Wednesday, July 31, 2013

प्यारे तसलीम के शिकवे के जवाब में

प्यारे तसलीम के शिकवे के जवाब में


पलाश विश्वास


प्यारे तसलीम भाई,


कविता की अपनी सीमा होती है।जब मुझे नजरिया याद आया,जाहिर है कि नजरिया से जुड़ राजेश श्रीनेत,उनका परिवार,दीप और उनका परिवार,रामपुर बाग और प्रेम नगर सबकुछ सिलसिलेवार याद हैं। याद हैं अमर उजाला के हर साथी।प्रतिष्ठा  मेरे लिए कोई पैमाना संबंधों के लिहाज से रहा नहीं है।हम लोग वीरेन दा,मंगलेश डबराल और गिरदा को तभी से जानते हैं,जब वे लोग संघर्ष के दौर में थे।उनके संघर्ष और प्रतिबद्धता ने हमारे जीवन की दिशा तय की है।


मेरी सारी लड़ाई तो बहिस्कृत लोगों के लिए प्रतिष्ठान विरोधी लड़ाई रही है।उसीमें आखिरी सांस तक जीना है।मेरी एकमात्र महात्वाकांक्षा बस,यही है।संदर्भ और समय मिला तो सबके बारे में लिखूंगा। आवाज,प्रभातखबर,जागरण,अमरउजाला और जनसत्ता के सभी साथियों के बारे में।


सबसे पहले मैं अपने गांव के तमाम लोगों को सामने लाना चाहता हूं। एक एक चेहरे को। फिर हाशिये पर खड़े समूचे हिमालय,बहिस्कृत जनसमाज और भूगोल इतिहास की मुख्यधारा के वर्चस्व के विरुद्ध लड़ाई ही हमारा वजूद है।


इस वक्त वीरेनदा कि याद ग्लेशियर में पिघलते हिमालय और टूटती झीलों की तरह मेरी उंगलियों पर काबिज हो गयी तो यह स्मृति कविता का आकार लकर आ गयी। जिस पल तसलीम मेरे वजूद से टूटता हुआ नजर आउंगा,तभी न लिखूंगा।


प्यारे तुम सभी मेरे वजूद में हो अबी।भूलने बिसूरने का सवाल ही कहां है।


हमारे पुराने साथी सभी दिग्गज हैं, पर उनमें से कोई वीरेनदा या गिरदा नहीं हैं यकीनन।


मैं खुद एक अवसन्न दैनिक का रिटायर होता हुआ बूढ़ा सबएडीटर हूं।


मेरी कविताएं सिर्फ नेट पर मेरे पाठकों को उद्देशित है।किसी संपादक,प्रकाशक या आलोचक के लिए अब मैं नही लिखता। मेरा कोई रचनाकर्म नहीं है।अपने लोगों की लड़ाई में जब भी अभिव्यक्त होने का तकादा होता है तो वक्तव्य वक्त व मिजाज के मुताबिक विधाओं का व्याकरण तोड़कर  सामने आता है।


गिरदा कहते थे कि शिल्प क्या चीज है, कथ्य ही असल है। वीरेन दा की कविताएं भी बाकी लब्धप्रतिष्ठित इंटरनेशनल नेशनल कवियों की तरह मात्र कला कौशल नहीं है।


वीरेनदा ने सच कहा था कि मैं कविताएं लिख ही नहीं सकता। उसके लिए अनिवार्य कौलिन्य मेरा नहीं है। मैं न सरस्वती का वरद पुत्र हूं और न सारस्वत। मैं किसान का बेटा हूं आज भी जिंदगी भर पत्रकारिता करने के बावजूद आज भी मैं एक अछूत शरणार्थी के सिवाय कुछ भी नहीं हूं।


एक मामूली सब एडीटर किसी को याद करें या भूल जायें,इससे किसी को क्या फर्क पड़ता है, लेकिन तुम मेरे वजूद का हिस्सा हो,इसका सबूत तो यही है कि इसकी शंका होते ही दर्द का सागर उमड़ने लगता है। यही निजता तुम और हम सबको वीरेनदा के लिए बेचैन करती है। कवि हैं बहुत बड़े या छोटे, इससे वीरेनदा का कोई कद नहीं बनता। कद उनका बड़ा इसलिए कि उन्होंने तुम और हम जैसे नाकाबिलों को लड़ना सिखाया। हम कुछ बने हो या नहीं ,इससे कुछ आता जाता नहीं है। वीरेनदा की सस्ती हमारी जान है और जहान है।


