को भी बधाई।उम्मीद है कि वह रीति विरुद्धजाने की हिम्मत करते हुए कम स‌े कम भारत की राजधानी में स‌्त्री की दासता को तोड़ने की कोई पहल करेंगी।


हमारे वरिष्ठ लेखक वीरेंद्र यादव ने भी सही लिखा है कि दिल्ली महिला आयोग के अध्यक्ष पद के लिए प्रख्यात लेखिका मैत्रेयी पुष्पा का नाम प्रस्तावित करके अरविन्द केजरीवाल ने अच्छा संकेत दिया है .इसके पूर्व इस तरह के पद अपनी पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं को सौगात के रूप में बाँटें जाते रहे हैं.इसीतरह अभी दो माह पूर्व झारखण्ड महिला आयोग के अध्यक्ष के रूप में जानी मानी हिन्दी कथाकार महुआ माजी की नियुक्ति की गयी है .यह एक अच्छी परम्परा की शुरुवात हुयी है . उम्मीद की जानी चाहिए कि 'आप' सरकार दिल्ली साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के रिक्त पद पर भी किसी प्रतिष्ठित साहित्यकार को मनोनीत करेगी .मैत्रेयी पुष्पा जी को हार्दिक बधाई .


हमारे दूसरे जंगी साथी अभिषेक श्रीवास्तव ने लिखा हैः

पता नहीं क्‍यों, बचपन से ही ''ऐ मेरे वतन के लोगों...'' सुनकर मन करता है कि लगे हाथ आजादी के आंदोलन में बोरिया-बिस्‍तर लेकर कूद पड़ूं। मेरे भीतर हालांकि देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर नहीं भरी है, फिर भी इतना घटिया गाना शायद मैंने नहीं सुना आज तक।


हम इस गीत को घटिया नहीं मानते।भारत चीन युद्ध के सदमे से उबरने के लिए पस्त हौसला देश के वाशिंदों के लिए इस गीत की प्रासंगिकता अपनी जगह है,ठीक उसीतरह जैसे स्वर कोकिला लता मंगेशकर अब भी इस महादेश की स्रवश्रेष्ठ गायिका है।लेकिन सत्ता संघर्ष में इस ऐतिहासिक देशभक्ति गीत का जो निर्लज्ज इस्तेमाल हो रहा है और जिस तरह लता जी को राजनीति के दलदल में धकेला जा रहा है,इससे अंध राष्ट्रवादी कारपोरेट तिलिस्म का भयावह स्वरूप सामने आ ही जाना चाहिए।


इस पर सिलसिलेवार चर्चा से पहले यह बता देना उचित होगा कि राहुल गांधी के सिख जनसंहार में कांग्रेसी नेताओं की भूमिका स्वीकर करने के सिलसिले में आज दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय पर सिखों का तीस साल से लंबित न्याय के लिए जो प्रदर्शन हो रहा है,पूरे राष्ट्र को उसका समर्थन करना चाहिए।हम सारे देशवासी सिकों के साथ खड़े होकर ही इस पापस्खलन का मौका बना सकते हैं।


अरविंद केजरीवाल ने जो सिट गठन करने की मांग की है,हमें उसका भी समर्थन करना चाहिए। यह भी हमें भूलना नहीं चाहिए कि दंगों में भले ही कांग्रेस की भूमिका रही है लोकिन अंध र्ष्ट्रवादी सिख विरोधी उस समय के हिस्सेदार सारा देश है।सिखों की तरह कश्मीरियों, पूर्वोत्तर के भारतीयों,सलमा जुड़ुम भूगोल में कैद आदिवासियों और अनार्य संस्कृति के दक्षिणात्य समेत पूरे भूगोल के साथ खड़े होकर ही हम एक सार्वभौम राष्ट्र का भूगोल बना सकते हैं।


परमाणु आयुधों और अंतरिक्ष अभियान से कालाधन की अर्थ व्यवस्था का ही निर्माम हुआ है और राष्ट्रीय सुरक्षा और एकता के नाम पर अंध राष्ट्रवाद की पूंजी ही निरंकुश कारपोरेट राज की असली ताकत है।जैसे सेना पर बहादुर हमारे देशभक्त जवान हैं,उसीतरह सही मायने में एकजुट देशवासियों की सजगता से ही देश की एकता और अखंडता हो सकती है,नस्ली भेदभाव,दमन और उत्पीड़न के मध्य पारमाणविक होड़ से नहीं।

सन 62 से लेकर सन 65 की धुंधली तस्वीरें हमारे दिमाग में कैद हैं। युद्धक तैयारियों की नींव उसी हिमालयी भूल की गहराइयों में है।कालाधन के थोक कारोबार बतौर रक्षा सौदों का सिलसिला तभी से है। उस वक्त मंहगाई ,मुद्रास्फीति और उत्पादन दर की कोई समस्या थी नहीं।सन 65 में भारत पाक युद्ध के अवसान के बाद पीएल 480 और हरित क्रांति के जरिये तभी से हम आहिस्ते आहिस्ते अमेरिकी उपनिवेश में तब्दील होते गये।


समाजवादी विकास के मध्य जो युद्धक तकनीकी कारपोरेट पूंजी का गठबंधन आकार लेने लगा ,उसी के ईश्वर बनकर अवतरित हुए मनमोहन सिंह औक कारपोरेट देवमंडल ने हमें अपने देश से ही बेदखल कर दिया। साठ के दशक में जो खाद्य आंदोलन हुआ,उसवक्त भी उत्तर भारत में चावल,दाल,सरसों तेल ,आटा प्रति किलो अठन्नी से कम है।

अंध राष्ट्रवाद का महाविस्फोट हुआ बांग्लादेश युद्ध में एकतरफा जीत से और तभी से हम निरंतर युद्धोन्माद में जी रहे हैं,तभी से हम निरंतर जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से बेदखल हो रहे हैं।तभी से जारी है अविराम उत्पीड़न, दमन, बहिस्कार और बेदखली का सिलसिला।कभी समाजवाद के नाम पर तो कभी विकास के नाम पर।तभी से देश दरअसल मुक्त बाजार है।मुक्त बाजार का अनिवार्य तत्व है यह अंध धर्मोन्माद जिसका पहला शिकार बतौर सिखों का जनसंहार संपन्न हुआ।


अब मसला सिर्फ सिखों का नहीं है। सिखों के अलगाव की वजह से ही उनका जनसंहार संभव हुआ।आदिवासी भी इसी अलगाव के शिकार हैं तो देश के मुसलनमान भी इसी अलगाव के दुश्चक्र में फंसकर लगातार लगातार दंगों से लहूलुहान है। लहूलुहान हैं कश्मीर, पूर्वोत्तर और समूचा आदिवासी भूगोल।


राज्यतंत्र और सत्ता की राजनीति की हत्यारी भूमिका तो है ही,लेकिन असल हत्यारा है हमारा यह अंध राष्ट्रवाद,जो बहिस्कार की नस्लभेदी मनुस्मृति के उत्तर आधुनिक जायनवादी मुक्त बाजार के एकदम माफिक है।

किसी को भी राष्ट्रद्रोही कह देने से हम सीधे उसे राष्ट्रद्रोही मान लेते हैं और महिषासुर वध के उत्सव में शामिल हो जाते हैं।संवाद यहां देशद्रोह है।


रक्षासौदों की गोपनीयता राष्ट्रीय सुरक्षा का पवित्र मामला है जो खुल्लमखुल्ला कालाधन का थोक जखीरा है।


कोई कानूनी या संवैधानिक रक्षाकवच नहीं,इन तामाम घोटालों का असली रक्षाकवच है अंध राष्ट्रवाद।


आर्थिक सुधारों के नाम पर मनुष्यता और प्रकृति पर्यावरण का जो महासर्वनाश आयोजन है,उसका आधार भी यह अंध राष्ट्रवाद है।


असंवैधानिक आधार बायोमेट्रिक डिजिटल रोबोटिक वध आयोजन के पीछे फिर वही एकता,अखंडता और फर्जी सुरक्षा के फर्जी नारे।

अंध राष्ट्रवाद की ही वजह से हम बार बार निर्वस्त्र होने को अभ्यस्त हैं और वधस्थल पर बलिप्रदत्त भी।


अर्थव्यवस्था,रक्षा,राष्ट्रीय सुरक्षा,आंतरिक सुरक्षा,परमाणु ऊर्जा,आतंक के विरुद्ध युद्ध,विदेशी पूंजी, सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार कानून,सिख जनसंहार,बाबरी विध्वंस,भोपाल गैस त्रासदी,रोजमर्रे के दंगों, कश्मीर,आदिवासी भूगोल,पूर्वोत्तर और वंचित समुदायों की आवाज बाकी देश सुनता ही नहीं है,इसलिए राज्यतंत्र,सत्ता की राजनीति और कारपोरेट वर्चस्व के साथ विदेशी शक्तियों को भारत राष्ट्र के विरुद्ध कुछ भी करने की खुली छूट देते हुए हम देश बेचो ब्रिगेड के पक्ष में लाम बंद हैं।


और दरअसल यह अंध राष्ट्रवाद सबसे भयानक राष्ट्रद्रोह है।



रियाजुल के पोस्ट पर फेसबुक प्रतिक्रियाएं भी दिलचस्प हैं।गौर करेंः











  • Sanjay Tiwari वन्दे मातरम् गिरोह कहां है? अभी तक राष्ट्रप्रेम का कोई निशान नजर नहीं आया?

  • Yesterday at 7:39am · Like · 1

  • Reyazul Haque Kalakar to kalakar hota hai, yah anmol vachan logon ko tab nahin yaad atey jan koi kalakar jail me dal diya jata hai.ye sahulat bhi modiparaston aur un jaiso ko hi milti hai.

  • Yesterday at 10:38am · Like

  • Mitra Ranjan behad durbhagypoorn ki mere vichar bhi kuch ap hee se milte-julte hain

  • Yesterday at 1:09pm · Like · 1

  • Anjani Kumar pahali hi line me aasu ki jaga paani aa jata hai.....phir dharm aur jaati.....guru abhishek! ek vajpaye hua karate the, isi gane ko sun sun kar jhumate rahate the.....aur shayad pagala bhi gaye. pata nahi kaha hai....

  • 19 hours ago · Like · 1

  • Palash Biswas अंध राष्ट्रवाद ही कालाधनमूलक कारपोरेटराज की असल पूंजी है

  • a few seconds ago · Like

  • Uday Prakash
  • सब ठीक ही है। पहले जैसा ही।

  • बस समझ में ये नहीं आता कि तमाम साम्प्रदायिक दंगों में , अनगिनत जन-संहारों के दोषियों को 'क्लीन-चिट' कौन देता है ?

  • १९४७,१९८४, २००२ या २०१३ या और भी जो छूट रहे हैं इधर।

  • हमारे जैसों के जीवन को असह्य और दारुण बनाने वाले हर रोज़ सत्ताओं के शिखरों पर क्यों आसीन दिखाई देते हैं ?

  • सत्ता और न्याय प्रणाली है किनके लिए ? वे कौन हैं ?

  • क्या हम नहीं जानते ?

  • मुक्तिबोध की एक कविता है : 'इस चौड़े ऊंचे टीले पर'. उसकी पंक्तियाँ हैं :

  • ''कमरे के भीतर कमरे हैं,

  • परदों के भीतर परदे हैं,

  • जो सबके अंदर ठीक केंद्र में बैठा है,

  • वह एक बड़ा अफसर है , उसी की सत्ता है।

  • आतंक बहुत

  • उसके दिमाग़ में गुपचुप जो चलता है

  • वह सरकारी गुप्तता -नियम के अंतर्गत

  • अनकहा रहेगा आख़िर तक, हाँ आख़िर तक। ''

  • (अब कौन बनेगा हमारे समय की सत्ताओं के दिमाग़ का गुप्तचर ?)

  • Like ·  · Share · about an hour ago · Edited ·

  • Jagadishwar Chaturvedi
  • वामशासन के दौरान हुए चर्चित नंदीग्राम गोलीकांड पर आज सीबीआई ने कलकत्ता हाईकोर्ट में अपनी चार्जशीट जमा की है इस चार्जशीट में ममता बनर्जी के उस समय लगाए सभी आरोपों को एकसिरे से अस्वीकार करते हुए उन परिस्थितियों का विवरण दिया गया है और बताया है कि नंदीग्राम भूमि उच्छेद कमेटी ने झूठा प्रचार किया। गाँववालों को इकट्ठा किया ,हिंसा के लिए भड़काया। और पुलिसबलों पर हथियारों से हमला किया, पत्थरबाज़ी की ।भीड़ के साथ अपराधी भी सक्रिय थे और भीड़ में से वे पीछे से फ़ायरिंग कर रहे थे ।

  • पुलिस और माकपा के संयुक्त हमले की ममता बनर्जी की झूठगाथा को चार्जशीट में कोई जगह नहीं दी गयी है बल्कि ममतापंथी भूमिउच्छेद कमेटी पर हिंसा भड़काने और पुलिस बलों पर हमला करने का आरोप लगाया गया है । साथ ही बताया है कि पुलिस ने मजबूरी में फ़ायरिंग की। यह चार्जशीट फिर से बुद्धदेव सरकार के बयान की पुष्टि करती है ।

  • Like ·  · Share · about an hour ago ·

Himanshu Kumar

मुज़फ्फर नगर दंगों के बारे में भाजपा ने झूठ फैलाया है कि ये दंगा कवाल गाँव में एक लड़की के साथ छेड़खानी के कारण हुआ .


मैंने कवाल की एफआईआर हासिल कर ली है . इस में किसी छेड़खानी का कोई ज़िक्र नहीं है . सिर्फ साईकिल और मोटरसाइकिल की टक्कर का मामला था .


लेकिन भाजपाइयों ने ज़बरदस्ती इसे लड़की के साथ छेड़खानी का मामला बनाया .और दंगे करवाए ताकि हिंदू वोटों इकठ्ठा कर भाजपा की झोली में डाला जा सके .


शाहनवाज़ को मारने छह लोग गए थे . हत्या करने के बाद दो हत्यारे मारे गए और चार हत्यारे भाग निकले .


भाग खड़े हुए चार हत्यारे आज भी खुलेआम घूम रहे हैं .


इस एफ आई में गौरव के पिता ने स्वयं कबूला है कि वह भी घटना स्थल पर मौजूद था . इसके बावजूद भी आज तक मुजस्सिम उर्फ शाहनवाज़ की हत्या करने पर किसी को भी गिरफ्तार नहीं किया गया है .


एफ आई आर की प्रतिलिपि नीचे दी गयी है


एफ आई आर नम्बर ४०३/ १३

धारा १४७- १४८ -१४९ -३०२ , ५०६ भारतीय दंड संहिता व ७ क्रिमिनल ला एक्ट

थाना जानसठ , जिला मुज़फ्फर नगर दिनांक २७- ०८ २०१३ , समय ४ : ४५

वादी का नाम - रविन्द्र पुत्र तिलक राम निवासी मलिकपुरा माजरा कवाल थाना जानसठ जिला मुज़फ्फर नगर

९५५७८७८६८३

प्रतिवादी के नाम

मुजस्सिम S/O नसीम उर्फ कल्लू कुरैशी

बिल्ला S/O नसीम

फुरकान S/O फज़ल कुरैशी

जहांगीर S/O सलीम उर्फ मेघा

कलवा S/O सलीम

अफजाल S/O इकबाल

नदीम S/O सलीम


असल तहरीर हिन्दी कापी

सेवा में

श्रीमान प्रभारी निरीक्षक

थाना जानसठ


निवेदन है कि प्रार्थी रविन्द्र पुत्र तिलकराम गाँव मलिकपुरा माजरा कवाल थाना जानसठ में ज़मीन खरीद कर खेती करता है . वह यहीं का निवासी है . मेरा लड़का गौरव कुमार कक्षा बारह, जनता इंटर कालेज का विद्यार्थी था . वह रोज स्कूल कवाल से होकर जाता था . एक दिन पहले मेरे लड़के के साथ कवाल के मुजस्सिम के साथ साइकिल टकराने पर कहा सुनी हो गयी थी . इस बात को मेरे बेटे गौरव ने मुझे आकर बताया था . आज दिनांक २७ / ०८ / २०१३ को मैं अपने बेटे गौरव और उसके मामा के बेटे सचिन को स्कूल से लेकर गाँव वापिस जा रहा था . जब हम लोग करीब एक बजे दिन गाँव कवाल में चौराहे पर पहुंचे वहाँ पहले से मुजस्सिम पुत्र नसीम उर्फ कल्लू कुरैशी व बिल्ला S/O नसीम उर्फ कल्लू कुरैशी फुरकान पुत्र फज़ल निवासी कवाल अपने हाथों में सरिया डंडे व चाकू लिए खड़े मिले और गौरव को गाली देते हुए कहा कि साले तू कल बहुत अकड़ रहा था ,आज तुझे इसका मज़ा चखाते हैं हैं . और मेरे लड़के गौरव व सचिन पर लाठी सरिया चाकू से जान से मारने की नियत से हमला कर दिया . मैं गौरव व सचिन भागे तो सामने से जहांगीर पुत्र सलीम उर्फ मेघा ने घेर लिया और उन्होंने सरिया आदि से मारपीट की . मैं बच कर भागा व शोर मचाया तो शोर पर जगदीश S/O सतवीर निवासी नंगला मुबारिकपुर , सोमपाल सिंह S/O जगदीश निवासी सिखेड़ा व सर्वेंदर उर्फ कालू S/O इलम सिंह निवासी सिखेड़ा गवाहान आ गये जिन्होंने यह घटना देखी है . ये लोग इन लोगों को मारते रहे जब तक वह मर नहीं गए , और हम गवाहान को मारने की धमकी दी .

इस दौरान कलवा पुत्र मेघा की उसी के साथियों के हथियारों से चोट आयी थी जिसे वह उठा कर ले गए . उन लोगों के भय व डर के कारण जनता के लोगों ने अपने दरवाजे बंद कर लिए दुकानदारों ने अपने शटर व दुकाने बंद कर लिए राहगीर भी भाग खड़े हुए . दोनों लाश मौके पर पड़ी हैं . रिपोर्ट दर्ज़ कर कार्यवाही करने की कृपा करें .

प्रार्थी

रविन्द्र कुमार S/O तिलकराम जाति जाट

निवासी मलिकपुरा माजरा कवाल थाना जानसठ जिला मुज़फ्फर नगर

फोन ९९५५१८२८६८३

लेखक -अमित कुमार निवासी सिखेड़ा थाना

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Bijan Hazra shared his photo.

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Sikhs groups protest outside Congress office

Over 500 members of Sikh groups protested outside the Congress office in Delhi after Rahul Gandhi's admission that some Congress men were probably involved in the 1984 riots; demand made to name party leaders involved

PTI

Photo for representational purpose only

New Delhi:  Around 500 members of Sikh groups protested outside the Congress office here Thursday demanding that the

names of the party leaders involved in the 1984 anti-Sikh riots be revealed.

The protest comes after Congress vice president Rahul Gandhi's admission during a television interview Monday that

"some Congress men were probably involved" in the anti-Sikh riots that followed the assassination of then prime

minister Indira Gandhi by her Sikh bodyguards.

The protesters, belonging to the Shiromani Akali Dal (SAD) and the Delhi Sikh Gurdwara Management Committee (DSGMC),

broke barricades, raised slogans against Congress president Sonia Gandhi and Rahul Gandhi and waved black flags.

Protesters were also seen flashing placards with the message: "CBI should question Rahul Gandhi".

Though welcoming Delhi Chief Minister Arvind Kejriwal's demand to hold a SIT probe, president of the Shiromani Akali

Dal (Delhi), Manjeet Singh G.K questioned Kejriwal taking support from the Congress "which was behind '84 riots".

The Aam Aadmi Party (AAP) government Wednesday met Lt. Governor Najeeb Jung and submitted a request for an SIT to probe

the riots in which more than 3,000 people, mostly Sikhs, were killed.

According to police officials, a few protesters were detained and taken to a nearby police station.

The protest continued for an hour, which also saw police using water canons to disperse the crowd.


Aam Aadmi Party

Today · Edited

Today Arvind Kejriwal met the Lt. Governor and requested to initiate an investigation on the Sikh Riots of 1984. We hope that this step would be a stepping stone in providing justice to the thousands of innocent Sikh victims.


We had also ...See More — with Harvinder Dandiwal and Mahesh Mahesh Rajpoot.

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Palash Biswas इस मांग पर आपका दो स‌ौ फीसद स‌मर्थन।सिखों को न्याय दिलाने की पहल करके आपने पूरे तीन दशक स‌े जारी राष्ट्र के अन्यायपूरण असमतामूलक मौन को तोड़ने का काम किया है।आभार।

अंध राष्ट्रवाद की सुनामी इसी अमावस्या की गहराइयों से उपजती है।

India tops in adult illiteracy: UN Report

Reuters

United Nations: India has by far the largest population of illiterate adults at 287 million, amounting to 37 per cent of the global total, a United Nations report said highlighting the huge disparities existing in education levels of the country's rich and poor.

The 2013/14 Education for All Global Monitoring Report said India's literacy rate rose from 48 per cent in 1991 to 63 per cent in 2006, the latest year it has available data, but population growth cancelled the gains so there was no change in the number of illiterate adults.

India has the highest population of illiterate adults at 287 million, the report published by United Nations Educational, Scientific and Cultural Organisation said.

The report further said that the richest young women in India have already achieved universal literacy but the poorest are projected to only do so around 2080, noting that huge disparities within India point to a failure to target support adequately towards those who need it the most.

"Post-2015 goals need to include a commitment to make sure the most disadvantaged groups achieve benchmarks set for goals. Failure to do so could mean that measurement of progress continues to mask the fact that the advantaged benefit the most," the report added.

The report said that a global learning crisis is costing governments $ 129 billion a year. Ten countries account for 557 million, or 72 per cent, of the global population of illiterate adults.

Ten per cent of global spending on primary education is being lost on poor quality education that is failing to ensure that children learn. This situation leaves one in four young people in poor countries unable to read a single sentence. In one of India's wealthier states, Kerala, education spending per pupil was about $ 685.

In rural India, there are wide disparities between richer and poorer states, but even within richer states, the poorest girls perform at much lower levels in mathematics. In the wealthier states of Maharashtra and Tamil Nadu, most rural children reached grade 5 in 2012.

However, only 44 per cent of these children in the grade 5 age group in Maharashtra and 53 per cent in Tamil Nadu could perform a two-digit subtraction.

Among rich, rural children in these states, girls performed better than boys, with around two out of three girls able to do the calculations.

Despite Maharashtra's relative wealth, poor, rural girls there performed only slightly better than their counterparts in the poorer state of Madhya Pradesh.


No PM can revoke J&K's special status, says Omar Abdullah

Omar says constitutionally, the PM cannot revoke Article 370 without calling into question the accession of J&K to India

"Constitutionally, he cannot revoke Article 370 without calling into question the accession of J&K to India. Now as Prime Minister of India, if he wants to rewrite accession to India, he is welcome to it. But I do not think any Prime Minister would be as foolhardy as that," he said.

Omar was answering questions during BBC's 'Hard Talk' programme during which he more then held his ground in the face of tough questioning by its anchor Stephen Sackur who focused on the insurgency, role of the armed forces and the State's accession to India.

The chief minister was asked about Modi's suggestion for a debate on Article 370 to which he had responded by offering to debate the BJP leader "at any time, any place".

He said Modi had not responded to this himself but "one of his minions gave a statement that he is too busy to discuss Article 370 and, to make it worse, he is far too important to discuss it with somebody like you (Omar)".

Sackur remarked that he would be "extraordinarily worried" because Modi could be the next Prime Minister if opinion polls were to be believed because the BJP leader favours doing away with J&K's special status. "I am not worried," Omar told him.


DR AWATAR SINGH SEKHON (MACHAKI) WRITES TO PANTHPRAST


Piare Sardar Davinder Singh ji,


Waheguru ji ka Khalsa,

Waheguru ji ki Fateh!


First, I would offer my congratulations to establish a timeline "Panthprast' of the Facebook.com. Thank you very kindly. Let me tell you I would, certainly, be a visitor, reader and communicate with you on the Guru Khalsa Panth matters in the English language only, because the International mode of communication is in English, provided you would to have your audience and readership in all over world.


1. Until I hear from you, my message is "Sikhs are peaceful and law-abiding citizens throughout the world; whereas, the Brahmins-Hindus-turbaned Brahmins are lawless and dangerous people to the law-abiding Sikhs."


The Sikhs and Sikh Diaspora have to be highly careful from the lawless people like the Brahmins-Hindus-turbaned Brahmins. This latter group includes the prime actors in waging an'undeclared' war on the "Robbed" Punjab of 15th August, 1947,alias the "Motherland" PUNJAB, the Holy and Historic Homeland of Sikhs.


2. An 'undeclared' war was in the form of a brutal military "Operation Bluestar" of June, 1984. This 'undeclared' war took a toll of more than 270,000 innocent Sikhs (infants, children, youth, male and female folks, elderlies, etc.).


3. The Sikhs had been the "First Sovereign and Secular" nation (1799 to 14th March, 1849) of a Sikh monarch, Ranjit Singh, and it had been "annexed" to the British Empire on 29th March, 1849, by a Radio announcement made by the British Empire's agent that it is "annexed" to the British Empire for the administrative purpose only.


4. The Sikhs "Struggle for Sovereignty, Independence and Political power began on 14th March, 1849, also, under the guidance of Guru Granth Sahib and The Sikh Traditions, peacefully to reclaim their lost Sovereignty of the Sikhs of PUNJAB.


5. Since 14th March, 1849 and till this day of writings, the Sikhs' Struggle for Sovereignty, Independence and Political power has been going on by following the teachings of the Sikh Guru Sahibaans as inscribed in Guru Granth Sahib, the Sikh Way of Life/Sikh Rahit Maryada and The Sikh Traditions.


6. Where the Sikhs had been the "First Sovereign and Secular" nation of South Asia, the Brahmins-Hindus had been "subservient" for more than 3500 years to the Afghans, Mughals, Sikhs, British, Portuguese, etc., up until the British India Empire's agent presented the political power and sovereignty to the deceitful, characterless Brahmins-Hindus' 'unelected' leaders of the Indian National Congress party. These leaders had been, so to speak, MK Gandhi, JL Nehru and their followers, who betrayed the Sikhs at every step since the late morning hours of the 15th August, 1947.


7. Since 15th August, 1947, the Sikhs of the "annexed" Sikh nation and of the "First Sovereign and Secular nation" of South Asia have been nothing but under the "occupation" of the deceitful and characterless "Brahmins-Hindus-turbaned Brahmins."


8. The Sikhs' political and religious apex institutions and their "Robbed" PUNJAB of 15th August, 1947, are under the"occupation" of the "Brahmins (3%) - Hindus-turbaned Brahmins (10%) population of a total hungry mouths of over 1.2 billion.


9. Without their "Sovereignty and Independence", the Sikhs cannot survive as the 4th largest religion of the world. The state support is a must for the "Sikh Nation alias the "Robbed" Sikh Nation PUNJAB of 15th August, 1947. That's why the Sikhs' Struggle for Sovereignty and Independence, which began on the 14th March, 1849, has been continuing by following the teachings of Guru Granth Sahib and The Sikh Traditions.


10. The last but not the least, the Brahmins-Hindus-turbaned Brahmins rituals have NO place in the Guru Khalsa Panth alias the "Robbed" Punjab of 15th August, 1947. For example, the Hunger Strike started in the times of the Guru Khalsa Panth's traitors like Tara Sinh Master, Fateh Sinh Sadh and continued the Brahmins-Hindus' rituals by Gurbakash Singh Khalsa and Iqbal Singh Bhatti in Delhi.


11. (addendum) The Sikhs supports the Sovereignty struggle of the IDA:JK and their "Self-Determination", according to the UN:SC Resolution of 1948; along with the repulsion of the Indian Special Powers Act to the armed forces for Manipur and other provinces.


Best wishes and warmest regards.


Your brother,


Awatar Singh Sekhon (Machaki)

assekhon@shaw.ca

The Economic Times

P. Chidambaram hits out Jaitley's defence; raises 3 questions on economy to Modi: http://ow.ly/t6pHL

1. Why do Madhya Pradesh and Gujarat oppose GST and prevent a consensus?

2. Why did Modi write to PM opposing the Food Security Act?

3. If Indian-owned multi-brand retail will not destroy jobs, how will FDI in multi-brand retail destroy jobs?

Read more at http://ow.ly/t6pHL

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Dhiraj Bhandari was tagged in Narendra Modi For PM's photo.

Narendra Modi's Meerut Rally to be telecasted in 128 countries. ‪#‎NaMo4PM‬

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Afroz Alam Sahil added a new photo.

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Reyazul Haque

मलकपुर शिविर, शामली. अपनी बीमार मां और हताश पिता से बीच चार लोगों के परिवार के लिए आटा गूंधते हुए निसा कैमरा देख कर रुकती नहीं. बस मुस्कुरा देती है. पास के खाट पर उसकी मां की सांसें दमे से उखड़ रही हैं और पिता धुआं उगलते चूल्हे में आग जलाने की कोशिश कर रहे हैं.


बिना दीवारों वाली यह एक ऐसी जगह है जहां रातों में तापमान दो डिग्री तक गिर जाता है. हवा से बचाने के लिए उनके पास पॉलिथीन की चादरों, फटे कपड़ों और चीथड़े हो चुके कंबलों के अलावा कुछ नहीं है. आसपास गन्ने की सूखी हुई पत्तियां हैं, लकड़ी की चिन्नियां हैं, न्यूमोनिया से मरते बच्चों की फेहरिश्त है, खाली पेट दिन गुजारने की मजबूरियां हैं और अपने घर से बेदखल कर दिए जाने की जलील यादें हैं. इन सबके बीच वह कौन सी चीज है जो उन्हें कैमरे के सामने मुस्कुरा उठने के लिए तैयार करती है?


क्या यह सिर्फ कैमरे के आगे खड़े होकर मुस्कुराने की आदत भर है? पढ़िए शामली के राहत शिविरों से लौट कर लिखा गया मेरा एक लेख, समयांतर के फरवरी अंक में.

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Andhra Pradesh assembly rejects Telangana bill

The Andhra Pradesh assembly on Thursday rejected the Telangana bil; earlier CM Kiran Reddy said he would quit if the parliament admitted the bill in the same form

AP

Hyderabad: The Andhra Pradesh assembly, by a voice vote Thursday, rejected the Andhra Pradesh Reorganisation Bill 2013 on creating a separate Telangana state.

Amid protests by legislators from Telangana, Speaker N. Manohar announced that a resolution moved by Chief Minister N. Kiran Kumar Reddy for rejecting the bill was carried and adjourned the house sine-die.

The chief minister, in his resolution, has urged President Pranab Mukherjee not to refer the bill to parliament as it seeks to bifurcate the state without any reason and consensus and in utter disregard to linguistic and cultural homogeneity and economic and administrative viability.

The speaker also announced that he would be forwarding to the President the views expressed by 86 members who participated in the debate and also the written speeches submitted by other members.

Manohar said 9,072 amendments to the bill moved by the members would also form part of the official record.

The dramatic announcement by the speaker came after two adjournments since morning as legislators from Telangana stalled the proceedings demanding him to reject the notice given by the chief minister.

The President had referred the bill to the state legislature Dec 12 for its opinion under Article 3 of the Constitution. The bill was tabled Dec 16 but could not be taken up for debate for several days due to protests by Seemandhra lawmakers, opposing state's bifurcation


TaraChandra Tripathi

गान्धी रेडिमेड नहीं होते, परिस्थितियों का कुम्हार उनकी मिट्टी को पहचान कर भीतर से हाथों का सहारा और बाहर से ठोक- पीट कर एक लम्बी अवधि में उनका निर्माण करता है.


गांधी एक व्यक्ति नहीं, आचरण की एक महाशक्ति है.जिसका संघटन वर्षों के अन्तराल में होता है. जो कीचड़ से उठ कर अपने आप को निरन्तर परिष्कृत करते हुए एक कलश में ढलते है. वे हमेशा एक ही रूप में नहीं उभरते. राम के रूप में प्रकट होते हैं तो नृसिंह के रूप में भी.


हमारे थैलीशाह और राजनेता अपनी सामूहिक दुरभिसंधि से एक नवजात और आदर्शवादी समूह के लिए जैसा दमघोट वातावरण तैयार कर रहे हैं, उसमें यदि आप का गान्धीय प्रयोग सफल नहीं हुआ तो, इन अनाचारी और अत्याचारी हिरण्यकशिपों के उत्पाटन के लिए नक्सलवादी नृसिंह अवतार ही एकमात्र विकल्प रह जायेगा.


'गण' नहीं 'गन' तंत्र कहें महामहिम!

गणतंत्र दिवस के अवसर पर ही छत्तीसगढ़ के पुलिस अधिकारी अंकित गर्ग को भी वीरता पुरस्कार दिया गया था, जिस पर आरोप है कि छत्तीसगढ़ की जेल में बंद अध्यापिका सोनी सोरी के गुप्तांगों में पत्थर डाले थे. क्या ऐसे ऑफिसरों को पदक देकर आज देश की जनता के भरोसे में जो कमी आ रही है, उसको दूर कर पायेंगे महामहिम...

सुनील कुमार

भारत ने इस वर्ष अपना 65वां 'गणतंत्र दिवस' मनाया, जिसमें जपान के प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे मुख्य अतिथि थे. मीडिया द्वारा पूरे दिन इस बात पर जोर दिया गया कि देश 65वां 'गणतंत्र दिवस' मना रहा है. ग्रेहाउंड्स के प्रसाद 'बाबू' को मरणोपरांत अशोक चक्र दिया गया.

गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर 'राष्ट्र' को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि 'भ्रष्टाचार तथा राष्ट्रीय संसाधनों की बर्बादी से भारत की जनता गुस्से में है. सरकार कोई परोपकारी निकाय नहीं है. लोक-लुभावना अराजकता शासन का विकल्प नहीं हो सकती. झूठे वायदों से मोहभंग होता है, जिससे क्रोध भड़कता है तथा इस क्रोध का एक ही स्वाभाविक निशाना होता है सत्ताधारी वर्ग. जो लोग सत्ता में हैं उन्हें अपने और लोगों के बीच भरोसे में कमी को दूर करना होगा. राज्य के सभी हिस्से तक समतापूर्ण विकास पहुंचाने के लिए छोटे-छोटे राज्य बनाने चाहिए.'

भारत के गणतंत्र में हर साल हथियारों की नुमाईश (शक्ति प्रदर्शन) की जाती है. यह नुमाईश किसके लिये की जाती है. क्या यह भारत की जनता को दिखलाकर डराया जाता है या यह एहसास कराया जाता है कि वह इन हथियारों के बल पर सुरक्षित है. यह पड़ोसी देशों (पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका, भूटान) को दिखाया जाता है.

निश्चय ही हथियारों की ये नुमाईश भारत की जनता और दक्षिण एशिया के देशों को अपनी ताकत दिखाने के लिए की जाती है. भारत के उसी क्षेत्र में यह नुमाईश की जाती है, जहां पर केवल तंत्र होते हैं. गण जब अपनी आवाज़ सुनाने के लिए दिल्ली के इस इलाके में पहुंचता है, तो तंत्र के इस इलाके को चारों तरफ से बैरिकेटिंग कर दी जाती है कि वह इस इलाके से दूर ही रहे.

दूर-दराज के तंत्र की कराह तो इनको सुनाई भी नहीं देती. दिल्ली में जहां लोकतंत्र को बचाने के लिए लाठी चलानी पड़ती है, वहीं भारत के और राज्यों में लाठियों के साथ-साथ गन (बन्दूकों) का भी बेधड़के इस्तेमाल होता है उस आवाज को दबाने के लिए, जिसे यह गणतंत्र सुनना नहीं चाहता.

जापान के प्रधानमंत्री जो इस गणतंत्र के मुख्य अतिथि थे, वो परमाणु तकनीक देने आये हैं जिसका विरोध जैतापुर, फतेहाबाद व कुडनकुलम की जनता कर रही है. इस विरोध को दबाने के लिए कुडनकुलम के दसियों हजार गण पर भारत का तंत्र (शासक वर्ग) देशद्रोह का फर्जी केस लगाता है.

मीडिया लगातार ये बोलती है कि देश 65वां गणतंत्र मना रहा है, उसी दिन मारूति सुजुकी के 148 मजदूरों की रिहाई को लेकर मजदूर व उनके परिवार जनजागरण यात्रा के 11वें दिन फर्रूखनगर में थे. वे गणतंत्र द्वारा दिये हुए अधिकारों की मांग कर रहे थे, उस अधिकार को देना, तो दूर बदले में वे 18 माह से जेल में बंद कर दिये गये हैं. इस पर देश का तंत्र खामोश क्यों है. सुजुकी उसी देश की कम्पनी है, जो इस 65वें गणतंत्र दिवस में मुख्य अतिथि हैं.

मुजफ्फरनगर दंगे के पीडि़त परिवारों के लिए क्या यह गणतंत्र है? क्या छत्तीसगढ़ के उन मजदूर परिवारों के लिए यह गणतंत्र है, जो अपने पेट की भूख मिटाने के लिए उत्तर प्रदेश के रामपुर जिले में ईट भट्ठे पर काम कर रहे थे जिनको लूट लिया गया और मजदूर महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ? क्या वे मजदूर जो अपने ही देश में अप्रवासी की तरह रहते हैं, जिनका हर तरह से शोषण से किया जाता है उसके लिए यह गणतंत्र है, जिस पर भारत के प्रथम नागरिक ने कुछ नहीं फरमाया.

गणतंत्र दिवस की झाकियों में दिल्ली स्कूल के बच्चों ने छत्तीसगढ़ का एक लोकगीत 'महुआ झड़े रे, महुआ झड़े रे... सन सन बहेले पुरवईया... कुहुं कुहुं कुहके कोयलिया, फन फन फुदके चिरया...' गाया जिस पर बहुत लोग झूम रहे थे. आज उसी छत्तीसगढ़ में महुए के पेड़, पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए खत्म होते जा रहे हैं, पंक्षी और जानवर गायब होते जा रहे हैं, लोकगीतों की जगह बॉलीवुड, हॉलीवुड आ गया है. आदिवासियों के गांव के गांव गन (बन्दूक) के बल पर जलाये जा रहे हैं.

2013 के अन्तिम सप्ताह में 80 हजार पुलिस बल को एक साथ कई राज्यों में उतारा गया था, जिसकी सहायता के लिए हेलीकाप्टर, ड्रोन व सेटेलाईट का भी प्रयोग किया गया. क्या यह अपने देश के गण की आवाज को दबाने के लिए गन का प्रयोग नहीं है? यह कैसा देश है जहां पर अपने ही देश में गण के ऊपर गन से हमले किये जा रहे हैं.

राष्ट्रपति कहते हैं कि लोगों को भरोसे में कमी को दूर करना होगा, तो क्या ऐसे ऑपरेशन से भरोसे में कमी नहीं होगी? जिस प्रसाद बाबू को मरोणापरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया, उनकी मौत ऐसे ही ऑपरेशन के दौरान हुई थी.

