धसाल- हिंदू राष्ट्रवाद में समाहित हो गये, तो उनसे संवाद की प्रयोजनीयता महसूस ही नहीं हुयी
दलित पैंथर,कवि पद्म श्री नामदेव धसाल नहीं रहे
पलाश विश्वास
पिछले ही साल दिवंगत साहित्यकार ओम प्रकाश बाल्मीकि से हमारी वामपक्षीय रोजनामचे के वर्गसंघर्षी वैचारिक तेवर के दिनों में भी रुक- रुक कर संवाद होता रहा है। यह वाकई भारतीय बहुसंख्य बहिष्कृत मूक जनगण की अपूरणीय क्षति है कि उन्हें दो-दो बड़े अपने दस्तखत से बेहद कम समय के अंतराल पर वंचित हो जाना पड़ा।
भोर साढ़े पांच बजे हम गहरी नींद में थे कि मोबाइल रिंगने लगा। बार-बार रिंगने लगा। दलित कवि व लेखक, विचारक और दलित पैथर्स पार्टी संगठन के संस्थापक नeमदेव लक्ष्मण धसाल का लंबी बीमारी के बाद बुधवार तड़के अस्पताल में निधन हो गया। उनके परिवार में उनकी पत्नी मलिका शेख और एक बेटा है। उनका बांबे हॉस्पीटल में बुधवार तड़के लगभग चार बजे निधन हो गया। वह कैंसर से पीड़ित थे। सहयोगी के मुताबिक, धसाल का शव मुंबई के अंबेडकर कॉलेज में अंतिम दर्शन के लिये रखा जायेगा। उनका अंतिम संस्कार गुरुवार दोपहर दादर शवदाहगृह में होगा।
उनकी रचनाओं में 1973 में प्रकाशित 'गोलपिथा', 'मूरख महातरयाने', 'तुझु इयात्ता कांची', 'खेल', 'प्रियदर्शिनी' (पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर आधारित), 'अंधेले शातक' और 'अम्बेडकरी चलवाल' शामिल है।
कोलकाता में भी कड़ाके की सर्दी होती है इन दिनों मकर संक्रांति के आस-पास, कल से खूब सर्दी पड़ रही है। रात में अरसे बाद कंबल लेकर कंप्यूटर पर बैठना पड़ा और आज दिन भर सूरज के दर्शन तो नहीं हुये,गंगासागर मेले की सर्दी जैसे यहीं स्तानांतरित हो गयी। रात के दो बजे पीसी आफ करके सोया था।सविता तो बारह बजने से पहले टीवी आफ करके सो गयी।बिजनौर में उसे बड़े भाई लगातार अस्वस्थ्य चल रहे हैं। मोबाइल की घंटी से वे पहले जाग गयी लेकिन फोन पकड़ने की हिम्मत उसकी नहीं हुयी। मैं रिंग सुन रहा था लेकिन फिर भी नींद में था। मुझे सविता ने कड़ककर आवाज दी, तब उठा औऱ कॉल रिसीव कर लिया तो उस पार बेहद भावुक रुआँसा अपने एच एल दुसाध थे जिन्होंने दिन भर कई दफा फोन किया था। वे ट्रेन से दिल्ली को रवाना हो गये थे। हमारी समझ से परे थी वह वजह कि उन्होंने इतनी सर्दी में बीच रास्ते से फोन कैसे किया।
लगभग रोते हुये जो वे बोले, पहले तो समझ में नहीं आया। बार बार पूछने पर खुलासा हुआ कि मुंबई में दलित कवि नामदेव धसाल का निधन हो गया। बाद में एसएमएस से दुसाध जी ने सूचित किया कि आज यानी बुधवार को तड़के साढ़े चार बजे कैंसर से जूझ रहे धसाल आखिरी जंग हार गये। जाने-माने मराठी कवि और तेज तर्रार कार्यकर्ता नामदेव धसाल का लम्बी बीमारी के बाद आज निधन हो गया। वह 64 साल के थे। वह आंत और मलाशय के कैंसर से पीड़ित थे।
फिर उनसे मोबाइल पर दिनभर कनेक्ट नहीं कर सका। इसी बीच टीवी स्क्रालिंग पर धसाल की मौत की खबर सुर्खी में तब्दील भी होने लगी। लेकिन आज दिनभर नेट नहीं चला। अब जाकर छह बजे के करीब नेट खुला जबकि मुझे दफ्तर निकलना है।