मैं कम से कम कुछ चीजें जैसे अमेरिका से सावधान के चुनिंदे हिस्से, मेरठ दंगों के भूगोल और अर्थव्यवस्था पर मेरा लघु उपन्यास उनका मिशन, जख्मी हिमालय पर लघु उपन्यास नई टिहरी पुरानी टिहरी, खान दुर्घटनाओं की भुला दी गयीं रपटें, कुछ प्रिय जनों से बेहद अंतरंग साक्षात्कार, लालगढ़ डायरी, सिक्किम डायरी, मणिपुर डायरी जैसी चीजें और शायद कुछ कहानियां भी नेट पर हासिल स्वजनों के लिए अपने अंतःस्थल में रखना चाहता था। ऐसा करने लगूं तो समसामयिक मुद्दों पर हस्तक्षेप का सिलसिला तुरंत बंद हो जायेगा। अपने मोर्चे को तो हम खामोश नही कर सकते।


इसलिए अपने गांव और पहाड़ पर जो कुछ लिखना चाहता हूं,हर दिन,हर रात,उसे भी आकार नहीं दे पाता।


जनसत्ता में बाइस साल हो गये। एक विष्णु प्रभाकर जी से बातचीत के अलावा आपने दिल्ली जनसत्ता के पन्नों पर मुझे कभी मौजूद नहीं देखा होगा। उन्होंने मुझ अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता दी हुई है, जो अन्यत्र असंभव है,इसलिए जनसत्ता में सबएडीटर हुए पत्रकारिता से रिटायर होने के वक्त मुझे कोई अफसोस नहीं होगा। फिर सविता के दिल में जो ट्यूमर हुआ और डा.देवी शेट्टी ने जो उनका आपरेशन किया,उस वक्त हम सचमुच अनाथ थे,लेकिन तब पूरा जनसत्ता परिवार मेरे साथ था।आज के मीडिया परिदृश्य में उस आपरेशन के संभव होने और सफल होने की सपने में भी कल्पना नहीं की जा सकती।


दरअसल,मंगलेश दा को मैंने एक लेख भेजा था,जिसे प्रकाशन के लिए संपादित किया गया, लेकिन वह प्रकाशित नहीं हुआ। उसके बाद मैंने कभी जनसत्ता के लिए लिखा ही नहीं।


इसी तरह संजीव हमारे परम अंतरंग हुआ करते थे। पत्रकारिता की एकदम शुरुआत से वे मदन कश्यप, पंकज प्रसून, अनवर शमीम और हमारे घनघोर दस्ते के अगुआ थे। जब वे इस्को से सेवा निवृत्त हुए, तब मैंने लिटरेट वर्ल्ड के लिए उनका लंबा इंटरव्यू किया जो सायद अमरउजाला में भी आया। जब उपन्यास लेखन के लिए वो कोयला खानों को छान रहे थे,तब भी उनके संग थे हम। और तो और, श्रीनारायण समीर साक्षी हैं कि हमारे एकदम निजी अनुभव और प्रयोग का उन्होंने कहानी में कैसे इस्तेमाल किया।हमने कोई ऐतराज नहीं किया। यह बाहैसियत मित्र और अग्रज उनका हक था। राजेंद्र यादव जी की वजह से बीच में हंस में कुछ लिखता था। फोन पर जब भी बात होती वे अमूमन शिकायत करते कि बहुत लंबा लिखते हो। इस लंबाई पर एकमात्र गिरिराज किशोर और सुधीर विद्यार्थी को छोड़कर सबको एतराज रहा है। सिर्फ आनंद स्वरुप वर्मा और पंकज बिष्ट ऐसे दो लोग हैं, जिन्होंने मैंने जब भी जैसा भी लिखा,वैसा ही छाप दिया।अब मैं उनके लिए या अपने नैनीताल समाचार के लिए भी लिख नहीं पाता।