गौरतलब है कि 2012 के गणतंत्र दिवस के अवसर पर ही छत्तीसगढ़ के पुलिस अधिकारी अंकित गर्ग को भी वीरता पुरस्कार दिया गया था, जिस पर आरोप है कि छत्तीसगढ़ की जेल में बंद अध्यापिका सोनी सोरी के गुप्तांगों में पत्थर डाले थे. क्या ऐसे ऑफिसरों को पदक देकर आज देश की जनता के भरोसे में जो कमी आ रही है, उसको आप दूर कर पायेंगे 'महामहिम' जी?

'महामहिम' जी आप भ्रष्टाचार व संसाधनों की बर्बादी की बात कह रहे थे. भ्रष्टाचार तो पूंजीवाद की जननी है और वह पूंजी संसाधनों की लूट व श्रम की लूट से आती है, जिस पर आप चुप हैं. संसाधनों की लूट के खिलाफ ही छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा इत्यादि राज्य की जनता लड़ रही है, जिसको निपटाने के लिए आपके तंत्र उन राज्यों की जनता पर अलग-अलग नाम से ऑपरेशन कर जुल्म ढा रही है.

श्रम की लूट के खिलाफ बोलने पर मारूति सुजुकी, ग्रेजियानो, निप्पॉन के मजदूर आज तक जेलों में बंद हैं. जिस तरह इन गण को गन के बल पर और जेलों में डाल कर चुप्प कराने की कोशिश की गई ह,ै उसी तरह आप भी इस तंत्र में बैठकर गणतंत्र पर चुप हैं.

आप लोक लुभावन बात करते हैं. 64 वर्ष के गणतंत्र में लोकलुभावन बातें ही आपका तंत्र करते आया है, जो भी इस लोक लुभावन के खिलाफ बोलता है, उसको निपटा दिया जाता है. तंत्र की गन, गण के ऊपर हावी है. सही गणतंत्र लाने के लिए आपको गण को जल-जंगल-जमीन पर अधिकार देना होगा. श्रम का उचित मूल्य देना होगा. साम्राज्यवाद पस्त नीतियों को बदलना होगा.

आपको अपने विरोधी विचारों को भी तरजीह देनी होगी, जिसको आप का तंत्र सुनना नहीं चाहता है. इस तरह के अधिकार तो भारत का संविधान भी देता है, लेकिन आपके तंत्र में बैठे हुए ही लोग इस संविधान की धज्जियां उड़ाते हैं. आपका गणतंत्र अपने जन्म काल से ही गनतंत्र बनकर रह गया है, यह बात अब पूरी तरह खुलकर सामने आ चुकी है.सुनील कुमार मजदूरों के मसले पर सक्रिय हैं.

http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-06-02/69-discourse/4746-gan-nahi-gan-tantra-kahen-mahamahim-for-janjwar-by-sunil-kumar


H L Dusadh Dusadh

6 hours ago ·

  • Mitron!mera yah lekh 'forword press' ke February issue me chhapa hai.isme ngo gang(a.a.p.)ke khaatme ka better formula bhi milega.
  • डाइवर्सिटी क्रांति का संकल्प:इतिहास की जरुरत
  • एच एल दुसाध
  • अगर लोगों से यह पूछा जाय कि मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या क्या है,बहुत कम लोगो का जवाब होगा-'आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी'!किन्तु सचाई तो यही है कि हजारों साल से निर्विवाद रूप से 'आर्थिक और सामाजिक गैर –बराबरी' ही मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या रही है और आज भी है.इसी के कारण भूख,कुपोषण,गरीबी,वेश्या वृत्ति, विच्छिन्नतावाद,उग्रवाद जैसी दूसरी अन्य कई समस्यायों की सृष्टि होती रही है.यही वह सबसे बड़ी समस्या है,जिससे निजात दिलाने के लिए ई.पू.काल में भारत में गौतमबुद्ध,चीन में मो-ती,ईरान में मज्दक,तिब्बत में मुने-चुने पां;रेनेंसा उत्तरकाल में पश्चिम में होब्स-लॉक ,रूसो-वाल्टेयर,टॉमस स्पेंस,विलियम गाडविन ,सेंट साइमन ,फुरिये,प्रूधो,रॉबर्ट ओवन,लिंकन,मार्क्स,लेनिन तथा एशिया में माओत्से तुंग,हो चि मिन्ह,फुले,शाहूजी,पेरियार,आंबेडकर,लोहिया,जगदेव प्रसाद, कांशीराम इत्यादि जैसे ढेरों महामानवों का उदय तथा भूरि-भूरि साहित्य का सृजन हुआ एवं लाखों-करोड़ों लोगों ने अपना प्राण-बलिदान किया.इसके खात्मे को लेकर आज भी दुनिया के विभिन्न अंचलों में छोटा-बड़ा आन्दोलन/संघर्ष जारी है.
  • बहरहाल आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी के खात्मे को लेकर मानव जाति के इतिहास में जो विपुल चिंतन हुआ है उसका ठीक से अनुधावन करने पर यही दिखता है कि पूरी दुनिया में ही इसकी सृष्टि शक्ति के स्रोतों के विभिन्न सामाजिक समूहों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बंटवारे के कारण होती रही है.ध्यान देने की बात है कि सदियों से ही मानव समाज जाति,नस्ल,लिंग,भाषा,धर्म इत्यादि के आधार पर कुई समूहों में बंटा रहा है,सिर्फ अमीर-गरीब के दो भागों में नहीं जैसा कि मार्क्सवादी दावा करते हैं.जहां तक शक्ति का सवाल है ,सदियों से समाज में इसके तीन प्रमुख स्रोत रहे हैं-आर्थिक,राजनीतिक और धार्मिक.शक्ति ये स्रोत जिस सामाजिक समूह के हाथों में जितना ही संकेंद्रित रहे,वह उतना ही शक्तिशाली,विपरीत इसके जो जितना ही इससे दूर रहा वह उतना ही दुर्बल व अशक्त रहा.सदियों से समतामूलक समाज निर्माण के लिए जारी संघर्ष और कुछ नहीं,शक्ति के स्रोतों में वंचितों को उनका प्राप्य दिलाना मात्र रहा है.
  • यह सही है कि हजारों साल से सारी दुनिया में शासक-वर्ग ही कानून बनाकर शक्ति का बंटवारा कराकर करता रहा है.पर,यदि हम यह जानने का प्रयास करें कि सारी दुनिया के शासकों ने अपनी स्वार्थपरता के तहत कौन सा 'कॉमन उपाय'अख्तियार कर शक्ति का असमान वंटवारा कराया तो हमें विश्वमय एक विचित्र एकरूपता का दर्शन होगा.हम पाएंगे कि सभी ही शक्ति के स्रोतों में सामाजिक (social)और लैंगिक (gender)विविधता(diversity)का असमान प्रतिबिम्बन कराकर मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या की सृष्टि करते रहे.किन्तु आर्थिक और सामाजिक विषमता के पृष्ठ में सामाजिक और लैंगिक विविधता की क्रियाशीलता की सत्योपलब्धि आधुनिक मानवताबोध के उदय के साथ बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ही जाकर पश्चिम के शासक कर पाए.इसकी सत्योपलाब्धि कर अमेरिका ,ब्रिटेन,फ़्रांस,आस्ट्रेलिया,न्यूज़ीलैंड इत्यादि जैसे लोकतान्त्रिक रूप से परिपक्व देशों ने अपने-अपने देशों में शक्ति के सभी स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करने की नीति पर काम करना शुरू किया.इसके परिणामस्वरूप उन देशों में महिलाओं,नस्लीय भेदभाव के शिकार अश्वेतों,अल्पसंख्यकों इत्यादि को सत्ता की सभी संस्थाओं,उद्योग-व्यापार,फिल्म-टीवी,शिक्षा के केन्द्रों इत्यादि में सहित शक्ति के तमाम स्रोतों में वाजिब भागीदारी मिलने लगी.ऐसा होने पर उन देशों में आर्थिक और सामाजिक विषमता से उपजी तमाम समस्यायों के खात्मे तथा लोकतंत्र के सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया तेज़ हुई.
  • किन्तु विविधता सिद्धांत को सम्मान देनेवाले पश्चिम के देशों से लोकतंत्र का प्राइमरी पाठ पढने सहित कला-संस्कृति-फैशन-टेक्नॉलाजी-अर्थनीति इत्यादि सब कुछ उधार लेने वाले हमारे शासकों ने उनकी विविधता नीति से पूरी तरह परहेज किया.किन्तु उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था क्योंकि विदेशों की तरह विविधता नीति के अवलंबन की प्रत्याशा उनसे भी थी,ऐसा कई इतिहासकारों का मानना है.इसका साक्ष्य 'आजादी के बाद का भारत' जैसा ग्रन्थ है जिसकी भूमिका में कहा गया है-'1947 में देश अपने आर्थिक पिछड़ेपन ,भयंकर गरीबी ,करीब-करीब निरक्षरता,व्यापक तौर पर फैली महामारी,भीषण सामाजिक विषमता और अन्याय के उपनिवेशवादी विरासत से उबरने के लिए अपनी लम्बी यात्रा की शुरुआत की थी.15 अगस्त पहला पड़ाव था,यह उपनिवेशिक राजनीतिक नियंत्रण में पहला विराम था:शताब्दियों के पिछड़ेपन को अब समाप्त किया जाना था,स्वतंत्रता संघर्ष के वादों को पूरा किया जाना था और जनता की आशाओं पर खरा उतरना था.भारतीय राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना,राष्ट्रीय राजसत्ता को सामाजिक रूपांतरण के उपकरण के रूप में विकसित एवं सुरक्षित रखना सबसे महत्वपूर्ण काम था.यह महसूस किया जा रहा था कि भारतीय एकता को आंख मूंदकर मान नहीं लेना चाहिए.इसे मजबूत करने के लिए यह स्वीकार करना चाहिए कि भारत में अत्यधिक क्षेत्रीय,भाषाई,जातीय एवं धार्मिक विविधताएँ मौजूद हैं.भारत की बहुतेरी अस्मिताओं को स्वीकार करते एवं जगह देते हुए तथा देश के विभिन्न तबकों को भारतीय संघ में पर्याप्त स्थान देकर भारतीयता को और मजबूत किया जाना था.'
  • आज़ादी के बाद के भारत का उपरोक्त अंश को देखते हुए कहा जा सकता है कि हमारे शासकों को इस बात का थोडा बहुत इल्म था कि राजसत्ता का इस्तेमाल विविधता के प्रतिबिम्बन के लिए करना है.यही कारण है उन्होंने किया मगर ,प्रतीकात्मक.जैसे हाल के वर्षों में हमने लोकतंत्र के मदिर में अल्पसंख्यक प्रधानमंत्री,महिला राष्ट्रपति ,मुसलमान उप-राष्ट्रपति,दलित लोकसभा स्पीकर और आदिवासी डिप्टी स्पीकर के रूप में सामाजिक और लैंगिक विविधता का शानदार नमूना देखा.किन्तु यह नमूना सत्ता की सभी संस्थाओं,सप्लाई,डीलरशिप,ठेकों,पार्किंग,परिवहन,फिल्म-टीवी,शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश,अध्यापन और पौरोहित्य इत्यादि शक्ति के प्रमुख स्रोतों में प्रस्तुत नहीं किया गया.चूँकि शक्ति के स्रोतों में भारत में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिबिम्बन प्रायः नहीं के बराबर हुआ इसलिए भारत जैसी आर्थिक और सामाजिक गैर-बरबी दुनिया में कहीं और नहीं है.विश्व में किसी भी देश परम्परागत विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न अल्पजन 15 प्रतिशत लोगों का शक्ति के स्रोतों पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा नहीं है.ऐसी स्थिति एकमात्र दक्षिण अफ्रीका में थी,जहां 9-10 प्रतिशत गोरों का शक्ति के स्रोतों पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा रहा.किन्तु दो दशकों से वहां मूलनिवासी कालों की सत्ता कायम रहने के कारण वहां भी यह गैर-बराबरी अतीत की बात होकर रह गयी है.भारत के शासकों द्वारा डाइवर्सिटी सिद्धांत से परहेज करने के कारण ही हम महिला सशक्तिकरण के मोर्चे पर बांग्लादेश और नेपाल जैसे पिछड़े राष्ट्रों से पीछे तथा सच्चर रिपोर्ट में मुसलमानों की बदहाली की तस्वीर देखकर सकते में हैं.इस कारण ही दलित-पिछड़े उद्योग-व्यापार,फिल्म-मीडिया और पौरोहित्य में दूरवीक्षण यंत्र से देखने की चीज बनकर रह गए हैं.इस कारण ही देश भूख,कुपोषण,गरीबी,उग्रवाद इत्यादि के मामले में विश्व चैम्पियन बन गया है.इससे राष्ट्र को उबारने के लिए विभिन्न संगठन अपने-अपने स्तर पर काम कर रहे हैं.पर, शायद वे आर्थिक सामाजिक विषमता की उत्पत्ति के बुनियादी कारणों से नावाकिफ हैं इसलिए टुकड़ों-टुकड़ों में वंचितों को शक्ति के स्रोतों में हिस्सेदारी की लड़ाई लड़ रहे हैं.अगर इस देश के समताकामी संगठन आर्थिक और सामाजिक विषमता जनित समस्यायों से पार पाना चाहते हैं तो उन्हें शासक दलों पर अमेरिका ,इंग्लैण्ड ,दक्षिण अफ्रीका इत्यादि की भांति शक्ति के समस्त स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक लागू करवाने में सर्वशक्ति लगानी होगी.
  • शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक –विविधता का प्रतिबिम्बन महिला सशक्तिकरण के मोर्चे पर बांग्लादेश और नेपाल जैसे पिछड़े राष्ट्रों से भी पिछड़े भारत को विश्व की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर देगा.तब सच्चर रिपोर्ट में उभरी मुस्लिम समुदाय की बदहाली की तस्वीर खुशहाली में में बदल जाएगी .पौरोहित्य में डाइवर्सिटी ब्राह्मणशाही का खात्मा कर देगी.इससे इस क्षेत्र में ब्राह्मण समाज की हिस्सेदारी सौ की जगह महज तीन-चार पर सिमट जाएगी और शेष क्षत्रिय,वैश्य और शुद्रातिशुद्रों में बाँट जाएगी.तब किसी दस वर्ष के ब्राह्मण को कोई भू-देवता मानकर दंडवत नहीं करेगा.शक्ति के स्रोतों में डाइवर्सिटी दलित-आदिवासी और पिछड़ों को उद्योग-व्यापार,फिल्म-मीडिया इत्यादि तमाम क्षेत्रों में ही संख्यानुपात में भागीदारी दिलाकर उनके जीवन में क्या चमत्कार कर सकती है,इसकी कल्पना कोई भी कर सकता है.डाइवर्सिटी लागू होने पर परोक्ष लाभ यह भी होगा कि इससे दलित और महिला उत्पीडन में भारी कमी;लोकतंत्र का सुदृढ़ीकरण;विविधता में शत्रुता की जगह सच्ची एकता;विभिन्न जातियों में आरक्षण की होड़ व भ्रष्टाचार के खात्मे के साथ आर्थिक और सामाजिक विषमताजनित उन अन्य कई समस्यायों के खात्मे का मार्ग प्रशस्त होगा जिनसे हमारा राष्ट्र जूझ रहा है.अगर इस लेख को पढ़कर ऐसा लगता है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में बहुजनों के लिए डाइवर्सिटी ही सर्वोत्तम विचार है तो वंचित वगों के सामाजिक संगठन नए वर्ष में 'डाइवर्सिटी क्रांति' का संकल्प लें.'आम आदमी पार्टी' की अप्रत्याशित उदय के बाद डाइवर्सिटी क्रांति की जरुरत समय की मांग बन गई है.
  • काबिले गौर है कि 25 नवम्बर,1949 भारतीय संविधान के जनक डॉ.आंबेडकर ने राष्ट्र को सतर्क करते हुए कहा था,'...हमें निकटतम समय के मध्य आर्थिक और सामाजिक विषमता का खात्मा कर लेना होगा अन्यथा विषमता से पीड़ित जनता लोकतंत्र के मंदिर को विस्फोटित कर सकती है.' किन्तु आजाद भारत के सवर्ण शासकों ने उनकी चेतावनी को कभी गंभीरता से लिया नहीं,और राहत और भीखनुमा घोषणाओं के सहारे लाचार बहुजनों को प्रलुब्ध कर सत्ता पर काबिज होते रहे.फलतःआज विश्व में सर्वाधिक गैर-बराबरी भारत में है.इस भीषण विषमता से बेपरवाह भाजपा और कांग्रेस जैसे दल एक बार फिर राहत और भीखनुमा घोषणाओं के सहारे अगली बार केंद्र की सत्ता हथियाने की जुगत भिड़ा रहे थे कि 8 दिसंबर,2013 को अचानक 'आम आदमी पार्टी' का उदय हुआ.मीडिया और भूमंडलीकरण के दौर के नव-सृजित अवसरों का लाभ उठाकर ताकतवर बने सवर्ण युवाओं के समर्थन से पुष्ट 'आप'सामाजिक न्यायवादी दलों को पृष्ठ में धकेलकर भाजपा और कांग्रेस के कतार में जा खड़ी हुई है.कांग्रेस-भाजपा बहुजनों का वोट पाने की लालच में कभी-कभार सामाजिक न्याय की बात कर भी लेती थीं.किन्तु 'आम' नेतृत्व की नज़र में आरक्षण लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है.लोकतंत्र को आरक्षण के खतरे बचाने के लिए वजूद में आई यह पार्टी लोकलुभावन सतही नारों और कामों के जरिये बड़ी तेज़ी से बहुजनो को भी आकर्षित करती जा रही है.भारतीय लोकतंत्र के दु:स्वप्न के रूप में उभर रही 'आप' को यदि रोकना है तो कुछ ऐसा उपक्रम चलाना होगा जिससे बहुजनों में मंडल के बाद अधिकार चेतना का एक नया उभार शुरू हो.चूँकि यह उभार पैदा करने में डाइवर्सिटी से बेहतर कोई विचार नहीं है इसलिए डाइवर्सिटी क्रांति का संकल्प लेना हमारा ऐतिहासिक कर्तव्य बन जाता है.हां,अगर डाइवर्सिटी से बेहतर कोई विकल्प हो तब तो इसे कूड़ेदान के हवाले कर देना चाहिए.
  • दिनांक: 3 जनवरी,2014
  • Mitron!mera yah lekh 'forword press' ke February issue me chhapa hai.isme ngo gang(a.a.p.)ke khaatme ka better formula bhi milega.
  • डाइवर्सिटी क्रांति का संकल्प:इतिहास की जरुरत
  • एच एल दुसाध
  • अगर लोगों से यह पूछा जाय कि मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या क्या है,बहुत कम लोगो का जवाब होगा-'आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी'!किन्तु सचाई तो यही है कि हजारों साल से निर्विवाद रूप से 'आर्थिक और सामाजिक गैर –बराबरी' ही मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या रही है और आज भी है.इसी के कारण भूख,कुपोषण,गरीबी,वेश्या वृत्ति, विच्छिन्नतावाद,उग्रवाद जैसी दूसरी अन्य कई समस्यायों की सृष्टि होती रही है.यही वह सबसे बड़ी समस्या है,जिससे निजात दिलाने के लिए ई.पू.काल में भारत में गौतमबुद्ध,चीन में मो-ती,ईरान में मज्दक,तिब्बत में मुने-चुने पां;रेनेंसा उत्तरकाल में पश्चिम में होब्स-लॉक ,रूसो-वाल्टेयर,टॉमस स्पेंस,विलियम गाडविन ,सेंट साइमन ,फुरिये,प्रूधो,रॉबर्ट ओवन,लिंकन,मार्क्स,लेनिन तथा एशिया में माओत्से तुंग,हो चि मिन्ह,फुले,शाहूजी,पेरियार,आंबेडकर,लोहिया,जगदेव प्रसाद, कांशीराम इत्यादि जैसे ढेरों महामानवों का उदय तथा भूरि-भूरि साहित्य का सृजन हुआ एवं लाखों-करोड़ों लोगों ने अपना प्राण-बलिदान किया.इसके खात्मे को लेकर आज भी दुनिया के विभिन्न अंचलों में छोटा-बड़ा आन्दोलन/संघर्ष जारी है.
  • बहरहाल आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी के खात्मे को लेकर मानव जाति के इतिहास में जो विपुल चिंतन हुआ है उसका ठीक से अनुधावन करने पर यही दिखता है कि पूरी दुनिया में ही इसकी सृष्टि शक्ति के स्रोतों के विभिन्न सामाजिक समूहों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बंटवारे के कारण होती रही है.ध्यान देने की बात है कि सदियों से ही मानव समाज जाति,नस्ल,लिंग,भाषा,धर्म इत्यादि के आधार पर कुई समूहों में बंटा रहा है,सिर्फ अमीर-गरीब के दो भागों में नहीं जैसा कि मार्क्सवादी दावा करते हैं.जहां तक शक्ति का सवाल है ,सदियों से समाज में इसके तीन प्रमुख स्रोत रहे हैं-आर्थिक,राजनीतिक और धार्मिक.शक्ति ये स्रोत जिस सामाजिक समूह के हाथों में जितना ही संकेंद्रित रहे,वह उतना ही शक्तिशाली,विपरीत इसके जो जितना ही इससे दूर रहा वह उतना ही दुर्बल व अशक्त रहा.सदियों से समतामूलक समाज निर्माण के लिए जारी संघर्ष और कुछ नहीं,शक्ति के स्रोतों में वंचितों को उनका प्राप्य दिलाना मात्र रहा है.
  • यह सही है कि हजारों साल से सारी दुनिया में शासक-वर्ग ही कानून बनाकर शक्ति का बंटवारा कराकर करता रहा है.पर,यदि हम यह जानने का प्रयास करें कि सारी दुनिया के शासकों ने अपनी स्वार्थपरता के तहत कौन सा 'कॉमन उपाय'अख्तियार कर शक्ति का असमान वंटवारा कराया तो हमें विश्वमय एक विचित्र एकरूपता का दर्शन होगा.हम पाएंगे कि सभी ही शक्ति के स्रोतों में सामाजिक (social)और लैंगिक (gender)विविधता(diversity)का असमान प्रतिबिम्बन कराकर मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या की सृष्टि करते रहे.किन्तु आर्थिक और सामाजिक विषमता के पृष्ठ में सामाजिक और लैंगिक विविधता की क्रियाशीलता की सत्योपलब्धि आधुनिक मानवताबोध के उदय के साथ बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ही जाकर पश्चिम के शासक कर पाए.इसकी सत्योपलाब्धि कर अमेरिका ,ब्रिटेन,फ़्रांस,आस्ट्रेलिया,न्यूज़ीलैंड इत्यादि जैसे लोकतान्त्रिक रूप से परिपक्व देशों ने अपने-अपने देशों में शक्ति के सभी स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करने की नीति पर काम करना शुरू किया.इसके परिणामस्वरूप उन देशों में महिलाओं,नस्लीय भेदभाव के शिकार अश्वेतों,अल्पसंख्यकों इत्यादि को सत्ता की सभी संस्थाओं,उद्योग-व्यापार,फिल्म-टीवी,शिक्षा के केन्द्रों इत्यादि में सहित शक्ति के तमाम स्रोतों में वाजिब भागीदारी मिलने लगी.ऐसा होने पर उन देशों में आर्थिक और सामाजिक विषमता से उपजी तमाम समस्यायों के खात्मे तथा लोकतंत्र के सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया तेज़ हुई.
  • किन्तु विविधता सिद्धांत को सम्मान देनेवाले पश्चिम के देशों से लोकतंत्र का प्राइमरी पाठ पढने सहित कला-संस्कृति-फैशन-टेक्नॉलाजी-अर्थनीति इत्यादि सब कुछ उधार लेने वाले हमारे शासकों ने उनकी विविधता नीति से पूरी तरह परहेज किया.किन्तु उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था क्योंकि विदेशों की तरह विविधता नीति के अवलंबन की प्रत्याशा उनसे भी थी,ऐसा कई इतिहासकारों का मानना है.इसका साक्ष्य 'आजादी के बाद का भारत' जैसा ग्रन्थ है जिसकी भूमिका में कहा गया है-'1947 में देश अपने आर्थिक पिछड़ेपन ,भयंकर गरीबी ,करीब-करीब निरक्षरता,व्यापक तौर पर फैली महामारी,भीषण सामाजिक विषमता और अन्याय के उपनिवेशवादी विरासत से उबरने के लिए अपनी लम्बी यात्रा की शुरुआत की थी.15 अगस्त पहला पड़ाव था,यह उपनिवेशिक राजनीतिक नियंत्रण में पहला विराम था:शताब्दियों के पिछड़ेपन को अब समाप्त किया जाना था,स्वतंत्रता संघर्ष के वादों को पूरा किया जाना था और जनता की आशाओं पर खरा उतरना था.भारतीय राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना,राष्ट्रीय राजसत्ता को सामाजिक रूपांतरण के उपकरण के रूप में विकसित एवं सुरक्षित रखना सबसे महत्वपूर्ण काम था.यह महसूस किया जा रहा था कि भारतीय एकता को आंख मूंदकर मान नहीं लेना चाहिए.इसे मजबूत करने के लिए यह स्वीकार करना चाहिए कि भारत में अत्यधिक क्षेत्रीय,भाषाई,जातीय एवं धार्मिक विविधताएँ मौजूद हैं.भारत की बहुतेरी अस्मिताओं को स्वीकार करते एवं जगह देते हुए तथा देश के विभिन्न तबकों को भारतीय संघ में पर्याप्त स्थान देकर भारतीयता को और मजबूत किया जाना था.'
  • आज़ादी के बाद के भारत का उपरोक्त अंश को देखते हुए कहा जा सकता है कि हमारे शासकों को इस बात का थोडा बहुत इल्म था कि राजसत्ता का इस्तेमाल विविधता के प्रतिबिम्बन के लिए करना है.यही कारण है उन्होंने किया मगर ,प्रतीकात्मक.जैसे हाल के वर्षों में हमने लोकतंत्र के मदिर में अल्पसंख्यक प्रधानमंत्री,महिला राष्ट्रपति ,मुसलमान उप-राष्ट्रपति,दलित लोकसभा स्पीकर और आदिवासी डिप्टी स्पीकर के रूप में सामाजिक और लैंगिक विविधता का शानदार नमूना देखा.किन्तु यह नमूना सत्ता की सभी संस्थाओं,सप्लाई,डीलरशिप,ठेकों,पार्किंग,परिवहन,फिल्म-टीवी,शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश,अध्यापन और पौरोहित्य इत्यादि शक्ति के प्रमुख स्रोतों में प्रस्तुत नहीं किया गया.चूँकि शक्ति के स्रोतों में भारत में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिबिम्बन प्रायः नहीं के बराबर हुआ इसलिए भारत जैसी आर्थिक और सामाजिक गैर-बरबी दुनिया में कहीं और नहीं है.विश्व में किसी भी देश परम्परागत विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न अल्पजन 15 प्रतिशत लोगों का शक्ति के स्रोतों पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा नहीं है.ऐसी स्थिति एकमात्र दक्षिण अफ्रीका में थी,जहां 9-10 प्रतिशत गोरों का शक्ति के स्रोतों पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा रहा.किन्तु दो दशकों से वहां मूलनिवासी कालों की सत्ता कायम रहने के कारण वहां भी यह गैर-बराबरी अतीत की बात होकर रह गयी है.भारत के शासकों द्वारा डाइवर्सिटी सिद्धांत से परहेज करने के कारण ही हम महिला सशक्तिकरण के मोर्चे पर बांग्लादेश और नेपाल जैसे पिछड़े राष्ट्रों से पीछे तथा सच्चर रिपोर्ट में मुसलमानों की बदहाली की तस्वीर देखकर सकते में हैं.इस कारण ही दलित-पिछड़े उद्योग-व्यापार,फिल्म-मीडिया और पौरोहित्य में दूरवीक्षण यंत्र से देखने की चीज बनकर रह गए हैं.इस कारण ही देश भूख,कुपोषण,गरीबी,उग्रवाद इत्यादि के मामले में विश्व चैम्पियन बन गया है.इससे राष्ट्र को उबारने के लिए विभिन्न संगठन अपने-अपने स्तर पर काम कर रहे हैं.पर, शायद वे आर्थिक सामाजिक विषमता की उत्पत्ति के बुनियादी कारणों से नावाकिफ हैं इसलिए टुकड़ों-टुकड़ों में वंचितों को शक्ति के स्रोतों में हिस्सेदारी की लड़ाई लड़ रहे हैं.अगर इस देश के समताकामी संगठन आर्थिक और सामाजिक विषमता जनित समस्यायों से पार पाना चाहते हैं तो उन्हें शासक दलों पर अमेरिका ,इंग्लैण्ड ,दक्षिण अफ्रीका इत्यादि की भांति शक्ति के समस्त स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक लागू करवाने में सर्वशक्ति लगानी होगी.
  • शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक –विविधता का प्रतिबिम्बन महिला सशक्तिकरण के मोर्चे पर बांग्लादेश और नेपाल जैसे पिछड़े राष्ट्रों से भी पिछड़े भारत को विश्व की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर देगा.तब सच्चर रिपोर्ट में उभरी मुस्लिम समुदाय की बदहाली की तस्वीर खुशहाली में में बदल जाएगी .पौरोहित्य में डाइवर्सिटी ब्राह्मणशाही का खात्मा कर देगी.इससे इस क्षेत्र में ब्राह्मण समाज की हिस्सेदारी सौ की जगह महज तीन-चार पर सिमट जाएगी और शेष क्षत्रिय,वैश्य और शुद्रातिशुद्रों में बाँट जाएगी.तब किसी दस वर्ष के ब्राह्मण को कोई भू-देवता मानकर दंडवत नहीं करेगा.शक्ति के स्रोतों में डाइवर्सिटी दलित-आदिवासी और पिछड़ों को उद्योग-व्यापार,फिल्म-मीडिया इत्यादि तमाम क्षेत्रों में ही संख्यानुपात में भागीदारी दिलाकर उनके जीवन में क्या चमत्कार कर सकती है,इसकी कल्पना कोई भी कर सकता है.डाइवर्सिटी लागू होने पर परोक्ष लाभ यह भी होगा कि इससे दलित और महिला उत्पीडन में भारी कमी;लोकतंत्र का सुदृढ़ीकरण;विविधता में शत्रुता की जगह सच्ची एकता;विभिन्न जातियों में आरक्षण की होड़ व भ्रष्टाचार के खात्मे के साथ आर्थिक और सामाजिक विषमताजनित उन अन्य कई समस्यायों के खात्मे का मार्ग प्रशस्त होगा जिनसे हमारा राष्ट्र जूझ रहा है.अगर इस लेख को पढ़कर ऐसा लगता है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में बहुजनों के लिए डाइवर्सिटी ही सर्वोत्तम विचार है तो वंचित वगों के सामाजिक संगठन नए वर्ष में 'डाइवर्सिटी क्रांति' का संकल्प लें.'आम आदमी पार्टी' की अप्रत्याशित उदय के बाद डाइवर्सिटी क्रांति की जरुरत समय की मांग बन गई है.
  • काबिले गौर है कि 25 नवम्बर,1949 भारतीय संविधान के जनक डॉ.आंबेडकर ने राष्ट्र को सतर्क करते हुए कहा था,'...हमें निकटतम समय के मध्य आर्थिक और सामाजिक विषमता का खात्मा कर लेना होगा अन्यथा विषमता से पीड़ित जनता लोकतंत्र के मंदिर को विस्फोटित कर सकती है.' किन्तु आजाद भारत के सवर्ण शासकों ने उनकी चेतावनी को कभी गंभीरता से लिया नहीं,और राहत और भीखनुमा घोषणाओं के सहारे लाचार बहुजनों को प्रलुब्ध कर सत्ता पर काबिज होते रहे.फलतःआज विश्व में सर्वाधिक गैर-बराबरी भारत में है.इस भीषण विषमता से बेपरवाह भाजपा और कांग्रेस जैसे दल एक बार फिर राहत और भीखनुमा घोषणाओं के सहारे अगली बार केंद्र की सत्ता हथियाने की जुगत भिड़ा रहे थे कि 8 दिसंबर,2013 को अचानक 'आम आदमी पार्टी' का उदय हुआ.मीडिया और भूमंडलीकरण के दौर के नव-सृजित अवसरों का लाभ उठाकर ताकतवर बने सवर्ण युवाओं के समर्थन से पुष्ट 'आप'सामाजिक न्यायवादी दलों को पृष्ठ में धकेलकर भाजपा और कांग्रेस के कतार में जा खड़ी हुई है.कांग्रेस-भाजपा बहुजनों का वोट पाने की लालच में कभी-कभार सामाजिक न्याय की बात कर भी लेती थीं.किन्तु 'आम' नेतृत्व की नज़र में आरक्षण लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है.लोकतंत्र को आरक्षण के खतरे बचाने के लिए वजूद में आई यह पार्टी लोकलुभावन सतही नारों और कामों के जरिये बड़ी तेज़ी से बहुजनो को भी आकर्षित करती जा रही है.भारतीय लोकतंत्र के दु:स्वप्न के रूप में उभर रही 'आप' को यदि रोकना है तो कुछ ऐसा उपक्रम चलाना होगा जिससे बहुजनों में मंडल के बाद अधिकार चेतना का एक नया उभार शुरू हो.चूँकि यह उभार पैदा करने में डाइवर्सिटी से बेहतर कोई विचार नहीं है इसलिए डाइवर्सिटी क्रांति का संकल्प लेना हमारा ऐतिहासिक कर्तव्य बन जाता है.हां,अगर डाइवर्सिटी से बेहतर कोई विकल्प हो तब तो इसे कूड़ेदान के हवाले कर देना चाहिए.
  • दिनांक: 3 जनवरी,2014

जाति मोदी की और हिन्दुत्ववादी रणनीति

अल्पसंख्यकों के विरूद्ध हिंसा करने से धार्मिक पहचान मजबूत होती है…

राम पुनियानी

नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की घोषणा के कुछ ही समय पहले, एक दूसरे मोदी-सुशील मोदी-ने पहली बार नमो के ओबीसी होने की चर्चा सार्वजनिक रूप से की। हाल (जनवरी 2014) में दिल्ली में एक सार्वजनिक सभा में नरेन्द्र मोदी ने अपनी जाति का जिक्र किया। यह आश्चर्यजनक है कि मोदी अपनी जाति पर इतना जोर दे रहे हैं क्योंकि आरएसएस, जिसके वे प्रशिक्षित स्वयंसेवक हैं, एकाश्म हिन्दू पहचान का निर्माण करना चाहता है और हिन्दू धर्म में जातिगत भेदभाव और ऊँचनीच के अस्तित्व को नकारना चाहता है। आरएसएस की राजनीति, दरअसल, जाति के पिरामिड पर आधारित विचारधारा है जिसमें हर जाति के लिये स्थान नियत है। जातिप्रथा के मूल में है नीची जातियों का दमन। हिन्दुत्व की राजनीति का लक्ष्य यह है कि ये दमित जातियां अर्थात दलित और ओबीसी अपनी जातिगत पहचान को भुलाकर केवल हिन्दू के रूप में अपनी पहचान को याद रखें।

हिन्दुत्व की राजनीति को समय-समय पर जाति व्यवस्था से चुनौती मिलती रही है। आरएसएस की शुरूआत ही समाज में नीची जातियों के आगे बढ़ने की प्रतिक्रिया स्वरूप हुयी थी। सन् 1920 में दलितों ने जमींदार-ब्राह्मण गठबंधन से मुकाबला करने के लिये ब्राह्मण-विरोधी आन्दोलन शुरू किया। इसकी प्रतिक्रिया में ऊंची जातियों ने एक मंच पर आकर आरएसएस की नींव रखी। इस गठबंधन का लक्ष्य था हिन्दू राष्ट्र का निर्माण। इसके ठीक विपरीत था अंबेडकर का एजेंडा, जो जाति के उन्मूलन की बात करता था और जो सामाजिक न्याय की अवधारणा कोभारतीय राष्ट्रवाद के उभरते हुये ढाँचे में उसका उचित स्थान दिलवाने के प्रति प्रतिबद्ध था। संघ, राष्ट्रीय आन्दोलन के भी विरूद्ध था क्योंकि इस आन्दोलन की यह मान्यता थी कि जातिगत पदानुक्रम को समाप्त कर समानता की ओर अग्रसर होना, स्वाधीनता हासिल करने के लिये आवश्यक है। इस दौरान हिन्दुत्व के झण्डाबरदार, जिनमें गोलवलकर शामिल थे, उन हिन्दू धर्मग्रन्थों की शान में कसीदे काढ़ रहे थे, जिनमें जाति भेद को औचित्यपूर्ण और दैवीय ठहराया गया था। हिन्दुत्ववादी चिन्तकों को जातिप्रथा की क्रूरता से कोई लेनादेना नहीं था। वे तो जातिप्रथा का महिमामण्डन करते थे और यह मानते थे कि जातिप्रथा हिन्दू समाज का आधार और उसकी ताकत है। स्वाधीनता के बाद, भारतीय संविधान ने दलितों की समानता की ओर की यात्रा को सुगम बनाया। संविधान में कई ऐसे सकारात्मक प्रावधान किये गये जिनसे दलितों को कुछ हद तक अवसरों की समानता हासिल हो सकी।

सन् 1980 का दशक आते-आते तक सामाजिक वातावरण बदल चुका था। ऊँची जातियों को ऐसा लगने लगा था कि शिक्षा और नौकरियों के मामले में सरकार, दलितों को उनकी योग्यता और जरूरत के मान से बहुत अधिक दे रही है। वे यह कहते थे कि दलित सरकारी दामाद बन गये हैं उनकी यह मान्यता थी कि उनके 'योग्य' बच्चों को शिक्षण संस्थाओं और नौकरियों में उचित हिस्सेदारी नहीं मिल रही है। इसी तरह की भावना के चलते, सन् 1980 के दशक में अहमदाबाद में दलित विरोधी हिंसा हुयी। सन् 1980 के मध्य में अन्य पिछड़े वर्गों को पदोन्नति में आरक्षण देने के मुद्दे पर ओबीसी के खिलाफ हिंसा हुयी। सन् 1980 के दशक में मण्डल आयोग आया। ऊँची जातियों में इस आयोग की रपट लागू होने के विरूद्ध जो गुस्सा था, उसे संघ परिवार के सदस्यों ने स्वर दिया। चुनावी गणित के कारण संघ और उसके विभिन्न संगठनों ने यद्यपि औपचारिक रूप से मण्डल आयोग का विरोध नहीं किया परंतु राम मंदिर का मुद्दा उठाकर, समाज का ध्यान दूसरी ओर खींचने की पर्याप्त कोशिश की।