वहीं, वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी और प्रसिद्ध पत्रकार रणेन मुखर्जी का मंगलवार को निधन हो गया। यह जानकारी उनके परिवार के एक सदस्य ने दी। मुखर्जी 86 वर्ष के थे और उनके परिवार में एक बेटी है।
महात्मा गांधी के सम्पर्क में आने के बाद वह एक स्कूली छात्र के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े थे। उन्हें राशिद अली दिवस मनाने के दौरान 1946 में गिरफ्तार कर लिया गया था। इसके बाद वह ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक से जुड़े थे और दो बार विधानसभा का चुनाव लड़ा था। वह 1959 में पश्चिम बंगाल में खाद्य आंदोलन से भी जुड़े थे। उन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत फॉरवर्ड ब्लॉक के बंगाली मुखपत्र लोकसेवक से की थी। वह लोकमत, गनबार्ता, दैनिक बसुमती, भारतकथा, सतजुग, बर्तमान और सम्बाद प्रतिदिन से भी जुड़े थे। उन्होंने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम को कवर किया था और बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान के सम्पर्क में आये थे। उन्होंने उनकी जीवनी मुजीबुर रहमान'आमी मुजिब बोल्ची' लिखी थी, जिसे काफी सराहना मिली थी। उन्होंने लगभग 30 किताबें लिखी थी, जिसमें शहीद खुदीराम बोस, फारवर्ड ब्लाक नेता हेमंत कुमार बसु और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के नेता प्रमोद दासगुप्ता की जीवनी शामिल है।
उनका पार्थिव शरीर फारवर्ड ब्लॉक राज्य समिति के दफ्तर में ले जाया गया जहाँ पार्टी के राज्य सचिव अशोक घोष ने उन्हें पुष्प अर्पित किया। इसके बाद प्रेस क्लब में पत्रकारों और माकपा पोलितब्यूरो के सदस्यों बिमान बोस और सूर्यकांत मिश्रा ने उन्हें पुष्प अर्पित किया। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तरफ से भी पुष्प अर्पित किया गया। उनके पारिवारिक सूत्रों ने बताया कि मुखर्जी ने मरणोपरांत शरीर दान करने का वादा किया था। उनका शव एनआरएस मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल को दान कर दिया जायेगा।
दुसाध जी ने अपनी मंगलवार की लम्बी बातचीत में धसाल की तुलना टैगोर से की थी और उन्होंने अपनी पचपन किताबों में से एक किताब टैगोर बनाम धसाल भी लिखी है।
मैं अति में विश्वास नहीं करता। मैं न ओमप्रकाश बाल्मीकि को प्रेमचंद, लेकिन दलित जीवन के चित्रण के मामले में कहें तो शुरुआती सारे दलित लेखकों को मैं प्रेमचंद क्या, टैगोर क्या, महाकवि बाल्मीकि और महाकवि व्यास से ज्यादा महान मानता हूँ, क्योंकि उन महाकवियों ने अपने लोगों के सुख-दुख को कभी आवाज ही नहीं दी।
धसाल उग्र दलित पैंथर मूवमेंट के संस्थापकों में से एक थे। यह आंदोलन 1960 के दशक के अंत में वर्ली के बीडीडी चॉल में जातीय दंगों बाद शुरू हुआ था।
वह दलित साहित्य आंदोलन के अग्रदूत थे। पद्मश्री से सम्मानित धसाल मांसपेशियों की कमजोरी की बीमारी से भी पीड़ित थे।
वर्ष 2007 में अभिनेता अमिताभ बच्चन और सलमान खान ने धसाल की मदद के लिये राशि जुटाई थी जिनका परिवार उनके इलाज के खर्चे के भुगतान के लिये अपना मकान बेचने के कगार पर था।