संजीव जब हंस के संपादक बने तो मैं किसी संगोष्ठी में भाग लेने दिल्ली पहुंचा तो हंस के दफ्तर में सिर्फ इसलिए फोन किया कि लगे हाथों संजीव जी का दर्शन कर लूं। वहां रांजेंद्र जी ने लंबी होने के कारण जो मेरा लिखा न छापा था,उसका अंबार लगा हुआ था।संजीव भाई को लगा मैं उसीके दरबार के लिए उनसे मिलना चाहता हूं और जब बाहैसियत हंस संपादक देशभर के उनके दौरे के मध्य उनसे फोन पर बात हुई तो बाकी है हालचाल पर च्रचा होने से पहले वे मुझे बताने लगे कि क्यों मेरे उन लेखों का छापा नहीं जा सकता।


अपनी क्षुद्रता पर इतनी कोफ्त हुई कि संजीव जी के वहां रहने तक क्या अब भी दुबारा हंस में कुछ भी नहीं भेजा।


रिटायर होने पर दो हजार का पेंशन भी नहीं मिलना है। दो तीन साल रह गये हैं। आजतक व्यवसायिक लेखन नहीं कियाष मेरे ब्लाग प्रतिरोद के ब्लाग हैं, विज्ञापनों के नहीं। पिता कुछ नहीं छोड़ गये। ससुराल से महारे घर में मैं क्या किसी भाई ने पिता के कारण कुछ भी नहीं लिया। हम दोनों शुहगर के मरीज हैं। सविता इंसूलिन पर हैं। दवा और डाक्टर पर आधी मजूरी खत्म हो जाती है। 2016 में कैसे जियेंगे कोई छिकाना नहीं है। नेट पर मौजूद रहने की औकात तो जाहिर है कि नहीं रहेगी। इसलिए कुछ ज्यादा दी तेज है मेरा इन दिनों का लेखन।  बूझने से पहले की शिखायें हैं।


अब प्यारे तसलीम, बताना कि किस हाल में याद करूं तुम सबको। बहुता को गुस्सा भी आयेगा कि मुझ जैसा नाकाम आदमी उनका नाम लेकर कहें कि कभी वे मेरे अंतरंग थे।जनसत्ता में आकर धीरेंद्र अस्थाना ने जिनसे पहचान आपातकाल में कोटा के लेखक सम्मेलन से लेकर चिपको आंदोलन और दिल्ली में उनके संघर्ष के दिनों तक थी, मुझे पहचानने से इंकार कर गये। यहीं नहीं मेरे साथ बैठे सूरज प्रकाश को डपटकर उठा ले गये। वे मुंबई सबरंग के सर्वशक्तिमान फीचर संपादक थे और मैं तब भी सबएडीटर है।हालांकि जब मैंने जनसत्ता कोलकाता पहुंचा तब उनका यह संदेश भी आया था कि

तुम किस पोस्ट पर हो जानने की ललक बनी रहेगी।


ऐसे में बताओ, तसलीम कि कम से कम मीडिया के कामयाब लोगों को अपना पुराना मित्र बताने की हमारी औकात कैसे हो सकती है?


बहरहाल, तुम्हारी शिकवा और उसके जवाब को मैं अंतःस्थल में दर्ज करता हूं हालांकि यह कविता तो है नहीं। ेक असमर्थ कैफियत भर है।


पलाशदा



पलाश दा,

आप जानते हैं मुझे...लेकिन याद नहीं होगा...हो भी क्यों.. न तो मैं कोई नामी शख्सियत हूं और न ही कोई स्टार जिसे हर कोई जाने माने.....खैर..ये मेल अपने बारे में बताने से ज्यादा आपकी याद आने के बहाने लिख रहा हूं।

संदर्भ वीरेन दा के जन्मदिन के मौके पर आपकी लिखी कविता पढ़ने से है...