इस बीच आरएसएस ने सोशल इंजीनियरिंग की एक योजना बनाई जिसके तहत दलितों को हिन्दुत्व की राजनीति में सहयोजित किया जाना था। उन्हें बाबरी ध्वँस और गुजरात की मुस्लिम-विरोधी हिंसा में बढ़चढकर भाग लेने के लिये प्रोत्साहित किया गया। अल्पसंख्यकों के विरूद्ध हिंसा करने से धार्मिक पहचान मजबूत होती है दलितों के मामले में साम्प्रदायिक हिंसा के कारण हिन्दू पहचान महत्वपूर्ण बन गयी और जातिगत पहचान नेपथ्य में चली गयी। अल्पसंख्यकों के विरूद्ध हिंसा में भाग लेने वाले दलितों की हिन्दू पहचान मजबूत होती चली गयी। हाल के मुजफ्फरनगर दंगे, इस रणनीति की सफलता का अच्छा उदाहरण है। यहाँ जाटों और मुसलमानों के बीच पीढ़ियों से चले आ रहे नजदीकी सम्बंधों को तोड़ने के लिये जाट पहचान के स्थान पर हिन्दू पहचान की स्थापना कर दी गयी। इसके लिये मुसलमानों का दानवीकरण किया गया। इसी तरह की सोशल इंजीनियरिंग के जरिए दलित व पिछड़े नेताओं जैसे उमा भारती, कल्याण सिंह और विनय कटियार को आरएसएस अपनी राजनीति की अग्रिम पंक्ति में ले आया और उनके जरिए बाबरी मस्जिद का ध्वँस और अपने अन्य सांप्रदायिक एजेंडे लागू किए। इस सोशल इंजीनियरिंग के चलते दलितों का एक हिस्सा विभाजनकारी राजनीति की ओर आकर्षित हो रहा है।

दूसरे स्तर पर 'सामाजिक समरसता मंच' जैसे संगठन गठित किए जा रहे हैं जो विभिन्न जातियों के बीच सौहार्द की बात तो करते हैं परंतु जातिप्रथा के उन्मूलन या जातिगत भेदभाव की समाप्ति की नहीं। यह अंबेडकर की सोच के धुर विपरीत है, जिनकी दृष्टि में जाति का उन्मूलन ही दलित राजनीति का केन्द्रीय एजेण्डा था। जहाँ अंबेडकर ने दलितों की बदहाली की ओर देश और दुनिया का ध्यान आकर्षित किया और उनको न्याय दिलवाने के लिये संघर्ष किया वहीं आरएसएस ने दबे छुपे ढँग से दलितों की भलाई के लिये उठाये जाने वाले सकारात्मक कदमों का विरोध किया। संघ ने कभी दलितों पर होने वाली ज्यादतियों के खिलाफ अपनी आवाज नहीं उठाई। इस तरह, सांप्रदायिक राजनीति के खिलाडि़यों ने एक चतुर रणनीति बनाई है। एक ओर वे दमित जातियों की बेहतरी के लिये उठाये जाने वाले सकारात्मक कदमों का विरोध करते हैं तो दूसरी ओर वे उन्हें हिन्दुत्व में सहयोजित भी कर रहे हैं। इसके साथ ही वे विभिन्न जातियों के बीच सौहार्द की बात भी करते हैं।

जाति के प्रश्न पर संघ परिवार की दो समानांन्तर रणनीतियाँ हैं। एक ओर वह मोदी की ओबीसी पहचान का पर्याप्त प्रचार करना चाहता है ताकि उन्हें उनकी जाति के आधार पर ज्यादा से ज्यादा मत मिल सकें। परन्तु इस जातिगत पहचान को जीवित रखते हुये भी वह उनकी छवि एक हिन्दू नेता की बनाना चाहता है। इस हिन्दू पहचान, जो कि जातिगत पहचान के ऊपर है, के निर्माण के लिये सांप्रदायिक हिंसा का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके साथ ही 'दूसरे' के प्रति भय का भाव भी उत्पन्न किया जा रहा है (हम हिन्दुओं को मुसलमानों और ईसाईयों से खतरा है)। विचारधारा के स्तर पर संघ, दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानवतावाद का प्रचार करता है। एकात्म मानवतावाद के सिद्धान्त की मूल अवधारणा यह है कि विभिन्न वर्ण, विराट पुरूष के विभिन्न अंगो से उपजे। उसके मुख से ब्राह्मण बने, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य व पैरों से शूद्र। कुल मिलाकर इसका अर्थ यह है कि ये सभी वर्ण और जातियाँ एक दूसरे की पूरक हैं।

मोदी इस अवधारणा को आध्यात्मिक स्तर तक ले गये। गुजरात के सूचना विभाग ने उनकी एक पुस्तक प्रकाशित की है जिसका शीर्षक है 'कर्मयोग'। इस पुस्तक में मोदी कहते हैं, -

''वाल्मीकि जाति के लिये सफाई करना एक आध्यात्मिक अनुभव रहा होगा। किसी समय, किसी को यह ज्ञान प्राप्त हुआ होगा कि पूरे समाज और ईश्वर की प्रसन्नता की खातिर यह काम करना उनका (वाल्मीकि) कर्तव्य है: व यह कि ईश्वर द्वारा सौंपी गयी इस जिम्मेदारी को उन्हें निभाना है व यह कि उन्हें सफाई के इस काम को एक आध्यात्मिक कार्य मानकर सदियों तक करना है। यह काम वे पीढ़ी दर पीढ़ी करते आ रहे हैं। यह विश्वास करना असंभव है कि उनके पूर्वज कोई और काम या व्यवसाय शुरू नहीं कर सकते थे।"

ध्यान रहे कि यह आध्यात्मिक अनुभव केवल वाल्मीकि-जो कि दलितों की एक उपजाति है-के लिये आरक्षित है। यह जाति सदियों से सफाई के काम करने के लिये मजबूर रही है। इस जाति के कार्य को कई बाबा महिमामण्डित करते आये हैं। उनमें से एक पांडुरंग शास्त्री अठावले ने साफ शब्दों में घोषणा की कि किसी भी जाति को उसके कर्तव्यपथ से विचलित नहीं होना चाहिए क्योंकि इससे समाज को नुकसान होगा। एक दूसरे बाबा श्री श्री रविशंकर अपनी लेखनी के जरिए जातिगत सौहार्द का प्रचार करते आ रहे हैं।

इस राजनीति और उसकी रणनीतियों के बीच कोई सीधा रिश्ता नहीं है। हिन्दुत्व की राजनीति, जातिगत पदानुक्रम को बनाए रखना चाहती है और इसके लिये विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल करती है। निःसंदेह इस राजनीति की सबसे बड़ी 'सफलता' यही होगी कि विचारधारा की घुट्टी पिला-पिलाकर किसी गैर-उच्च जाति के हिन्दू को इस राजनीति का नायक बना दिया जाए। मोदी हिन्दुत्व नायक हैं और साथ ही ओबीसी भी। यह हिन्दुत्ववादी एजेण्डे को लागू करने की दिशा में बड़ी सफलता है क्योंकि ऐसा करके जातिव्यवस्था का पोषण करते हुये भी चुनावी मैदान में जीत हासिल की जा सकती है। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

About The Author

राम पुनियानी, लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।

Aam Aadmi Party

A Google Hangout by Aam Aadmi Party senior leader Yogendra Yadav on India's 65th Republic Day raised Rs 18 lakh from the party's supporters worldwide.


The Google Hangout with Yadav was held in 17 cities across the globe, including London, Amsterdam, Tokyo, Boston, Washington DC, Chicago and Philadelphia, wherein AAP supporters posed direct questions to the leader. A total of Rs 18 lakh was raised through the Hangout session.


News Link: http://www.deccanchronicle.com/140128/news-politics/article/yogendra-yadavs-republic-day-google-hangout-session-raises-rs-18-lakhs

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ANUARY 24, 2014, 7:37 AM  3 Comments

New Law to Ban Manual Removal of Human Waste Disappoints

By MAX BEARAKCourtesy of Rashtriya Garima AbhiyanA manual scavenger in Khargone district of Madhya Pradesh in 2013.

NEW DELHI — Last month, human rights advocates should have rejoiced after the central government enacted the most stringent law against what is euphemistically called manual scavenging, which is the removal of human waste with bare hands.

India's widespread absence of flush toilets and sewer lines means much of the country's human waste must be scraped out by hand, and then carried in baskets to dump sites. The people who carry out this dehumanizing task, almost exclusively women from the Dalit castes, experience severe discrimination. Among the Dalits, those who are born into the lowest castes handle these jobs and are put under immense social pressure to take up the occupation themselves.

Since independence, discrimination based on caste has been banned and a law banning manual scavenging was passed in Parliament in 1993, but it didn't ban dry toilets and had no employment aid for former workers. It has gone largely unenforced.

Given that the new law prohibits the hiring of such workers and provides alternative job training, one would have expected human rights advocates like Ashif Shaikh, who has devoted 12 years to getting a stronger law passed, to feel a sense of accomplishment.

"We are happy about the new law," he said. But the specifics of implementation, which are decided by government committees, were "rubbish," he said.

For instance, the text of the new law includes provisions for the rehabilitation of scavengers through a one-time cash stipend, plus access to scholarships and free vocational training. But the law's rules, which spell out how the law will be carried out, don't reflect the ambitious spirit of the law itself, according to Mr. Shaikh.

"If you look at the rules, the word rehabilitation isn't even used once," he said. "When we asked the Ministry of Social Justice and Empowerment about the lack of any specifics in the rules as to rehabilitation, they said, 'We are preparing separate schemes for that.' But schemes are not law, which we can hold accountable in court."

Mr. Shaikh and his fellow activists did have high hopes at one time that the new law would have enough teeth to eradicate these jobs, which are held by around 300,000 Dalits, according to government estimates. (Some Dalit rights activists say it could easily be triple that number.)

The organization that Mr. Shaikh founded, Rashtriya Garima Abhiyan (National Campaign for Dignity), led a campaign last year in which 1,000 former manual scavengers traveled from village to village across 18 states for two months, persuading other women to leave the job and join them in "liberating" others. Mr. Shaikh said 5,000 more women ended up accompanying them to their final destination in Delhi.

This caught the attention of policy makers, including Jairam Ramesh, the current Minister of Rural Development. Mr. Shaikh decided to capitalize on the momentum by bringing some of his newly "liberated" scavengers to knock on the doors of more than 50 members of Parliament who represented their districts. That way, the lawmakers could not claim that manual scavenging had been eradicated in their jurisdictions.Courtesy of Rashtriya Garima AbhiyanFormer manual scavengers burning baskets used to collect human waste at a rally in Bhopal, Madhya Pradesh, on Nov. 30, 2012.

Mr. Shaikh excitedly recounted a morning when Meenakshi Natarajan, a Congress Party lawmaker from Madhya Pradesh, served him and former manual scavengers breakfast in her living room. Dalits, let alone manual scavengers, are traditionally not allowed to enter the homes of higher caste people.

Mr. Shaikh said these efforts by his organization and other Dalit activists are what led to the drafting of the most recent law. But they didn't have power to specify how the law should be carried out.

He pointed to the one chapter in the rules that deals with rehabilitation, while never using that word. It has only one clause, stating that former manual scavengers will be given a one-time "cash assistance," without specifying by whom, when or how much.

If implemented, the new law would severely curtail the use of dry toilets, also known as insanitary latrines, as it carries high fines and the possibility of jail time for those who employ manual scavengers or who fail to replace latrines that require manual cleaning. Those households using insanitary latrines will be held responsible for converting or demolishing them at their own cost, or the authorities under the orders of district magistrates will convert the latrines and recover the cost from the owner.

Furthermore, offices of district magistrates around the country are required to survey existing dry toilets by Feb. 6, and their subsequent destruction must take place within six months of that date.

In a phone interview last month, Sanjeev Kumar, joint secretary for the Ministry of Social Justice and Empowerment, which sponsored the law, assured that these deadlines were "very strict" and that the government would spare no effort to enforce the new law, albeit mostly through existing government programs.

"There is no need to worry about the specifics," said Mr. Kumar. "Money won't even be a consideration, not a barrier at all."

However, Manjula Pradeep, executive director of Navsarjan Trust, a Dalit rights nonprofit based in Gujarat, said that to her knowledge, with two weeks until the survey deadline, preparations haven't yet begun in any state.

"With national elections coming up, I think government is content to simply have passed the law," she said. "Meanwhile, state governments continue to deny the widespread presence of manual scavengers in their states and use that as an excuse to delay new surveys indefinitely."

She used her own state as example, where the government has contended that Gujarat has no manual scavengers, despite two independent surveys that found over 10,000 of them.

The central government, for its part, insists that it is committed to eliminating those jobs. "There can't be a greater blot on India than the existence of manual scavenging," Mr. Ramesh, the rural development minister, said in an interview. "Manual scavenging shows us how caste is still very much an Indian reality, and of how some of the system's worst vestiges are still with us."

But Mr. Shaikh, having lost faith in the central government's assurances, said his organization will now focus on state-level conventions in an attempt to pressure state governments to act upon the new law.

Along with Mr. Shaikh and Ms. Pradeep, Bezwada Wilson completes the tripartite of activists who have been at the forefront of working to end the practice of manual scavenging both on the ground and through law. Mr. Wilson was born into a manual scavenging family and became one of the founders of Safai Karmachari Andolan, a people's movement that aims to eradicate manual scavenging.

Out of the three activists, he is the most radical and also the most distrusting of the government. He has already begun planning how to incorporate the expected failure to meet the Feb. 6 deadline into expansive public interest litigation against the central government.

Mr. Wilson said he has given up on using political channels to accomplish his goals. "Really, the government may not have success anyway through laws," he said. "It's better if people like me directly go and speak these people's language. When I go. I tell them, 'There are 130 crore [1.3 billion] people in this country, and just like you most of them are poor. But only so many of them are scavenging. There are ways to live outside of this, even as a poor person,' " he said, pacing around his office. "Sometimes they don't think they can just be a regular poor person."

He settled back into his chair and shook his head. "Still! The government should make an actual vision," he said. "Tell us it will take 10 years. Just be honest."

http://india.blogs.nytimes.com/2014/01/24/new-law-to-ban-manual-removal-of-human-waste-disappoints/?_php=true&_type=blogs&_php=true&_type=blogs&ref=asia&_r=1

Dalits Media Watch

News Updates 30.01.14

Clashes kill 3 after bid to assault Dalit girl in UP- The Indian Express

http://indianexpress.com/article/india/uttar-pradesh/clashes-kill-3-after-bid-to-assault-dalit-girl-in-up/

Odisha: National Commission for Scheduled Castes asks DM to depose in person over Dalit land grab issue- Orissa Dairy

http://www.orissadiary.com/CurrentNews.asp?id=47631

Eight persons accused in Dalit atrocity case in jail- The Hindu

http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-karnataka/eight-persons-accused-in-dalit-atrocity-case-in-jail/article5632894.ece

Burial ground for Dalits in all villages- The Hindu

http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-karnataka/burial-ground-for-dalits-in-all-villages/article5632911.ece

'COMPENSATION FOR SC/ST VICTIMS TO BE EXPEDITED'- The Pioneer

http://www.dailypioneer.com/state-editions/raipur/compensation-for-scst-victims-to-be-expedited.html

Mystery shrouds farm labourer's death- The Hindu

http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-andhrapradesh/mystery-shrouds-farm-labourers-death/article5633376.ece

Lower-caste people get less aid when disaster strikes – report- Reuters

http://in.reuters.com/article/2014/01/29/india-low-caste-dalits-idINDEEA0S03M20140129

SC students storm Collectorate- The Hindu

http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-andhrapradesh/sc-students-storm-collectorate/article5633383.ece

Dalit Christians demand justice for student- The Hindu

http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-tamilnadu/dalit-christians-demand-justice-for-student/article5633055.ece

Congress for SC/ST quota in private educational institutions- Business Standard

http://www.business-standard.com/article/politics/congress-for-sc-st-quota-in-private-educational-institutions-114012901101_1.html

The Indian Express

Clashes kill 3 after bid to assault Dalit girl in UP

http://indianexpress.com/article/india/uttar-pradesh/clashes-kill-3-after-bid-to-assault-dalit-girl-in-up/

JUST five months after the Muzaffarnagar communal riots, three persons have been killed in caste violence in Bulandshahr district of Uttar Pradesh.

According to reports, clashes broke out on Tuesday after a group of youths belonging to the Thakur community tried to rape a Jatav (Dalit) minor girl here. While the girl managed to escape and her relatives beat up the youths, rumours that she was raped spread in the village. The Jatavs assembled in large numbers and clashed with the Thakurs.

Two Thakurs and one Jatav were killed while six were injured in the violence which lasted for over an hour.

"We have arrested two members each from the two groups. Police and PAC personnel have been deployed in the village. A case under the SC/ ST Act and a case of eve-teasing have been registered," said Lakshmi Singh, Bulandshahr SSP. "The in-charge of the police outpost, Devendra Singh Chauhan, has been suspended for not acting on the complaints of Jatavs," she said.

"We have lodged several complaints with the police about the Thakurs' violent behaviour but no action has been taken," said a Jatav.

Orissa Dairy

Odisha: National Commission for Scheduled Castes asks DM to depose in person over Dalit land grab issue

http://www.orissadiary.com/CurrentNews.asp?id=47631

Koraput: The National Commission for Scheduled Castes (NCSC) has directed the Koraput district Collector to appear in person in New Delhi and appraise it of the action taken by the district administration so far on the alleged forcible acquisition of land belonging to a dalit family by State School and Mass Education Minister Rabi Narayan Nanda.

The NHRC's directive came during the hearing on a petition filed by a dalit family of Patraput village under the Jeypore sadar police station by NCSC Chairman PL Punia.

In a letter to the Koraput Collector, NHRC Research Officer AP Goutam has asked him to appear in person before the commission on February 10 to have a detailed discussion and submit documents relating to the piece of land and detailed record of the deal.

A copy of the letter has been forwarded to the petitioner, Hari Pangi, who had staged a dharna in front of the office of the local Sub-Collector against the alleged forcible land acquisition by the family members of the Minister. As the district administration turned a deaf ear to his plea, he later approached the NCSC for redressal of his grievance.

The Hindu

Eight persons accused in Dalit atrocity case in jail

http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-karnataka/eight-persons-accused-in-dalit-atrocity-case-in-jail/article5632894.ece

The Nangli police in Kolar district on Wednesday arrested all the eight persons accused in a recent case of atrocities on Dalits at Kagganahalli in Mulbagal taluk. All of them were produced before court which remanded them in judicial custody till February 6, Mulbagal Deputy Superintendent of Police T. Siddaiah told The Hindu . The arrested were lodged in the sub-jail here. The situation in the village is peaceful now, Mr. Siddaiah added.

The Nangli police registered a case following a caste abuse complaint lodged by Nagabhushan, one of the members of four families which were facing boycott, on January 21.

Shankara Reddy, Keshavappa, Suresh, Krishna Reddy, Anjaneya Reddy, Srinivas, Narayanaswamy and Munivenkata Reddy are the arrested. A police team arrested the accused when they were on their way to get bail from court.

Boycott

Four Dalit families of Kagganahalli accused that upper caste people imposed a social boycott on them, prompting Social Welfare Minister H. Anjaneya to visit the village a couple of days ago. Mr. Anjaneya then warned that social evils such as boycott of Dalits cannot be tolerated and that action would be taken against the culprits.

MLA G. Manjunath, Inspector-General of Police of Civil Rights Enforcement Directorate Nanjundaswamy, Deputy Commissioner D.K. Ravi and Superintendent of Police Ram Nivas Sepat accompanied Mr. Anjaneya.

The Hindu

Burial ground for Dalits in all villages

http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-karnataka/burial-ground-for-dalits-in-all-villages/article5632911.ece

Minister for Revenue V. Srinivas Prasad on Wednesday said in the Legislative Assembly that he would issue orders for providing burial grounds for the Dalits in all the villages and hamlets; if necessary, private land would be acquired for the purpose.

Replying to Govind M. Karjol of the BJP and Speaker Kagodu Thimmappa, Mr. Prasad said it was mandatory for the deputy commissioner to provide land for burial. The debate was on the motion of thanks to the Governor for his address. Mr. Thimmappa suggested that he take up a time-bound programme as the DCs had a tendency to forget such orders. C.S. Nadagouda (Congress) said that the DCs did not buy land as the rate was high.

Mr. Karjol said the police should be provided with sophisticated weapons and vehicles to combat crime and protect the Dalits. He urged that land should be given to hostels and residential schools for the Dalits, and this was supported by B.R. Patil (KJP).

He wanted to cancel gram panchayat committees which select SC/ST beneficiaries for various programmes.

He said it should be headed by the MLA concerned. He urged immediate payment of compensation to the farmers who had lost cattle and distribution of maize instead of rice in north Karnataka. He said wine should be kept out of the purview of the Excise Department, for its development.

Karjol's demand

The BJP leader wanted immediate appointment of chairmen of 12 academies under the Department of Kannada and Culture.

The former Speaker K.G. Bopaiah claimed that cattle, especially cows, in Kodagu district were being regularly sent to the slaughterhouses and outside the State. He said the government supplies milk to children and hikes the price of milk, but fails to stop smuggling of cows. He was supported by Appachu Ranjan (BJP).

Mr. Bopaiah alleged that communal clashes were on the rise.

The Pioneer

'COMPENSATION FOR SC/ST VICTIMS TO BE EXPEDITED'

http://www.dailypioneer.com/state-editions/raipur/compensation-for-scst-victims-to-be-expedited.html

Bilaspur district collector Thakur Ram Singh on Wednesdaydirected the concerned officials to expedite the cases pertaining to scheduled caste and scheduled tribe and pays the victims the compensation which has been delayed, in fifteen days.

Singh issued the direction in the meeting of the district level vigilance and monitoring committee which has been set up under the Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act', 1995.

The administration has yet to pay a total compensation of 2,70,000 rupees in about 12 cases. Although the compensation amounts have been approved, the payments have been delayed. The collector told the officials that they should inform the concerned victims and ask them to present their grievances at the Jandarsan programme.

He also asked them to handover the compensation amount during the programme. According to the facts presented at the meeting, at least 41 cases of atrocities against scheduled caste and scheduled tribe were registered in the district last year out of which charge sheets were filed in only 28 cases.

There was a delay in the filing of charge sheet in at least 18 such cases. Last year the administration paid a total compensation amount of Rs 12.22 lakh rupees to about 53 victims under the act.

Concerned officials placed the latest status of the cases of atrocities in the meeting. According to the figures, so far 82 cases of atrocities have been placed before the court out of which 33 cases have been disposed off.

The Government also provides legal and financial assistance to the victims of atrocities and the witnesses when they come to depose before a court. This includes payment towards the travel and food.

The Hindu

Mystery shrouds farm labourer's death

http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-andhrapradesh/mystery-shrouds-farm-labourers-death/article5633376.ece

Police book case under the SC & ST Prevention Act

Two days after a farm labourer belonging to Scheduled Castes was found dead under suspicious circumstances at K.P Gudem village in Veldurthy mandal, police booked a case under the SC & ST Prevention Act.

Bakkaiah, a farm labourer was found dead in a canal near a paddy field on January 26. He was part of a group of farmers who had gone to work in the fields. The group had been making preparations to have lunch, when the farmer was found in the canal. Police say that there were no visible injury marks on the body. Villagers led by Madiga Reservation Porata Samithi (MRPS) leader Manda Krishna Madiga met District Collector S. Suresh Kumar and Superintendent of Police J. Satyanarayana on Tuesday night and demanded that cases under the SC & ST Act should be registered.

Reuters

Lower-caste people get less aid when disaster strikes - report

http://in.reuters.com/article/2014/01/29/india-low-caste-dalits-idINDEEA0S03M20140129

NEW DELHI (Thomson Reuters Foundation) - Discrimination faced by lower-caste communities has not only left millions of people across the world more vulnerable to disasters, but has also resulted in many receiving less aid when a natural calamity strikes, according to a report launched on Tuesday.

The "Equality in Aid" report by the International Dalit Solidarity Network www.idsn.org/ said around 260 million people in countries such as India, Sri Lanka, Pakistan, Nigeria, Senegal, Yemen and Japan face caste-based prejudice and human rights violations in their everyday lives.

Their plight is worsened when a disaster like a flood or a drought occurs because many do not get the same access to emergency aid such as clean water, dry food rations or shelter as their higher-caste neighbours.

"Even prior to a natural hazard like a drought, floods, typhoons or earthquakes, Dalit communities are more vulnerable and exposed to disasters," the report said, referring to the low caste-communities based in South Asia.

"During an emergency, Dalits' precarious living conditions and lack of social protection mean that they are often the worst affected. But their status as 'untouchables' and the social exclusion they face affect the kind of emergency relief they receive."

The report cited examples of caste-based discrimination in aid distribution from various disasters in South Asia, such as the 2001 earthquake in India's Gujarat state, the Indian Ocean tsunami in 2004, and the Pakistan floods in 2010.

For example, lower-caste communities were refused food at a relief camp in Sri Lanka after the 2004 tsunami, while during the same disaster in India, Dalits were exploited for their labour to remove corpses and debris.

India is one of the most disaster-prone countries in the world, and many of its 1.2 billion people live in areas vulnerable to natural hazards such as floods, cyclones, droughts and earthquakes. The 2011 census showed there were at least 200 million Dalits in India - excluding Muslim and Christian Dalits.

Around 76 percent of India's coastline is prone to cyclones and tsunamis, while 59 percent of the country is vulnerable to earthquakes, 10 percent to floods and river erosion and 68 percent to droughts.

NO COMPENSATION

Experts say more frequent and more intense extreme weather events caused by climate change mean that countries like India need to make it a high priority to improve their planning and response to calamities.

The report, funded by the European Commission Humanitarian Aid and Civil Protection Office (ECHO), said one of the biggest problems facing low-caste groups was that they have very few assets and therefore do not qualify for compensation - pushing them further into poverty and deprivation.

"What assets Dalits do have, such as unregistered fishing boats or nets and make-shift houses without land titles, often go unrecognised as formally owned by them, thereby hiding significant disaster losses," the report said.

"In a serious disaster situation many Dalits use loans to cope e.g. to provide for lost homes, food and medicine, exposing them to a vicious cycle of bonded labour, where whole families can become indentured servants to repay a loan often several times over."

The report called on governments, civil society and international agencies publicly to recognise the problem of caste-based discrimination in aid and to form a common approach towards addressing it.

"While the state is the primary duty bearer in fulfilling human rights obligations within its borders in disaster situations, NGOs, U.N. agencies and international donors assisting disaster risk reduction and response have a responsibility to respect human rights obligations," the report concluded.

The Hindu

SC students storm Collectorate

http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-andhrapradesh/sc-students-storm-collectorate/article5633383.ece

About 1000 Dalit students thronged the Prakasam Bhavan here on Wednesday in protest against the deplorable condition of the AP State Social Welfare residential hostel-I.

The hostel inmates joined by APSWR hostel-II students came in a huge procession from Mamidpalem to the Collectorate to highlight the dilapidated condition of the hostel located in a rented building.

Human chain formed

"As many as 30 students share a room meant for four students," said a group of students led by hostel secretary G. Gopal Rao before forming a massive human chain at the busy church centre here to press for construction of a spacious building. The toilets were in disuse due to lack of water, they added.

The statutory backing to SC/ST sub-plans had been projected as a panacea for all the ills afflicting the under-privileged sections of students. But the situation on the ground had not changed for the better, lamented Jai Bheem Voice president K.Anjaneyulu.

Madiga Reservation Porata Samiti State general secretary Usuripati Brahmaiah Madiga, Bahujan Samaj Party State secretary Ongole Chittibabu, Bahujana Keratalu Editor Palanati Sriramulu were among the Dalit leaders who expressed solidarity with the agitating students and demanded that State government spend the SC/ST sub-plan funds properly and ensure a congenial atmosphere in their hostels to pursuing their studies.

Prakasam district Collector G.S.R.K.R.Vijaykumar, to whom they submitted a memorandum, had asked the Ongole Revenue Division Officer to allot a piece of land near the Nellore bus stand for a permanent building, they added before concluding the agitation.

 As many as 30 students share a room meant for four, say students

 Collector asks Ongole RDO to allot land for a permanent building

The Hindu

Dalit Christians demand justice for student

http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-tamilnadu/dalit-christians-demand-justice-for-student/article5633055.ece

Hundreds of Dalit Christians and members of 'Uzhaikkum Pengal Iyakkam' laid a siege to the Dindigul Diocese Bishop House at Tamaraipadi here on Wednesday condemning denial of priesthood to a Dalit theology student.

They squatted in front of the house where bishops from 17 districts took part in a special meeting.

Talking to media persons, the Iyakkam leader, Sandhana Mary, said six persons including Michael Raj of R.S. Mangalam in Sivaganga district were suspended from a theological institution in Tiruchi. Mr. Raj had been punished though another student owned up responsibility to the mistake in writing and appealed to authorities not to punish others. But the authorities demanded that the five others must also own up responsibility to the mistake and give it in writing. But Mr. Raj refused to oblige since he did not commit the mistake.

Ms. Mary said he was the first Dalit youth from RS Mangalam to get an opportunity to study in the Tiruchi Theological Society. "Why he was not allowed to receive his B. Theology degree? It comes in the way of him serving in RS Mangalam where Dalit Christians form 60 per cent of the population. The Bishop is not willing to have a dialogue with us," she alleged.

Meanwhile, the police met the agitators and the bishops. The latter replied in writing stating that they could not interfere in the issue as it came under the purview of Sivaganga diocese and only the bishop there could look into it. But the protestors showed another letter written by Sivaganga bishop stating that the decision against Mr. Raj was taken by seven bishops.

After hectic parleys, the bishop directed the agitators to meet the Pope in Rome "as he only can take a final decision." Later the protestors left the place. Authorities in the bishop's house at Thamaraipadi refused to comment on the issue.

After completion of the course, theology students served as diocesan priests under the bishop control or as priests in Christian institutions in different disciplines, said church sources.

Business Standard

Congress for SC/ST quota in private educational institutions

http://www.business-standard.com/article/politics/congress-for-sc-st-quota-in-private-educational-institutions-114012901101_1.html

Kavita Chowdhury  |  New Delhi January 30, 2014

SC/ ST reservation to the tune of 15% and 7.5% respectively, at present applies only to government and government aided educational institutions

To push its "inclusive" agenda ahead of the general elections, the Congress is proposing reservation for Scheduled Castes (SCs) and Scheduled Tribes (STs) in private educational institutions. At present, SC and ST reservation of 15 and 7.5 per cent, respectively, applies only to government and government-aided educational institutions. The big ticket proposal, which has been mooted for the party's manifesto, was given shape after the party conducted consultations with several Dalit youths and students.


Under Congress Vice-President Rahul Gandhi, there has been a renewed thrust on bringing Dalits back to the party fold. He had spoken about the need for Dalits to acquire "the escape velocity of Jupiter" to improve their lot and this proposal is one such step.   


Un-aided institutions such as the Indian School of Business, Hyderabad, private universities, degree colleges, engineering and medical colleges would fall under the ambit of private institutes.


A Congressman, closely connected with the proposal, said, "After all, the government may not be directly funding them but it provides an enabling environment for such educational institutes. And, there has to be equal access to all communities to such institutes."


At present, the creamy layer within the SCs and STs is denied benefits of reservation. But the Congress proposal seeks to end this distinction.


The party is in favour of enacting a law to translate this into a reality. The 93rd constitutional amendment had already paved the way for quotas in private educational institutions. The Congress wants to see that implemented.


Ever since Rahul took charge, he has been focusing on issues concerning employment and skills development.


Just as in 2004 and again in 2009, the party will be pushing for reservation in private sector jobs as well. The party is keen to bring in legislation to ensure there is reservation for these communities in private sector jobs also.


Traditionally, Dalits had been a Congress vote bank, but, of late, they have drifted towards other parties.

Despite the party's assurances of "affirmative action" , the decline has been unabated.

News Monitor by Girish Pant

.Arun Khote

On behalf of

Dalits Media Watch Team

(An initiative of "Peoples Media Advocacy & Resource Centre-PMARC")


Pl visit on FACEBOOK : https://www.facebook.com/DalitsMediaWatch

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अलक्षित प्रतिरोध की पुनर्रचना

Author: समयांतर डैस्क Edition : June 2013

रामप्रकाश कुशवाहाकिसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन :रामाज्ञा शशिधर ; पृ. 207, मूल्य : 225 अंतिका प्रकाशन

ISBN 978 – 93 – 81923 -27 – 6

युवा आलोचक रामाज्ञा शशिधर की किताब 'किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन' साहित्यिक निबंधों की भाषा-संरचना और शिल्प में सृजित किसान आंदोलनों और उनके लिए लिखे गए साहित्य पर केंद्रित औपन्यसिक पठनीयता लिए एक साथ रोचक, मौलिक और महत्त्वपूर्ण शोधकार्य है। किसान-पक्ष एवं संवेदना की आत्मीय सृजनशीलता इसे हिंदी के दूसरे शोध-प्रबंधों से अलग कराती है और इसे अपने ढंग की अकेली पठनीय किताब भी बनती है। यह इस किताब की विशिष्टताओं का साहित्यिक-सृजनात्मक पक्ष है, जोइसके महत्त्वपूर्ण विषय किसान आंदोलन और उससे जुडी साहित्यिक सामग्री के शोध-महत्त्व के अतिरिक्त है।

हमारे साहित्य, संस्कृति और सभ्यता के केंद्र में किसान जीवन के मूल्य ही प्रतिष्ठित हैं। मुद्रा-विनिमय आधारित अर्थ-तंत्र और बाजार सभ्यता का विकास बहुत बाद में हुआ। इससे कृषि-उत्पादन के क्षेत्रों से दूर अलग हटाकर भी मानव-बस्तियां संभव हुईं। मंडियां, बाजार, कसबे और नगर विकसित हुए और आज हमारी सभ्यता महानगरों के विकास तक पहुंच गई है। लेकिन इस बाजार सभ्यता नें न सिर्फ आर्थिक व्यव्हार की अलग भाषा विकसित की है, बल्कि मुद्रा आधारित मानव-व्यव्हार और रिश्तों का ऐसा यांत्रिक पर्यावरण भी दिया है, जो एक संवेदन-शून्य असभ्य मनुष्य की रचना करता है। लें-दें के बहार के हर रिश्ते को नकार देता है। शेक्सपियरके प्रसिद्द उपन्यास 'मर्चेण्टआफ वेनिस'का कंजूस पात्र शाईलार्क ऐसा ही अर्थ औरबाजार के मूल्यों से निर्मित अर्थ-पिशाच मनुष्य है। कार्ल मार्क्‍स इसी पूंजी-ग्रस्त मानससे मानव -सभ्यता को बहार निकालने के लिए साम्यवाद की परिकल्पना कर रहे थे।

दरअसल बाजार-व्यवस्था के अपने नियम हैं और नैतिक क्रूरताएं हैं। यह एक प्रतीकात्मक और आभासी दुनिया की सृष्टि करती है। किसान जीवन जहां वस्तु-विनिमय और प्रत्यक्ष श्रम-सहयोग पर आधारित रहा है, वहीं बाजार-मूल्य पर आधारित नागरिक जीवन मुद्रा आधारित अप्रत्यक्ष और जटिल मानव-संबंधों पर। क्योकि हमारा सांस्कृतिक ढांचा अधिक पुराना है तथा वह किसान-मन और आत्मीयता का ही बौद्धिक विकास है, इसलिए अब भी और कभी भी वह वह नागरिक जीवन की आलोचना का संवेदनात्मक पाठ और संविधान रचता है। युवा आलोचक रामाज्ञा शशिधर ने नें अपनी विरल शोध-कृति 'किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन' में ब्रिटिश औपनिवेशिक वर्चस्व और चेतना के प्रतिरोध की महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक सक्रियता के रूप में देखा है और साथ ही विनाश को विकास तथा बाजारीकरण आधारित पश्चिमीकरण को आधुनिकता मानने की प्रवृत्ति का निषेध और समाधान किसान-जीवन-मूल्यों और प्रतिरोध की स्मृति में ढूंढा है-उसे अत्यंत ही सार्थक और महत्त्वपूर्ण पहल के रूप में देखा जाना चाहिए।

भारत के ब्रिटिश औपनिवेशीकरण नें अपने आरभ और अंत में दो महाविनाशकारी हस्तक्षेप किए हैं। इस देश को मुक्त करते समय विभाजन के रूप में और अपनी सत्ता की स्थापना के आरंभिक काल में हजारों वर्षों से श्रम द्वारा निर्मित कृषि-भूमि को वास्तविक किसान-पुरखों से छीनकर किसी को भी उसका स्वामित्व दे देना। इससे कृषि-भूमि का न सिर्फ अनैतिक विभाजन हुआ बल्कि भारत की वस्तु-विनिमय आधारित तथा संस्कृति आधारित अर्थ-तंत्र वाली सभ्यता अवसाद में चली गई। ब्रिटिश भारत में बहुत -सी ऐसी जातियां थीं, जिनका फसल में निश्चित हिस्सा लगता था और वे स्वयं कृषि-भूमि न रखते हुए भी अप्रत्यक्ष रूपमें कृषि-उपज के सांस्कृतिक हिस्सेदार थे-नई व्यवस्था में भूमिहीन ही रह गए। इसमें संदेह नहीं किसंस्कृति आधारित अर्थ-तंत्र के कारण ही भारत में जाति-आधारित सर्वहाराओं की सृष्टि हुई है। इस सच्चाई पर मार्क्‍सवादियों नें भी बहुत ध्यान नहीं दिया है। भूमि के कुछ जातियों में ही बांटने के कारण भारत की किसान समस्या बहुत ही जटिल हो गई है और उसमें मार्क्‍सवादियों का हस्तक्षेप जातीय युद्ध की ओर ही ले गया है। जातीयता की दृष्टि से भूमि के असमान वितरण के कारण भी भूमिहीन जातियों में जन्मी जनसंख्या किसान-समस्या के प्रति उदासीन है। इन तथ्यों के बावजूद हमारा सांस्कृतिक अचेतन क्योंकि किसान जीवन-मूल्यों पर आधारित है और सिर्फ किसान सभ्यता ही उदार और नि:स्वार्थ रागात्मक संबंधों, आत्मीयता और संवेदनशीलता का पर्यावरण बचा सकती है -हिंदी-भारतीय यथार्थ के संदर्भ में रामाज्ञा शशिधर की यह किताब किसान-साहित्य और संवेदना के इतिहास और स्मृति के संरक्षण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण और सराहनीय प्रयास है। जहां तक इस कृति के शक्शानिक और साहित्यिक शोधा-महत्त्व का सवाल है ;यह एक सच्चाई है कि हिंदी में सिर्फ किसान आंदोलन के बारे में ही नहीं, बल्कि किसी भी प्रकार के इतिहास-लेखन या उसके पुनर्चिन्तन की गंभीर सृजनात्मक चिंता समकालीन युवा-पीढ़ी में नहीं दिखती -यद्यपि उसे व्यस्ततम वर्तमानजीविता का नया इतिहास रचते हुए अवश्य ही देखा जा सकता है। …पुराना सब कुछ उसके लिए इतना बेमतलब हो गया है कि उत्तर-आधुनिक बनने के बाद तथा इतिहास के अंत की घोषणा के साथ उसके लिए अतीतगामी होने का न तो कोई अवशेष प्रयोजन है और न कोई अवकाश। स्पष्ट है कि यह स्मृतिहीनता के लिए अभिशप्त पीढ़ी की स्मृति और तात्कालिक विवेक है। वह अपने जटिल होते वर्त्तमान में पूरी तरह फैला, फंसा और नि:शेष होता हुआ है। उसके पास शोषण और दुर्घटनाओं की पूर्व -स्मृति और परंपरा का कोई लेखा-जोखा नहीं है। जबकि अनुभव और स्मृति के बिना कोई भी प्रतिरोध संभव नहीं है।