नागरिक अधिकार कार्यकर्ता धसाल को उनकी एक किताब के लिये नेहरू पुरस्कार भी मिला था। 2004 में साहित्य में योगदान के लिये उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
धसाल की चुनिन्दा कविताओं का 'नामदेव धसाल: पोयट ऑफ अंडरवर्ल्ड' शीर्षक से अंग्रेजी में अनुवाद हुआ था।
जाहिर है कि दुसाध जी के भीतर हो रही खलबली उनपर भाववाद के वर्चस्व की वजह से समझ में आने वाली बात है। हाल ही में वे मुंबई के अस्पताल में धसाल से मिलकर आये हैं। अस्पताल में ही धसाल ने अंतिम सांसें लीं। उन्होंने लिखा है कि एसएमएस करते हुये` मेरी आंखों में जार जार आंसू बह रहे हैं।' आगे उन्होंने लिखा है, पता नहीं यह जानकर आप पर क्या गुजरेगी कि विश्वकवि नामदेव धसाल अब नहीं रहे। मेरे साथ दिक्कत यह है कि सुबह से नेट बंद है, लिखकर भी मैं तत्काल पोस्ट कर नहीं सकता।
नामदेव धसाल से मुंबई जाते आते रहने के बावजूद मिलने की हमारी कभी इच्छा नहीं हुयी। हालाँकि हम जब भाषाबंधन में थे, तब नबारुण दा ने खास तौर पर उन की कविताओं का अनुवाद छापा था। बांग्ला के अद्वितीयगद्य पद्य लेखक व संपादक नवारुण भट्टाचार्य के मुताबिक वे कहाँ हैं, किस हाल में हैं, इससे उनकी रचनाओं का महत्व खत्म हो नहीं जाता।
दरअसल वैचारिक अवस्थान बदलकर कवि कार्यकर्ता नामदेव धसाल जो हिंदू राष्ट्रवाद में समाहित हो गये, तो उनसे संवाद की प्रयोजनीयता महसूस ही नहीं हुयी।
जलगांव में हमारे मित्र सुनील शिंदे जी संघी नहीं हैं और विदर्भ में जनसरोकारों से इस कदर जुड़े हैं कि भूमिगत कबीर कला मंच की शीतल साठे समेत तमाम लोगों के निरंतर संपर्क में रहे हैं। उनका नामदेव धसाल से नजदीकी सम्बंध रहा है।
कई दफा जलगांव के पास पचोला में उनके गाँव में उनके घर डेरा जमाने के दौरान धसाल की खूब चर्चा हुयी और उसके बाद मुंबई जाने के बाद भी कभी इच्छा नहीं हुयी कि किसी किस्म का संवाद नामदेव धसाल से भी किया जाये।
बामसेफ के सक्रिय कार्यकर्ता होने से कहीं न कहीं दिलोदिमाग पर एकपक्षीय दृष्टि का असर होता है और दूसरे पक्ष को सुनने या सुनने लायक सहिष्णुता का सिरे से अभाव हो सकता है। नामदेव धसाल से न मिलने की एक वजह यह हो सकती है।
विचारशून्यता उत्तरआधुनिक विमर्श का स्थाईभाव है,
दुसाध जी जब हमारे यहाँ आये और मुझे उनकी राजनीतिक परिकल्पना की भनक लगी और उनके साथ में भाजपाई ललनजी के आगमन की सूचना मिली तो मैं सचमुच आशंकित था कि कहीं आप को रोकने के लिये दुसाध जी मिशन पर तो नहीं निकल पड़े। क्योंकि आप के उत्थान से अब सबसे ज्यादा नुकसान संघ परिवार को है।
दुसाध जी आरक्षण के विरोध में नहीं हैं और न तेलतुंबड़े आरक्षण के विरोध में हैं। दोनों लोग आरक्षण लागू करने की अंबेडकरी भूमिका के कट्टर समर्थक हैं समता और सामाजिक न्याय के लिये। संघ परिवार और सत्ता वर्ग के आरक्षण विरोध से उनका कुछ लेना देना नहीं है। मैं भी कारपोरेट राज में आरक्षण युद्ध में सारी ऊर्जा लगाकर जल जंगल जमीन नागरिकता और मानवाधिकार के मोर्चे से बेदखली के इस आत्मध्वंस के दुश्चक्र से निकलना बहिष्कृत समाज की सर्वोच्च प्राथमिकता मानता हूँ और बहुजन आंदोलन के एकमेव आरक्षण मुद्दे तक सीमाबद्ध हो जाने की त्रासदी को तोड़ने की ही कोशिश करता हूँ।