इस कविता में आपने नजरिया का जिक्र किया है... िइसी नजरिया में तसलीम नाम का एक लड़का भी पत्रकार बनने की धुन लिए काम करता था...काम क्या करता था...बल्कि ये कहना सही होगा कि काम करने की कोशिश करता था... मैं वही लड़का हूं...जिसकी लिखी रिपोर्ट को वीरेन दा कभी कभी एडिट कर दिया करते थे।

आपको शायद याद न हो...नजरिया में ही आपने उत्तराखंड के लोगों पर एक सीरीज लिखी थी...लामबंद होते लोग....बरसों तक नजरिया के कई अंक मेरे पास रहे..सहेजे हुए उनमें आपके लिखे वो लेख भी थे। आपकी लिखी एक कहानी...शायद अमर उजाला के रविवारीय संस्करण में वीरेन दा ने ही छापी थी....गिद्ध, कुत्ते, चोर, हम और प्रधानमंत्री.....बरेली के मॉडल टाउन के सामने तब स्थित बूचड़खाने में खाने की तलाश में एकत्रित गिद्धों को कहानी के प्रसंग में िइस्तेमाल कितनी अच्छी तरह किया था आपने....


आपको नहीं याद होगा...जब बरेली में एक बार विश्वनाथ प्रताप सिंह आए थे चुनाव प्रचार के दौरान....राष्ट्रीय मोर्चा जन्म ले रहा था तब...बोफोर्स बोफोर्स का हल्ला था सब तरफ...आप अमर उजाला में काम करते थे उस समय....मैं एक ट्रेनी लग गया था तब तक वहीं....आपने किस तरह बिना कागज कलम पर नोट किए हुए ही वीपी सिंह का इंटरव्यू कैसे लिख मारा था...मैं दंग रह गया था। मुझे याद है जब आप नजरिया के रामपुर बाग वाले दफ्तर में लामबंद होते लोग का अगला हिस्सा लिख रहे होते थे तो मेज किस तरह हिलती थी। आप नजरिया के दफ्तर में कभी कभी अपने बेटे के साथ भी आते थे...बहुत छोटा था वो तब शायद चार साल का रहा होगा...ये बात 1990-91 के आसपास की है...


बहुत कुछ याद है आपके बारे में....

नजरिया से शुरू कर अमर उजाला बरेली और कानपुर होते हुए दिल्ली पहुंच गया हूं....टीवी में काम करता हूं....आजतक, स्टार न्यूज होता हुआ आजकल आईबीएन 7 में काम कर रहा हूं।


आशा करता हूं कि वीरेन दा के जन्म दिन के कार्यक्रम में आप दिल्ली में दिखेंगे...आप तो नहीं पहचानेंगे...लेकिन मैं पहचान जाऊंगा आपको....सिर्फ मिलने की ख्वाहिश है.



सादर

तसलीम



Monday, July 29, 2013

वीरेनदा के लिए

वीरेनदा के लिए


पलाश विश्वास

क्या वीरेनदा ऐसी भी नौटंकी क्या जो तुमने आज तक नहीं की

गये थे रायगढ़ कविता पढ़ने और तब से

लगातार आराम कर रहे हो

अस्वस्थता के बहाने

कब तक अस्वस्थ रहोगे वीरेन दा

यह देश पूरा अस्वस्थ है

तुम्हारी सक्रियता के बिना

यह देश स्वस्थ नहीं हो सकता,वीरेन दा


राजीव अब बड़ा फिल्मकार हो गया

फिल्म प्रभाग का मुख्य निर्देशक है इन दिनों

फोन किया कि वीरेनदा का जन्मदिन मनाने दिल्ली जाना होगा

बलि, सब लोग जुटेंगे दिल्ली में

भड़ास पर पगले यशवंत ने तो विज्ञापन भी टांग दिया

किमो तो फुटेला को भी लगे बहुत

देखो कैसे उठ खड़ा हुआ

और देखो कैसे टर्रा रहा है जगमोहन फुटेला,वीरेन दा!


आलसी तो तुम शुरु से हो

कंजूस रहे हो हमेशा लिखने में

अब अस्वस्थ हो गये तो क्या

लिखना छोड़ दोगे?

ऐसी भी मस्ती क्या?

मस्ती मस्ती में बीमार ही रहोगे

हद हो गयी वीरेनदा!


एक गिरदा थे

जिसे परवाह बहुत कम थी सेहत की

दूजे तुम हुए लापरवाह महान

सेहत की ऐसी तैसी कर दी

अब राजधानी में डेरा डाले हों,बरेली को भूल गये क्या वीरेन दा?