रामाज्ञा शशिधर की 'किसान आंदोलन की साहित्यिक जमीन'पुस्तक इस अर्थ में भी प्रतिरोध की पुनार्रचना है। आंदोलन की मानसिकता और तेवर को आवाहन के माध्यम से पुनर्जीवित करती हुई। आलोचनात्मक नजरिया और संवेदनात्मक प्रस्तुति रामाज्ञ शशिधर की इस पुस्तक को एक विरल साहित्यिक कृति बनती है। इसे किसान आंदोलन पर लिखे गए शोध-लेखों का संकलन मानना उचित नहीं होगा ये शोधपूर्ण अथवा शोध-समृद्ध निबंध हैं। विचारपूर्ण तथ्य-प्रस्तुति के साथ-साथ एक संवेदनात्मक पक्ष की प्रतिबद्धता इस पुस्तक को मिशनरी बनती है। यह पुस्तक किसान संघर्ष को एक असमाप्त प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत करती है। इसामें उद्धृत कविताएं इतिहास में जिए गए शब्द हैं। इस तरह यह पुस्तक लोक-संवेदना का दस्तावेजीकरण भी है। इसमें विकास को विनाश के रूप में देखने और दिखने वाली आंख है जिसमें प्रश्नांकित करने वाला। ऐतिहासिक विवेक है। इसमें किसान-यथार्थ के ईस्ट इंडिया कंपनी से मोर्सेटो-वालमार्ट तक की अनवरत औपनिवेशिक यात्रा की वैचारिक-सांस्कृतिक परिणति की सजग शिनाख्त भी है।

इस पुस्तक के लेखन में हुआ दस वर्षों का लेखकीय निवेश साफ-साफ देखा जा सकता है। 'खासकर 1917 के अवध, बिजोलिया एवं चम्पारणसे 1947 तक के लिए इतिहास की धुल से चुनकर अभूतपूर्व'देशज साहित्यिक सामग्री 'एकत्रित की गई है। इस कार्य को धूल से चुने गए फूलों से निर्मित माला से उपमित किया जाय तो उसे अतिशयोक्ति मानना उचित नहीं होगा। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं और अन्य दस्तावेजों से खोजकर किसान-यथार्थ से संबंधित कविताओं के लगभग तीन सौ उद्धरणों का संदर्भ देकर लिखी गई यह पुस्तक किसान आंदोलन से संबंधित महत्त्वपूर्ण साहित्यिक सामग्री का प्रशासनीय दस्तावेजीकरण करती है। जब राष्ट्रीय आंदोलन की आंधी चल रही थी -यह कार्य आंधी में हिलाते बड़े वृक्षों की सरासराहट के बीच दूबका हिलना खोजने की तरह है। रामाजज्ञा शशिधर नें अत्यंत धैर्य के साथ यह सामग्री संकलित की है। यह पुस्तक किसान आंदोलन से संबंधित साहित्यिक सामग्री के लिए लेखक के लंबे एवं परिश्रमी शोध-पूर्ण भटकाव से संभव हुई होगी -यह इसके पृष्ठों पर उपस्थित सामग्री देखा कर ही पता चल जाता है। प्राप्त संकलित सामग्री के लंबे विचारशील साहचर्य से इस कृति में वे वैचारिक कौंधे और विश्लेषण-दृष्टि में सूक्ष्मता शामिल हो पाई है, जो इस पुस्तक की अप्रत्याशित उपलब्धि है। यही कारण है की यह पुस्तक एक बहुआयामी और विरल पाठकीय अनुभव पाती है। किसान-आंदोलन से संबंधित कविताओं का इतिहास-लेखन इसका एक पहलू है, जिसकी खोज और पड़ताल देश-कल में लोक और साहित्य दोनों की परस्पर आव-जाही से की गई है। इससे यह किताब साहित्य का भी इतिहास बन पाई है और समाज का भी। आंदोलनों से संबंधित तथ्य और लोक की सृजनशीलता के जीवित -स्पंदित तुकडे परस्पर गुंथे हुए हैं।

प्रत्येक अध्याय के अंत में दी गई विस्तृत संदर्भ -सूची;जिसकी संख्या दूसरे अध्याय में सर्वाधिक 174 है, लेखकीय श्रम का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। इसके अतिरिक्त पुस्तक में किसान-आंदोलन से संबंधित प्राप्त सूचना और साहित्य-सामग्री का विश्लेषण और वर्गीकरण -जो निश्चय ही समग्र्यों की खोज-यात्रा पूरी हो जाने के बाद ही किया गया होगा भी। भूमिका के पश्चात् अध्याय होने की प्रतीति करने वाले शीर्षक मूलत: खंडों के शीर्षक ही हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो यह पुस्तक पांच खंडों में विभाजित है -हिंदी क्षेत्र में किसान आंदोलन, किसान-कविता का स्वरूप, मुक्ति का आर्थिक -राजनीतिक परिप्रेक्ष्य, मुक्ति का सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य और कला की राजनीति।

पहला अध्याय अथवा खंड किसन आंदोलन की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करता है। संरचना की दृष्टि से पहला खंड' हिंदी क्षेत्र में किसान आंदोलन 'स्वयं ही पांच लघु अध्यायों का समुच्चय है -दमन और प्रतिरोध की यात्रा, सामंतवाद विरोधी चेतना, उपनिवेशवाद विरोधी चेतना, कांग्रेस यानि कालोनाइज्ड सिण्ड्रोम और वर्ग-संघर्ष की चेतना। इस उपखंड को आंदोलन और उनकी पृष्ठभूमि का राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक इतिहास-लेखन कहा जा सकता है। अपनी प्रगतिशील समाजशास्त्रीय दृष्टि, रिपोर्ताज शिल्प और किसान जीवन तथा यथार्थ के प्रति अतिरिक्त संवेदन्शीलता के कारण रामाज्ञा शशिधर नें 1917 से 1919 के बीच चलने वाले चम्पारण, बिजोलिया और अवध के किसान-आंदोलनों की इतनी त्रिआयामिक प्रस्तुति की है कि संपूर्ण परिदृश्य प्रत्यक्ष हो उठता है। यह एक तरह से किसान आंदोलनों और उनके नेतृत्वकर्ताओं का परिचयात्मक खंड भी है। तत्कालीन किसानों की आर्थिक असमर्थता और अशिक्षा का लाभ उठाकर इस देश का प्रभु-वर्ग औपनिवेशिक सत्ता के सहयोगी के रूप में कैसा निंदनीय व्यव्हार करता रहा है, इसका विस्तृत और प्रभावी विवरण यह पुस्तक देती है। विचारपरक होने के बावजूद पुस्तक का पहला खंड अनेक मार्मिक और त्रासद सूचनाओं से भरा है। किसानों से लिए जाने वाले सिर्फ बेगार करों की विस्तृत सूची को ही देखें तो घुडअहीं, मोटरर्हीं, हथियहीं, बंगलही, फगुअहीं, मुंहदेखाई, चूल्हिआवन, धवअहीं, नवअहीं, बपअही, पुतअहीं, तावान, शराहबेशी, हुंडा बंदोबस्त; मडवच, सगौडा, सिंगरहाट, बाट, छप्पा, कोल्हुआवन, चंचरी, भाता, दंड, बराड, डोलचिये, गठाई, नकाई जैसे अनेक वसूलियों का पता चलता है।

किसानों के प्रतिरोध के संगठनकर्ता नेतृत्व का परिचय देते हैं। इनमें चंपारण में अफ्रीका से लौटे महात्मा गांधी की भूमिका, बिजोलिया में शचीन्द्र सान्याल और रासा बिहारी बोस के क्रंतिकारी मित्र विजय सिंह पथिक की भूमिका तथा अवध में मराठी बाबा रामचंद्र दासकी भूमिका तथा उनके द्वारा चलाए गए आंदोलन कार्यक्रम पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। उन प्रभावी नारों एवं गीतों पर भी जिनकी ऐसे आंदोलनों में ऐतिहासिक भूमिका रही है। जैसे-राज समाज विराजत रूरे /रामचंद्र सहदेव झींगुरे (रूरे किसान सभा का नारा )। यहां झींगुरीसिंह एवं सहदेव सिंह बाबा रामचंद्र दास के सहयोगी थे। यद्यपि बिजोलिया किसान सत्याग्रह 1916 से ही आरम्भ हो चुका था, लेकिन अधिक प्रभावी चम्पारण सत्याग्रह 1917 में महात्मा गांधी के नेतृत्त्व में आरम्भ हुआ था। अवध में बाबा रामचंद्र दास की रूरे सभा और शहरी वकीलों की यूपी किसान सभा द्वारा सामंती ढांचे के खिलाफ 1920 से 22 के बीच तेज संघर्ष हुआ। रामाज्ञा नें शोध में प्राप्त उन अमानवीय प्रसंगों का भी विस्तृत विवरण दिया है, जो आज भी नई पीढ़ी को आवेशित एवं आक्रोशित कर सकते हैं। इनमें लगन के लिए 5 एवं 12 वर्ष की बेटी बेचने वाले निरीह किसानों से लेकर जमीदार के कारिंदों द्वारा पशु दुग्ध प्राप्त न होने की दश में किसानों से मानव -दुग्ध की मांग करना :किसानों के घर आने वाली दुल्हन को पति के यहां पहुंचने से पहले जमींदार के यहां रात बिताना :ऐसे ही डोला प्रथा के विरुद्ध क्रंतिकारी किसान नेता नक्षत्र मालाकर द्वारा अपने साथियों सहित पालकी में बैठ कर जमींदार और उसके लठैतों की जमकर पिटाई करना जैसे प्रसंग भी हैं।

दूसरा अध्याय'किसान कविता का स्वरूप 'वस्तुत: हिंदी में लिखी गई किसान संबंधी कविताओं का व्यापक सर्वेक्षण है। यह सर्वेक्षण लोक और साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में किया गया है। इस अध्याय के उपशीर्षकों को देखें तो'किसान-कविता की अवधारणा ', प्राकऔपनिवेशिक किसान कविता', 'घाघ, डाक और भड्डरी', किसान कविता में 1857', 'पड़ा हिंद में महाअकाल', 'प्रताप' 'अभ्युदय' 'नवशक्ति' 'जनता', 'हुंकार', 'हल', लोकप्रिय दस्तावेज', 'जब्तशुदा साहित्य', 'बिहार के किसान-गीत', 'राजस्थान के किसान -गीत', रामचरितमानस का क्रंतिकारी प्रयोग ', 'युक्त-प्रांत के किसान-गीत', 'मुख्यधारा की कविता', 'राष्ट्रीय काव्यधारा में किसान' हैं। लेखक नें लोक और साहित्य दोनों क्षेत्रों केशोध – महत्त्व को आधुनिक समाजशास्त्रीय नजरिए से देखा है। इससे किसान मानविकी 'समस्या और प्रतिरोध को संपूर्णता में देखने में मदद मिली है। 1857 से लेकर 1947 के बीच हिंदी में चले किसान आंदोलन को हिंदी की अलग-अलग पत्रिका और पत्रों में धैर्यपूर्वक तलाशने का कार्य रामाज्ञा शशिधर नें किया है।

तीसरा अध्याय 'मुक्ति का आर्थिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य' अपने काव्यात्मक शीर्षकों और संवेदनात्मक चित्रण के साथ इस शोध को एक साहित्यिक निबंध-संरचना में प्रस्तुत करता है। उसके शीर्षक 'छोडो बेदखली की तलवार चलाना', 'तोर जमीदरिया में', 'फिरंगिया के राज में', 'हल पंडित ध्वज निशान है', 'गांधी जी की छाप लगाकर', आदि तथा इस अध्याय में संदर्भ रूप में दिए गए कविताओं के 73 उद्धरण किसान आंदोलन को उसके मूल सम्वेगधर्मिता और अम्वेदाना के साथ प्रस्तुत करते हैं। 1918 में लिखी गई ऐसी पंक्तियां जो अवध के किसानों की बेदखली से संबंधित हैं -आल्हा शैली में लिखी होने के कारण वीर रस शैली में निरीहता की व्यग्यात्मक प्रस्तुति करती हैं- 'हंत!इजाफा अरु बेदाखालिन /की सहि जात न मार कुमार /कष्ट असह्य कहां लौं भोगाहिं/मिळत न विपति-सिन्धु को पार'(अभ्युदय साप्ताहिक, 23 मार्च 1918 )। ऐसे उद्धरण इस पुस्तक को अतिरिक्त महत्ता प्रदान करते हैं। लेखक के अनुसार हिंदी की किसान कविता वर्ग संघर्ष की क्रंतिकारी भूमिका तैयार करने में सक्षम थी, जन संस्कृति सांस्कृतिक क्रांति की आकांक्षा रखती थी और इसके लिए उसका रचनात्मक संघर्ष तीव्र था लेकिन किसान आंदोलन को वर्ग संघर्ष के मूलगामी रुपंतार्ण में ऐतिहासिक कारणों से चूक हुई। निस्संदेह यह चूक वाही है, जिसकी ओर मैंने लेख के आरम्भा में ही संकेत किया है। इसके बावजूद 'सामंती संरचना का विरोध किसान कविता का केंद्रीय कथ्य है। किसान-कविता में खेतिहर आबादी की बेदखली, नाजायज लगान, लग-बैग, नजराना, कर्ज जैसी जोंकों से निर्मित त्रासदी की अनगिनत छवियां हैं'। (पृष्ठ 145 )

चौथे अध्याय 'मुक्ति का सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य'भी काव्य-उद्धरणों और संवेदनाधर्मी भाषा-संरचना में लिखा जाने के कारण पठनीय और प्रभावी है। उसके भी उपशीर्षक लोक-गीतों की पंक्तियों से लिए गए हैं। 'सांझ जमीदारण के सेज', पकडि़-पकडि़ बेगार करावत', , 'गाजी मियांमुर्गा मांगे', 'गावें-गावें संगठनमा' जैसे शीर्षक इस अध्याय में प्रस्तुत शोध-सामग्री को भी भाव-संवेद्य बनाते हैं। बिजोलिया किसान आंदोलन के नायक विजय सिंह पथिक के बारे में यह कृतज्ञ भावोद्गार उस समय की लोक कविताओं की सच्ची छवि प्रस्तुत करता है – 'म्हाने विजेसिंह आय जगायें माय /थारा गुण म्हें नहीं भूलां/म्हाने जूत्यां सू पिटता बचाया ए माय /थारा गुण म्हें नहीं भूलां'।

पांचवां अध्याय 'कला की राजनीति' इस शोध अनुभव को 'कला और लोकप्रियता का द्वंद्व', 'रूप की धरती', भाषा का यथार्थ', 'अन्य का रूपक', 'मिथक की विचारधारा'आदि उपशीर्षकों के माध्यम से साहित्य-चिन्तन संबंधी महत्त्वपूर्ण सूत्र विकसित करने का प्रयास करती है। रामाज्ञा के अनुसार 'किसान कविता कला की जन राजनीति से सीधी जुडी होने के कारण कलात्मकता और लोकप्रियता के संतुलन की कविता है।'किसान कविता की लोकप्रियता और कलात्मकता की एकता के निर्माण की प्रक्रिया को सामझाने के लिए किसान कविता की प्रसारशीलता, विचारधारा, वर्गीय दृष्टिकोण, पाठकों और श्रोताओं से उसके संबंध, उद्देश्य और परिणाम, प्रचार-प्रसार के माध्यम आदि मुद्दों को गहराई और व्यापकता के साथ समझाना होगा। (पृष्ठ 175 ) 'किसान कविता की कलात्मकता वर्ग -संघर्ष की नईअंतर्वस्तु, नए रूप और नई भाषिक संरचना से प्राप्त हुई। उसकी लोकप्रियता के निर्माण में लोकभाषा, लोक छंद, लोक धुन, लोक ले, लोक मुहावरे आदि का योगदान है। उसकी कलात्मकता और लोकप्रियताकी रचनात्मक एकता के विकास में उद्बोधन, संबोधन और संवाद की शैली का भी योगदान है।'(पृष्ठ 180 )रूप के स्तर पर किसान कविताएं लिखित और मौखिक दोनों तरह की हैं। तुलना में 'किसान कविता का मौखिक लोक और जनगीत वाला हिस्सा ज्यादा रचनात्मक और लोकप्रिय है।'(वही, 183 )भाषा भी लिखित और मौखिक दोनों रूपों में दिखाई देती है। इसी अध्याय में 'अन्य का रूपक 'शीर्षक के अंतर्गत किसान-कविता में आए बिंबों और प्रतीकों का विश्लेषण किया गया है लेखक नें किसान कविता के जन धर्मी बिंबों को आंदोलनधर्मी और मुक्तिधर्मी डॉ रूपों में चिन्हित किया है। आंदोलनधर्मी कविता में शोषण मूलक त्रासद अनुभव वाले बिंबों की भरमार है, क्योकि प्रतिरोधी बिंबों का व्यापक पैमाने पर निर्माण -कार्य किसान-कविता के लिए जरुरी रचना-प्रक्रिया था। सामंतवाद-साम्राज्यवाद विरोधी बिंब, वर्ग-संघर्ष की चेतना के निर्माण, किसान-जागरण, राष्ट्रवादी तथा स्त्री-मुक्ति संबंधी बिंब आते हैं। हिंदी आलोचना की समृद्धि के लिए रामाज्ञा शशिधर की यह प्रस्तावना भी महत्त्वपूर्ण है कि 'किसान-कविता अंग्रेजी की 'औपनिवेशिक भाषाई मानसिकता 'के विरुद्ध हिंदी कविता की 'खड़ी बोली, को जनपदीय बोलियों की कविता से समृद्ध करती है तथा लिखित और वाचिक के तनाव से कलात्मकता एवं लोकप्रियता के बुनियादी कला-नियम का हल प्रस्तुत करती है।'

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राजनीति/अंग्रेजी : आदिवासियों की पीड़ाओं और प्रतिरोधों का आख्यान

Author: रामशरण जोशी Edition : June 2013

द न्यू इंपीरियल ऑडर : इंडिजिनस रिस्पांस टू ग्लोबलाइजेशन; मेकर स्टूअर्ट – हारावीरा; हुई पब्लिशर, न्यूजीलैंड, मूल्य: 350 (पे.बे.)

ISBN : 1-84277-528-6

विश्व में भूमंडलीकरण, नव उदारवाद और नव साम्राज्यवाद को प्रभुत्व-युग करीब एक चौथाई सदी पूरी कर चुका है। इस अवधि में बहुत कुछ घटा है; राष्ट्र राज्यों का चरित्र बदला है; शोषण-उत्पीडऩ मुक्त समतावादी समाज के प्रयोग का त्रासद अंत हुआ; वर्चस्व व लोभ के ज्वालामुखी फूटे; प्राकृतिक संसाधनों पर आधिपत्य और विश्व को नए सांचे में ढालने के लिए नव साम्राज्यवादी अभियान शुरू हुए; मानवता को क्षेत्रीय युद्धों में झोंका गया और सीमांत समाज अंतहीन त्रासदियों की गिरफ्त में जी रहे हैं।

भूमंडलीकरण, नव उदारवाद और नव साम्राज्यवादी व्यवस्था के प्रभाव समकालीन आर्थिक-राजनीतिक प्रबंधकों, चिंतकों और एक्टीविस्टों की सघन चिंता के केंद्र में बने हुए हैं। बौद्धिक क्षेत्रों में इन्हें लेकर बहुआयामी विमर्श भी किए जा रहे हैं। इन प्रभावों से उत्पन्न चुनौतियों एवं संकटों से मुठभेड़ करने की रणनीतियां भी बनाई जा रही हैं, प्रतिरोध की कार्रवाइयां भी जारी हैं। भूमंडलीकृत पूंजीवाद के प्रति उत्तर में किस प्रकार की वैकल्पिक या सामानांतर व्यवस्था की निर्मिति की जाए, यह प्रश्न आज सार्विक विमर्श का रूप ले चुका है।

अक्सर उन्नत समाज (महानगरीय, शहरी, समृद्ध, कस्बाई, तकनीकी दृष्टि से संपन्न, प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति के संचालक केंद्र आदि) में आने वाले परिवर्तन अध्ययन—केंद्र में रहते हैं। इनकी केंद्रीयता राष्ट्र राज्यों की राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था रूप-आकार तय करती है। राज्य के प्रबंधक केंद्रीयता के दबावों के आधार पर भूमंडलीकरण और नवउदारवाद के साथ अपने लेन-देन एवं लाभ-हानि के संबंध निर्धारित करते हैं। एक तरह से, ऐसे समाज हमेशा फोकस में रहते हैं। इनकी आवाज सुनी जाती हैं, दबाव बढऩे पर नीतियां बदली जाती हैं, प्रभु वर्ग इनकी चिंताओं की उपेक्षा आसानी से कर नहीं पाता है।

लेकिन यहां प्रश्न उन समाजों का है जो हाशिए पर जिंदा हैं, आधुनिक राज्य के समक्ष उनकी कोई केंद्रीयता नहीं है, उनकी अस्मिता का कोई मूल्य नहीं है। विडंबना यह है कि ये ही समाज भूमंडलीकरण और नव साम्राज्यवाद के आक्रमण सबसे अधिक झेल रहे हैं क्योंकि इन्हें विरासत में विपुल प्राकृतिक संपदा (वन उपज, खनिज संपदा, जल-संसाधन आदि) प्राप्त हुई है। राज्य और बहुराष्ट्रीय पूंजी की गिद्ध दृष्टि इस संपदा पर गढ़ी हुई है। इन समाजों में फैली बेचैनी, उथल-पुथल अकारण नहीं हैं। विगत दो-ढाई दशकों में इन्हीं समाज के सदस्य ही सबसे अधिक विस्थापन, प्रवासन, अमानवीयकरण, अर्ध-सर्वहाराकरण, विपन्नीकरण और भुखमरी के शिकार हुए हैं। पहले पूर्व साम्राज्यों ने हिंसात्मक ढंग से इन समाजों पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था; स्वतंत्र राष्ट्र राज्यों ने इन्हें 'फालतू, पिछड़े निरीह, असभ्य' आदि के रूप में देखा; और आज नवसाम्राज्यवादी (बहुराष्ट्रीय पूंजीपति, निगमवादी, सांस्कृतिक वर्चस्ववादी, मुक्त अर्थव्यवस्थावादी, निरंकुश उपभोक्तावादी व बाजारवादी, वैश्विक पूंजीवादी, सैन्य व युद्धवादी आदि) स्थानीय राज्य नियंत्रकों एवं पूंजीपतियों के साथ विभिन्नरूपी गठजोड़ों के माध्यम से इनका सर्वस्व हड़पने पर आमादा हैं। इनका अभियान है विश्व में एक नई साम्राज्यिक व्यवस्था कायम करना। इसलिए इन समाजों की त्रासदी-गाथा को ताजा परिपे्रक्ष्य में समझने की आवश्यकता है।

मकेर स्टेवार्ट-हारावीरा ने अपनी पुस्तक 'नव साम्राज्यिक व्यवस्था : मूल देशजों का भूमंडलीकरण को प्रति उत्तर' (दी न्यू इंपीरियल आर्डर : इंडीजिनॅसरेसपॉन्स टू ग्लोबाईजेशन) में हाशिए अर्थात मूलदेशज लोगों की त्रासदियों के कारण और उनके प्रतिरोध की गहनता को विश्व में हो रहे राजनीतिक-आर्थिक संरचनात्मक परिवर्तनों के मद्देनजर समझने का प्रयास किया है। इन हाशिए के समाजों या मूलदेशज लोगों को हम सामान्यत: जनजाति, आदिवासी, मूल निवासी, अनुसूचित जनजाति (या ट्राइबल, एबोर्जीनल, नेटिव, इंटीजिनॅस, रेड इंडियन, शिड्यूल्ड ट्राइब्स आदि) के रूप में जानते हैं। चूंकि ये समाज स्वीकृत विकास की तथाकथित मुख्यधारा से कटे हुए होते हैं या इनकी स्वतंत्र विकास कसौटियां रहती हैं, इसलिए मुख्यधारा के स्वामी इनके साथ दयादृष्टि या कमतर मानव जैसा व्यवहार इतिहास में करते रहे हैं। इस वर्चस्ववादी, प्रभुत्ववादी और श्रेष्ठतावादी व्यवहार ने मूलदेशज लोगों के उत्पीडऩ, अलगाव, आत्महीनता और प्रतिरोध (भी) की पटकथाएं लिखी हैं; दक्षिण अमेरिका से उत्तर अमेरिका; आस्ट्रेलिया से न्यूजीलैंड; अफ्रीका से दक्षिण एशिया (भारत सहित) तक फैली इन पटकथाओं द्वारा जनित त्रासदियां आपकी मानवीय व लोकतांत्रिक चेतना को झकझोरेंगी।

लेखिका हारावीरा स्वयं भी 'वैतहा आदिवासी समाज' से संबद्ध हैं, और वर्तमान में कनाडा के अलबेर्टा विश्वविद्यालय में मूलदेशज लोगों के शिक्षा-कार्यक्रम विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं। संदर्भित पुस्तक में उन्होंने न्यूजीलैंड के मूल समुदाय 'माओरी समाज' के अनुभव-अध्ययन के बहाने विश्वभर के कम-अधिक मूलदेशज समाजों की स्थितियों, चुनौतियों और रेसपांसों का विश्लेषण किया है। मध्ययुग में योरोप के श्वेतों ने साम्राज्यवादी अभियान चलाए थे। इन अभियानों के अंतर्गत उत्तर-दक्षिण-मध्य अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड के करोड़ों मूल निवासियों का नरसंहार किया गया था। ब्रिटेन ने 19वीं सदी में माओरी देशजों के साथ भी यही व्यवहार किया। आज न्यूजीलैंड में केवल 9 प्रतिशत लोग ही माओरी शेष बचे हैं; अन्य बहुसंख्यक विगत दो शताब्दियों में श्वेत वर्चस्ववादी-आधिपत्यवादी अभियानों के भेंट चढ़ गए हैं।

लेखिका के अनुसार अकेले एक प्रांत क्वीनलैंड में ही मूलदेशजवासियों (आदिवासी) की आबादी 1920 में 1, 20, 000 से घटकर सिर्फ 20 हजार रह गई थी। वास्तव में इन नरसंहार का लंबा इतिहास है; 16वीं सदी के मध्य तक "दक्षिण व मध्य अमेरिका में डेढ़ करोड़ मूलनिवासी मारे गए थे।''

नि:संदेह, 18वीं से लेकर 20वीं सदी में भी नरसंहार का सिलसिला जारी रहा। इसकी भयावहता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि गत सदी में ही विश्व विख्यात दार्शनिक व मानवतावादी बर्टन रसैल की अध्यक्षता में संयुक्त राष्ट्र संघ के दो-दो जांच आयोग गठित किए गए थे। आज भी प्रतिवर्ष अगस्त में जेनेवा में विश्वभर के मूलनिवासियों के प्रतिनिधि जेनेवा में जुटते हैं और मानवाधिकारों के हनन के अनुभव प्रस्तुत करते हैं। (1983) में यह समीक्षक भी जेनेवा में आयोजित ऐसे अवसर पर मौजूद था, और दक्षिण अमेरिका के मूलदेशजों या रेड इंडियन की पीड़ाओं से साक्षात्कार किया था। बाद में इनमें से कुछ रेड इंडियन दिल्ली में इस समीक्षक से मिले भी। 2007 में भी यह समीक्षक अमेरिका की प्रसिद्ध झील 'लेक सुपीरियर' के क्षेत्र में आवासित चंद मूलनिवासियों से मिला। चर्चा में उन आदिवासियों ने भी सामाजिक भेदभाव व अलगाव की पीड़ा जाहिर की थी। इस समाज के हाशियाकरण का दर्द वहां साफतौर पर बिखरा पड़ा था। समीक्षक के साथ अमेरिका से प्रकाशित अनियतकालीन पत्रिका के संपादक कृष्ण किशोर भी थे। उन्हें भी ऐसे अनुभव अविश्वसनीय लगे।

लगभग 270 पृष्ठों और 8 अध्यायों में फैली इस पुस्तक में हारावीरा ने मूलदेशज समाजों और आधुनिक सभ्यता के परस्पर संबंधों को लेकर विमर्श छेड़ा है। भूमंडलीकरण के इन संबंधों में नए आयाम जोड़े हैं। इन आयामों से इन समाजों में नए संरचनात्मक दबाव पैदा हुए हैं। निश्चित ही लेखिका ने पुस्तक में राष्ट्र संघ, विभिन्न प्रकार की अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं (विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, मानवाधिकार संगठन आदि) की जनजातीय समाजों के संबंध में विभिन्न स्तरीय भूमिका की पैनी पड़ताल की है। इस प्रक्रिया में वे जहां मूलदेशज समाजों की भूमंडलीय तात्विक मीमांसा (अस्मिता, ज्ञान की प्रकृति, अस्तित्व की प्रकृति, प्रकृति के साथ संबंध, प्रकृति पर आधुनिकता के आक्रमण आदि) करती हैं, वहीं उन्ळोंने देशज मानवता और संप्रभुता संपन्न राज्यों को विश्व व्यवस्था के संबंधों की आलोचनात्मक विवेचना भी की है।

आलोचना के क्रम में वे अंतर्राष्ट्रीय कानूनों, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, अलगावीकरण की राजनीतिक अर्थव्यवस्था, आत्मनिर्णय का अधिकार, देशज ज्ञान का अधिनीकरण, नवउदारवादी अर्थव्यवस्था, हाशिए के राष्ट्र और विकास की विचारधारा, देशज संप्रभुता व विकासवाद, वैश्विक वर्चस्ववाद व विश्व सरकार की संरचना, भूमंडलीय शासन और साम्राज्य की वापसी, देशज समाज व बौद्धिक संपदा अधिकार, साम्राज्य के विकल्प जैसे महत्त्व मुद्दों को लेकर विमर्श पैदा करती हैं, कई जमीनी सवाल खड़े करती हैं, और आधुनिक समाजों की शासन-प्रशासन एवं विकास अवधारणाओं को वे साम्राज्यवाद, नवसाम्राज्यवाद और साम्राज्य की वापसी से संबंधित विचारधाराओं से जोड़ती हैं।

यद्यपि लेखिका न्यूजीलैंड के ऐतिहासिक अनुभवों को अपने अध्ययन की उड़ानपट्टी बनाती हैं लेकिन उसी आकाश तक सीमित नहीं रहती हैं। वे जितनी ऊंची उड़ती हैं, उतना ही उनका विस्तार होता जाता है। उनकी चिंताओं का फलक वैश्विक हो जाता है, उसमें सार्विकता समा जाती है। वे देशज समाजों की सीमाओं को लांघ जाती हैं, और एंटोनिओ ग्रामशी तथा एंटोनिओ नेग्री व माइकल हर्ट (पुस्तक 'साम्राज्य' के लेखक) के माध्यम से वैश्विक मानवता के बहुआयामी संकटों से मुठभेड़ करने लगती है।

एक प्रकार से लेखिका ने सूक्ष्म को बृहत्तर और बृहत्तर को सूक्ष्य (मूलदेशज मानवता और बृहत स्तरीय आधुनिक मानवता) से जोडऩे की सारगर्भित कोशिश की है। साम्राज्य या साम्राज्य की वापसी ने दोनों स्तरों की मानवता के लिए बेशुमार संकट पैदा कर दिए हैं। इस संदर्भ में वे विवादास्पद ब्रिटिश रणनीतिकार रॉबर्ट कूपर की यूरोकेंद्रित अवधारणाओं की भी खबर लेती हैं। कूपर ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के सलाहाकार भी रह चुके हैं और इन्होंने 'आत्मरक्षात्मक साम्राज्यवाद' की विवादास्पद थीसिस प्रतिपादित की थी (इस समीक्षक ने विगत समयांतर अंकों में कूपर पर कई टिप्पणियां की हैं। ) लेखिका के अनुसार कूपर के मत में वैश्विक व्यवस्था के संकटों का समाधान एकमात्र साम्राज्य और साम्राज्यवाद की वापसी है क्योंकि 'आधुनिक व पूर्व आधुनिक राज्य' (अर्थात एशिया व अफ्रीका के देश) उत्तर आधुनिक विश्व (अर्थात योरो-अमेरिकी राष्ट्र) के लिए 'खतरा' बनते जा रहे हैं। अत: 'उत्तर आधुनिकता साम्राज्यवाद आवश्यक हैं' ताकि 'उत्तर आधुनिक देशों की रक्षा व विश्व व्यवस्था स्थापित व बनाई रखी जा सके।' लेखिका मानती हैं कि कूपर सरीखे पश्चिमी चिंतक दोहरे मापदंड अपनाते हैं। वास्तव में आज साम्राज्य का मुख्य काम "पूंजी और नियोजन की आवश्यकताओं की रक्षा है। वे यह भी मानती हैं कि यदि कोई देश आज साम्राज्य के दरबार का सदस्य बनना चाहता है तो "उसे राज्य की संप्रभुता को त्यागना होगा और अंतर्राष्ट्रीय वित्त के निर्देशों का पालन करते हुए नियोजन को प्राथमिकता देनी होगी।'' यही कारण है कि आज "जल, जंगल, जमीन, वायु और आकाश विश्व की जनता के नहीं रह गए हैं।'' लेखिका के शब्दों में इस प्राकृतिक संपदा पर "सत्ताधारियों और सैन्य शक्ति नियंत्रकों का पूर्ण राज स्थापित हो गया है…'' इस प्रकार संप्रभुता, स्वतंत्रता और लोकतंत्र जैसी परंपरागत शक्तियां अब वैश्विक प्रभुत्व को आक्रामक ढंग से स्थापित करने का औजार बनकर रह गई हैं।

पुस्तक का शुरुआती चौथाई भाग मूल निवासियों की आधारभूत संरचना और गैर-जनजातियों (विशेषरूप से पश्चिमी जगत) की विकसित व शक्तिशाली राज्य व्यवस्थाओं के बीच व्याप्त मूलभूत अंतर्विरोधों एवं टकरावों को समर्पित है। ऐतिहासिक परिपे्रक्ष्य में दोनों समाजों की अवधारणात्मक स्थितियों का विश्लेषण किया है। लेखिका ने यह भी बतलाया है कि पश्चिमी चिंतकों और ईसाइयत की दृष्टि आदि—मूल समाजों और उनके लोगों के किस प्रकार की रही है। अधिकांश चिंतकों और चर्च ने आदिमूल समाजों को दोयम दरजे के रूप में देखा, तथा राज्यों को इन्हें दाास बनाने या समाप्त करने के लिए पे्ररित किया। इस संदर्भ में लेखिका होब्बस, लॉक डारविन, मॉल्थस, हेगेल सहित कई चिंतकों के प्रभावों का उल्लेख करती है। योरो-अमेरिकी राज्यों में वर्चस्ववाद एवं प्रभुत्ववाद की महत्त्वाकांक्षा का विस्फोट अचानक नहीं हुआ है बल्कि यह एक पुरानी ऐतिहासिक परियोजना है, और भूमंडलीकरण उसका आधुनिक चरमोत्कर्ष अवतार है। यह सही है कि पश्चिम ने नागरिक अधिकार, स्वतंत्रता, समानता न्याय संप्रभुता आदि की अवधारणाएं दीं लेकिन अंतत: इन सब बातों से वर्चस्ववाद-परियोजना का ही विस्तार हुआ, और विभिन्न अभियानों व आदि मूल समाजों के साथ हुई संधियों ने 'साम्राज्य' को ही मजबूत किया है, जिसकी परिणति आज 'नव साम्राज्यशाही' के उदय में हुई है। लेखिका का स्पष्ट कहना है कि आज "हम या तो पुनरुत्थान (पुराना साम्राज्य) या अमेरिकी साम्राज्य के प्रत्यक्ष उदय के साक्षी बन रहे हैं।'' और इस साम्राज्य में 'बहुधु्रवीयता' के लिए कोई जगह नहीं है; केवल वैश्विक पूंजीवाद, प्रसारवाद और बाजार के लिए जगह शेष है। लेखिका बतलाती हैं कि किस प्रकार साम्यवादी आक्रमण का हौआ खड़ा करके अमेरिका ने तीसरी दुनिया में हस्तक्षेपवाद-विस्तारवाद का अभियान चलाया। अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए अमेरिकी रणनीतिकारों ने 'न्यायपूर्ण युद्ध' की अवधारणा गढ़ी। इस तथाकथित न्यायपूर्ण युद्ध की चपेट में आदिमूलनिवासी, खाड़ी देश आ गए। इसी युद्ध ने भूमंडलीकरण, मेगा मार्केट अर्थव्यवस्था को संरक्षित व प्रोत्साहित किया। इसके साथ ही आदि देशज समाज 'सांस्कृतिक सीजोफ्रेनिया' के शिकार हो गए। पश्चिमी पूंजीवाद ने आदि देशज समाजों की सामाजिक-राजनीतिक संरचना की सामूहिक प्रकृति पर निरंतर हमले किए। इतिहास की दृष्टि से देखें तो अंगे्रज, फ्रांसीसी, स्पेनी, पुर्तगाली, डच जैसी साम्राज्यवादी शक्तियों ने इन समाजों का निरंतर अधिपत्यीकरण किया है, और आज अमेरिकी साम्राज्य ने इसके नए अवतारों को जन्म दे दिया है। पूंजीवाद विस्तारवाद समर्थित विचारधाराओं को फैलाया गया। यह भ ीप्रचार किया गया कि आदि देशज मानवता पिछड़ी होने के साथ-साथ विलुप्त होने के लिए अभिशप्त हैं। लेखिका का मानना है कि डारविनवादी विचारधाराओं ने आदि मूलनिवासियों की बसाहटों का दैहिक व सांस्कृतिक नरसंहार की नीतियों को सही ठहराया था।

अब आदि देशजों के पास एक ही विकल्प है—योरो-अमेरिका के आधुनिक व सभ्य ढांचों में समाहित हो जाना। इस स्थिति ने इन समाजों में कई प्रकार के आंतरिक एवं बाह्य द्वंद्वों को पैदा कर दिया है, जिसके लक्षणों में से एक है सांस्कृतिक सीजोफ्रेनिया।

हारावीरा ने अपने शोधपूर्ण अध्ययन और तथ्यों के माध्यम से यह निष्कर्ष भी निकाला है कि पश्चिम के हितों की रक्षा, राजनीतिक शासन और अर्थव्यवस्था की निरंतरता बनाए रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र एक सशक्त व स्वीकृत माध्यम की भूमिका निभाता रहा है। इसके माध्यम से इन शक्तियों ने 'वैश्विक वर्चस्वता' को जीवित रखा; समान मानवता व लोकतांत्रिक स्वतंत्रता के नारों के आवरण में अमेरिकी वैश्विक आधिपत्य और विस्तारवाद के लिए बाजारों के निर्माण की सच्चाई को छिपाए रखा गया। कुख्यात ग्रैट (जनरल एग्रीमेंट ओन टेरिफ्स एंड ट्रेड) ने भी अमेरिकी आर्थिक एजेंडे को आगे बढ़ाने की भूमिका निभाई।

आधिपत्य, वर्चस्व और शोषण की पृष्ठभूमि में लेखिका का मत है कि आदि मूलनिवासियों की, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक संप्रभुता को मान्यता दी जानी चाहिए, जल-जंगल-जमीन पर उनके परंपरागत अधिकारों को स्वीकार किया जाना चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय कानूनी तंत्र के माध्यम से इनकी रक्षा की भी जरूरत है। संयुक्त राष्ट्र के कानूनों के माध्यम से बहुराष्ट्रीय निगमों की हरकतों पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। लेखिका बतलाती हैं कि आज विश्व में 'लोकप्रिय लोकतंत्र' से नई प्रकार की 'वर्चस्वताएं' अस्तित्व में आएंगी। यह खतरे की संकेत है।

जनजाति विश्लेषक व प्राध्यापिका हारावीरा यह भी मानती हैं कि अब नए विमर्शों की आवश्यकता है जो कि भूमंडलीकरण जनित विडंबनाओं, विसंगतियों, विषमताओं और अन्यायों का प्रतिउत्तर बन सकें; अमेरिकी साम्राज्य के आक्रामक सैन्यवाद का प्रतिरोध किया जा सके। 11 सितंबर, 2001 की घटना ने संपूर्ण परिदृश्य बदल दिया है, पश्चिम की आत्म न्यायनिष्ठ नैतिकता उजागर हुई है। लेखिका 'साम्राज्य' के लेखक द्वय के माध्यम से कहती हैं कि आज प्रतिरोध के नए सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता है; वैश्विक नागरिकता की मांग उठनी चाहिए; असंख्य विरोध व सहकारिता की आक्रामकता होनी चाहिए।

पुस्तक के अनुसार विश्व में करीब 37 करोड़ आदि देशज अर्थात आदिवासी हैं। लेखिका के मत में इनमें से अनेकों का निरंतर हाशियाकरण, विस्थापन और नागरिकता व मतवंचनीकरण किया जा रहा है लेकिन अब इनकी आवाज को "खामोश नहीं किया जा सकता।'' क्योंकि संप्रभुता व आत्मनिर्णय की आकांक्षाओं ने इनकी राजनीतिक चेतना को जगाए रखा है। हारावीरा का निष्कर्ष है कि आदि देशज समाजों के परंपरागत मीमांसात्मक सिद्धांतों को केंद्र में रखकर संभाव्य सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक विकास ढांचे पर विचार करना चाहिए। यह एक नव परिस्थिति—मानवतावाद को जन्म देगा, जिसमें अस्तित्व की आध्यात्मिक वास्तविकता की चेतना निहित है।

लेखिका पुस्तक के अंतिम चरण में भाववादी प्रतीत होने लगती हैं जब वे आध्यात्मिकता, आध्यात्मिक मूल्यों और जीव के विभिन्न क्षेत्रों के बीच अंतर्संबंधों की बात करती है। उनका यह भी मत है कि "आर्थिक सिद्धांतों का आधार आध्यात्मिक मूल्यों में निहित हो।'' लेखिका का यह भटकाव समझ से परे है क्योंकि वे निरंतर भौतिक संरचनाओं के प्रभावों का जटिल विश्लेषण करती हैं। वे उन तमाम सांस्कृतिक, आर्थिक, सामरिक और राजनीतिक शक्तियों की मानव विरोधी कारगुजारियों की निर्मम पड़ताल भी करती हैं जो कि नरसंहारों, महायुद्धों, शीतयुद्ध, खाड़ी—अफगान युद्ध आदि की पटकथा लेखक रही हैं। 'साम्राज्य' के लेखक माइकल हर्ट और नेग्री के विचारों का वे निरंतर उल्लेख करती हैं। योरो-अमेरिकी नवसाम्राज्यवाद के विरुद्ध वे लगातार खड़ी दिखाई देती है। मार्क्‍सवाद का नाम लिए बगैर वे लगभग उसी पद्धति से विश्व परिदृश्य और पूंजी के रोल की आलोचनात्मक विवेचना भी करती है। पर अंतिम सफों में उन पर आदर्शवाद हावी होने लगता, वे भटक जाती हैं। इसकी व्याख्या समझ से परे है। मुझे लगता है कि वे अपने उद्गम से स्वयं 'डी लिंक' नहीं कर पाती हैं। वे जड़ों से तटस्थ नहीं हो पाती हैं। वे उद्गम सापेक्षता और स्थिति निरपेक्षता के बीच झूलने लगती हैं। अंत तक पहुंचते-पहुंचते आदि देशज समाजों की परंपरागत तात्विकी या आंटोलॉजी की केंद्रीयता उनके अध्ययन पर हावी हो जाती है। इस भटकाव के प्रति लेखिका से चेतनायुक्त सावधानी अपेक्षित थी। वैसे यह भटकाव परिस्थितियों के दबाव के कारण एक 'चतुर विकास' भी हो सकता है!

