साल 2013 और प्रगतिशील हिंदी बुद्धीजीवियों की भूमिका
हमने देखा कि किस तरह से कबीर कला मंच के संस्कृतिकर्मियों को गीत गाने के जुर्म में प्रताड़ित किया जाता है, गिरफ्तार किया जाता है और इसके खिलाफ पूरे देश में संस्कृतिकर्मियों को सड़क पर उतरते भी देखा! जेएनयू के पूर्व छात्र और संस्कृतिकर्मी हेम मिश्रा की गिरफ्तारी का आलम भी देखा और व्यापक विरोध प्रदर्शन के बावजूद भी आज तक जेल में बंद हैं!
वही दूसरी तरफ, एक जमाने के प्रसिद्ध और प्रगतिशील साहित्यकारों, जिसके बदौलत आज वो चाँदी काट रहे हैं, का मानसिक दिवालियापन भी देखने को मिला। किस तरह से उन्होंने प्रगतिशील मूल्यों का कबाड़ा किया, इसके लिए एक घटना का उल्लेख जरूरी बनता है!
बिहार के चर्चित माफिया पप्पू यादव, जिसे पूर्णिया के माकपा विधायक अजित सरकार की हत्या के आरोप में निचली अदालत ने उम्र कैद की सजा सुनाई थी, उन्होंने अपनी जेल यात्रा के दौरान एक किताब लिखी 'द्रोहकाल का पथिक' और जब उन्हें उच्च न्यायालय ने बरी कर दिया तो उनकी पुस्तक का लोकार्पण दिल्ली में जिनके हाथों हुआ, हिन्दी साहित्य के लिए वो बहुत ही शर्मनाक वाकया था। लोकार्पण समारोह में शामिल हुए प्रगीतिशीलता का लबादा ओढ़े नामवर सिंह, उदय प्रकाश, ओम थानवी और सियासी दल कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह, लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान, सपा प्रमुख मुलायम सिंह! लोकार्पण समारोह की सबसे बड़ी विशेषता रही नामवर सिंह का भाषण, जिसमें उन्होंने कहा कि 'पप्पू यादव वो शेर हैं, जो चीटियों के डर से रास्ता नहीं बदलते।" अब जबकि माकपा ने उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी है, तो नामवर सिंह को जवाब तो देना होगा कि शेर अगर पप्पू यादव है तो चींटी कौन है?
दूसरा वाकया हमें तब देखने को मिला, जब यौन शोषण का आरोप लगने पर खुर्शीद अनवर ने आत्महत्या कर ली। तब उनके प्रगतिशील साथियों ने जिस तरह से अपना रंग बदला वो भी अवसरवादिता के लिए याद रखा जाएगा। जो कल तक तेजपाल प्रकरण हो या फिर जस्टिस गांगुली प्रकरण, गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाते थे, अपने साथी पर आरोप लगने के बाद इन छद्म प्रगतिशीलों ने यौन शोषण की परिभाषा ही बदल दी ! कहा जाने लगा कि "हर समय महिलाएं सही ही नहीं होतीं और पुरुष गलत ही नहीं होते" ! प्रसिद्ध प्रगतिशील बुद्धिजीवी नीलाभ ने तो यहां तक कह दिया कि "क्या उस लड़की को पटक कर जबरदस्ती शराब पिलाई गयी थी?" ऐसे सवाल खुद उनकी प्रगतिशील मूल्यों पर ही सवाल नहीं उठाते?
2013 में घटी इन दोनों घटनाओं ने ये साफ कर दिया कि हमारे तथाकथित स्थापित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के लिए प्रगतिशीलता अब सिर्फ कमाने-खाने का साधन बन चुकी है और सत्ता क़ी चाकरी करना ही इनका काम हो गया है लेकिन वहीं दूसरी तरफ 2013 में हिन्दी साहित्य ने कठिन-कठोर जिंदगी जीने और जल-जंगल-जमीन क़ी लड़ाई लड़ने वालों से प्रेरणा लेते हुए कलम भी चलाई है और जनता क़ी जिंदगी क़ी जद्दोजहद क़ी लड़ाई में खुद को स्थापित करने क़ी कोशिश भी जारी है। 2013 में त्रैमासिक पत्रिका के रूप में भोर का आना भी एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी, जिन्होंने अपना बैनर ही रखा है 'प्रतिरोध की संस्कृति के निर्माण के लिए'!
साल 2013 जहाँ हमें सिखाता है कि अब प्रगतिशील साहित्य सत्ता की चाकरी करनेवाले नामवर सिंह और अवसरवादी नीलाभ जैसे लोगों की मोहताज नहीं है, वहीं दूसरी तरफ हमें ये भी सिखाता है कि अगर चारों तरफ अंधेरा है तो कहीं उम्मीद की किरण भी है, कहीं प्रगतिशीलता के नाम पर ठगी है तो दूसरी तरफ जिंदगी की जद्दोजहद भी है !
'उठाने होंगे अभिव्यक्ति के खतरे' बोलते तो सब हैं, लेकिन ये खतरे उठाने के लिये कोई तैयार नहीं। वर्ष 2014 में हमें नये जोश और जज्बे के साथ जन पक्षधर लेखनी को और भी मजबूत करना होगा और छद्म प्रगतिशीलों को बेनकाब करने की चुनौती भी स्वीकर करनी होगी!
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