अभी तो जलप्रलय से रुबरु हुआ है यह देश

अभी तो ग्लेशियरों के पिघलने की खबर हुई है

अभी तो सुनायी पड़ रही घाटियों की चीखें

अभी तो डूब में शामिल तमाम गांव देने लगे आवाज


बंध नदियां रिहाई को छटफटा रही हैं अभी

लावारिश है हिमालय अभी

गिरदा भी नहीं रहा कि

लिखता खूब

दौड़ता पहाड़ों के आर पार

हिला देता दिल्ली लखनऊ देहरादून

अभी तुम्हारी कलम का जादू नहीं चला तो

फिर कब चलेगा वीरेनदा?

कुछ गिरदा के अधूरे काम का ख्याल भी करो वीरेनदा!


तुमने कोलकाता भेज दिया मुझे

कहा कि जब चाहोगे

अगली ट्रेन से लौट आना

सबने मना किया था

पर तुम बोले, भारत में तीनों नोबेल कोलकाता को ही मिले

नोबेल के लिए मुझे कोलकाता भेजकर

फिर तुम भूल गये वीरेनदा!


अभी तो हम ठीक से शुरु हुए ही नहीं

कि तुम्हारी कलम रुकने लगी है वीरेनदा!

ऐसे अन्यायी,बेफिक्र तो तुम कभी नहीं थे वीरेनदा!


चूतिया बनाने में जवाब नहीं है तुम्हारा वीरेनदा!

हमारी औकात जानते हो

याद है कि

नैनी झील किनारे गिरदा संग

खूब हुड़दंग बीच दारु में धुत तुमने कहा था,वीरेनदा!


पलाश,तू कविता लिख नहीं सकता!


तब से रोज कविता लिखने की प्रैक्टिस में लगा हूं वीरेनदा

और तुम हो कि अकादमी पाकर भी खामोश होने लगे हो वीरेनदा!


तुम जितने आलसी भी नहीं हैं मंगलेश डबराल

उनका लालटेन अभी सुलग रहा है

तुम्हारा अलाव जले तो सुलगते रहेंगे हम भी वीरेनदा!


नजरिया के दिन याद है वीरेन दा

कैसे हम लोग लड़ रहे थे इराक युद्ध अमेरिका के खिलाफ

तुम्हीं तो थे कि वह कैम्पेन भी कर डाला

और लिख मारा `अमेरिका से सावधान'

साम्राज्यवादविरोधी अभियान के पीछे भी तो तुम्हीं थे वीरेनदा!


अब जब लड़ाई हो गयी बहुत कठिन

पूरा देश हुआ वधस्थल

खुले बाजार में हम सब नंगे खड़े हैं आदमजाद!

तब यह अकस्मात तुम

खामोशी की तैयारी में क्यों लगे हो वीरेनदा?


आलोक धन्वा ने सही लिखा है!

दुनिया रोज बनती है, सही है

लेकिन इस दुनिया को बनाने की जरुरत भी है वीरेनदा!


दुनिया कोई यूं ही नही बन जाती वीरेनदा!

अपनी दुनियाको आकार देने की बहुत जरुरत है वीरेनदा!

तुम नहीं लिक्खोगे तो

क्या खाक बनती रहेगी दुनिया, वीरेनदा!



इलाहाबाद में खुसरोबाग का वह मकान याद है?

सुनील जी का वह घर

जहां रहते थे तुम भाभी के साथ?

तुर्की भी साथ था तब

मंगलेश दा थे तुम्हारे संग

थोड़ी ही दूरी पर थे नीलाभ भी

अपने पिता के संग!


इलाहाबाद का काफी हाउस याद है?

याद है इलाहाबाद विश्वविद्यालय?

तब पैदल ही इलाहाबाद की सड़कें नाप रहा था मैं

शेखर जोशी के घर डेरा डाले पड़ा था मैं

100,लूकरगंज में

प्रतुल बंटी और संजू कितने छोटे थे

क्या धूम मचाते रहे तुम वीरेनदा!

तब हम ख्वाबों के पीछे

बेतहाशा भाग रहे थे वीरेनदा!

अब देखो,हकीकत की जमीन पर

कैसे मजबूत खड़े हुए हम अब!

और तुम फिर ख्वाबों में कोन लगे वीरेनदा!


अमरउजाला में साथ थे हम

शायद फुटेला भी थे कुछ दिनों के लिए

तुम क्यों चूतिया बनाते हो लोगों को ?