पुस्तक में संपादन की कमी खटकती है। दोहराव से लेखिका बच सकती थीं। तथ्यों को और अधिक सुगठित रूप में रखा जा सकता था।

फिर भी लेखिका के लिए भूमंडलीकरण का प्रतिउत्तर एक प्रकार से, "सहभागिता रूपांतरण का अदम्य आलोक व उल्लास है'', जबकि लेखक द्वय—हर्ट व नेग्री के लिए यह हस्तक्षेप "अदम्य आलोक और कम्युनिस्ट होने का उल्लास है।'' अपनी कुछेक सीमाओं के बावजूद इस पुस्तक को आदिवासियों की पीड़ाओं, आकांक्षाओं और प्रतिरोधों के आख्यान के रूप में देखा जा सकता है।

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इतिहास : भारत का आरंभिक इतिहास और डी.डी. कोसंबी की विरासत

Author: समयांतर डैस्क Edition : June 2013

रोमिला थापरमेरी पहली मुलाकात कोसंबी से पचास साल पहले हुई थी। मैं 1956 में लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज में पीएचडी की छात्रा थी और अशोक मौर्य पर शोध कर रही थी। मेरे पर्यवेक्षक ए एल बाशम ने एक दिन घोषणा की कि उन्होंने कोसांबी को हिंदू धर्म पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया है। हम पहले से उनके एकाध परचे पढ़ चुके थे, लेकिन उनकी पुस्तक एन इंट्रोडक्शन टु दि स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री उसी साल के अंत में प्रकाशित होकर आने वाली थी। हम मान कर चल रहे थे कि उनका पहला व्याख्यान ऋग्वेद के बारे में होगा क्योंकि आम तौर पर विद्वान ऐसा ही करते रहे हैं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन्होंने बच्चे के नामकरण संस्कार से जुड़े कुछ कर्मकांडों की स्लाइड दिखाईं जिसमें घर की मूसल को बच्चे के कपड़े में लपेट कर उसे उसके पालने में रखा जाता है। कोसंबी ने इस संस्कार की जो व्याख्या की वह कई पहलुओं को खोलती थी: बच्चे को आशीर्वाद दिया जाना और उसके भीतर शक्ति का संचार करना, प्रागैतिहासिक समाजों की आस्थाएं, मातृ अधिकारों की सैद्धांतिकी और प्रजनन से जुड़े कर्मकांड। उन्होंने बताया कि हिंदू धर्म का स्रोत ऐसे ही विचारों और कर्मकांडों में निहित है। उन्होंने बताया कि धर्म महज आस्था का मसला नहीं है बल्कि इससे कहीं ज्यादा उसके भीतर समाज द्वारा गढ़े गए कर्मकांडों और उनके अवसरों की अर्थवत्ता उसमें समाहित है।

मैं उसी साल मौर्य काल के ऐतिहासिक स्थलों का दौरा करने अपने शोध के सिलसिले में निकली। मुंबई पहुंचकर मैंने अपने भाई रोमेश थापर से कोसंबी के साथ अपने काम पर बात करने की इच्छा जाहिर की। दरअसल मेरे भाई, शाम लाल और कुछ अन्य लोग एक अध्ययन समूह का हिस्सा थे और कोसंबी की आगामी पुस्तक की पांडुलिपि पर कोसंबी से चर्चा किया करते थे। संपर्क करने पर पता लगा कि कोसंबी उस सप्ताह कुछ व्यस्त थे, लेकिन मैंने जब उन्हें पुणे जाने की बात बताई तो वह डेकन क्वीन गाड़ी से मेरे साथ पुणे तक चलने को तैयार हो गए जिससे वह अक्सर मुंबई और पुणे के बीच सफर किया करते थे। वह एक यादगार सफर था। वह उस रास्ते पैदल जा चुके थे और उन्हें ऐतिहासिक महत्त्व की हरेक पहाड़ी से लेकर पेड़-पत्थर तक सबके बारे में मालूम था। उस इलाके से उनका परिचय अद्भुत था। हम लोग जो अपने काम को फील्ड वर्क से पुष्ट करने की प्रक्रिया में जुटे थे, दोबारा सोचने को विवश हो गए कि असल फील्ड वर्क कैसा होता है और बौद्धिक व आनुभविक काम के बीच कैसे सामंजस्य बैठाया जाता है।

इसके बाद कुछेक अन्य अवसरों पर मैंने उनसे मुंबई के टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में बात की और हमारा संवाद दरअसल उनके लिखे पर मेरी शंकाओं के समाधान पर ही केंद्रित होता था। इंट्रोडक्शन के प्रकाशन से पहले इतिहास पर उनके परचे विभिन्न पत्रिकाओं जैसे बॉम्बे ब्रांच ऑफ द एशियाटिक सोसायटी, द एनल्स ऑफ द भंडारकर रिसर्च इंस्टिट्यूट आदि में छप चुके थे। ये प्रकाशन बिखरे हुए थे और इन तक पहुंचना दुरूह था। इसीलिए इतिहास पर उनके विचारों का तीन पुस्तकों में संकलन बहुत कारगर रहा: एन इंट्रोडक्शन टु द स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री (1956), मिथ एंड रियलिटी: स्टडीज इन द फॉर्मेशन ऑफ इंडियन कल्चर (1962) और द कल्चर एंड सिविलाइजेशन ऑफ एंशियंट इंडिया इन हिस्टॉरिकल आउटलाइन (1965)। अब जाकर इतिहास पर लिखे उनके महत्त्वपूर्ण परचे एक संकलन में छप कर आए हैं।

कोसंबी का अधिकतर लेखन पचास और साठ के दशक में ही सामने आया। हालांकि उन्होंने भारतीय इतिहास और भारत विषयक (इंडोलॉजी या भारतविद्या) लेखन का प्रकाशन पहले ही शुरू कर दिया था। ये वर्ष प्राचीन इतिहास के अध्ययन के लिहाज से निर्णायक थे और इस पर उनका लेखन कई मायने में सीमाओं को तोडऩे वाला था। कोसंबी का अध्ययन इतिहासलेखन की औपनिवेशिक और राष्ट्रवादी सीमाओं से बाहर निकल कर अतीत के नए पहलुओं को उजागर कर रहा था। पहले जो विषय इंडोलॉजी के दायरे में आते थे अब वे सामाजिक विज्ञान का हिस्सा बन रहे थे जो कि एक बिल्कुल अलहदा किस्म का अध्ययन था। ऐसा मोटे तौर पर इसलिए हो रहा था क्योंकि राजवंशीय इतिहास और कालानुक्रम से जुड़ी अभिरुचियों में अब सामाजिक और आर्थिक इतिहास का समावेश हो रहा था और सांस्कृतिक निर्मिति के साथ उसकी परस्पर क्रिया पर बात हो रही थी। इस तरह इंडोलॉजी का विस्तार हो रहा था। कोसंबी के लिए संस्कृति कोई स्वतंत्र इकाई नहीं थी बल्कि ऐतिहासिक संदर्भों की निर्मिति का एक अनिवार्य हिस्सा थी। आज यह बात घिसी-पिटी लग सकती है लेकिन पचास साल पहले समाज, आर्थिकी और संस्कृति के परस्पर अंतरगुंफन को प्राचीन भारत के मानक इतिहास से विचलन माना जाता था। इस बदलाव का प्रतिबिंब वह अध्ययन था जिसे वे इंडोलॉजी की मिश्रित प्रविधि कहा करते थे। इन नए पहलुओं में इतिहासकारों की प्राथमिक अभिरुचि पुराने तरीकों के मुकाबले बढ़ती गई। यह बदलाव उत्तर-औपनिवेशिक दौर में सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तन से जुड़ी सैद्धांतिक समस्याओं के प्रति भारतीयों के सरोकार का भी आंशिक तौर पर परिणाम रहा। अब ज्यादा दिलचस्पी इसमें ली जाने लगी कि औपनिवेशिक दौर के कौन से तत्व बचे रह गए हैं और क्या बदला है, लेकिन इसकी एक वजह यह भी थी कि अनुशीलन के तौर पर इतिहास का दायरा अतीत की पड़ताल के संदर्भ में फैल रहा था। पहले अतीत के बारे में सूचनाएं इकट्ठा करने पर जो जोर दिया जाता था, उतना ही जोर अब अतीत को समझने और व्याख्यायित करने पर भी दिया जाने लगा। आरंभिक भारत पर हुए औपनिवेशिक और राष्ट्रवादी इतिहास लेखन पर चल रही बस जारी रही लेकिन उसके समानांतर अतीत को देखने के दूसरे तरीकों की ओर भी ध्यान गया। भारत हो चाहे कहीं और, भारतीय इतिहास के विद्वान अब मैक्स वेबर, फ्रेंच एनेल्स स्कूल और कार्ल मार्क्‍स के विचारों और आरंभिक भारत के कुछ पहलुओं पर उनके अध्ययन के बारे में बहस कर रहे थे। इस सब के बीच भारत में सबसे ज्यादा ध्यानाकर्षण मार्क्‍सवाद ने खींचा।

मार्क्‍सवादी व्याख्या के उत्कृष्ट प्रणेता

डी.डी. कोसंबी भारतीय इतिहास की उसकी समूची जटिलता में मार्क्‍सवादी व्याख्या करने वाले एक उत्कृष्ट प्रणेता रहे जिन्होंने प्राचीन भारतीय इतिहास अध्ययन के बुनियादी मुहावरे को ही बदल कर रख दिया। औपनिवेशिक और राष्ट्रवादी प्रारूप के भीतर राजवंशों को केंद्र में रख कर लिखा जाने वाला इतिहास अब एक नए सांचे में ढल चुका था जिसमें सामाजिक और आर्थिक इतिहास को एकीकृत करते हुए इस पड़ताल के साथ अतीत के सांस्कृतिक पहलुओं का रिश्ता भी बैठाया जा रहा था। इसने संदर्भ गढऩे का काम किया और समाज के विभिन्न पहलुओं के बीच अंतर्संबंध के क्षेत्रों को प्रकाशित किया। पुरातत्व, भाषाशास्त्र, प्रौद्योगिकी और पारिस्थितिकी के आंकड़ों को समाविष्ट कर के ऐतिहासिक सूचना को विस्तार देते हुए उन्होंने उस सामाजिक-आर्थिक पदानुक्रम को भी रेखांकित किया जिसे वे सामाजिक असमानता के रूप में पहचान रहे थे और यह बताया कि इतिहास पर इनका कैसा असर पड़ता है। उनके लिए इतिहास का मतलब उत्पादन के साधनों और संबंधों के क्रमिक विकास की कालानुक्रम प्रस्तुति था, इसीलिए ऐतिहासिक अध्ययन सिर्फ कालानुक्रमिक आख्यान पर समाप्त नहीं हो जाता था बल्कि उसके लिए कई अंतर्संबंधित पक्षों की पड़ताल करने की भी जरूरत होती थी। 'उत्पादन' सिर्फ उस दौर की आर्थिकी और प्रौद्योगिकी तक सीमित नहीं था बल्कि एक समुच्चय के रूप में समाज की बहुपक्षीय समझ भी उसमें शामिल थी।

यहां मैंने उनके लेखन से कुछेक पहलुओं को उठाया है जो मुझे लगता है कि प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन में बुनियादी महत्त्व रखते हैं। इतिहास में उनकी अभिरुचियों का दायरा इतना विशद है कि चुनाव करना कठिन है लेकिन मैंने तीन विषयों को चुना है। मैं जनजाति और जाति के बीच संबंध, बौद्ध धर्म और व्यापार के बीच संबंध तथा भारत में सामंतवाद की प्रकृति पर उनके अध्ययन पर चर्चा करूंगी। उनका अध्ययन न सिर्फ भारत से जुड़े तथ्यों पर उनकी जबरदस्त पहुंच को दिखाता है बल्कि ग्रीको-जर्मन और मध्यकालीन योरोपीय अध्ययन पर भी उनकी समझ को प्रदर्शित करता है जो तुलनात्मक इतिहास की अहमियत को पुष्ट करते हैं। इन तीन विषयों के संदर्भ में मैं उठने वाले सवालों का जिक्र करूंगी और बताऊंगी कि बाद के अध्ययनों में किन तरीकों से इन पर बहस चली है।

1 जनजाति और जाति

जनजाति और जाति के संबंध को कोसंबी भारत की प्राथमिक ऐतिहासिक प्रक्रिया मानते थे। उनके अध्ययन और फील्ड वर्क के चलते इस प्रक्रिया के बारे में उनकी समझदारी बनी थी। इसके अलावा, वर्गीय संघर्षों की समझ बनाने में भी यह अहम रहा। उनका जोर समाज के दो सिरों पर केंद्रित था: ब्राह्मण 'वर्ण' का संगठित होना और 'शूद्र वर्ण' की निर्मिति। कर्मकांडीय प्रतिष्ठाक्रम में ब्राह्मण सबसे ऊपर था जिसे बाद के दौर में सबसे ज्यादा जमीनें अनुदान में मिलीं। अपने मूल में इसकी प्रकृति विविध थी लेकिन इसने अंतत: समरूपता ग्रहण कर ली। शूद्र वर्ण में वह 'दासों'' को भी रखते थे और यह श्रमिक बल था, जो वर्ग की परिभाषा के लिहाज से अनिवार्य था। इस श्रेणी की उन्होंने ग्रीको-जर्मन दासता से नहीं बल्कि ग्रीक हेलट से तुलना की, जैसा कि हम आगे देखेंगे। जनजाति विशिष्ट श्रेणी थी क्योंकि न तो वे शूद्र थे, न ही दास या हेलॉट। वे जाति संरचना से बाहर की श्रेणी में आते थे और प्राक्-वर्गीय निर्मिति थे। इस तरह जनजाति और जाति परस्पर विपर्यय की स्थिति में थे। उन्होंने प्राय: वर्ण को वर्ग माना है लेकिन उन स्थितियों की पहचान भी की है जहां यह साम्यता नहीं बैठाई जा सकती थी।

जनजाति एक ऐसा समुदाय था जहां भूमि के अधिकार स्वामित्व से नहीं बल्कि कौटुंबिक संबंध से तय होते थे। विवाह संबंधों पर कुछ नियमों का आंशिक नियंत्रण इसलिए था क्योंकि इस समुदाय का कोई सदस्य जन्मना ही होता था। भोजन का लेन-देन समुदाय के भीतर ही होता था और बाहरी लोगों के साथ संपर्क को बढ़ावा नहीं दिया जाता था। यहां हम 'जातियों' के निर्माण की ऐसी प्रक्रिया को देख सकते हैं जिनमें जनजातियों के कुछ लक्षण बने रह जाते हैं। जनजाति को जाति में बदलने के क्रम में संघर्ष भी हुए और समझौते भी। सामाजिक बदलाव के तौर पर देखें तो इस प्रक्रिया में प्राय: पारिस्थितिकी के बरक्स आर्थिकी व प्रौद्योगिकी दोनों में ही बदलाव हुए और साथ ही आस्थाएं भी बदलीं। ये सारे बदलाव कोसंबी की ऐतिहासिक व्याख्याओं के लिहाज से अहम थे। जोत वाली खेती के विस्तार तथा शिकारियों-बंजारों, जगह बदल-बदल कर खेती करने वालों व चरवाहों के बिखरे हुए समाज की मदद करने वाली जनजातीय भूमि वाले इलाकों में कृषि आधारित गांवों की स्थापना को उन्होंने बुनियादी ऐतिहासिक प्रक्रिया माना। यही बदलाव हमें प्राक्-वर्गीय सामाजिक निर्मितियों से उन जातियों के निर्माण तक ले आता है जो वर्ग का आभास देती हैं।

इन बदलते हुए संबंधों के संदर्भ में कर्मकांडों, सांस्कृतिक गतिविधियों और इनके ऐतिहासिक संदर्भ का उनका विश्लेषण खासकर चौंकाने वाला था। धार्मिक अभिव्यक्तियां अपना प्रभुत्व थोपने वाले सत्ताधारी वर्ग की विचारधारा मात्र से नहीं उपजी थीं। ये ऐसे तरीके थे जिनके माध्यम से सामाजिक प्रतिष्ठा और नियंत्रण को बनाए रखा जाता था और जिनके पीछे अकेले आर्थिक कारण नहीं थे।

कबीलाई समाज और राज्य

जनजाति और जाति के संबंध को आजकल अक्सर कबीलाई (क्लान) समाज और राज्य के रूप में समझ लिया जाता है। 'जनजाति' को अनौपचारिक रूप से कई समाजों के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा है और इसने अपना सटीक अर्थ खो दिया है। इसका प्रयोग बंजारों से लेकर घूम-घूम कर खेती करने वाले समुदायों तक तमाम सामाजिक श्रेणियों के लिए किया जा रहा है। एक जनजाति के भीतर एक से ज्यादा जाति समाहित हो सकती हैं, मसलन पुराने ग्रंथों में अभीरों के वर्णन में यह बात आती है। कबीला अपेक्षया ज्यादा विशिष्ट श्रेणी है और यह जाति के विकास का व्यंजक है, हालांकि यह वर्ण की महत्ता को नकारता नहीं है। किसी जाति का होने का मतलब उसमें पैदा होना होता है (बिल्कुल कबीले की तरह), जहां कबीले के भीतर और बाहर विवाह करने पर कबीले के नियम लागू होते हैं, जहां पेशा अस्मिता को संरक्षित रखने वाली परिभाषा के अधीन होता है और जिसके कर्मकांड और आस्थाएं उक्त जाति द्वारा अथवा कम से कम ऐसी एकाधिक जातियों द्वारा तय की हुई होती हैं। एक महत्त्वपूर्ण बदलाव यह आया है कि कबीलों में अपेक्षया मौजूद समानतापूर्ण स्थिति की जातिगत अनुक्रम द्वारा अपेक्षा उपेक्षा की जाती है।

कबीलों से जाति के सफर में कुछ तत्वों की निरंतरता को समझा जा सकता है। हालांकि वर्ण तक आते-आते ऐसा मुश्किल होता है। कोसांबी ने प्राचीन भारत का इतिहास लिखते वक्त इस फर्क को रेखांकित किया था, हालांकि उन्होंने जाति पर बहुत विस्तार से बात नहीं की थी। एक श्रेणी के तौर पर वर्ण अनिवार्यत: 'धर्म शास्त्रों' के मानकों के अनुकूल नहीं बैठता और यह विसंगति खासकर मध्यम जातियों में देखी जाती है जहां तमाम समूहों की जातिगत स्थिति को समायोजित करने की सुविधा होती है। यदि वर्ण को वर्ग मान लिया जाए, तो यह समरूपता संदर्भ के साथ बदल जाएगी। पुराने नियामक ग्रंथों के मुताबिक मध्यमवर्ती जाति श्रेणियों में कई ऐसी हैं जिनकी पहचान अस्पष्ट है क्योंकि वे एक ऐसे तंत्र में मौजूद हैं जो पदानुक्रम और असमानता पर आधारित हैं। जहां कहीं वर्ण को दैवीय बताया गया, इस स्थिति को और ज्यादा बल मिला है।

जाति की जगह 'राज्य' को तरजीह दिए जाने का कारण यह हो सकता है कि राज्य ने कई किस्म के बदलावों में माध्यम की भूमिका निभाई जिनमें एक जाति आधारित समाज में हुआ रूपांतरण है, जो महत्त्वपूर्ण है। यह अप्रत्यक्ष तौर पर इस अवधारणा की आलोचना भी है कि आरंभिक भारत में राज्य नाम की चीज नहीं होती थी क्योंकि वह जाति के भीतर समाविष्ट था। राज्य का राजनीतिक सूत्रीकरण सामान्यत: एक राजत्व के रूप में आता है हालांकि कुछ इतिहासकार कबीलाई समूहों को भी राज्य तंत्र मानते हैं। कौटिल्य के 'सप्तांग' सिद्धांत के मुताबिक एक राज्य के सात अंग होते हैं जिनमें एक ऐसा राज्य है जहां राजा की जरूरत हो, एक स्पष्ट विभाजित सीमा हो, मंत्रियों द्वारा चलाया जाने वाला प्रशासन हो, एक राजकोष में राजस्व का संग्रहण किया जाता हो, एक किलाबंद राजधानी हो, संभवत: भौतिक या विधिक निग्रह हो और पड़ोस के राजत्वों में सहयोगियों की मौजूदगी हो। इतिहासकार इसीलिए ऐसी प्रक्रियाओं की तलाश में रहते हैं जो ऐसे राज्य का निर्माण करती हों जो निरंतर परिवर्तनशील हों और इनमें से कुछ कोसंबी के बताए राज्यों के जैसे ही हैं। जनजाति से जाति में संक्रमण एक जटिल ऐतिहासिक प्रक्रिया है। कोसंबी इसी जटिलता की ओर ध्यान खींच रहे थे और इस तथ्य की ओर कि भारत में ऐतिहासिक बदलावों के क्रम में यही तत्व बुनियादी है।

जनजाति और जाति या कबीलों और राज्य को एक-दूसरे के बरक्स रखने के क्रम में हम पाते हैं कि जातिगत समाज द्वारा किसी जनजाति का अतिक्रमण अक्सर उसे राज्य में सम्मिलित कर लेता था। दूसरे कारकों को छोड़ भी दें, तो इस प्रक्रिया में कई सवाल शब्दों की व्युत्पत्ति और नतीजतन पाठ की व्याख्या के संदर्भ में खड़े होते हैं। शाब्दिक अनुवाद से सही अर्थ मिलना मुश्किल है और शब्द को उक्त समाज की पृष्ठभूमि के संदर्भ में गढ़ा जाना होगा जिसके लिए वह प्रयुक्त हुआ है। मसलन, 'राजा' को आरंभिक तौर पर कैसे परिभाषित किया जाए, चूंकि किसी कबीले के मुखिया और राज्य के मुखिया दोनों को ही राजा कहते थे। अर्थशास्त्र में भी दोनों के लिए एक ही शब्द प्रयुक्त हुआ है लेकिन संदर्भ से साफ हो जाता है कि किसकी बात की जा रही है। अर्थ में अंतर पाठ की व्याख्या को बदल सका है। कोसंबी इस बात को समझते थे, इसके बावजूद वह दोनों के लिए ही एक शब्द का इस्तेमाल करते थे। वे ऋग्वेद से उद्धरण देते हैं कि अग्नि वन को ऐसे खाती है जैसे राजा 'इभ्य' को, जबकि शतपथ ब्राह्मण में बाद में आए एक उद्धरण को वह जोड़ सकते थे कि क्षत्रिय 'विष' को यानी कबीलाइयों को ऐसे खाता है जैसे हिरण दाना चुगता है। 'खाने' की उपमा यहां ताकतवर राजशाही द्वारा प्रजा के नियंत्रण से पैदा होने वाले विस्मयबोध का आभास नहीं दे पाती है, बल्कि इसका प्रयोग राजा द्वारा कुछ सामान्य गतिविधियों की ओर इंगित करता है, मसलन वेदों में वर्णित मवेशी लूटने की गतिविधि। हमें बताया गया है कि यहां तक कुरु-पांचाल जैसी स्थापित राजशाही के राजा भी ओसीले मौसम में मवेशियों पर छापा मारने जाया करते थे। छोटे समाजों में धन संग्रहण के ये छिटपुट साधन थे, ऐसे समाज जो खेतिहर-चरवाहों पर निर्भर हुआ करते थे जहां शाही सेना द्वारा दिया जाने वाला संरक्षण अनुपस्थित था या फिर उसकी उत्पत्ति ही नहीं हुई थी।

ऐसी गतिविधियां बाद के दौर में भी ग्रामीण क्षेत्रों में जारी रहीं, इसके साक्ष्य तमाम नायकों के स्मारकों में देखे जा सकते हैं जिन्होंने गांव के मवेशियों की रक्षा छापामारों से की थी। ऐसी परिस्थितियों में राजशाही पर भरोसा नहीं दिखता है और स्थानीय स्तर पर ही लोग अपनी रक्षा करते थे। इस तरह के नायकत्व से कुछ नायक बेहद प्रतिष्ठित भी हुए और माना जाता है कि बाद में उनकी देवता के रूप में पूजा की जाने लगी, जैसा कि महाराष्ट्र के पंढरपुर में विट्ठल की कहानी बताती है। ऐसी सांस्कृतिक धाराओं की पड़ताल कर रहे प्राचीन भारत के इतिहासकार दरअसल कोसंबी द्वारा प्रतिपादित 'जीवित प्रागैतिहास' की गवेषणा का ही आंशिक तौर पर अनुकरण कर रहे हैं।

कबीलों और जातियों के अंतर्संबंध इनके सामाजिक उद्गम और निरंतरता के संदर्भ में ब्राह्मणों में विद्यमान 'गोत्र' प्रणाली पर कोसंबी के विमर्श में भी लक्षित किए जा सकते हैं। जॉन ब्राओ जैसे इंडोलॉजी के अध्येताओं के साथ इस विषय पर काफी बहस हुई है। अगस्त्य और वशिष्ठ जैसे ऋषियों की उत्पत्ति से जुड़े मिथकों का विश्लेषण मौजूदा आख्यानों से कहीं आगे जाकर दूसरे संदर्भों में किया गया है, जिनके बारे में कहा जाता है कि वे घट से पैदा हुए थे।

आर्यों से जुड़े प्रश्न

'आर्यों के प्रश्न' पर कोसंबी ने अपने लेखन में उस तत्कालीन सिद्धांत को स्वीकार किया था कि हड़प्पाकालीन शहरों के पतन के बाद ही आर्यभाषियों ने भारत पर आक्रमण किया था। उन्होंने हालांकि यह दलील दी थी कि यहां के पुराने और नए समुदायों के बीच एक समानता का संस्तर अवश्य मौजूद था। इसके कारण बाद में जो सांस्कृतिक निर्मितियां हुईं, उनका अनुकूलन इसी के हिसाब से हुआ और यह वेदों में बाकायदा सूत्रीकृत है। यह अंत:क्रिया भारतीय-आर्य भाषा, धार्मिक आस्थाओं और कर्मकांडों में आए बदलावों में दिखाई देती है। यह नए सामाजिक समूहों के उभार में भी देखा जा सकता है।

मसलन, कोसंबी ने भाषाई प्रयोग में आर्य और अनार्य के सम्मिश्रण तथा विशिष्ट जाति अस्मिताओं में उसके प्रतिबिंबन की ओर संकेत किया था। वेद में वर्णित ब्राहमणों, खासकर कक्षीवंत को 'दासी' पुत्र बताया गया है। यह वक्तव्य बहुत अहम था। 'दास्यरु पुत्र ब्राह्मण' के रूप में वर्णन कुछ मायने में विरोधाभासी भी था, हालांकि ऐसी कोई श्रेणी ज्ञात नहीं थी। आरंभ में तो दास की निंदा की गई लेकिन बाद में दूसरे ब्राह्मण इसका सम्मान करने लगे। कवश ऐलुश को पहले तो दासीपुत्र होने के कारण खारिज कर दिया गया लेकिन जब यह पाया गया कि हर जगह सरस्वती उनका अनुसरण करती हैं, तब उनके प्रभुत्व को स्वीकार्यता मिल गई। इस तरह इन ब्राह्मणों की विजय हुई। संदिग्ध जाति का होने के बावजूद इन्हें ब्राह्मण वर्ण में शामिल कर लिया गया। ऐसा समायोजन गुप्त काल के बाद के दौर में 'नए क्षत्रियों' को वैधता दिए जाने के समानांतर है। कोसंबी का मानना है कि इस श्रेणी में से कुछ ऐसे रहे होंगे जिन्होंने अपना पेशा हड़प्पाकालीन पौरोहित्य के अवशेषों से अर्जित किया होगा, लेकिन इस पर अब भी अंदाजा ही लगाया जा सकता है। ऐसा कर के कोसंबी दरअसल जाति की औपचारिक संरचना की निरंतरता और निर्देशात्मक संहिताओं के खिलाफ खड़ी हो रही जाति की लचीली कार्यपद्धति के बीच का फर्क प्रदर्शित करना चाह रहे थे।

अर्थ परिवर्तन

यह एक और प्रश्न को जन्म देता है: क्या हम आर्य-अनार्य संवाद (यदि ऐसा कहा जाए तो) की प्रकृति को कुछ शब्दों के अर्थ में आ रहे बदलाव की पड़ताल कर के समझ सकते हैं, मसलन 'दास' को ही लें? ऋग्वेद में वर्णन के मुताबिक दास व्यावहारिक तौर पर 'आर्य' से 'अन्य' थे। इस अन्यता या अलग होने का मतलब अपरिहार्य रूप से स्व का कम से कम उन लक्षणों में प्रतिबिंबन है जिन्हें 'अन्य' का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया है। न तो आर्य और न ही दास समाज समरूप, एकाकार या एकाश्म था। कोई भी समाज और उसके समुदाय ऐसे नहीं होते। कुछ दास प्रमुख आर्यों के कट्टर शत्रु थे जबकि कुछ तो ब्राह्मणों के संरक्षक जान पड़ते हैं।

दासों से इसलिए भय होता था क्योंकि वे धनी थे और उनके गढ़ को तोडऩा इतना आसान नहीं था। उनकी अन्यता दरअसल भाषा, कर्मकांड, परंपरा और संभवत: उनके रंग-रूप के फर्क से भी आती थी, जैसा कि कुछ ने कहा है। उनकी संख्या अतिरंजित कर के बताई गई है। उनसे भय की संभवत: एक वजह यह भी है कि उनका ताल्लुक जादू-टोने से है- जिसे यतुधन कहा गया है। कुछ सदी बाद दासों से संबंध में बदलाव आता है जो बाद की वैदिक ऋचाओं में मिलता है जहां उन्हें उपेक्षा से बरता गया है, सिवाय उन मामलों के जहां वे कवश ऐलुश या ऐसे ही अन्य ब्राह्मणों केजैसे हों। दास की सामाजिक प्रतिष्ठा लगातार नीचे गिरती जाती है और अब वे सिर्फ श्रम से जुड़े काम करते हैं हालांकि उनके बीच कर्मकांड के जानकार अब भी ब्राह्मणों के कर्मकांड में अच्छी पैठ रखते हैं। यह बदलाव कैसे आया, उस प्रक्रिया की विस्तार से पड़ताल होनी चाहिए। पहले जिन दासों से भय होता है, अब वे बंधुआ की स्थिति में कैसे आ गए? इसी पड़ताल से दास के अर्थ में बदलाव भी समझ आ जाएगा जो 'अन्य' से 'अधीन' में परिवर्तित हो गया।

तत्कालीन उत्तर-पश्चिमी उपहाद्वीप में मौजूद विविध समाजों के बीच मौजूद संवाद के संदर्भ में इस तरह के बदलावों की समझ कुछ नए सवाल खड़े करती है और यह इतिहास के उस दौर को समझने में कहीं ज्यादा मददगार है बजाय इस सनक के कि कौन विदेशी था और कौन मूल निवासी। विदेशी और मूल निवासी की बहस इस ओर कम ध्यान देती है कि उन समाजों के लिए विदेशी या मूल निवासी होने से जुड़ी चेतना का कोई अर्थ था भी या नहीं। इस वक्त की सीमाएं उस वक्त लुप्त थीं, लिहाजा 'हम' और 'वे' का फर्क भाषा, सांस्कृतिक प्रवृत्तियों और आस्था तंत्र जैसे दूसरे कारकों पर उतना ही आधारित था जितना सामाजिक प्रतिष्ठा के मर्यादाक्रम में होने वाली संधियों पर।

कोसंबी कहते हैं कि जोत वाली खेती, लोहे की तकनीक, आवाजाही के लिए घोड़ों का प्रयोग और भोजन के लिए मवेशियों पर निर्भरता वे निर्णायक कारक थे जिन्होंने आर्यभाषियों को दूसरे समाजों के बरक्स लाभ पहुंचाया। इन्हीं के चलते आर्य एक प्रभुत्वकारी संस्कृति बन कर उभरे। जोत वाली खेती ने कबीलाई एकता को कमजोर किया और जमीन पर नियंत्रण के माध्यम के बतौर जाति को स्थापित किया। जोत वाली खेती के पुरातात्विक साक्ष्य हालांकि हालिया उत्खननों से हड़प्पा पूर्व काल में मिलते हैं यानी यह भारतीय-आर्य भाषियों की उपस्थिति से भी पहले की बात है। जैसा कि जान पड़ता है, यदि आर्य-दास संबंध चरवाहों और खेतिहरों के बीच का संबंध था, तो बिल्कुल अलहदा सूचकांकों का विश्लेषण किया जाना होगा।

लौह तकनीक का प्रयोग

लौह तकनीक ईसा पूर्व दूसरी और पहली सदी में आई। इससे पहले तांबा और कांसे की तकनीक मौजूद थी। कहा जाता है कि लौह तकनीक के आने से जंगलों को साफ करके खेती का क्षेत्र विस्तारित करने में आसानी हुई। बाद में कृषि से आने वाले बेशी मूल्य ने शहरी केंद्रों की स्थापना में योगदान दिया। लौह तकनीक हालांकि बदलाव का पर्याप्त कारक नहीं है। लोहे की पुरातात्विक उपस्थिति क्षेत्र दर क्षेत्र अलग मिलती है और कुछ स्थानों पर इसके मिलने का समय ईसा पूर्व दूसरी सदी है। प्रायद्वीप में कुछ महापाषाण स्थलों पर इसका पाया जाना उत्तर भारत में भारतीय-आर्य भाषियों के समकालीन या उससे पहले का है। इन स्थलों से दक्षिण में भारतीय-आर्य भाषा नहीं बोली जाती थी। ऐसे महापाषाण स्थलों की खोज कोसंबी के बाद के काल की है इसलिए वह इनके बारे में नहीं जानते थे। महत्त्वपूर्ण सवाल लौह तकनीक के आने का नहीं जितना यह है कि इसका उन लोगों ने दोहन और इस्तेमाल किन तरीकों से किया जो अपना वर्चस्व कायम करना चाहते थे। लौह के स्रोतस्थल, उसे पिघला कर और ढाल कर धातु बनाने के स्थल और इसके कारीगरों का काम यह समझने में मददगार होगा कि इस तकनीक ने क्या बदलाव किया। इसी तरह अकेले कृषि से उपजने वाला बेशी मूल्य ही शहरीकरण लाने के लिए पर्याप्त नहीं था। बेशी मूल्य उपजाने की एक प्रक्रिया होती है और जो लोग इसका संसाधन के तौर पर इस्तेमाल करते हैं उनके द्वारा इसे बदलाव की दिशा में मोड़े जाने की दरकार होती है। कोसंबी की दलीलों में यह सवाल उठाया गया था कि आखिर इस तकनीक पर किसका नियंत्रण है और कौन इसमें काम करता है। ये सवाल आज भी प्रासंगिक हैं।

जनजाति और जाति के बीच संवाद ऐतिहासिक प्रक्रिया में अनिवार्य घटक है, लेकिन इतिहास में इकलौता सामाजिक बदलाव यही नहीं था। इसी के समानांतर वस्तु-विनिमय (बार्टर) से वाणिज्य तक तब्दीली यानी विनिमय संबंधों का विस्तार भी हो रहा था जिस पर कोसंबी ध्यान खींचते हैं। व्यापार के आने से जनजातीय बंधन टूटने लगे थे और विनिमय की प्रारंभिक प्रकृति में बदलाव आने लगा था। वर्ग आधारित समाज के आने में इन्होंने प्रोत्साहन दिया। कोसंबी ने इस अध्ययन में न सिर्फ मौर्य काल के बाद के दौर में वाणिज्य के भौगोलिक विस्तार पर बात की बल्कि खासकर दक्कन में बौद्ध विहारों के साथ उसके संबंध पर भी काम किया जिसे व्यापक जनता की ओर से संरक्षण प्राप्त था। यह जटिल राजनीतिक तंत्र के भीतर जनजातियों के समावेश का एक और पहलू बन कर उभरा। बौद्ध विहारों का संबंध जब व्यापार से हुआ, तो ये न सिर्फ वाणिज्य से जुड़ी गतिविधियों के प्रतिनिधि बन गए बल्कि शिल्प उत्पादन और अलग-अलग स्तरों पर शहरीकरण का भी पर्याय बन गए जो कि कृषि का एक विस्तार ही था। वस्तु-विनिमय को अक्सर कबीलाई समाज से जोड़कर देखा जाता है और माना जाता है कि राज्य की उत्पत्ति के बाद व्यापक व्यापारिक संपर्क कायम होने पर यह वाणिज्य में तब्दील हुआ। इस बदलाव का एक स्वाभाविक साक्ष्य मुद्रा का चलन है जिसे मूल्य की समानता कायम करने के लिए लाया गया। यह जिंस उत्पादन में बढ़ोतरी की ओर भी संकेत कर सकता है।

मुद्राशास्त्र

मुद्राशास्त्र पर कोसंबी का काम एक गणितज्ञ के तौर पर उनके पेशेवर प्रशिक्षण से करीब से जुड़ा हुआ था। वह अपने सवालों को गढऩे के लिए गणितीय तर्कशास्त्र का प्रयोग करते और आंकड़ों के विश्लेषण के लिए सांख्यिकी की मदद लेते थे। मुद्रा के अध्ययन में यह नया तरीका था। प्रारंभिक काल में इस उपमहाद्वीप में जो मुद्रा चलती थी उसे मुहर कहा जाता था। ये छोटी चौकोर या आयताकार आकृतियां होती थीं, अधिकतर चांदी की और कुछ तांबे की, जिनके एक ओर कई चिह्न बने हुए थे और दूसरी ओर कुछ निशान हुआ करते थे। गंगा के मैदानों और उत्तर-पश्चिम में प्रारंभिक शहरीकरण का दौर मुद्रा के प्रचलन का दौर है जिसकी शुरुआत ईसा पूर्व दूसरी सदी से कुछ पहले हुई और यह सदी के अंत तक जारी रहा। इनकी एक बड़ी समस्या यह थी कि बाद के सिक्कों से उलट न तो इन पर कोई तारीख हुआ करती और न ही इन्हें जारी करने वाले प्राधिकरण का नाम होता था। सिर्फ कुछ मुद्राओं पर नेगम लिखा होता था। इसलिए कुछ बुनियादी सवाल खड़े हुए: इन पर बने चिह्नों का अर्थ क्या है, कौन इनके दूसरी तरफ निशान बनाता था और क्या पुरानी मुद्रा को नई वाली से अलग करने की कोई तकनीक थी?