हम तीनों इस सच के मुखातिब होकर कि सन् 1999 से आरक्षण लागू होने और आरक्षण पर नियुक्तियों की दर शून्य तक पहुँच जाने के बाद जिस देश में रोज संविधान की हत्या हो रही हो, जहाँ कानून का राज है ही नहीं और लोकतंत्र का सिरे से अभाव है और राष्ट्र दमनकारी युद्धक सैन्यतंत्र है, राजकाज राजनीति कॉरपोरेट हैं, वहाँ आरक्षम केंद्रित सत्ता में भागेदारी की एटीएम राजनीति से बहुसंख्य सर्वहारा सर्वस्वहाराओं को कुछ हासिल नहीं होने वाला है।
कल रात जब अपने आलेख को अंतिम रूप देने से पहले उसके टुकड़े हमने फेसबुक पर पोस्ट किये तो अनेक मित्रों की दुसाध जी के बारे में नाना शंकाएं अभिव्यक्त होती रहीं।
दरअसल दुसाध जी और लल्लन जी से भी मैंने साफ-साफ कह दिया था कि डायवर्सिटी मिशन का संघ परिवार अपने आरक्षण विरोधी, समता और सामाजिक न्यायविरोधी समरसता मिशन में ज्यादा इस्तेमाल किया है और करेंगे, राजनीति में हम लोग अगर आप का सीधे तौर पर विरोध करते हैं तो संघ परिवार के मिशन को ही ताकत मिलेगी।
हमने उनसे यही निवेदन किया कि डायवर्सिटी मिशन की मूल अवधारणा संसाधनों और अवसरों के न्यायपूर्ण बँटवारे के साथ देश जोड़ो अभियान में वे हमारा साथ दें।
हम मानते हैं कि भारतीय अर्थव्यव्स्था बुनियादी तौर पर कृषि अर्थ व्यवस्था है। इसी अर्थव्यवस्था पर एकाधिकारवादी दखल के लिये पहले वर्ण व्यवस्था प्रचलित हुयी और गौतम बुद्ध की समता क्रांति के प्रत्युत्र में शासक तबके की प्रतिक्रांति के जरिये जाति व्यवस्था का उद्भव हुआ।
दोनों व्यवस्थाओं के मूल में रंग भेद है।
यह एक मुकम्मल अर्थ व्यवस्था है जिससे कृषि आजीविका समाज को हजारों जातियों में तोड़कर रख दिया है। अब मजा यह है कि आप जाति व्यवस्था के मातहत हैं या उसके बाहर मसलन आदिवासी और धर्मांतरित लोग, भिन्न धर्मी या फिर अस्पृश्य भूगोल के तथाकथित सवर्ण, आप इस अर्थशास्त्रीय महाविनाश से बच नहीं सकते।
आज का मुक्त बाजार जनपदों और कृषि के ध्वंस पर आधारित है। जो काम कल तक जाति व्यवस्था कर रही थी,वह काम प्रबंधकीय दक्षता और तकनीकी विशेषज्ञता के उत्कर्ष पर खड़ी कारपोरेट राजनीति कर रही है और जाति व्यवस्था की तर्ज पर ही बहुसंख्य भारतीय कृषि समाज रंग बिरंगी कॉरपोरेट राजनीति में विभाजित हैं।
ये तमाम लोग हमारे हैं। इन सबको गोलबंद किये बिना हम बदलाव की लड़ाई लड़ नहीं सकते। उन सबसे संवाद जरूरी है। यह बात हमारे अपढ़ पिता दिवंगत पुलिनबाबू जानते थे, जिसे हम अब समझ रहे हैं। पिता आजीवन इस सीख के तहत समाज प्रतिबद्धता में निष्णात रहे और हम कायदे से आरंभ भी नहीं कर पाये।
हम पढ़े लिखों की सायद यह दिक्कत है कि बात तो हम वैज्ञानिक पद्धति की करते हैं, अवधारणाओं और विचारधाराओं को, नीति, रणनीति को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं,लेकिन सामाजिक यथार्थ के मुताबिक वस्तुवादी दृष्टि से आचरण के कार्यबार से चूक जाते हैं।
