यह है उत्तराखण्ड का सर्वाधिक आपदाग्रस्त क्षेत्र
16-17 जून 2013 को आई भीषण आपदा का सर्वाधिक विस्तार रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, टिहरी, चमोली, बागेश्वर तथा पिथौरागढ़ जनपदों का वह उत्तरी क्षेत्र था, जहाँ भूगर्भिक दरार मुख्य केन्द्रीय भ्रंश सक्रिय है। इस क्षेत्र में दक्षिण में भारतीय प्लेट का दबाव निरन्तर बना रहता है। इस प्लेट की शिराका सर्वाधिक दबाव उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, जोशीमठ, कपकोट, धारचूला आदि क्षेत्रों पर पड़ता है, जिससे अन्दर ही अन्दर चट्टानों के टूटने से कम्पन भी पैदा होता है और छोटी-छोटी दरारों से पृथ्वी के अन्दर पानी का भण्डारण भी होता रहता है। इससे समय-समय पर भूस्खलन आते रहते हैं। बर्फीले क्षेत्रों में नमी की अधिकता से वायु में दबाव बढ़ जाता है और एकाएक अधिक मात्रा में वर्षा जल सतह पर आ जाता है, जिसे धरातल अवशोषित नहीं कर पाता और धरातल के ऊपर से बहने लगता है। यह जल इसका प्राकृतिक मार्ग अनेक प्रकार के निर्माण कार्यों से अवरुद्ध रहने के कारण मानवीय बसासतों, खेत-खलियानों को नुकसान पहुँचाती, आगे बढ़ जाता है।
हमें यह भी ध्यान देना होगा कि उत्तराखण्ड की अधिकांश नदियाँ छोटे-बड़े दरारों/भ्रंशो के सहारे बहती हैं और मार्ग चौड़ा करते बेदिकाओं/खेती के लिए उपजाऊ भूमि तैयार करते आगे बढ़ जाती है। नदी के एक तरफ खेती की भूमि होती है तो दूसरी तरफ ठीक उसी के सामने नदी सीधा कटाव कर आगे बढ़ जाती है। उत्तराखण्ड के इन भ्रंशो/दरारों से गुजरने वाली नदी क्षेत्रों को सड़क तथा बाँध निर्माण के दौरान होने वाले विस्फोटकों ने और अधिक कमजोर कर दिया है। जल-विद्युत परियोजनाओं के स्थानों की सघनता का अध्ययन किया जाये तो देखा गया है कि भूगर्भिक दृष्टि से ये स्थान उपयुक्त नहीं हैं। बहुत से लोग संरचना की मजबूती की बात करते हैं, लेकिन धरातल ही मजबूत नहीं होगा तो संरचना का क्या करेंगे। पूर्व में मानवीय अधिवास या कोई भी निर्माण कार्य ठोस धरातल पर ही किये जाते थे, लेकिन आज प्रकृति के स्वभाव के विपरीत किये जा रहे हैं तो दुष्परिणाम सामने है।
उत्तराखण्ड के अलग-अलग क्षेत्रों में पहले भी आपदाएँ आती रही हैं। पहले मनुष्य ने हिमालयी क्षेत्र को पैसा कमाने की मशीन नहीं समझा था। तब वह अपनी आवश्यकता के लिए ठोस धरातल पर आवास, ढालू भूमि तथा बेदिकाओं (बग्गड़) पर खेती तथा आवास एवं खेती से दूर के क्षेत्रों में पशुचारण का कार्य करता था। मनुष्य को जितनी आवश्यकता होती थीं, वह उसी के चारों ओर के वातावरण से पूर्ति करने के साथ-साथ सहजने तथा बढ़ाने के लिए भी प्रयासरत रहता था। जंगलों में कुछ समय प्रवास के बाद ग्रामीण राजस्व के क्षेत्रों में लौट जाते थे। अगली बार जंगलो में प्रवास के लिए जाने तक पूर्ण रूप से उपयोग के लायक हो जाता था।
हिमालय नाजुक एंव संवेदनशील है, इसलिए योजनाएं सोच-समझकर बनानी होंगी। नदियो के किनारों पर बड़े-बड़े भवनों का निर्माण, सड़कों का चौड़ीकरण, विस्फोटकों का प्रयोग, नियमित एवं नियंत्रित पर्यटन व्यवस्थाएँ, भोग-विलास के लिये व्यवस्थायें, जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण एवं क्रियान्वयन के बारे में गहनता से विचार किया जाना चाहिए। योजनायें बनाते समय स्थानीय भूगोल तथा निवासियों का फायदा लेना चाहिए।
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