कोसंबी ने पाया कि अधिकतर चांदी की बनी मुहरें करीने से काटी होती थीं और इनमें कुछ तक्षशिला से आती थीं, इसलिए उन्होंने ऐसे ही एक स्थल को अपने प्राथमिक आंकड़े के रूप में चुनने का निर्णय लिया। छिटपुट पाए जाने वाले सिक्कों के मुकाबले एक स्थल से आने वाले सिक्के आंकड़ों के लिहाज से कहीं ज्यादा विश्वसनीय थे। इसके अलावा ऐसे स्थलों में मौजूद कुछ सिक्कों से तारीख का आकलन हो सकता था क्योंकि ये मौर्य काल से पहले के भारतीय-ग्रीक सिक्के थे। कुछ मुहरें लंबे समय से चलन में थीं जो घिस गई थीं। कोसंबी ने बताया कि मुद्राओं के संदर्भ में काल-वजन का एक अंतर्संबंध था और वजन को सही-सही माप कर वे प्रारंभिक से बाद वाली मुद्राओं के कालानुक्रम को पकड़ सकते थे। उन्होंने यह काम काफी कुशलता से किया। इसके बाद वह चिह्नों की व्याख्या पर गए। मुद्रा पर आम तौर पर बने अर्धचंद्राकार चिह्न को उन्होंने मौर्य चिह्न माना जिसका अर्थ था चंद्रगुप्त। उनकी तर्कशीलता के बावजूद राजों और राजत्वों की उनकी व्याख्या बहस तलब है लेकिन मुद्रा के अध्ययन में सांख्यिकी का प्रयोग जहां कहीं संभव हो कारगर दिखता है। दूसरा लक्षण मुद्रा की दूसरी तरफ बने निशान थे। यह माना जाता था कि ये मुद्राएं राजाओं ने नहीं बल्कि व्यापारियों ने जारी की थीं। जिन मुद्राओं पर नेगम लिखा था, वे संभवत: किसी विनिमय केंद्र या शिल्पीसंघ जैसी संस्था से ताल्लुक रखती थीं। कोसंबी ने माना कि मुद्रा की दूसरी ओर जो निशान बने होते थे वे व्यापारियों के ही बनाए होते थे जो समय-समय पर मुद्रा का वजन और मूल्य जांचते थे और उस पर उसी हिसाब से निशान बना देते थे। ऐसे कुछ निशान 'लाक्षणाध्यक्ष' यानी राज्य के पर्यवेक्षक के बनाए होते थे जो मुद्रा का संरक्षक होता था। इसके कार्यों का वर्णन अर्थशास्त्र में किया गया है।

मुद्राओं की पड़ताल करते वक्त उन्होंने पाया कि कुछ मुद्राएं खोटी थीं यानी उनके धातु में मिश्रण था। काल-वजन के आंकड़ों का कालानुक्रम इस्तेमाल करते हुए उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि इस अपमिश्रण का काल मौर्य शासन के आखिरी वर्ष थे। इस परिघटना को अर्थशास्त्र में वर्णित दो फसली खेती तथा राज्य संरक्षित कृषि के संदर्भों से जोड़कर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि मौर्य साम्राज्य का पतन वित्तीय संकट तथा मौर्य मुद्रा पर पड़े दबाव व अर्थतंत्र के विस्तार के कारण हुआ था। यह दबाव सेना व प्रशासनिक ढांचे पर बढ़े हुए खर्चों से पैदा हुआ था। इसके अलावा जैसा कि अर्थशास्त्र में बताया गया है यह संकट वेतनमान की वजह से भी था जहां बड़े ओहदे वाले नौकरशाहों की तनख्वाह ज्यादा थी। कोसंबी ने इस बात की ओर संकेत किया कि व्यापारिक गतिविधियों के विस्तार में जैसे-जैसे मुद्रा विनिमय बढ़ता गया, चांदी की कमी पड़ती गई और इसी वजह से संभवत: मुद्रा में अपमिश्रण किया जाने लगा। इन सभी तर्कों को तो स्वीकार नहीं किया गया है, हालांकि एक साम्राज्य के संकट पर उनकी यह दृष्टि उसकी प्रकृति की पड़ताल करने के नए रास्ते खोलती है। आम तौर पर साम्राज्यों के पतन की वजह, 'विदेशी आक्रमण' बताई गई है। इस लिहाज से कोसंबी का यह निष्कर्ष साम्राज्यों के पतन के संदर्भ में अहम प्रस्थान बिंदु है जिसने राज्य प्रणाली के अध्ययन में नए आयाम जोड़े।

कोई भी यह सवाल पूछ सकता है कि कोसंबी, जिन्होंने अपने गणित ज्ञान का इस्तेमाल इस हद तक मुद्राशास्त्र में किया, ने क्यों नहीं इतिहास व गणित में अपनी विशेषज्ञता का मिश्रित इस्तेमाल कर भारत में गणित के प्राचीन इतिहास को लिख डाला। भारत में यदि कोई भी विज्ञान और सभ्यता पर जोसेफ नीधम जैसी किसी परियोजना को शुरू करने के काबिल था तो वह अकेले कोसंबी ही थे। क्या भारत का मार्क्‍सवादी इतिहास लिखने और समाज व अर्थशास्त्र का अध्ययन करने की उनकी प्रतिबद्धता ने उन्हें गणित का इतिहास लिखने से दूर बनाए रखा। जिस तरह आज उनका लिखा और संपादित किया मानक बन चुका है, जाहिर है गणित के महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों पर उनकी टिप्पणियां भी उतनी ही दृष्टिवद्र्धक होतीं।

2. बौद्ध धर्म और व्यापार

कोसंबी जिस दौर में लिख रहे थे, उस वक्त आज के मुकाबले व्यापार पर आंकड़े काफी कम हुआ करते थे। तक्षशिला के केंद्र से उत्तर-पश्चिम होकर गुजरने वाले व्यापार मार्ग का उल्लेख पश्चिम एशिया के हेलेनिस्टिक साम्राज्यों पर कुछ ग्रीक स्रोतों और रोमन साम्राज्य पर कुछ लातिनी स्रोतों व सीमित पुरातात्विक आंकड़ों में मिलता है। कुछ व्यापार मार्ग पश्चिम की ओर भूमध्यसागर (मेडिटेरेनियन) तक जाते थे, कुछ गंगा के डेल्टा तक दक्षिण-पूर्वी दिशा में जाते थे और कुछ विंध्य को पार कर प्रायद्वीप में प्रवेश करते थे। इन्हीं मार्गों से मौर्य और गुप्त काल के शहरों के बीच संपर्क कायम हुआ था। यह बात स्थापित थी कि उस काल में पर्याप्त व्यापार हुआ करता था और तमाम जगहों से लोगों की आवाजाही थी। यह सब शिल्पकला और पुरातत्व की नई शैलियों के उभार व खगोलशास्त्र, गणित, चिकित्सा समेत समूचे तत्कालीन ज्ञान तंत्र पर होने वाले विमर्शों के संदर्भों से पता चलता है। व्यापारियों के बीच अलग-अलग धर्म के लोगों ने कुछ देवताओं को स्थापित किया, जिनमें सेंट जॉन ऑफ द रिविलेशंस ईसाइयों में, जरथ्रुस्तवादियों के बीच शाओश्यंत, बुद्ध मैत्रेय और कल्कि रूप में विष्णु आदि शामिल थे। यह विचारों का एक अद्भुत संगम था।

पुराने ग्रंथों में भूमध्यसागर से होने वाला व्यापार मुख्यत: भूमार्गी था और समुद्री व्यापार पर बहुत जोर नहीं दिया गया है। आखिरी के कुछ दशकों में समुद्री व्यापार पर पर्याप्त साक्ष्य हैं और इनसे नए अध्ययन भी निकले हैं। पुरातात्विक आंकड़े पूर्वी भूमध्यसागर के व्यापारियों का भारत में उल्लेख करते हैं और लाल सागर के बंदरगाहों पर मिले अभिलेख वहां भारतीय व्यापारियों की मौजूदगी का पता देते हैं। सिकंदरिया से व्यापारी सवारी व माल जहाजों को लाल सागर के बंदरगाहों पर भेजते थे और वे वहां से भारत के पश्चिमी तट पर आते थे जो सिंधु डेल्टा से केरल तक विस्तारित था। दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी हवाओं के सतर्क इस्तेमाल से लाल सागर से जहाज रवाना होते, खासकर सोकोत्रा के करीब से और अरब सागर को पार करते थे। वे जो माल वापस ले जाते, उसमें मसाले, काली मिर्च और कपड़े ज्यादा होते थे। हाल ही में ग्रीक में लिखे एक अनुबंध का पता चला है जिसमें मुजीरियों के साथ व्यापार का उल्लेख है और काफी हाल में कोचीन के करीब पट्टनम में मुजीरियों के एक बंदरगाह का पता लगा है जो बताता है कि यह व्यापार कितना अहम रहा होगा। इसी तर्ज पर कालांतर में अरब, यहूदियों और पश्चिम एशिया के अन्य व्यापारियों के साथ व्यापार पनपा। प्रारंभिक व्यापार में भुगतान ताजा बने रोमन स्वर्ण और चांदी के सिक्कों से किया जाता था। ऐसे सिक्के मुद्रण स्थलों के करीब और खासकर दक्षिण में प्रायद्वीप की कुछ रिहाइशों के आसपास पाए गए हैं।

रोमन व्यापार

रोमन व्यापार ईसा पूर्व पहली सदी में शुरू हुआ था, इसी सदी में अपने उत्कर्ष पर पहुंचा और पहली ईसवी के मध्य तक खासकर भारतीय प्रायद्वीप की आर्थिकी के संदर्भ में प्रासंगिक बना रहा। यह संकेत मिलते हैं कि दक्षिण के रजवाड़ों खासकर चेरा, चोल और पंड्या का साम्राज्य में तब्दील होना आंशिक तौर पर इसी विनिमय आधारित अर्थतंत्र में उनकी हिस्सेदारी का परिणाम था। रोमन मुद्रा के अलावा कुछ रोमन वस्तुएं भी प्रायद्वीप में खुदाई में मिली हैं। यह व्यापार कई केंद्रों तक फैला हुआ था जिनमें बौद्ध विहार भी शामिल थे।

चालीस साल पहले के मुकाबले हमारे पास आज कुछ ऐसे साक्ष्य हैं जो दिखाते हैं कि तकरीबन समूचे दक्कन में बौद्ध विहारों का बाकायदे एक तंत्र फैला हुआ था। पूर्वी तट पर क्रमबद्ध ये विहार नीचे तक चले आते हैं और कृष्णा डेल्टा में ये सघन हो जाते हैं। इनका केंद्र अमरावती में मिलता है। जिन स्थलों पर ये विहार पाए गए हैं उनसे समझ आता है कि व्यापार का मार्ग तटवर्ती था और इनका समान फैलाव इस बात का साक्ष्य है कि व्यापार एक दायरे के भीतर होता था। पश्चिम में सोपारा क्षेत्र के आसपास ऐसे विहारों की सघनता है, लेकिन तट से और ऊपर व नीचे आते हुए ये भीतरी इलाकों में एक-दूसरे से काफी दूरी पर पाए गए हैं। कोसंबी के मुताबिक ये विहार पश्चिमी तट से तटवर्ती मैदानों तक रास्तों में पहरेदारों की तरह मौजूद हुआ करते थे। बौद्ध स्थलों पर पाए गए अभिलेखों में लिखे नामों से जुड़े पुरातात्विक संदर्भ बताते हैं कि दक्कन के क्षेत्र में संचार तंत्र प्रसारित हो रहा था।

दक्कन में व्यापारिक गतिविधियों के केंद्र संयोग से बौद्ध विहारों के रूप में मिलते हैं। हाल ही में कर्नाटक के गुलबर्गा स्थित कनगनहल्ली में एक स्तूप पाया गया है जो ऐसे संबंधों की पुष्टि करता है। अपनी संरचना और आकृति में यह सांची और भरहुत के स्तूपों जैसा ही है और इसकी निर्माण अवधि ईसा पूर्व दूसरी सदी से तीसरी ईसवी तक बैठती है। कृष्णा डेल्टा और पश्चिमी दक्कन के तकरीबन मध्य में इसकी अवस्थिति बताती है कि परिवहन का मार्ग कृष्णा घाटी से भीमा घाटी की ओर था। दोनों ही घाटियों में नए बौद्ध स्थल पाए जा रहे हैं। पश्चिमी क्षेत्र में स्थित स्थलों पर मन्नत संबंधी अभिलेख, मकान मालिकों यानी मोटे तौर पर व्यापारियों और शिल्पियों द्वारा दिए गए अनुदान के अभिलेख आदि में अक्सर राजाओं का उल्लेख है जो सातवाहन राजा हुआ करता था। इन अभिलेखों का एक अध्ययन बताता है कि ये जुन्नार और नासिक की पश्चिमी दक्कन गुफाओं में मिले अभिलेखों के समान हैं। आख्यानों में पूर्वी तट के संपर्कों की ओर कुछ संकेत आते हैं हालांकि बौद्ध संदर्भ से जुड़े अभिलेख कई स्थलों पर समान हैं।

कोसंबी की पुस्तक में माल ढोने वाले ऐसे जानवरों की अद्भुत तस्वीरें हैं जो आज भी तटों तक माल पहुंचाने का काम करते हैं। प्रायद्वीप के अधिकतर राजत्वों की आकांक्षा दक्कन के दोनों तटों पर नियंत्रण कायम करना थी क्योंकि इससे पश्चिमी एशिया और दक्षिण-पूर्वी एशिया के व्यापार तक आसान पहुंच बनाने में काफी लाभ मिलता।

कोसंबी ने पश्चिमी दक्कन के पत्थर काट कर बनाई गई गुफाओं को इसी व्यापार से जोड़ कर देखा। बाद में जब व्यापार से जुड़े साक्ष्य मिले तथा व्यापारियों और बौद्ध विहारों के बीच के व्यापारिक रिश्ते स्थापित हो गए, तो उनकी बात सही निकली। उनकी दिलचस्पी बौद्ध भिक्षुओं और अनुयायियों की गतिविधियों में थी और यह आग्रह उनके पिता के पाली पर किए काम से आया था। धर्मानंद कोसांबी ने बौद्ध अभिलेखों में मौजूद बहुआयामी सूचनाओं की ओर ध्यान खींचा था जहां भिक्षुओं और उपासकों पर टिप्पणियां और आख्यान उनके जीवन को धम्म से भी व्यापक पृष्ठभूमि में रेखांकित करते थे। कई भिक्षुओं की व्यापार में सीधी भागीदारी थी, यह बात हाल में बौद्ध विहारों के अभिलेखों के अध्ययन से पर्याप्त स्थापित हो चुकी है। इसीलिए ये बौद्ध विहार सिर्फ मुसाफिरों के ठहरने की जगह नहीं थे बल्कि कुछ विहार वाणिज्यिक गतिविधियों के केंद्र भी रहे होंगे। शिल्पकारों, व्यापारियों, छोटे भूपतियों और कुछ शाही सदस्यों के समूह संघ के सदस्य भी थे और दानदाता भी थे, जिनमें भिक्षुओं के अलावा कुछ भिक्षुणियां भी थीं।

पश्चिमी घाटों की गुफाओं में स्थित विहारों के अभिलेख एक अन्य किस्म के संबंध को उजागर करते हैं। शिल्पकारों के समूहों को शाही खजाने से अनुदान भी मिलता था और इससे आने वाले ब्याज का इस्तेमाल भिक्षुओं के कल्याण में लगाया जाता था। बौद्ध विहारों जैसे धार्मिक संस्थानों के आर्थिक पहलुओं का पुनर्गठन कालांतर में जारी रहा और इसमें बड़ी संख्या में मंदिर भी शामिल थे। यह समाज, आर्थिकी और धर्म के बीच का एक साझा मंच था जिस पर पूर्व में विस्तृत अध्ययन नहीं हुए थे लेकिन आज भारत में धर्मों के इतिहास का एक अनिवार्य हिस्सा इसे माना जाता है।

3 उत्पादन की प्रणाली और सामंतवाद के बारे में

व्यापार और शहरी वृद्धि का सवाल भारतीय इतिहास पर कोसंबी के विचारों के एक अन्य पहलू के संदर्भ में महत्त्व रखता है। वह यह, कि क्या भारत में सामंतवाद किसी अवधि के दौरान रहा था और यदि हां, तो उसका स्वरूप कैसा था। कोसंबी का जोर योरोप के लिए सूत्रीकृत सामंतवाद की सामान्य प्रकृति पर कम था बनिस्बत उत्पादन की सामंती प्रणाली के मार्क्‍स द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत पर ज्यादा था। भारत में मार्क्‍सवादी इतिहासकारों के बीच उस दौर में जो बहस थी, वह इस सवाल पर थी कि मार्क्‍स द्वारा एशियाई और योरोपीय इतिहास के लिए सूत्रीकृत उत्पादन की प्रणाली को भारतीय अतीत पर लागू किया जा सकता है या नहीं। पूर्वी देशों के निरंकुश शासन पर 19वीं सदी के योरोपीय विचारों के आधार पर मार्क्‍स ने आंशिक तौर पर उत्पादन की एशियाई प्रणाली की नींव रखी थी, वह सीधे तौर पर भारतीय ऐतिहासिक साक्ष्यों पर लागू नहीं किया जा सकता था। भारतीय स्रोतों में यहां की जो पूर्वस्थितियां वर्णित थीं, मसलन भूमि के निजी स्वामित्व की तथाकथित अनुपस्थिति, वाणिज्यिक गतिविधियों वाले शहरों की कमी, एक अपरिवर्तनीय ग्राम्य समुदाय की अवधारणा आदि, ये सब उसकी विरोधाभासी थीं। अधिक से अधिक यह हो सकता था कि इस निर्मिति के कुछ तत्वों का इस्तेमाल आरंभिक समाजों के कुछ पहलुओं के विश्लेषण में किया जा सकता, लेकिन कोसंबी भारत के आरंभिक इतिहास की व्याख्या की इसे सही विधि नहीं मानते थे। यदि उत्पादन के आदिम स्तर पर जाति ही वर्ग है, तो संभवतया कुछ वर्गीय अंतर्विरोध भी रहे ही होंगे जिन्होंने इसके बाद के ऐतिहासिक चरण को गढ़ा होगा, लेकिन जिन समाजों में एशियाई प्रणाली के लक्षण बताए गए हैं वहां ऐसा घटता प्रतीत नहीं होता।

मार्क्‍स ने योरोपीय इतिहास का द्वंद्वात्मक सूत्रीकरण उत्पादन के साधनों में आए बदलाव के विभिन्न चरणों के आधार पर किया था। इनमें दास और सामंती उत्पादन प्रणाली को भारत के आरंभिक इतिहास में संभवत: प्रासंगिक माना गया था। श्रीपाद अमृत (एस ए) डांगे ने अपनी पुस्तक फ्रॉम प्रिमिटिव कम्यूनिज्म टु स्लेवरी में प्राचीन भारत में दास आधारित अर्थव्यवस्था के पक्ष में दलीलें देने की कोशिश की थी। इस पुस्तक की आलोचना में कोसंबी ने शब्दों की व्युत्पत्ति और उनकी पुनर्रचना से जुड़ी गड़बडिय़ों तथा स्रोतों में उनके प्रयोग व अन्य तत्वों की ओर इशारा किया था जो कि मार्क्‍स के ऐतिहासिक भौतिकवाद की ठोस व्याख्या की यांत्रिक अभिपुष्टि से पैदा हुए थे। पुस्तक में एक सुनिश्चित संरचना के अनुकूल साक्ष्यों को ढालने की कोशिश विश्लेषणात्मक विचार के अभाव को दर्शाती थी। कोसंबी के लिए मार्क्‍सवादी ढांचे के भीतर खासकर विविध स्वरूपों के संदर्भ में विश्लेषणात्मक चिंतन ही बुनियादी जरूरत थी। उन्होंने कहा था कि मार्क्‍सवाद को चिंतन का विकल्प नहीं मानना चाहिए है।

भारतीय संदर्भ में दास

भारतीय संदर्भों में गुलामों को दास ही कहा गया है, लेकिन ये मोटे तौर पर घरेलू दास हुआ करते थे न कि उत्पादन की प्रक्रिया में श्रम करने वाले लोग। कुछ ग्रीको-रोमन अर्थव्यवस्थाओं में कृषि और शिल्प उत्पादन के भीतर बड़े पैमाने पर दासों का इस्तेमाल भारत के संदर्भ में शूद्रों के श्रम के रूप में दिखता है, लेकिन शूद्र तकनीकी रूप से दास नहीं थे। आरंभिक दौर में बुनियादी उत्पादन तंत्र पर राज्य का एकाधिकार गुलामों के लिए जगह ही नहीं छोड़ता था। कोसंबी ने बताया कि ग्रीक अर्थव्यवस्था में हेलॉट का प्रचलन भारतीय दासों के कहीं ज्यादा करीब बैठता है। हेलॉट का चलन उतना योरोप में भी नहीं था। हेलॉट दरअसल परिवारों का एक समुदाय हुआ करते थे जिन्हें सामूहिक रूप से गुलाम बनाया जाता था। उनकी कुछ सुपरिभाषित सैन्य बाध्यताएं होती थीं और वे स्पार्टा नगर-राज्य में कुछ निश्चित किस्म के काम करते थे, जहां यह चलन था।

दास इनसे अलहदा थे। यह श्रेणी उन व्यक्तियों पर लागू होती थी जो विविध समुदायों और स्थानों से आते थे लेकिन जिनके बीच एक समानता होती थी कि वे परतंत्र श्रमिक होते थे जिनके निजी स्वामी हुआ करते जो उन्हें गुलाम बनाकर रखते थे। रोमन साम्राज्य में यह फर्क और ज्यादा स्पष्ट था जहां विशाल लैटिफंडिया में उत्पादन के लिए इन दासों का श्रम केंद्रीय था। ऐसे निजी स्वामित्व वाले विशाल खेत या परिसंपत्तियां आरंभिक भारत में पाई गई हैं।

धर्मशास्त्र के मुताबिक शूद्र वर्ण उन समुदायों से मिलकर बना था जो सामान्यत: खेतिहर और शिल्पकारों के रूप में अपना श्रम देते थे लेकिन उनका कोई निजी स्वामी नहीं होता था। हेलॉट से उलट इनकी कोई सैन्य बाध्यता नहीं हुआ करती थी। यही बात मेगास्थनीज ने भी कही है जिसने ईसा पूर्व चौथी सदी के अंत में मौर्य साम्राज्य के बारे में लिखा था। एक शूद्र अगर सरकारी जमीन पर खेती करता था, तो वह राज्य को कर चुकाता था। इसीलिए हेलॉट के साथ शूद्र की साम्यता सीमित संदर्भों में ही बैठाई जा सकती है। वैदिक काल के ठीक बाद के दौर में शूद्रों की भूमिका बहुआयामी थी। पौराणिक स्रोतों में कुछ ऐसे वंशों के हवाले हैं, मसलन नंद वंश और संभवत: उसके उत्तराधिकारी, जिन्हें शूद्र वर्ण का बताया गया है। उत्तर-मौर्य काल में मध्यम क्रम के कई पेशे कई स्थानों पर शूद्र वर्ण के बताए गए हैं। शूद्रों पर कोसंबी के अध्ययन में शूद्र-हेलॉट की संभावित साम्यता का प्रश्न केंद्रीय नहीं था। इसके बजाय, उनका विचार था कि जाति आधारित समाज की संरचना ही ऐसी थी कि इसने एक विशिष्ट समुदाय को स्थायी तौर पर श्रम करने के लिए अलग कर रखा था। कालांतर में अस्पृश्यों का श्रम बल के रूप में विकास और उसके साक्ष्य कोसंबी के विचारों की पुष्टि करते हैं।

ऊपर और नीचे का दुतरफा सामंतवाद

कोसंबी ने भारतीय इतिहास में सामंतवाद की अवधि की शुरुआत पहली सहस्राब्दि ईसवी के उत्तराद्र्ध से विभिन्न स्वरूपों में हालिया सदियों तक बताई है। उन्होंने इसे दो चरणों में विकसित होते देखा: ऊपर से और नीचे से विकसित होने वाला सामंतवाद। ऊपर से आने वाला सामंतवाद आरंभिक चरण में दिखता है जब एक ताकतवर राजा छोटे राजाओं और सामंतों पर राज करता है, उनसे लगान वसूलता है और छोटे सामंत अपनी राजनीतिक ताकत कम होने के बावजूद अपने इलाकों पर राज करने के लिए स्वायत्त होते हैं। इसके बाद कालांतर में नीचे से चलने वाला सामंतवाद उपजता है। इसे प्रोत्साहन देने में राजा से धार्मिक लाभार्थियों, व्यक्तियों व संस्थाओं और सीमित अर्थों में उच्च अफसरों को मिलने वाला राजस्व अनुदान अहम था। इसके बाद ब्राह्मणों, मंदिरों और आंशिक तौर पर बौद्ध विहारों को दिया जाने वाला "अग्रहार'' अनुदान आता है। कुछ विशिष्ट जमीनों से जुड़े अनुदान भी इसमें शामिल थे। राजा द्वारा अनुदान में दी गई जमीन के बदले उसे देने के लिए यहां राजस्व नहीं इक_ा किया जाता था बल्कि यह अनुदानित संस्था/व्यक्ति की आय के तौर पर लिया जाता था। इस अनुदान तंत्र के चलते राजा और किसानों के बीच एक ताकतवर मध्यस्थ श्रेणी का निर्माण हुआ और खासकर जब राजस्व अनुदान को जमीन के मालिकाने के तौर पर लिया जाने लगा तो यह व्यवस्था और मजबूत हुई।

जमीनों और गांवों के दान का उल्लेख हालांकि आरंभिक स्रोतों में आता है, लेकिन यह कुछ अवसरों पर ही होता था। मसलन, मौर्य साम्राज्य में "सीता'' भूमि हुआ करती थी जो ऊसर होती थी और जिसे उपजाऊ बनाकर उस पर खेती करने का काम शूद्रों को दिया जाता था। अर्थशास्त्र में कई किस्म की काश्तकारी का उल्लेख है। पहली सहस्राब्दि ईसवी के बाद से राजा द्वारा भूमि अनुदान कहीं ज्यादा नियमित प्रशासनिक और आर्थिक चलन के रूप में उभर कर आया। राजा और किसान के बीच जो मध्यस्थ थे, वे किसान का दोहन करते और बाद के साम्राज्यों में अपनी छोटी-छोटी परिसंपत्तियों को स्थापित करने की महत्त्वाकांक्षा भी पूरी करते थे। कई ऐसे अनुदान होते जिनमें अनुदानित को न्यायिक और प्रशासनिक अधिकार दिए जाते थे जिसके तहत वह ग्राम प्रशासन और राजा के प्रति जवाबदेही से भी मुक्त कर दिया जाता था।

जिन वन क्षेत्रों में भूमि अनुदान में दी जाती थी, वहां वनवासी कबीलों/जनजातियों को शूद्र खेतिहरों में बदल दिया जाता था। जनजातियों के जाति में तब्दीलीकरण या कबीलाई समाज के राज्यतंत्र में समावेश का यह शायद सबसे सामान्य पहलू था। यह चलन संभवत: उन इलाकों में आया जहां राजत्व से सटे वनों को साफ किया गया या फिर जहां नए राजत्व पहली बार स्थापित हुए। यह बदलाव विभिन्न स्रोतों से पुष्ट होता है, जिनमें अनुदानों से जुड़े कुछ अभिलेख हैं और बाणभट्ट के हर्षचरित जैसा कुछ साहित्य। यह बदलाव उत्तर-गुप्त काल में जिस तंत्र के भीतर घटा, वह मौर्य काल से बिल्कुल अलहदा था जहां राज्य वनवासियों को अपने लिए खतरे के तौर पर देखता था।

अनुदान में मिली जमीनों के इस तथाकथित स्वामित्व के चलते जमीन मालिक खुद को श्रेष्ठ समझने लगे और इनमें से बाद में जिन्होंने अपना राज्य बनाया उनमें कुछ अपने को क्षत्रिय कहने लगे। उन्होंने ऐसे कर्मकांड करवाए जिसके चलते उन्हें क्षत्रिय की पदवी मिल गई और उसके बाद उन्होंने अपनी वंशावलियां भी इसी हिसाब से तैयार करवा लीं जो उनके क्षत्रिय होने को पुष्ट करती थीं। आरंभिक काल में जहां ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र सभी अपना-अपना राजवंश स्थापित कर सकते थे, अब सत्ता में आए सभी अपनी पहचान क्षत्रिय बताने लगे और अपनी मूल जाति को इन्होंने छोड़ दिया। ऐसा लगता है कि राजनीतिक सत्ता और क्षत्रिय की पदवी एक खुली हुई श्रेणी बन चुकी थी।

सामंतवाद का "भारतीय संस्करण''

पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस प्रश्न पर बस होती रही है कि सामंतवाद का कोई भारतीय संस्करण रहा भी है या नहीं। कुछ लोगों ने उत्पादन की सामंती प्रणाली के यांत्रिक अनुप्रयोग की आलोचना भी की है। कोसांबी का तर्क था कि भारतीय संस्करण योरोपीय सामंतवाद को अभिपुष्ट नहीं करता था चूंकि यहां जागीरदार की जमीन पर अनिवार्यत: श्रम करने वाले खेतिहरों द्वारा बड़े पैमाने पर निजी मालिकाने के तहत खेती किए जाने का चलन नहीं था। यहां राजा, जागीरदार और दास के बीच संबंधों में जागीरदारी, दासत्व और अनुबंधात्मक तत्वों से जुड़े सवाल खड़े हो जाते हैं। यह बात भी कही गई है कि उपमहाद्वीप के कई हिस्सों में न तो व्यापार और न ही नगरों का पतन हुआ, जैसा कि कुछ मॉडलों की अनिवार्यता बनती है। समुद्री व्यापार पहले की ही तरह जारी रहा और भीतरी इलाकों में वाणियिक गतिविधियों पर उसके प्रभाव का आकलन किए जाने की जरूरत है। यह दलील दी गई है कि विनिमय संबंधों में मुद्रा का प्रयोग न्यूनतम नहीं था। इसके अलावा क्षेत्रगत विविधताओं की पहचान और विश्लेषण की भी जरूरत है।

इन सवालों की पड़ताल के क्रम में राज्यों के गठन, कबीलों के जातियों में तब्दील होने, कृषि आधारित अर्थव्यवस्थाओं के राजकाज तथा स्थानीय धर्मों की परस्पर बुनावट से कहीं ज्यादा व्यापक पौराणिक और अन्य धर्म पंथों तक संक्रमण के संबंध में दूसरी प्रविधियां भी सुझाई गई हैं। इन विषयों की वैकल्पिक सैद्धांतिकी मोटे तौर पर सिर्फ तथाकथित आरंभिक मध्यकाल के संदर्भों से ताल्लुक रखती है। पूर्ववर्ती निर्मितियों और उनके लाए बदलावों को व्याख्यायित करने के लिए सैद्धांतिकी का अभाव है, जैसा कि उत्पादन की प्रणाली की सैद्धांतिकी में निबद्ध है। इसके बावजूद आरंभिक मध्यकाल के घटकों पर विमर्श में पूर्ववर्ती निर्मितियों को संज्ञान में लेना ही होगा।

आरंभिक मध्यकाल से पहले की अवधि को प्राक्-ऐतिहासिक कहा जाता है। इसके लिए किसी विवरणात्मक नाम का सूत्रीकरण करने या फिर इसके लक्षण और चलन को सुझाने की ओर ध्यान नहीं दिया गया है। ईसा पूर्व छठवीं सदी से छठवीं ईसवी तक एक ही काल की निरंतरता अपने आप में समस्याग्रस्त है। इसके बजाय कहीं ज्यादा उपयुक्त होता यदि मौर्य साम्राज्य तक के काल को एक खंड और उसके बाद के काल को दूसरे खंड के तौर पर बरता जाता, जहां दोनों ही कालखंडों में राज्य की उत्पत्ति और उसके साथ आने वाले सामाजिक व आर्थिक बदलाव राज्य की प्रकृति, राजनीतिक आर्थिकी, जातियों व धार्मिक पंथों की कार्यप्रणाली के बरक्स अलग-अलग रूप ग्रहण कर लेते हैं। जिसे हम आरंभिक मध्यकालीन राज्य कहते हैं, उनके बरक्स ये लक्षण किस तरह पूर्ववर्ती रहे? पूर्ववर्ती काल की प्रणाली की व्याख्या किए बगैर सामंती प्रणाली को स्वीकार कर लेना उस द्वंद्व की व्याख्या नहीं कर पाता है जिसने सामंती प्रणाली तक हमें पहुंचाया। न ही आरंभिक, प्राक्-ऐतिहासिक, आरंभिक मध्यकालीन, मध्यकालीन जैसे नामकरण, जिनका हम प्राय: इस्तेमाल करते आए हैं, इतिहास के उस काल की गतिकी के बारे में बहुत कुछ बता पाते हैं। ज्यादा से ज्यादा ये शब्द कालानुक्रम को दर्शाने के लिए कोष्ठक में प्रयुक्त किए जा सकते हैं।

योरोपीय मॉडल

सामंतवाद पर विमर्श की आंशिक दिक्कत यह है कि इसमें उन मॉडलों पर ध्यान केंद्रित किया गया है जो मार्क ब्लॉश और हेनरी पिरेने जैसे इतिहासकारों या फिर मार्क्‍स द्वारा योरोपीय सामंतवाद के अध्ययन पर आधारित और चयनित हैं। मध्यकालीन योरोप पर हालिया लेखन एक अवधारणा के रूप में सामंतवाद पर ही सवाल खड़ा करता है और सामंती समाजों के ढांचे के भीतर उसके विविध स्वरूपों पर बहस करता है। योरोप में सामंतवाद पर हुई बहस में यह अहम योगदान है, लेकिन अन्य कहीं भी सामंतवाद से जुड़े प्रश्नों पर इन बहसों की उतनी ही प्रासंगिकता है। सामंतवाद के विविध स्वरूपों पर तुलनात्मक ऐतिहासिक अध्ययन इस बहस को और पैना कर सकता है।

इतिहास अध्ययन के समूचे मुहावरे को बदलने के संदर्भ में कोसांबी का लेखन इस मायने में अहम है कि वे स्रोतों की पड़ताल करते हैं और इनके सहारे सवालों के जवाब देते हैं। इसके लिए घटनाओं और व्यक्तियों का ऐतिहासिक संदर्भ में विशद विश्लेषण जरूरी होता है जो कालानुक्रम और राजवंशीय इतिहास के पार जाकर समाजों और संस्कृतियों की सामाजिक और आर्थिक मुख्यधारा तथा इन तमाम पहलुओं को जोडऩे वाले साझा मंचों पर बात करता है। ऐतिहासिक प्रक्रियाओं की उनकी व्याख्या ने गवेषणा के नए क्षेत्रों को खोला जिन पर पहले कभी ध्यान नहीं गया था और मौजूद आंकड़ों व तथ्यों पर नए सवालों को जन्म दिया।

मैंने जिन विषयों पर बात की है वे अलग-अलग पहलुओं को छूते तो हैं लेकिन आपस में जुड़े भी हुए हैं। कबीलों के जाति में तब्दील होने का विमर्श प्राक्-राज्यीय समाजों से राजतंत्र में सक्रमण का प्रतिनिधि है, प्राक्-वर्गीय समाज से वर्ग के विविध तत्वों में संक्रमण को दर्ज करता है तथा जाति के इतिहास का नया आयाम सामने लाता है। बौद्ध विहारों और वाणिज्यिक गतिविधियों पर विमर्श के माध्यम से कोसांबी ने धार्मिक संस्थाओं की सामाजिक-आर्थिक कार्यपद्धति का मसला उठाया जो सभी धर्मों का लक्षण होता है। इतिहास बदलने के साथ ही इसमें भी तब्दीली आई और इसने विशिष्ट स्वरूपों को जन्म दिया जहां धर्मों की पहचान उनके सामाजिक परिप्रेक्ष्य से होने लगी। भारत में सामंतवाद पर उनके विमर्श को पढ़ते हुए हम एक ऐसे इतिहासकार से रूबरू होते हैं जो कुछ विशिष्ट ऐतिहासिक व्याख्याओं में न बंधते हुए समाज के विविध आयामों के परस्पर संबंधों की पड़ताल कर रहा होता है।