सामाजिक सरोकार के प्रति प्रतिबद्धता और उसके लिये सर्वस्व समर्पण भाव और ईमानदारी बल्कि भ्रष्टाचार मुक्त नैतिक चरित्र का मामला भी है, जो वस्तुगत सामाजिक यथार्थ और वैज्ञानिक विचारधारा से किन्तु अलहदा है, लेकिन सामाजिक बवलाव की कोई भी विधि इस स्थायी बाव के बिना, मेरे पिता पुलिनबाबू के पागलपन तक की हद की जुनून के बिना शायद असम्भव है।
आप के शिखर पुरुष कहते हैं कि किसी विचारधारा में उनकी आस्था नहीं है। विचारशून्यता उत्तरआधुनिक विमर्श का स्थाईभाव है, लेकिन लोक परंपराओं में टटोलेंगे तो वहाँ जो जीवन दर्शन के विविध चामत्कारिक खजाना मिलेगा, वह स्थाई ईमानदार भाववाद के बावजूद सामाजिक यथार्थ की गहरी पकड़ के साथ दृष्टिसम्पन्न जखीरा ही जखीरा मिलेगा। सूफी संतों फकीरों के कबीरत्व की महान रचनाधर्मिता की परंपरा ही आखिर दलित आदिवासी साहित्यधारा में प्रवाहित हुयी है, जिसके वाहक थे धसाल और ओम प्रकाश बाल्मीकि।
दुसाध जी से अब तक परहेज करने का बड़ा कारण यह है कि वे बामसेफ के कटक राष्ट्रीय सम्मेलन से करीब पाँच साल पहले खदेड़ दिये गये थे। राजनेताओं और सांसदों, खासकर संघ परिवार से उनके संवाद और इसी आलोक में डायवर्सिटी के सिद्धान्त को समरसता के समान्तर रखने पर वे लगातार हमें संघी नजर आते रहे हैं। नईदिल्ली में उनकी सक्रियता हमें हमेशा संदिग्ध लगती रही है।
चंद्रभान प्रसाद से हमारी घनघोर असहमति है और अब उतनी ही असहमति प्रिय दिलीप मंडल से हैं, जो बहुजनों के लिये ग्लोबीकरण जमाने को स्वर्णकाल कहते अघाते नहीं हैं। चंद्रभान जी, दुसाध जी के मित्र हैं तो दिलीप मंडल डायवर्सिटी मिशन के उपाध्यक्ष। हाल के वर्षों में दिलीप से वैचारिक दूरी भी इसी वजह से है कि वे भी राजनेताओं के साथ खड़े पाये जाते हैं और कॉरपोरेट राज के खिलाफ कुछ भी नहीं कहते लिखते।
खास बात यह है कि दुसाध ग्लोबीकरण को हमारी तरह ही स्वर्णकाल नहीं, महाविध्वँस कयामत ही मानते हैं और वे भी कॉरपोरेट राज के उतने ही विरोधी हैं जितने हम। इसी बिन्दु पर उनके साथ संवाद का यह सिलसिला बना।
लेकिन अफसोस नामदेव धसाल से संवाद का कोई सेतु नहीं बन सका, जब तक हम मुंबई जाने जाने लगे तब तक वे प्रखर हिंदुत्व की कट्टर शिवसेना के झंडेवरदार बन गये थे।
हम लोग न्यूनतम सहमति के प्रस्थानबिंदु से जनपक्षधरता का कोई संवाद चला नहीं पा रहे हैं, तो इसकी वजह हमें जान ही लेना चाहिए वरना आत्मध्वँस उत्सव के जोकर ही होंगे हम तमाम सर्कस के पात्र और सर्कस का सौंदर्यशास्त्र ही होगा सर्वस्वहारा सौंदर्यबोध।
वैसे हमने सही मायने में दुसाध जी से भी मिलने की कोई पहल नहीं की थी। मैं पेशे से पत्रकार भी हूँ तो सभी पक्षों के लोगों से पेशे के कारण भी हमारी बातचीत होती रहती है। दुसाध जी स्वयं हमारे यहाँ दिल्ली से चले आये और संवाद की शुरुआत भी उन्होंने ही की और अंततः हमारी दलीलों से सहमत हुये। इसका पूरा श्रेय उन्हीं को।
नामदेव धसाल से मिलकर बात करने की हम पहल नहीं कर सकें।
About The Author
पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकानासुरेशचंद्र शुक्ल साकिन लखनऊ,हाल मुकाम ओस्लो की जेहादे-ज़िन्दगानी की शमशीरें
August 25
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