आज 50 साल बाद भी कोसांबी के विश्लेषण में इस्तेमाल की गई कई प्रविधियां पर्याप्त मान्य हैं। कुछ को दोबारा दुरुस्त करने की जरूरत अगर है तो इसलिए कि नए साक्ष्य सामने आ चुके हैं या व्याख्या की नई सैद्धांतिकी आ चुकी है या फिर अतीत का समूचा परिप्रेक्ष्य ही आज की तारीख में कहीं ज्यादा सूक्ष्मभेदयुक्त हो चुका है। जाहिर है उनकी बौद्धिक संवेदनशीलता और परिप्रेक्ष्य अपरिहार्य तौर पर उनके समय के हिसाब से ही थे। इसीलिए एक सीमा तक वे उसी दौर के आदर्शों को लेकर भी चलते हैं और उन्हें खारिज भी करते हैं। उन्होंने समकालीन रूढि़वादिता के शिकंजे से खुद को स्वायत्त रखने का आग्रह निरंतर बनाए रखा, चाहे वे वाम मार्गी हों या दक्षिणपंथी। उनके तईं अतीत का इस्तेमाल राजनीतिक संघटन के औजार के रूप में नहीं होना था, जैसा कि हम अपने दौर में बढ़ता देख रहे हैं। अतीत के बारे में हमें सूचित करने वाले स्रोतों का बेहद सूक्ष्मता और सतर्कता से विश्लेषण करना तथा एक कसी हुई प्रविधि में उन्हें बरतना जरूरी था, चाहे उनकी प्रतिष्ठा या विश्वसनीयता कुछ भी क्यों न हो। कोसांबी कभी इस बात पर नहीं अड़े रहते कि उनकी स्थापनाएं स्थायी तौर पर वैध हैं। वे बेशक इस बात पर सहमत हो जाते कि ज्ञान का विकास मौजूदा व्याख्याओं (भले उनकी हों) की आलोचना पर टिका होता है ताकि कहीं ज्यादा सटीक निष्कर्षों पर पहुंचा जा सके। यह बात अलग है कि उनकी ऐसी सहमति बनने से पहले गरमागरम बहस होनी तय थी।

कोसांबी मूलत: गणितज्ञ थे, इतिहासज्ञ नहीं। उनके मामले में हालांकि एक गणितज्ञ की मेधा न सिर्फ कुछ विशिष्ट आंकड़ों पर सांख्यिकी के अनुप्रयोग तक सीमित रही, बल्कि इससे कहीं ज्यादा आंकड़ों को संगठित करने में स्पष्टता लाने और उनसे एक तर्क पद्धति गढऩे में भी काम आई। कभी-कभार वे अपने विचारों में अटल दिखते थे, लेकिन उनसे असहमति भी बहस को आगे ही बढ़ाने का काम करती थी चूंकि इसके माध्यम से एक प्रश्न पर नए विचारों को खोज निकालने का मौका मिलता था। कोसांबी को दोबारा पढऩा- और उन्हें एक से ज्यादा बार पढ़ा ही जाना चाहिए- दरअसल हर बार ऐतिहासिक तरीके से सोचने के लिए प्रोत्साहित होने के रोमांचक अनुभव से गुजरना है। उनका चिंतन हालांकि महज ऐतिहासिक दायरे में सीमित नहीं था। उनके चिंतन का घेरा विलक्षण रचनात्मक मेधा से युक्त एक दृढ़ स्वतंत्र बुद्धिजीवी का विश्वबोध था।

साभार: इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली

अनु.: अभिषेक श्रीवास्तव

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एक शहर बनने की कथा

Author: प्रेम पुनेठा Edition : June 2013हल्द्वानी: स्मृतियों के झरोखे से: आनंद बल्लभ उप्रेती; पृ.: 306; मूल्य 300 रु.; पिघलता हिमालय प्रकाशन

यह एक जंगल के कंक्रीट के जंगल में बदलने की कहानी है। बियावान जंगल के कारण जिस भाबर में जाने से लोग डरते थे वह न केवल नगर निगम की श्रेणी में आ गया है बल्कि यह उत्तर भारत की प्रमुख मंडी भी बन चुका है। यह आश्चर्य ही होगा कि कभी कालाढूंगी हल्द्वानी से बड़ा शहर था लेकिन सड़क और रेल के आने से यातायात यहां से शुरू हुआ और हल्द्वानी का कायाकल्प ही हो गया। शहर बनने के साथ ही पुराने स्थान खत्म हो जाते हैं और नयों का जन्म होने लगता है लेकिन पुराने नाम प्रचलन में रहते हैं। तब नए लोगों को आश्चर्य होता है कि जिस नाम से इस स्थान को पुकारा जा रहा है वह तो कहीं है ही नहीं। किताब स्थानों के पुराने नामों के गढऩे के पूरे तथ्य लोगों के सामने रखती है। किताब शहर में आर्थिक सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षिक गतिविधियों के शुरुआती दौर को बताती है।

यह उन लोगों से बातचीत पर आधारित है, जिनकी पुरानी पीढ़ी ने इस शहर को बसाने में अपना योगदान दिया। आज हल्द्वानी में पहाड़ी मूल के साथ ही उत्तर भारत के कई हिस्सों से आए लोग बसे हैं, लेकिन शहर को बसाने में दो वर्ग प्रमुख हैं उत्तर प्रदेश से आने वाले व्यापारी और दूसरा बंजारा मुसलमान। पहाड़ के लोग हल्द्वानी और भाबर केवल जाड़ों में आया करते थे। वे दीपावली के बाद आते और होली से पहले वापस लौट जाया करते थे। पहाड़ वालों के लिए यह हल्चाणि थी। क्योंकि यहां हल्दू के पेड़ बहुतायत में थे। अंग्रेजों ने जिस स्थान पर हल्द्वानी को बसाना शुरू किया वह मोटा हल्दू और हल्दूचौड़ थी, लेकिन यह उत्तर की ओर खिसकते हुए वर्तमान जगह पर आ गई।

तब हल्द्वानी में किस कदर जंगल रहा होगा कि कालाढूंगी चौराहे से ही शेर आदमी को उठाकर ले जाता था। शुरुआत में हल्द्वानी एक छोटी हाट ही थी, जहां मंगल को बाजार लगता था। इसी बाजार में आसपास के लोग अपनी जरूरत का सामान खरीदते थे। आज भी इस स्थान को मंगल पड़ाव कहा जाता है लेकिन अब वहां बाजार लगना बंद हो गया है। जंगल होने के कारण यहां प्रारंभिक कार्य लकड़ी का ही हुआ। गोला नदी का प्रयोग लकड़ी के कारोबारी बहती के तौर पर करते थे और काठगोदाम लकड़ी इकट्ठा करने का प्रमुख स्थान बन गया। यहां तक अंग्रेज 1881 में ही रेल ले आए।

हल्द्वानी को 1887 में म्युनिसिपैलिटी बनाया गया लेकिन 1904 में नोटिफाइड एरिया बना दिया गया। 1917 में इस फिर से नगर पालिका में तबदील किया गया। इसके सबसे प्रभावशाली अध्यक्ष दया किशन पांडे रहे। वह दो बार 1946 से 1952 और 1954 से 57 तक अध्यक्ष रहे। दया किशन पांडे का नेतृत्व और व्यक्तित्व था कि विभाजन में हल्द्वानी से कोई भी मुसलमान पाकिस्तान नहीं गया। यह उस समय के लोगों के आपसी विश्वास को बताता है। तब यहां व्यापार करने वाले बंजारों और स्थानीय किसानों में बिना लिखा-पढ़ी के लेनदेन होता था लेकिन कभी विवाद नहीं हुआ।

राजनीतिक रूप से हल्द्वानी सचेतन शहर रहा। आजादी की लड़ाई का केंद्र भी हल्द्वानी रहा। यहां के स्वराज आश्रम में स्वतंत्रता सेनानियों का आना- जाना रहता था। लेकिन आजादी के कुछ समय बाद ही परिवर्तन होने लगा। किताब में विभिन्न विचारधाराओं के नेताओं के बारे में उनकी सकारात्मक और नकारात्मक सभी बातें बताईं गई हैं। राजनीतिक संस्कृति के रूप में पहले लोग मतभेद होने पर भी सामाजिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में एकसाथ जाते थे लेकिन अब तो राजनीति के मायने ही बदल गए हैं। नेताओं की सुरक्षा ने आम आदमी को उनसे दूर कर दिया है।

एक हाट के देखते देखते महानगर बन जाने की इस कथा में शहर में शिक्षा संस्थाओं के खुलने, अखबारों के छपने आदि का भी विस्तृत विवरण है। इसके अलावा विभाजन के बाद यहां आकर बसने वाले पंजाबियों के विकास की कहानी को भी बतलाया गया है। पर किताब की सबसे बड़ी कमी इसमें विषय सूची और क्रमबद्धता का न होना है, जिसे आसानी से पूरा किया जा सकता था।

इस पुस्तक के कुछ अंश आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

Annihilation of Castes: Past, Present and Future


Anand Teltumbde


The origins of the caste system are trapped in the interstices of myth and history. The


mythologized history of ancient India does not let us know precisely how this system came into


existence and how it evolved through centuries. Despite huge scholarly interests in its study,


there are no definitive conclusions on these aspects. What is evident is that it continues to be


a potent force that impacts people according to their placement in social hierarchy. While the


classical caste system has undergone change through history, its biggest victims continue to be


Dalits, who number one-sixth of India's total population.


While social stratification was not uncommon across the world in ancient times, what is unique


about the Indian system is that it is supposed to have religious sanction, and divine origination.


It is commonly believed that the varna system evolved into a system of numerous castes. The


more plausible view is that the nomadic tribes in the subcontinent while settling down for


agriculture settled without losing their tribal identities unlike elsewhere. The factor that explains


this exceptional feature is the natural endowment of the subcontinent. With plenty of flat and


fertile land; ample amount of sunshine, and regularity and adequacy of rainfall, it was possible


for the tribal families to survive on small plots of land unlike, for instance, in Europe, where a


small window of sunshine, irregularity of rains, extreme cold weather necessitated an army of


people to work on a large tract of land, giving rise to a system of slavery. Castes were nothing


but these settled tribes with their respective totems, which came into existence prior to the advent


of varnas. They came to be associated with vocations but sans any hierarchy. When the alien


people, wherever they came from (probably they came from Persia), brought in their varna


system initially with three varnas and then four, it was lain over the existing castes imparting


them hierarchy and religious sanction. I tend to take this as a possible hypothesis for the origin of


castes.


Although the varna framework is uncritically taken as the hierarchical structure for the castes,


the truth is that it rarely encountered in any part of the subcontinent in its entirety. What is


encountered is the existence of priestly castes and the preponderance of the laboring (shudra)


castes and the untouchables. The intermediate varnas of kshatriya and vaishyas may not be


found in all parts. For example in Maharashtra, there is no kshatriya as well as vaishya varna.


At the time of coronation, Shivaji had to claim ancestry of Rajputs of Rajputana and during his


reign had to import vaishyas (people who could manage money) from Gujarat. Castes multiplied


within a varna with new vocations emerging or assimilating new people. They imbibed the


notion of hierarchy of the varna system adjudicated by the priestly caste of Brahmans. Naturally,


this multiplication happened within the laboring varna. The existence of the Untouchables has


been enigmatic because they are classed some times as the fifth varna, sometimes as a-varna, i.e.,


non-varna or even non-castes. Babasaheb Ambedkar proposed 'broken men' theory for them,


which however lacks validation by the scholars. The hatred of others that characterize them


possibly is due to their resistance to be subjugated within the varna framework. Whatever their


origin, they constitute the most important part of the caste system.


The castes had become the life-world of the people, which survived through the hegemony


of the anti-Brahmanic ideologies of Buddhism and Jainism for almost a millennium. The first


significant dent the caste system faced was during the Islamic rule, mainly between the eleventh


and seventeenth centuries, when it stabilized in the subcontinent. Apart from religio-cultural


appeal of Islam to the lower castes, the Muslim rule brought its advanced feudal system that


systematized land revenue administration, promoted manufacturing guilds and established cities,


which provided further avenues to the lower castes to escape the bondage of village system. In


addition to the alien civilizational model that did not have any birth based privileges, the very


influx of the lower castes into Islam kept the upper castes away from it. But later, the upper


castes were also lured by the possibility of material gains and became Muslims. They introduced


the notion of hierarchy in Muslim society.


During the same period, one more wave of anti-caste movement emerged in the form of Bhakti


movement, which originated in South between the sixth and tenth centuries. Bhakti movement


was not a unified movement but in relation to caste, it reflected, at least in some of its radical


strands like Kabir panth, individualistic and anti-corporatist rebellion against caste. It had raised


many low caste individuals like Ravidas, Chokhamela to the stature of sainthood and did not


distinguish people by caste. Though these individuals broke caste restrictions imposed upon


the dalit communities to become Bhaktas, they could only preach human equality and criticize


caste practices. Their influence on the society was limited only to spiritualism and prescribed


moksha as the salvation. Later, in the fifteenth century, when Sikhism, assimilating the lofty


ideals of the Bhakti movement and Islam, was born—directly promising the banishment of


caste distinctions—Dalits in the Punjab region rushed in to embrace it. However, other than


being bestowed with such new appellations as Mazhabi Sikhs and Ravidasias, Sikhism made no


substantive difference to their lives.


The most severe jolt to the caste system came during the British colonial rule. It had its impact


mainly in the following three ways: One, in order to consolidate their colonial control, the British


had instituted ethnographic documentation and started caste based census, bringing in rigid


hierarchy in what was a fluid life-world of people. Two, they brought in western institutional


framework of governance with its army, police, rule of law, judiciary, and modern education.


And three, they facilitated capitalist development of infrastructure and industry. While the first


had induced acute caste consciousness in people and had an adverse impact on the lower castes,


the second and third have been directly beneficial to them in rising against their oppression.


Although largely unintended, the colonial rule brought about two changes: One, it catalysed the


anti-caste movements of the lower castes and two, with the advent of capitalism, It caused the


collapse of ritualistic castes among the dwija castes, simplifying the caste continuum into three


hierarchies: dwija, shudra and the Untouchables.


The first of the anti-caste revolts of the lower castes was articulated by Jotiba Phule in


Maharashtra. He exposed the exploitation of the working classes (shudra-ati-shudra) by the


shetjis and bhatjis (moneylenders and priestly class) and traced it to the denial of education to


the former by Brahmanism. He rebelled against the enslaving customs of the latter and inspired


people from the lower castes to rise against their caste exploitation. Gopal Baba Walangkar,


whom Babasaheb Ambedkar called the pioneer of the Dalit movement and Shivram Janba


Kamble of Pune were the disciples of Phule. Even when Ambedkar launched his movement, he


respectfully acknowledged the debt of Phule as one of his gurus.


*


Babasaheb Ambedkar did not practice caste politics in sense of pursuing betterment of a


particular caste. Right from the formation of his first organization, Bahishkrit Hitkarini Sabha, he


had involved progressive people from other castes and communities, to the extent that this Sabha


was completely constituted by the upper caste/class people, and had Dalits only in its managing


committee, with Ambedkar as chairman, S N Shivtarkar as secretary and NT Jadhav as treasurer.


While he took up the cause of the Untouchables, he always referred to them as 'depressed


classes'. Of course, his conception of class came closer to Weberian than Marxian. It was


reflective of the influence on him of the Fabian ideology and politics while in the Columbia


University and thereafter in London School of Economics, which was founded by the Fabians.


Untouchables, an assemblage of all the castes outside the pale of varna system, were not a caste


but a class of socially excluded people occupying a particular space in social and production


relations. His followers, who were naturally drawn predominantly from his own caste failed to


comprehend the subtlety in his thoughts and took him as their caste 'messiah' and reduced him to


a caste icon. Either way, it was not easy to discern it as the initial moves of Ambedkar could not


be distinguished from the incipient movements of the Untouchables, which were basically aimed


to uplift their respective castes. Whether it was his invoking the huge progress made by Mahars


and lamenting their decline or whether it was his exhortation to the Dalit women to conduct


themselves in a certain manner, whether it was eulogizing the valor of the Mahar Soldiers died


in the Koregaon Battle in 1818, it was indistinguishable from the activities of the predecessors


like Walangkar, Kamble or Bansode. Since his following predominantly came from his own


caste, his addresses to them naturally smacked of caste pride. Indeed, it was and is still difficult


to transcend the caste idiom in the caste ridden environment.


Babasaheb Ambedkar did not have the vision of annihilation of caste at the beginning. In his first


essay, Castes in India: Their Mechanism, Genesis and Development, presented in an


anthropological seminar in Columbia University, which surely reflects a veritable leap in the


understanding castes in scholastic realm, he defines castes as enclosed classes; the enclosure


around class being provided by the systems of endogamy and exogamy. While he did not dwelt


upon any solution to the problem, it followed that if one wanted to annihilate castes this


enclosure needed to be torn away by disbanding endogamy and exogamy. This understanding


informed his reformist expectations that if the caste Hindus were sensitized about the wrong in


the caste system, they might push forth reforms to remove the enclosure. The strategy comprised


awakening of the Untouchables as well as the caste Hindus to the evils of castes. It also included


addressing the social and economic backwardness of the Untouchables. While Mooknayak (his


first paper started in 1920) was devoted to this awakening aspects, the aims and objectives of the


Bahishkrit Hitkarini Sabha, that he founded related with the issues of providing education,


spreading culture, improving economic condition and representing the grievances of


the 'depressed classes'. It was a pure reformist agenda and did not have even the confrontationist


content, not to speak of any revolutionary dimension of annihilation of castes. It is only from


Mahad, that he came in direct confrontation with the caste Hindus. Reflection on the bitter


experiences in Mahad and subsequently with Gandhi, representing the larger Hindu society


propelled him to write Annihilation of Castes, where he came to the conclusion that castes could


not be reformed and had to go lock stock and barrel. It was based on his understanding that


castes were integral part of Hinduism, being ordained by its dharmashstras (scriptures). In


programmatic terms, it therefore meant destroying the foundation of Hinduism, the Hindu


dharmashastras that informed the ideology of castes. As he saw it well neigh impossible,


directionally it reduced to renouncing Hinduism as he had decided for himself. It amounted to


saying that annihilation of castes was not ordinarily possible because the caste Hindus, who had


their vested interests in castes would never be ready to destroy their dharmashastras. The only


option therefore for the victims of castes was to exit Hinduism.


It implied that since the goal of annihilation of castes did not seem feasible, the victims of


the caste system could leave Hinduism to the caste Hindus and get themselves out of its


oppressive yoke. But the question arises, whether by renouncing Hinduism they would escape


caste oppression. The answer to this question may ordinarily be no. If all of them renounced


Hinduism, structurally the Hindu society would be bottomed out threatening the caste system


itself. But it would mean being unavailable physically for the Hindus to be oppressed, which


would not happen merely by quitting Hinduism. While it might mean coming out of mental


slavery, physically they would be still condemned at their old sites to work for living. One did


not have to hypothesize this aftermath. If one looked through history, there have been such


religious exoduses of the lower castes from Hinduism (the population of the non-Hindus in


the subcontinent clearly testifying to it) but they have barely escaped their fate. Castes have


not only survived, they have infested these new religious communities with its venom. Even


physical migration of Dalits to distant lands could not rid them of the caste stigma if there were


caste Hindus around, as the Dalit Diaspora in Europe and Americas would vouch for. The caste


Hindus perhaps could not live without their 'Dalits'. Where they Dalits were not available for


them as in Africa, they created their notional Dalits out of the native Black population!


The inescapable conclusion that follows is that castes could not be understood in terms of any


discrete custom of endogamy/exogamy or any religious dictate. While castes encompassed all


these, they came to be rooted in a particular mode of living. They became the life-world of people


that could not be discretely identified or bounded. It is precisely for this reason that even


wealthy Dalits (and there are examples of rich individuals existing in many parts of the country


even before the Ambedkarite movement) could not rid them of the caste stigma. It is erroneously


argued to claim that economic advancement does not have anything to do with castes. It does


and does not; it does certainly more than any other factor, but not in the entirety. Where Dalits


are not tied up in dependence relationship with the caste Hindus, they are surely less vulnerable


to caste oppression than where they are. Also, whatever changes that occurred in this life-world


can be clearly traced to the changes in political economic factors in history. Therefore it can be


safely said that material (read economic) factors are more impactful in the matters of caste than


any other but still they are not all, contrary to the claims of vulgar materialists. It may be put this


way that if you worked on non-material factors ignoring the material factor, you are bound to


fail. But if you worked only on material factors and ignored the non-material factors, you might


not succeed.


Babasaheb Ambedkar could not programmatically indicate what would bring about the


annihilation of castes. It provides the feed to the vested interests to argue that he did not


prescribe annihilation of castes. The value of his profundity lies not in its programmatic


explication but in its sheer vision. Programmatically, he was misled by locating castes in the


Hindu scriptures and then seeing impossibility of its annihilation. But it would be foolish to


say that he did not envision annihilation of castes. When the partial opportunity came years


later while making the Constitution of India, he again could not exercise his will. Besides tacit


opposition, he faced a certain dilemma, whether to negate castes and give up the basis for special


safeguards for the Untouchables. As a matter of fact, these safeguards had flowed from the


colonial times and its beneficiaries were already frozen. Leaving them as the administrative


category, castes could still be legally abolished. But they would not be and would rather be


preserved as a proverbial goose for the ruling classes with an alibi that they wanted to do the


social justice to other backward castes to be identified by their state as and when it feels so. In


the history of India's political intrigues, it has proved to be a masterstroke by the ruling classes,


and a veritable whip, as far as Dalits were concerned, which remains unnoticed either by their


leaders or intellectuals.


Much is made out of outlawing the Untouchability. This was the voluntary response from every


notable from among the caste Hindus to the awakening among the Untouchables, particularly


after the Lucknow Pact. It was a ploy to assuage the feelings of the Untouchables without


materially disturbing anything. Since untouchability was sourced from castes, abolition of


untouchability would mean nothing if castes lived. This is precisely what happened. Even


after 70 years of its abolition, various surveys conducted in recent years reveal to us that more


than 60-70 percent villages observe untouchability in its various intensities. The constitutional


abolition of untouchability has proved useless.


*


The struggle of the historically discriminated castes tends to take the form of struggle for


recognition, which then essentially slips into identity politics. Identity politics is always favoured


by the mainstream as it does not challenge the real structures of exploitation. Moreover, it


preserves liberal virus to stave off revolutionary ideas from masses. In India, a veritable museum


of identities, it has to rule the roost. Neither Phule nor Ambedkar meant to promote caste


identities. But in the very process of conception of class contradiction they could not avoid the


overriding caste identities of people. Phule explicitly meant to pitch the working classes against


the parasitic classes but he could not avoid the prevalent idiom of castes, viz., the shudras-

ati-shudras although he used more class-like expression for the enemy duo in shetjis and


bhatjis. The same things could be said of Ambedkar. He bettered Phule in conceiving enemy


in terms of ideology and not the people, viz., capitalism and Brahmanism, but in conception of


the protagonist class could not avoid the prevailing caste identities such as the Untouchables,


although he tried to use the alternate class-indicative expression- depressed classes, as much as


possible. The subtle distinction that they made was lost to people who translated them in their


familiar terms: making depressed class to mean the Untouchable castes at best and their own


caste at worst, and the Brahmanism to mean people of Brahman caste, despite Ambedkar's


emphatic elaboration that Brahmanism could well reside even in Dalits. Besides the idiomatic


compulsion, the struggle for emancipation they launched for these people necessarily had to pass


through struggle for recognition of their misrecognized identities, which had to be the castes. For


instance, Ambedkar's struggle for separate electorates for the Untouchables in the Round Table


Conferences as well as his efforts in instituting reservations for them were both inevitable and


necessary parts of the larger struggle for their emancipation.


The innocuous use of the caste idiom also however did the damage. While Phule's shudra had


separated themselves from their ati-shudra brethren, no sooner Jotiba passed away, (it is said


that they did not allow the Untouchables to enter the hall where a condolence meeting for Phule


was organized in Pune), the other Untouchable castes than his own mostly kept away from


Ambedkar. (Ambedkar's following largely came from his own Mahar caste and the Mahar-like


majority caste among the Untouchables in every geographic region.) This natural identity


polarization could be easily exploited by the ruling classes in electoral process. While Ambedkar


had realized on the eve of 1937 elections the need to broad-base his politics on a class line and


adopted the ILP-model of England, transcending his overt focus on the issues of the


Untouchables, the Congress schemed to thwart other Untouchable castes from identifying with


Ambedkar. It is a symbolic lesson of history that Ambedkar's tryst with class politics brings him


significant win (ILP winning 14 out of 17 seats contested that included 11 reserved seats out of


13 contested and 3 general seats out of 4 contested in 1937 provincial elections for Bombay


Presidency) whereas his seemingly caste politics meets him with repeated defeats (Ambedkar


getting defeated by political non-entities in 1952 and 1954 elections). The political imperatives


revealed by the Cripps Mission Report impelled him to decide dissolution of the ILP and float a


seemingly communal party called the Scheduled Caste Federation (SCF). Alongside he was


inducted in the viceroy's executive council as labour member (minister) and significantly


contributed to the labour welfare. Although the SCF was ostensibly formed to further the


interests of the SCs, it did not do it at the cost of its erstwhile class orientation. The most


memorable document it produced was the States and Minorities, written by Ambedkar, as a


memorandum to the Constituent Assembly, suggesting a framework of state socialism to be


adopted for the Constitution of India. Ambedkar is seen thereafter in a statesman's role


shouldering the responsibility of drafting the Constitution and taking cudgels for women in the


Hindu Code Bill as the law minister. Later, he embraced Buddhism as the moral code that stood


for 'liberty, equality, fraternity' and as a strong historical antidote to Brahmanism. He also


envisioned the formation of Republican Party of India (RPI), bringing all non-Congress, non-

Communist elements under one umbrella, which would be the main opposition party in the


parliamentary democracy. His entire life reflects a strong abhorrence for castes and a quest for


the ideology of human emancipation. As a hard core liberal, he had strong reservations about the


revolutionary schema of Marxism although he accepted its goal of human emancipation.


The intricacies of Ambedkar's thoughts were lost to his followers after his death who soon


packaged him as a caste-identity icon shorn of his universal vision of emancipation. Some


would shroud him with Buddhist spirituality and project as a bodhisatva, some as a inveterate


anti-Marxist, some as the greatest protagonist of parliamentary democracy, and some as sans


ideology opportunist pursuing the interests of his community to make it 'a ruling community'.


While they formed the RPI in deference to his wishes on 3 October 1957 in an SCF conference


in Nagpur, there were no attempts to include non-Dalits in the party. It was merely a change


in label of the SCF, with its default content of collection of particular castes. Ambedkar had


revealed his plans for RPI as the non-ideological political party working for "the economic,


social, cultural and moral progress of the Indian people with rational and modernist outlook'.


A decision was accordingly taken on 30 September 1956, just a fortnight before the great


conversion to dissolve the SCF and form the RPI. In absence of any 'ideological' anchor,


Ambedkar-icon itself became the anchor of the RPI, which was inherently constricted as per the


understanding of the leaders. Under the shadow of his towering leadership, the rivalry among the


leaders could not surface, which however resurged soon after his demise.


RPI from the day one, became the house divided. Various leaders began pulling and pushing it


in different directions. The momentous changes in political economy that began befalling the


country passed it by. During the decade, the Nehruvian government had launched the Five Year


Plans giving impression of its socialist orientation, undertook calibrated land reforms, brought in


capitalist agriculture technology of Green Revolution, in order to institute state control over the


economy, and to entrench its political control in vast rural area by creating a class of rich farmers


out of the populous shudra caste band. In the ensuing flood of capitalist relations Dalits were


reduced to be the rural proletariat, devoid of the sense of security of traditional jajmani system.


The new production relations soon began manifesting into wage disputes, which precipitated


into a new genre of caste atrocities, the first being in Kilvenmani in Tamilnadu in December


1968. On the other side, with the rising aspirations of the rural rich, the political equations began


changing between the traditional upper (dwija) castes and the shudra castes; the latter beginning


to wield reins of power from the upper caste Hindus. As in the colonial times, the class of rich


farmers having turned capitalist, using their caste ties hooked up the shudra band wagon to dwija


further simplifying the caste into a class-like divide between the Dalits and non-Dalits.


At the time the Congress had relied on the constituency of Dalits, Adivasis, and religious


minorities. The separatist tendency of the most populous Dalits as Ambedkarites in this


formation was noted as threat and the Congress devised its cooptation strategy, first tried out


by Yashwantrao Chavan, the representative of the newly emerged class of rich farmers who


had become the chief minister of Maharashtra in the den of the Ambedkarite movement. He


succeeded in luring Dadasaheb Gaikwad, the president of the RPI into an electoral coalition


with the Congress. It paved ways for others to variously jump over to the bandwagon of ruling


classes, and splintering RPI into innumerable factions. The Dalit Panthers that came into


being in the general atmosphere of political turbulence world over due to the endemic crisis of


capitalism after experiencing its golden period for the previous two decades, and particularly


responding to the political debacle of the RPI, alarmed the ruling classes but soon fell prey to


their machinations ending up like RPI. Another significant response to the failure of the RPI


came in the form of Bamcef, taking advantage of a sizable class of reservation beneficiaries


from among the SCs and STs, to conceive a broad based organization of the educated employees


belonging to SCs, STs, BCs, and Minority communities against the 15 percent dwija castes.


Kanshiram, himself belonging to this class of government employees conceived and anchored


this initiative, transformed this into an agitprop organization called DS4 (Dalit Shoshit Samaj


Sangharsh Samiti) in 1981 and later again transformed it into a political party, Bahujan Samaj


Party (BSP) in 1984.


Kanshiram succeeded in his political strategy capturing the political power in UP, which with


its peculiar history of Dalit politics and Dalit demography lent fertile ground for his experiment.


With the concrete core of Dalits and the moss of political power, the BSP could easily expand


its tentacles and entrench itself in the contemporary political milieu. The BSP followed naked


identity politics and inevitably became one of the ruling class parties. It enthused middle classes


among Dalits to see one of their caste-woman as the shining star among the political bigwigs


but it did not help Dalit masses in any manner, except for a notional relish of being with power.


Objectively, they find themselves more vulnerable in their settings being pitched against the


entrenched classes which bind them further to BSP to preserve the notional protective political


cover. On the strength of this core constituency the BSP has single-mindedly pursued political


power, annihilating the Ambedkarite agenda of annihilation of Castes and fooling his gullible


followers with his grandiose memorials.


*


The class of rich farmers in villages created by the Congress proved Frankenstein. With its huge


enrichment it grew in its own political ambition and began occupying important positions in the


party structure or floating their own regional parties. These regional parties eroded the monopoly


of the Congress and inaugurated the era of coalition politics, where a small chunk of votes also


fetched good return in the prevailing first-past-the-post type of election system. The electoral


politics thus became increasingly competitive bringing in so much importance to castes and such


other identities. The shielded weapon of the reservations to the backward classes, which had


remained dormant after the Kalelkar Commission in 1953 and Mandal Commission in 1980, was


unleashed by VP Singh by implementing recommendations of the latter in 1989, opening the


real case of caste worms in the society. Reservations came in their true prowess as weapons in


the hands of the political parties who began using them with impunity in their political calculus.


Paradoxically, it was happening in the era of neoliberal globalization that would soon render


them meaningless by fast eroding its base in the public sector. Within a decade of 1997 to 2007,


the public sector employment base was actually eroded from its peak at 187 lakh jobs to 180


lakh jobs signifying the end of reservations in 1997 itself. But the political parties would wink


at this stark reality and keep fooling people by instigating demands for reservations for every


conceivable caste and community, including Mayawati's Brahmans.


With the collapse of Soviet regime and consequently disaffection of class politics, there has been


a resurgence of identity politics all over the world. The uncertainties and insecurities unleashed


by neoliberal globalization also impelled people to seek shelter in their identities. The academics


on their part, characteristically following the power that be, have boosted the idea with their


post-modernist discourse. Indeed, it has become a fashion among them to project identity


politics as great democratizer. It is said for instance that politics of recognition, based variously


on identities of caste, language, and religion, was a crucial feature of democratic struggle in


post-independent India. We had a plethora of them and their net result can be seen only in the


tightening grip of the ruling classes around the necks of people! Identity politics cannot be


emancipatory anywhere because it necessarily crosses the axis of emancipation and remains


essentially fragmentary. It is not to undermine the importance of existential struggles against


identities such as caste, race, ethnicity, gender, sex, etc., but they should in no case override the


class struggle which is universal and hence emnacipatory.


This is about identities in general. But caste, which gets loosely combined with such identities,


has special characteristics that would further invalidate caste-based politics. Castes are inherently


hierarchy seeking, like amoeba that splits ad infinitum and hence they can never be the basis of


any radical struggle. Castes create an illusion of togetherness under pressure but splits when the


pressure is removed. In the heat of Ambedkarite movement, all the Mahar sub-castes remained


together and wore an identity of 'dalit' but as soon as this heat waned, the sub-caste identities


resurged splintering the movement itself. It is said that one of these sub-castes had publicly


displayed a board with its name in Nagpur, the den of the Ambedkarite movement. The caste


identity may serve the vested interests, and indeed it surely does, but it can never be helpful for


any struggle for radical change. Ambedkar's slogan of annihilation of caste is the only apt vision


in relation to them.


*


Today the menace of identity politics has already marginalized the emancipation agenda. The


castes have resurged everywhere with their respective caste icons, publicly displaying their


identity formations in an unprecedented manner. The success of BSP and SP thriving on a


single caste core has given the boost to this phenomenon. Paradoxically, Dalits flaunting their


allegiance to Ambedkar are in forefront to project their identities, not as Dalit but as Moolniwasi,


and worst, as Malas, Madigas, Pasis, and others. Identities are also applied to such modernist


systems as capitalism (Dalit capitalism) to incite caste pride and curry favour from the state. The


caste pride effectively blinds people from objective realities. Mulayam Singhs or Mayawatis


then can attempt any acrobatics under cover of this blind caste support. Identity politics only


intoxicates masses and lends impunity to the leaders.


The single biggest instrument in boosting these identities has been reservations. They are


uncritically acclaimed as the instrument of social justice ignoring the fact that it necessarily


crosses the principle of equality and creates perennial discordance in society. It therefore


warrants judicious application. Reservations in favour of the ex-Untouchables as instituted


during the colonial times were such judicious use of the concept. The Untouchables were


indisputably a class of unique people in the world, who were identifiable on an unambiguous


criterion. There could not be much dispute over the fact that in an open system the deep


entrenched social prejudice against them would never let them get their dues. Therefore such


countervailing force of the state as reserving some share of the general benefit was warranted as


a just measure. But diluting the criteria to backwardness in a backward country was surely wrong


and mischievous.


While the reservations for Dalits were justifiable, the premise with which they were instituted


and the manner in which they were implemented also could be faulted. The reservations were not


primarily meant as a means to overcome the backwardness of Dalits but as an instrument against


inherent injustice in the Indian society. It was not for the disability of Dalits but for the disability


of the society that they were the antidote. The entire construction could have been turned upside


down to do away its ill aspects; such as stigmatizing beneficiaries, inducing interiority complex


in them, promoting ghettoizing tendencies among them, antagonizing the larger society against


them, its seeming perpetuity and oriented everyone to strive for annihilation of castes. If the


larger society had thus realized that it was a bitter pill to swallow, it would have striven to cure


itself at the earliest possible time and even Dalits would have preferred that state to reservations.


More importantly, it would have also eliminated the space for later mischief of extending the


policy to other communities and forced the state to adopt the pro-people development policies to


meet their aspirations.


There has not been any objective evaluation of this controversial policy ever. It is taken for


granted that they are beneficial to the communities they were meant for. Theoretically, as they


are limited to the proportion of the Dalit population, they were rather designed to perpetuate the


prevailing inequalities at their time of inception. The political reservations, which were mutated


in the Poona Pact have been grossly counterproductive as they not only eliminated the possibility


of independent Dalit representation but also promoted brokering of their interests. Ambedkar


himself had sensed it and wanted them to end after ten years. But they get extended before their


expiration without anybody demanding it. The reservations in higher educational institutes have


been surely useful so far as they had acute supply constraint. With its removal, they may turn


irrelevant. More than these reservations the concessions like exemption of fees and scholarships


have rather been beneficial for the students who lack financial resources to pursue their


education. The reservations in public employment have also benefited Dalits. The overall policy


has resulted in creating a tiny middle class among Dalits, which at the most admeasures less than


10 percent of the Dalit population. The policy favours it increasingly monopolizing the benefits


of whatever is left of reservations, creating an increasingly narrower class of beneficiaries.


The increasingly small supply of the SC/ST candidates from this narrowing class to the elite


institutions like IITs, IIMs and others, leaving many reserved seats unfilled stands testimony to


this phenomenon. On the negative side, reservations have created a class division among Dalits,


the upwardly mobilizing class hijacking the agenda of 90 percent of Dalits to further their own


class interests. They have also burdened Dalits with huge psychological costs and political costs,


just to recall a few.


The model of constitutional governance adopted by India is called bourgeois democracy,


which is inherently oriented to serve the interests of bourgeoisie as a device to manage the


masses. In the process, it does benefit them but purely in the mode of a capitalist strategically


paying off his workers better wages than others so as to sustain his long term profitability. He


would simultaneously intrigue to keep them divided so that their bargaining strength is kept


at bay. The bourgeois democracy essentially behaves the same way. The Indian model goes


beyond this 'management' strategy and is not averse to be vicious to the lower classes using


its feudal inheritance. The manner in which it deceptively pursued the policies in favour of the


incipient bourgeoisie (adopting first-past-the-post type of election system instead of proportional


representation system that could ensure better representation to Indian polity; adopting the


Bombay Plan for its Five Year Plans seemingly to further redistributive objective; implementing


calibrated land reforms in the name of reducing inequity in land distribution and adopting the


capitalist strategy of Green revolution so as mitigate hunger of people, just to name a few), the


manner in which it held out a dream before the people through the Constitution, and the manner


in which it crushed their resistance reveals its feudal character. It has surely intrigued to preserve


castes and fanned the identity politics. Of course, the neoliberal policies have greatly accentuated


all the extant evils of the bourgeois democracy.


*


Not only have we failed to fulfill the Ambedkar's dream of annihilation of castes over the last


six decades but also we have gone light years away from it. The so called disciples of Ambedkar


themselves have been in forefront to bury that dream and flaunt their identities. It may be in


the interests of the upper castes to preserve their caste privileges but how could it be in the


interests of the lower ones to willingly wear their stigmatized identities? Ambedkarite vision


of annihilation of castes is not to be construed for the betterment of the lower castes alone;


it is verily meant for the entire Indian people. Caste is not merely a matter of discrimination


or atrocities; it is a veritable virus that incapacitates the entire nation. This virus is the main


factor behind India's every evil and its persisting backwardness. It can only be removed by


cleansing its body, through a revolution. Indeed, no patch work may do away this virus than a


thoroughgoing democratic revolution that will dislodge the entrenched classes and pave way for


India's socialist future. Here, it needs to be squarely internalized by the pro-revolution forces that


unless the masses of Dalits join them, their dream of revolution may never materialize and the


same way anti-caste Dalits to note that unless the people of their class supplement their strength,


the dream of annihilation of castes may never be accomplished. It follows that these two camps


must see a common cause and strategize to remove their historical misgivings.


It is a strategic imperative for Dalits to realize that castes are not mere cultural or religious


matter; they are intermingled with all aspects of life. The majority of Dalits are mired in the


agrarian relations as the farm labour or in urban informal sectors, both living in subsistence


mode. Their dalithood is entangled with their economic status. It can be clearly understood


from the atrocities on them, which are meant to terrorize them into submission. In many an


instant, this submission entails economic and political benefits to the upper caste hegemon. The


hegemon's writ however is carried out by his caste people who belong to the same class as Dalit


victims. The atrocities are thus committed because Dalits are financially weak, economically


dependent, morally hollow and isolated from their class. The antidote therefore would comprise


making them economically self sufficient with their control over means of livelihood, making


them morally solid so as to resist any injustice and forging class unity with the people from the


upper castes. The diagnosis remains practically the same as presented by Babasaheb Ambedkar


in 1936 in his famous exposition Mukti kon pathe? (What path to Liberation) while explaining


the logic behind his declaration of religious conversion to the leaders of his movement. The first


could be achieved through getting them land, making quality education and health care available;


the second through ideological restoration of faith in struggle and the third, through building


the class unity with the other castes. Programmatically, the ideological preparation and the class


solidarity must precede so that the struggle for the means of empowerment is effectively carried


out.


This can be accomplished through reorientation of the anti-caste (dalit) and anti-class (left)


movements. While Dalit movement should orient itself along class line while fighting for


the caste issues the left movement should orient itself to see the reality of castes and need to


forge unity with the struggling Dalits. The initiative however must come from the left with due


ideological conviction, overcoming their self righteous attitude. As I proposed in my 'Anti-

Imperialism and Annihilation of Castes', this process, once set in could result in a virtuous cycle


ending into a much desired Indian revolution. I see no other option.

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स्वायत्ता का दमन और न्याय की मांग

Author: समयांतर डैस्क Edition : June 2013

शिवानी चोपड़ारख्माबाई: स्त्री अधिकार और कानून: सुधीर चंद्र, राजकमल प्रकाशन, पृ.174, मूल्य: 400 रु.

ISBN 978 – 81 – 267 -2337 – 9

यह पुस्तक स्त्री के विद्रोह और संघर्ष का दस्तावेजीकरण है, जिसमें लेखक ऐतिहासिक संदर्भों के माध्यम से नई स्त्रीपरक इतिहासदृष्टि विकसित करता है। स्त्री संबंधी कानूनों में साम्राज्यवादी सरकार का रवैया और तथाकथित भारतीय समाजसुधारकों का रुख दोनों सामने आते हैं। स्त्री के विरोध के संदर्भ में यह स्पष्ट होता है कि कानून और न्याय में अंतर है। स्त्री की न्याय की मांग राज्य सत्ता, कानून और समाजसुधारकें के प्रयासों पर प्रश्नचिह्न लगाती है और यह स्पष्ट होता है कि पितृसत्ता ने हर स्थिति में अपने को नए ढंग से गठित किया है। बाईस वर्ष की रख्माबाई ने अपने पति को नापसंद करते हुए इस विवाह को मानने से इंकार कर दिया, जिसके बंधन में उसे मात्र ग्यारह वर्ष की उम्र में झोंक दिया गया था। यह मामला न सिर्फ भारत में बाल विवाह जैसी प्रथा के विरोध में देखा गया बल्कि स्त्री को पुरुष की संपत्ति समझी जाने वाली धारणा का भी विरोध है। रख्माबाई का अपने पति के साथ सहवास करने से इंकार भारत की कई स्त्रियों के लिए प्रतिरोधक शक्ति के रूप में भी सामने आता है। लेखक इस पूरी घटना को एक ऐसा ऐतिहासिक क्षण मानता है जो अभी तक जारी है। यह विकृत सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था को बेनकाब करता है। तब यह सवाल रख्माबाई के मुकदमे के फैसले से जुड़ा था और आज भी इस तरह की मुकदमे भारतीय समाज की वर्तमान वैधानिक व्यवस्था पर दोबारा सोचने के लिए मजबूर करते हैं। निवेदिता मैनन स्त्री और कानून पर विचार करते हुए देरिदा के हवाले से कहती हैं कि 'न्याय की सार्वभौमिक धारणा के अवशेष हमारे कानून में अब भी मौजूद हैं, जिन्हें जड़ से मिटाना जरूरी है। न्याय की पहली शर्त है कि कानून की बात करते हुए उसे प्रतिवादी की भाषा में अभिव्यक्त किया जाए। कानून के कई फैसलों में हिंसा निहित होती है। न्याय करते समय प्रतिवादी को ऐसे कानूनी मुहावरों व संदर्भों में परखा जाता है जिसे वह साझा नहीं करती, शायद समझती भी नहीं। पर इस तरह की हिंसा को न्याय की अपील व सार्वभौमिक धारणा के माध्यम से धुंधला व अस्पष्ट कर दिया जाता हैं। रक्माबाई के समय समरूप कानून की आधुनिक धारणा को विकसित करना व्यवस्था के स्थायी रूपों को चुनौती देना था। स्त्री प्रश्न पर समाज में विचारों के बदलाव की बात की जाती है पर संस्थाओं के भीतर गोपनीय तरीके से पुरानी धारणाएं आसानी से अतिक्रमण कर लेती हैं। इस तरह के विद्रोह को समाज का बड़ा वर्ग सामाजिक चुनौती की तरह देखने के बजाय सामाजिक मर्यादाओं के उल्लंघन की तरह देखने लगता है। रख्माबाई की निजी लड़ाई स्त्री के हक में एक सामाजिक विद्रोह में तबदील की जा सकती थी और वास्तविक सुधार के विकल्प को विकसित किया जा सकता था। स्त्री प्रश्न के साथ समाज की अन्य विकृतियां जुड़ी हुई हैं जिनके समस्याग्रस्त रूप की व्याख्या करना जरूरी है। क्या रख्माबाई का मामला केवल स्त्री के अधिकार से जुड़ा था या उसके कई अन्य पहलू भी थे?

रख्माबाई सुतार (बढ़ई) जाति की थी, जिसकी विधवा मां जयंतीबाई ने सखाराम अर्जुन नाम के एक विधुर से विवाह किया। अपने पहले पति से जयंतीबाई को जो भी संपत्ति मिली वह उसने रख्माबाई के नाम कर दी, क्योंकि उसे भय रहा होगा कि उसके पहले पति के ससुराल वाले संपत्ति को न हड़प लें। तब रख्माबाई केवल आठ वर्ष की थी, जब वह ग्यारह वर्ष की हुई तब उसके दूसरे पिता सखाराम ने उसका विवाह अपने एक निर्धन संबंधी दादाजी भीकाजी से कर दिया जो उस समय लगभग बीस वर्ष का था। सखाराम की मंशा थी कि वे दादाजी को घर जमाई बना कर रखेंगे, इससे रख्माबाई के नाम की सारी संपत्ति घर में ही रहेगी। रख्माबाई के घरवाले उसके पति की पूरी जिम्मेदारी उठाने को तैयार थे और उन्हें ऐसी उम्मीद थी कि आगे चलकर दादाजी उचित शिक्षा पाकर अच्छा इंसान बनेगा। लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत, अपने घर के कुछ अन्य पुरुष सदस्यों की कुसंगत के कारण वह विलासी किस्म का इंसान बन गया और छठी जमात भी पूरी न कर सका। उसकी मां चल बसी थी, विलासी मामा की रखैलें थीं जिनमें से एक वह घर ले आए थे। इन सबके प्रभाव के कारण दादाजी अपनी पत्नी पर हक दिखाने लगे और उसके साथ सहवास की मांग करने लगे। इसके ठीक उलट रख्माबाई एक सुसंकृत प्रबुद्ध स्त्री के रूप में विकसित हो रही थी। अपने दूसरे पिता के कारण वह धार्मिक-सामाजिक समाज सुधारकों व योरोपीय संस्कारों के संपर्क में भी आ रही थी। जैसा कि विवाह के बाद एक लड़की के जीवन से जुड़े सारे निर्णय उसका पति या ससुराल वाले ही लेते हैं, रख्माबाई की शिक्षा की अनुमति उसके ससुराल वालों से मिलना असंभव था। इसलिए उसकी औपचारिक शिक्षा रुक गई। रख्माबाई का शिक्षा के प्रति लगाव और एकाएक स्कूल जाने पर पाबंदी लग जाने का दु:ख उसके एक पत्र में स्पष्ट होता है, जिसका लेखक ने विस्तृत उद्धरण दिया है–

'मैं अभागी हिंदू स्त्रियों में हूं जो बाल विवाह की प्रथा से जुड़े अवर्णीय कष्टों को चुपचाप झेलते रहने के लिए विवश है। इस दुष्ट प्रथा ने मेरे जीवन की खुशियों को बर्बाद कर दिया है। यह मेरे और उन चीजों के बीच आ खड़ी हुई है जिन्हें मैं सबसे ज्यादा मूल्यवान मानती हूं—अध्ययन और मानसिक विकास।

रख्माबाई के जीवन के सारे निर्णय उसके घर वाले या पति और ससुराल वालों पर निर्भर थे, वह क्या चाहती है और किसके साथ रहना चाहती है, यह महत्त्वपूर्ण नहीं था। भारतीय हिंदूस्त्रीत्व के दु:ख को सहने के बोध ने उसे अपने जैसी कई पीडि़त महिलाओं की स्थिति से जोड़ा। रख्माबाई की पच्चीस हजार रुपए की संपत्ति बहुत बड़ा प्रलोभन था, जिस पर उसका कानूनी पति अपना पूरा अधिकार रखना चाहता था। इसलिए वह रख्माबाई पर अपने मालिकाना हक का दावा कर रहा था। रख्माबाई के पति ने अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए सन् 1884 में अपनी पत्नी के खिलाफ मुकदमा दायर किया। तब तक भारत में पति को नापसंद करने से संबंधित कोई कानून नहीं था। नापसंद का अर्थ था वैवाहिक सहवास से इंकार। उस समय एक स्त्री द्वारा पति को नापसंद करते हुए विवाह बंधन को मानने से इंकार करना एक क्रांतिकारी कदम था। रख्माबाई का विवाह ग्यारह वर्ष की उम्र में हुआ था और विवाह के उपरांत वह अपने माता-पिता के घर में ही रह रही थी। अब वह बाईस वर्षीय महिला थी, लेकिन यह स्थिति तब विवादपूर्ण बन गई जब रख्माबाई के पति ने अपनी पत्नी को सहवास के लिए बुलाने पर जोर दिया। रख्माबाई पर संपत्ति-उत्तराधिकार के कारण अपने घरवालों का दबाव था और वैवाहिक अधिकारों के इस मुकदमे में दोनों पक्षों के लिए संपत्ति महत्त्पूर्ण थी। इस नियंत्रण के पीछे क्षुद्र भौतिक कारणों के बावजूद यह प्रमाण भी मिलते हैं कि रख्माबाई के दूसरे पिता के मरने से पहले उसकी मां जयंतीबाई के लिए रख्माबाई की संपत्ति की तुलना में कहीं अधिक संपत्ति कमा कर छोड़ गए थे। इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि सैद्धांतिक तौर पर मुकदमे दायर करने के कारण कुछ और होते हैं और उनके वास्तविक उद्देश्य कुछ और होते हैं। इस मुकदमे के दौरान ही यह बात स्पष्ट हो गई कि सर्वोच्च उपनिवेशीय न्यायपालिका की प्रवृत्ति स्त्रियों के साथ भेदभाव करने वाली सामाजिक परंपराओं और संबंधों को बनाए रखने की थी। रख्माबाई के विद्रोह और संघर्ष को व्यवस्था बदलने के प्रतिरोध के रूप में देखा गया है।

आवश्यकता है सतत प्रतिरोध की, तभी निरंतर बनी रहने वाली व्यवस्था को बदला जा सकता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में दबाव के चलते व्यवस्था में अनिवार्य न्यूनतम बदलाव कर दिए जाते हैं पर तब भी सत्ता का मूल स्वरूप बना रहता है। रख्माबाई को संगठित रूढि़वाद और औपनिवेशिक कानून से एक साथ लडऩा पड़ा था। अपने नैतिक साहस के बलबूते उसने इन दोनों की सत्ता को चुनौती दी थी। उस समय एक स्त्री के द्वारा ना कहने का साहस जोखिम भरा काम था। जब यह निश्चित था कि हाई कोर्ट का फैसला रख्माबाई के पक्ष में नहीं होगा तो उसने भरी अदालत में सबके सामने जज से कहा- 'माननीय न्यायमूर्ति का फैसला मानने के बजाय वह जो भी बड़ी से बड़ी सजा कानून में ऐसी अवज्ञा के लिए है, उसे भोगना पसंद करेगी, पर अपने पति के पास नहीं जाएगीÓ। लेखक इसे रख्माबाई का सत्याग्रह मानता है जो गांधी के सत्याग्रह से कई वर्ष पहले 1887 में ही हो गया था। दूसरी ओर सामाजिक-धार्मिक मामलों में उपनिवेशीय सत्ता के हस्तक्षेप का सवार्धिक विरोध किया जा रहा था। विरोधाभास यह था कि यही लोग इस कानून व्यवस्था व विदेशी मान्यताओं का खुलकर उपयोग भी करना चाहते थे।

लेखक पाठकों का ध्यान रख्माबाई की कहानी के एक और पहलू की ओर ले जाने की कोशिश करता है, वह है स्त्री देह की स्वाधीनता का सवाल। रख्माबाई सिर्फ पति को नापसंद नहीं कर रही थी बल्कि अपने कानूनी पति द्वारा उसकी देह पर मालिकाना हक के खिलाफ लड़ रही थी। वह अपनी देह, अपनी आत्मा पर अपने अधिकार की मांग भी कर रही थी। परंपरागत पारिवारिक संस्कारों के खिलाफ इस अधिकार की मांग एक क्रांतिकारी घोषणा थी। भावनात्मक रूप से स्त्री परिप्रेक्ष्य को समझने के लिए यह आवश्यक है कि उन लैंगिक पूर्वग्रहों व संरचनाओं को समझा जाए जो विरासत के रूप में स्त्री व पुरुष दोनों को मिलते हैं।

उपनिवेशीय भारत में एक साधारण स्त्री द्वारा न्याय की मांग इस पूरे प्रकरण को असाधारण और अनोखा बना देती है। रख्माबाई की तीखी आलोचना करने वाले तथ्यों में केसरी नामक पत्र का उल्लेख मिलता है। जिन दिनों रख्माबाई पर मुकदमा चल रहा था, उसकी आलोचना करने वालों में बापुजी कानितकर के मराठी नाटक—तरूणीशिक्षणनाटिका का भी उल्लेख मिलता है। यह एक अपरिणित विवाह था और अलग-अलग वास के दौरान पत्नी अपने पति के प्रति गहरी वितृष्णा को व्यक्त करती है। यह एक ऐसा विवाह था जिसे वर और वधु ने अबोध उम्र में अपने माता-पिता के निर्णय के परिणामस्वरूप किया था। इस तरह का परंपरागत संस्कारों के अंतर्गत किया विवाह कैसे खारिज किया जा सकता है, यह सामाजिक चर्चा व बहस का हिस्सा बन गया। सवाल हिंदू विवाह-संस्था से जुड़ा था जिसमें रूढि़वादियों के अपने तर्क थे और अंग्रेजी शासक कानून के अनुसार चलते हुए भी परंपराओं में बिना हस्तक्षेप किए न्याय करना चाहता था। इस मुकदमे में आधुनिक भारतीय सामाजिक व्यवस्था के पुनर्गठन को लेकर भी आक्रामक और महत्त्वपूर्ण बहसें थीं जिनमें व्यक्ति, विचार और संस्थाएं एक-दूसरे के साथ उलझे हुए थे। उनके बीच परस्पर द्वंद्व व जटिल संबंध इस बहस को व्यापक रूप दे रहे थे। रक्माबाई के मुकदमे से पूरे स्त्री समाज के भविष्य को जोड़ कर देखा जाने लगा।

सन् 1884 में मुकदमा दायर होने के एक वर्ष बाद रख्माबाई के हक में फैसला होता है। उसके बाद रख्माबाई के जीवन और उस मुकदमे को भिन्न- भिन्न दृष्टिकोणों से देखा जाने लगा। कुछ उसे अबला स्त्रियों का प्रतिनिधि मानने लगे, कुछ उसे एक ऐसी खतरनाक स्त्री के रूप में देखने लगे जो घर, परिवार और भारतीय समाज को तोडऩे वाली है, तो कुछ इसे हिंदु परंपराओं व धार्मिक मान्यताओं के प्रति द्रोह के रूप में देखने लगे। रख्माबाई का विद्रोह आदर्श समाज व्यवस्था की व्याख्या करने वाली सभी सत्ताओं को चुनौती देता नजर आया। लेखक ने इस विद्रोह को स्त्री हीनता की पूर्वनिर्धारित धारणा के खंडन के रूप में देखा है, जिसमें रख्माबाई द्वारा एक ओर इस स्थापित धारणा का प्रतिकार था तो दूसरी ओर अपनी नैसर्गिक इच्छाओं की अभिव्यक्ति थी। वह पुनर्विवाह की मांग नहीं कर रही थी बल्कि अपने कानूनी पति को अपना तन-मन सौंपने से इंकार कर रही थी जिसे वह नापसंद करती थी और जिसके साथ वह अपना भावी जीवन बिताने को तैयार नहीं थी। पहली बार स्त्री, विवाह और परिवार के परस्पर संबंध और परंपरागत स्वरूप की जटिलता सामने आई जिसे एक स्त्री द्वारा चुनौती दी जा रही थी। इससे तत्कालीन सामाजिक भावनाओं का मनोवैज्ञानिक व सांस्कृतिक स्तर पर भड़कना स्वाभाविक था। यह भारतीय समाज की निजी और सार्वजनिक दुनिया की स्वायत्तता व उसमें हस्तक्षेप का सवाल भी बन गया। इसलिए यह सिर्फ रख्माबाई के निजी जीवन का सवाल न रहकर बाद में हिंदूवादी परंपरागत भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में उपनिवेशीय शासन के हस्तक्षेप का मामला बन गया। इस प्रकार यह लड़ाई प्रतीकात्मक और लाक्षणिक विद्रोह में तब्दील हो गई जिसमें स्त्री की अपनी आवाज, स्वायत्तता व अधिकार के कोई मायने नहीं थे। उपनिवेशीय पृष्ठभूमि के बीच यह भारतीय समाज के विभिन्न समूहों के परस्पर टकराव व विरोध का कारण भी बना। शासक और शासितों के बीच विवाह व परिवार की संस्था से जुड़े आदर्शों व मूल्यों को श्रेष्ठ सिद्ध करने की कोशिश की जाने लगी। एक तरफ हिंदू परंपराओं, नियमों में किसी तरह के हस्तक्षेप के विरूद्ध वर्ग था दूसरी तरफ उपनिवेशीय शासक वर्ग व विदेशी कानूनी धारणाएं थीं, जो अपने शासितों पर श्रेष्ठता सिद्ध करना चाहती थी। इस मुकदमे के माध्यम से तत्कालीन समाज में सक्रिय विचारधाराओं को मुख्य रूप से तीन श्रेणियों में बांटा गया है, एक, रूढि़वादी (जिसे धार्मिक व हिंदूवादी भी कहा जा सकता है), दूसरी, साम्राज्यवादी और तीसरी सुधारवादी विचारधारा। तीसरी विचारधारा एक विकल्प के तौर पर उभर रही थी। इन तीनों धाराओं के बीच कोई स्पष्ट विभाजन नहीं था। ऐसे कुछ उदाहरण इस किताब में दिए गए हैं जिनसे पता चलता है कि सुधारवादियों का हिंदू राष्ट्रवादी चरित्र रख्माबाई के विरोध में समाचारपत्रों में खुल कर लिखने लगा।

रूढि़वादी और साम्राज्यवादी दोनों धाराएं स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन लाए बिना उनके हितों की चिंता जाहिर कर रही थीं। लेकिन इस मामले में ये धाराएं उपनिवेशीय कानून व्यवस्था की आलोचना करते हुए भी भीतर कहीं सत्ता के नजदीक रहने की कोशिश कर रहीं थीं। यह मुकदमा अपनी उस परिणति तक नहीं पहुंचा जो न्याय की मिसाल बने और कानून के माध्यम से किसी तरह का सामाजिक बदलाव लाने को जरूरी समझे। परंपराएं व धर्म, शासन की नैतिकता और आदर्श, कानून वगैरह किसी भी मामले में महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं और स्त्रियों के शोषण को अनदेखा कर दिया जाता है। रख्माबाई की समकालीन और स्त्री सुधारक रमाबाई इस संदर्भ में कहती हैं कि 'स्त्रियां अपने सारे दुखों को सिर झुका कर सहती रहती हैं या आत्महत्या कर लेती हैं। ब्रिटिश अदालतों में इस तरह के मकदमे दुर्लभ हैं। स्त्रियां भलीभांति जानती हैं कि देवता और न्याय हमेशा पुरुषों का साथ देते हैंÓ।

कई पीडि़त स्त्रियां रख्माबाई के मुकदमे से उपनिवेशीय सरकार के कानून के प्रति उम्मीद से देखने लगी होंगी। परंतु साम्राज्यवादी सत्ता की वास्तविक प्रवृति हिंदू व मुस्लिम दोनों की स्त्रियों के साथ भेदभाव करने वाली परंपराओं को बनाए रखने की थी। ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भी कई अंतर्विरोध थे, वे अपने कानून में सुधारवादियों की आस्था जगाने में सफल रहे। लोगों के मन में ब्रिटिश न्यायशास्त्र की उदार और मानवतावादी छवि विकसित होने लगी। इससे उन्हें अपनी सत्ता को न्यायोचित ठहराने में मदद मिली। अंग्रेज भारतीय समाज की कुप्रथाओं के उन्मूलन का दावा करते थे और इनके समक्ष अपने कानून को बेहतर मानते थे। लेकिन ऐसा करते हुए वे सतर्क व सावधान रहते थे कि कहीं इससे उनके न्यायोचित व नैतिक लगने वाली शासन व्यवस्था पर किसी तरह खतरा न उत्पन्न हो।

1880 के बाद नारीवादी दृष्टिकोण व आंदोलनों का उभार देखा जा सकता है पर उनका क्रांतिकारी रूप एक विचार या इच्छा तक सीमित था। उसका व्यावहारिक रूप विकसित नहीं हुआ जो रख्माबाई के मुकदमे से जुड़ी स्थितियों व संभावनाओं की सही व्याख्या कर सकता। रख्माबाई के आंरभिक समर्थकों व मदद करने वालों में राष्ट्रसेवा व सामाजिक पुनरोद्धार में लगे विद्वान बहराम जी एम. मलबारी (1853-1912) थे। वह इंडियन स्पैक्टेटर नामक अंग्रेजी साप्ताहिक निकालते थे। विचारों और व्यवहार में समानता के पक्षधर व इसके प्रति संवेदनशील थे। खर्चीली कानूनी लड़ाई में उन्होंने रख्माबाई की मदद की। बाल विवाह और बलात वैध्वय पर लेख लिखे जिनके माध्यम से कानून में आवश्यक सुधार की मांग की और इसके लिए सावर्जनिक बहस को आवश्यक माना। दूसरे समर्थक थे, टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक हेनरी करवेन (1845-92)। इस मुकदमे के व्यक्तिगत और सार्वजनिक आयामों को पहचानते हुए व रूढि़वादियों से सतर्क होकर इन्होंने एक रणनीति अपनाई। 'ए हिंदू लेडीÓ के छद्म नाम से इन्होंने रख्माबाई के दो प्रभावशाली पत्र छापे। इस लेडी की वास्तविकता में लेडी की क्षमताओं व योग्यताओं की प्रशंसा की गई, उसे भद्र, सुसंस्कृत व बौद्धिक बताया गया। उसके पत्रों में हिंदू सामाजिक प्रथाओं की निंदा की गई। यह वह समय था जब देश में नए शिक्षित मध्य वर्ग का भी उदय हो रहा था, अब बहुत से पति अशिक्षित व अंधविश्वासी पत्नी की जगह पढ़ी-लिखी पत्नी की कामना करने लगे थे। उनका मकसद स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में सुधार लाना या उन्हें किसी तरह की स्वायत्ता प्रदान करना नहीं था। वे केवल बदलतेपरिवेश की जरूरतों को पूरा करने के लिए व आधुनिकता के दबाव के कारण स्त्रियों को शिक्षित करना चाहते थे। लेकिन रख्माबाई के मामले में स्थिति इसके विपरीत थी, उसकी शिक्षा अपने ससुराल वालों के कारण ही छूट गई।

इसमें बांबे गजेट का भी उल्लेख किया गया है जो वास्तव में रख्माबाई जैसी पीडि़तों के हक की बात कर रहा था पर हिंदू लेडी की असलियत नहीं जानता था। इसलिए उसने 'ए हिंदू लेडी के पत्रों को अतिश्योक्तिपूर्ण बताया। बांबे गजट में कई ऐसे विज्ञापन छपते थे जिसमें पत्नियां अपने पतियों को कुछ समय की मोहलत देते हुए, बुरा व्यवहार व आदतें छोडऩे की चेतावनी देती थीं, अन्यथा वे उनका परित्याग कर देंगी। एक तरह से बांबे गजट स्त्रियों का पक्ष ले रहा था पर इसका लाभ रख्माबाई को नहीं मिला। इसके बाद अपने बचाव पक्ष में रख्माबाई को कानून के ऊंचे उद्देश्यों व सिद्धांतों में विश्वास करने वाले तीन वकील मिले। पहले, एम. एल लैथम उदारवादी राजनीतिक विचारधारा के थे, दूसरे, के.टी तैलंग थे। ये राष्ट्रवादी समाज सुधारक थे जिनके लिए रख्माबाई का बचाव करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। तीसरे, जे.डी इनवेरेरिटी थे, जिनका मानना था कि कानूनी व्याख्याओं का उद्देश्य उन्हें आधुनिक जीवन की जरूरतों के अनुकूल बनाना है। कानून से उनका अभिप्राय हिंदू कानून से था और अनुकूल बनाने का काम ब्रिटिश कानून द्वारा किया जा रहा था। इन वकीलों ने दादाजी के आरोपों की सत्यता को चुनौती दी और वादी के मुकदमा दायर करने के अधिकार व घर, खर्च, गुजर-बसर, चरित्र आदि पर कई सवाल उठाए।

उधर रख्माबाई के पति दादाजी के वकीलों ने मुकदमे की शुरुआत में ही यह सवाल खड़े किए कि क्या प्रतिवादी (पत्नी) का अपने पति के खिलाफ विरोध करना कानून सही व न्याय संगत है? हिंदू मान्यताओं के अनुसार क्या वैवाहिक अधिकार का विरोध करना उचित है? हिंदू लॉ का हवाला दिया गया। हिंदू विवाह की व्याख्या की गई कि यह सटीक अर्थों में एक अनुबंद न होकर धार्मिक कर्तव्य है। दादाजी के वकीलों ने कोर्ट में विवाह की पुनस्र्थापना (रेस्टिट्यूशन) की बात की, जो कि इंग्लैण्ड का कानून था और यह मांग तभी की जा सकती थी अगर रख्माबाई अपने पति के साथ विवाह के बाद एक ही घर में रह रही होती और पति पत्नी के बीच शारीरिक संबंध स्थापित हो चुका होता। दादाजी के वकीलों की दलीलों से ही समाज व कानून का स्त्री विरोधी चरित्र सामने आने लगता है। इन वकीलों ने मेन की पुस्तक हिंदू लॉ को आधार बनाते हुए कहा- विवाह संपन्न होते ही हिंदू पति अपनी पत्नी का कानूनी संरक्षक बन जाता है चाहे उनकी उम्र कुछ भी है। पति के पास यह अधिकार होता है कि वह पत्नी को अपने पास व अपने घर में रखे।

इन दलीलों के बावजूद हाई कोर्ट में जस्टिस पिनी रख्माबाई के हक में फैसला देते हैं। वह इसके दो आधार देते हैं, एक, मेन की पुस्तक हिंदू लॉ की धारणाओं को उन्होंने अदालत की सीमा से बाहर माना। दूसरा, उन्होंने इस मामले को वैवाहिक अधिकारों की पुनस्र्थापना का मुकदमा कहना भ्रांतिपूर्ण माना क्योंकि उनके अनुसार यह वैवाहिक समागम के अधिकार की मांग से जुड़ा मामला था। इसलिए रख्माबाई के पक्ष में फैसला देते हुए उन्होंने कहा- 'एक युवा महिला को पुरुष के साथ सहवास करने के लिए बाध्य करना, जिसे वह नापसंद करती है, एक बर्बर, क्रूर, और घृणित कृत्य हैÓ।

लेकिन जस्टिस पिनी के इस फैसले को कई एंग्लो-इंडियन अखबारों ने अंग्रेजी शासन की नैतिकता व सांस्कृतिक श्रेष्ठता से जोड़ा। कुछ ने इस फैसले को समाज-सुधार को बढ़ावा देने वाला बताया तो किसी ने सदियों पुरानी सामाजिक मान्यताओं व सिद्धांतों को ध्वस्त करने वाले क्रांतिकारी नतीजे की तरह देखा। इस फैसले के बाद पुस्तक में रूढि़वादियों व समाजसुधारकों के विचारों व बर्ताव में कई तरह के विरोधाभासों व उभयदादिता की झलक मिलती है, जो अपने अपने तरीके से इसकी व्याख्या करते हैं। जैसे बाल गंगाधर तिलक का उदाहरण दिया गया है जो एंग्लो मराठी साप्ताहिक निकला करते थे, उन्होंने मराठा में लिखा – हमें प्रसन्नता है कि इस फैसले को हमारे अधिकांश हिंदू भाइयों का समर्थन प्राप्त नहीं है। जबकि वास्तविकता में पिनी ने अंग्रेजी कानून के दायरे को बढ़ाने का विरोध किया था और हिंदू कानून को नजरअंदाज करने की आलोचना की थी। लेकिन हिंदुओं का पक्ष लेते हुए भी मराठा ने हिंदू विवाह को एक अटूट बंधन नहीं माना। उसमें लिखा गया कि 'एक हिंदू स्त्री अपने पति के साथ रहने से इंकार कर सकती है पर वह दूसरा विवाह नहीं कर सकतीÓ। रख्माबाई ने ऐसी कोई इच्छा जाहिर भी नहीं की थी।

लेखक ब्रिटिश कानून को भारतीय न्याय व्यवस्था में एक ऐसा विरोधाभास मानता है जो पूरी साम्राज्यवादी सत्ता में अंतर्निहित विसंगतियों को दर्शाता था। साम्राज्यवादी सत्ता अपनी श्रेष्ठता व सर्वोच्च सत्ता बनाए रखना चाहती थी, वहीं देसी कानूनों और परंपराओं की शक्ति को पहचानते हुए उनमें कम से कम दखल देने के पक्ष में थी। रख्माबाई के मुकदमे पर तीखी प्रतिक्रिया के कारण पिनी के फैसले को उच्च न्यायालय में भावुकतापूर्ण बताया गया और इसकी कानूनी वैधता को चुनौती दी गई। तब तक रख्माबाई के विरोधी इसे हिंदू समाज के लिए गहरे संकट के रूप में देखने लगे थे। टाइम्स के मुताबिक रख्माबाई की त्रासदी का मुख्य कारण विवाह से संबंधित हिंदू कानून की धारणाएं थीं जो समाज में सदियों से स्थापित थीं। इसमें लिखा गया कि ब्रिटिश कानून रख्माबाई की व्यथा से परिचित था और हिंदू कानून के दमनकारी रूप को पहचानता भी था फिर भी उन्होंने इसे लागू करने की विवशता बताई। '1860 में प्रीवी कांउसिल निर्देश देती है कि अंग्रेज न्यायाधीश अपने खुद के सांस्कृतिक मूल्यों को सार्वभौमिक मानकर भारतीयों पर थोपने का प्रयास न करेंÓ। दरअसल प्रीवी कांउसिल की सोच पुरातनपंथियों के विचारों से प्रभावित थी। अंग्रेजी शासन व कानून के कई कमजोर पक्ष भी इस संदर्भ में उभारे गए हैं।

अंत में पाठकों के आगे कई सवाल आते हैं, रख्माबाई ने अपनी लंबी लड़ाई बीच में क्यों छोड़ दी, उसका आगे का जीवन किस तरह का था, रूढि़वादियों के कहने पर दादाजी द्वारा समझौता क्यों किया गया, दादाजी का विरोध करने के बावजूद उसकी मृत्यु के बाद विधवा जीवन को अपना लेना आदि स्थितियों की जटिलता की ओर संकेत करते हैं। लेखक ने रख्माबाई के मुकदमे के माध्यम से अवैयक्तिक तंत्र और उसके विकेंद्रीकरण की बात की है। कानून जिसे न्याय का उपकरण माना जाता है वह किन परिस्थितियों में और क्यों अन्याय का पक्ष लेता है, ऐसी संभावनाओं का बने रहना सामाजिक जीवन की विडंबनाओं को उजागर करता है। न्याय को सर्वोच्चतम मूल्य बनाने के लिए कानून शंकाओं से घिरा हुआ है, यह स्पष्ट करता है कि कानून न्याय का पर्याय नहीं है। साधारण जन की न्याय में आस्था बार-बार खंडित होती है और आधुनिक राज्य की सत्ता का केंद्रीकृत रूप अन्याय का साथ देता है। कानून के भीतर कहीं गहराई में सामाजिक प्रथाओं के अवशेष बचे रहते हैं। लेखक यह महत्त्वपूर्ण सवाल उठाता है कि विभिन्न विचारधाराएं क्यों कानून के दिए न्याय की समीक्षा करने से घबराती रहीं। कानून राज्य सत्ता का प्रतीक बन गया जो विभिन्न विचारों और संस्थाओं के निहित स्वार्थों के कारण न्याय की मांग को विकृत कर देता है।

आज भी स्त्री अपने हित और न्याय के लिए कानून के आगे बेबस है। स्त्री के प्रति कई पुरातनपंथी धारणाओं ने वर्तमान संदर्भों के अनुकूल अपना स्वरूप बदल लिया है पर सदियों पुरानी जड़ मानसिकता व्यवस्था में आज भी मौजूद है, जिसे राज्य, कानून और धर्म जैसी संरचनाएं आज भी नियंत्रित कर रहीं हैं। लेखक इस घटना के ऐतिहासिक तथ्यों की व्याख्या एक स्त्री के असाधारण संघर्ष औऱ विद्रोह के रूप में करता है। एक ओर उपनिवेशीय भारत की कानून व्यवस्था है और दूसरी ओर देशी परंपराओं का नियंत्रण व दबाव है, रख्माबाई जैसी स्त्री अपने हक के लिए इन दोनों सत्ताओं के बीच संघर्ष करती है। यह स्त्री के लिए विकल्पहीन स्थिति को सबसे बेहतर ढंग से समझाता है। जिसमें दो व्यवस्थाओं के संयुक्त दमन को झेलने वाली स्त्री वास्तव में सिर्फ अपने लिए न्याय नहीं मांग रही बल्कि व्यवस्था में परिवर्तन और स्त्रीपरक दृष्टि वाले समाज के अभाव को निर्देशित कर रही है। इस घटना का उल्लेख किसी भी महत्त्वपूर्ण मानी जाने वाली कानूनी दलीलों में नहीं मिलता। यह घटना अतीत के पन्नों में कहीं दबी पड़ी थी, जिसे वर्षों बाद भी न्याय और सही व्याख्या नहीं मिली।

स्त्री-पुरुष के वैवाहिक झगड़े अगर घर से बाहर आ जाएं तो आज भी समाज के लिए तमाशा बन जाते हैं और यदि कानूनी दांव-पेंचों में फंस जाए तो उसका सबसे ज्यादा खामियाजा स्त्री उठाती रही है। विवाह-विच्छेद स्त्री को मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाली, सामाजिक-पारिवारिक नैतिकताओं को तोडऩे वाली, त्याग, बलिदान और ममता के गुणों से वंचित और उसकी देह को अपवित्र बना देते हैं। जब तक वह पुरुष के साथ है, उसकी संपत्ति है, इसलिए उसकी अधीनस्तता को स्वीकार करना ही स्त्रीयोचित गुण व धर्म है। इस तरह की शिक्षाएं जाने- अनजाने आज भी लड़कियों को अपने घरों में दी जाती हैं। आज से लगभग एक सदी से भी ज्यादा पहले यह लड़ाई कितनी मुश्किल रही होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। रख्माबाई का संघर्ष उस समय एक ऐसा सामाजिक नाटक बन गया जिसने न केवल स्त्री संबंधी भारतीय मान्यताओं व संस्कारों को चुनौती दी बल्कि तत्कालीन औपनिवेशिक सत्ता के साम्राज्यवादी चरित्र को भी प्रश्नांकित किया। युद्ध, राजनीतिक व्यवस्थाएं, आर्थिक शक्तियां, साम्राज्य, उपनिवेश, कानून, धर्म, भाषा व संस्कृति, परंपराएं, रीत-रिवाज आदि सभी पितृसत्तात्मक समाज की संरचनाएं हैं, इनकी बुनावट सामाजिक संरचना में इतनी बारीक है कि इन्हें बदलना या उधेडऩा नामुमकिन है और इसलिए यह प्रश्न आज भी बना हुआ है कि क्या विकल्प इनके भीतर से निकाले जाएं या बाहर निर्मित किए जाएं। इन संरचनाओं को ध्वस्त करना उतना ही मुश्किल है, जैसे पुराने समय में जनानखानों की तरह मर्द-खानों की बात सोचना। रोकिया सेखावत हुसैन की कहानी सुल्ताना के स्वप्न की तरह है, एक धुंधला स्वप्न मात्र है, जिसमें एक ऐसे समाज का स्वप्न देखा जाता है जहां न जेल है, न पुलिस क्योंकि अपराध नहीं होते। वह इसलिए क्योंकि यह एक ऐसी दुनिया है जहां औरतें स्वतंत्र घूमती हैं, यहां जनाना या हरम नहीं हैं बल्कि मर्दाने हैं जिसके अंदर आदमी रहते हैं और उनके लिए मर्दानों से बाहर निकलना वर्जित है। दमन की प्रक्रिया से गुजरते हुए सत्ता के इस बदलाव की कल्पना करना स्वाभाविक है। लेकिन गुलामी की जकड़बंदी इतनी मजबूत और पुरानी है कि उसकी वर्षों पुरानी ट्रेनिंग से मुक्त होने की बात सोचना पुरुष समाज के लिए भी मुश्किल है। रख्माबाई उपनिवेश के भीतर एक ऐसा उपनिवेश बन गई थी जिस पर सभी राजनीतिक-सामाजिक विचारधाएं प्रतिस्पर्धा व दावे कर रहीं थीं और अपना मत स्थापित करने का प्रयास कर रही थीं। इसलिए रख्माबाई जैसी स्त्रियों की संघर्ष-गाथा को समझ कर ही समाज-परिवर्तन व मानसिक बदलाव की कोशिश की जा सकती है।


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