हम तुम्हारी हर मस्ती का राज जानते हैं वीरेनदा!

कोई बीमारी नहीं है

जो तुम्हारी कविता को हरा दें, वीरेनदा!

अभी तो उस दिन तुर्की की खबर लेने बात हुई वीरेनदा!

तुम एकबार फिर दम लगाकर लिक्खो तो वीरेनदा!


तुमने भी तो कहा था कि धोनी की तरह

आखिरी गेंद तक खेलते जाना है!

खेल तो अभी शुरु ही हुआ है, वीरेनदा!


जगमोहन फुटेला से पूछकर देखो!

उससे भी मैंने यही कहा था वीरेन दा!

अब वह बंदा तो बिल्कुल चंगा है

असली सरदार से ज्यादा दमदार

भंगड़ा कर रहा है वह भी वीरेनदा!


यशवंत को देखो

अभी तो जेल से लौटा है

और रंगबाजी तो देखो उसकी!

जेलयात्रा से पहले

थोड़ा बहुत लिहाज करता था

अब किसी को नहीं बख्शता यशवंत!

मीडिया की हर खबर का नाम बन गया भड़ास,वीरेनदा!

अच्छों अच्छों की बोलती बंद है वीरेनदा!


हम भी तो नहीं रुके हैं

तुमने भले जवानी में बनायो हो चूतिया हमें

कि नोबेल की तलाश में चला आया कोलकाता!

अपने स्वजनों को मरते खपते देखा तो

मालूम हो गयी औकात हमारी!


यकीन करो कि हमारी तबीयत भी कोई ठीक

नहीं रहती आजकल

कल दफ्तर में ही उलट गये थे

पर सविता को भनक नहीं लगने दी

संभलते ही तु्म्हारे ही मोरचे पर जमा हूं,वीरेनदा!


तुम्हारी जैसी या मंगलेश जैसी

प्रतिभा हमने नहीं पायी

सिर्फ पिता के अधूरे मिशन के कार्यभार से

तिलांजलि दे दी सारी महत्वाकांक्षाएं

और तुरंत नकद भुगतान में लगा हूं,वीरेनदा!


दो तीन साल रह गये

फिर रिटायर होना है

सर पर छत नहीं है

हम दोनों डायाबेटिक

बेटा अभी सड़कों पर

लेकिन तुमहारी तोपें हमारे मोर्चे पर खामोश नहीं होंगी वीरेनदा!

तुमने चेले बनाये हैं विचित्र सारे के सारे,वीरेनदा!

उनमें कोई खामोशी के लिए बना नहीं है वीरेनदा!

तुम्हें हम खामोशी की इजाजत कैसे दे दें वीरेनदा!



बहुत हुआ नाटक वीरेन दा!

सब जमा होंगे दिल्ली में

सबका दर्शन करलो मस्ती से!

फिर जम जाओ पुराने अखाड़े में एकबार फिर

हम सारे लोग मोर्चाबंद हैं एकदम!

तुम फिर खड़े तो हो जाओ एकबार फिर वीरेनदा!


फिर आजादी की लड़ाई लड़ी जानी है

गिरदा भाग निकला वक्त से पहले,वीरेनदा!


और कविता के मोर्चे पर तुम्हारी यह खामोशी

बहुत बेमजा कर रहा है मिजाज वीरेनदा!


तुम ऐसे नहीं मानोगे

तो याद है कि कैसे अमरउजाला में

मैंने जबरन तुमसे अपनी कहानी छपवा ली थी!


अब बरेली पर धावा बोल तो नहीं सकता

घर गये पांच साल हो गये

पर तुमने कहा था कि

पलाश,तू कविता लिख ही नहीं सकता!


तुम्हारी ऐसी की तैसी वीरेनदा!

अब से एक से बढ़कर एक खराब कविता लिक्खूंगा वीरेनदा!

भद तुम्हारी ही पिटनी है

इसलिए बेहतर है,वीरेनदा!

जितना जल्दी हो एकदम ठीक हो जाओ,वीरेनदा!


और मोर्चा संभालो अपना,वीरेनदा!

हम सभी तुम्हारे मोर्चे पर मुश्तैद हैं वीरेनदा!

और तुम हमसे दगा नहीं कर सकते वीरेनदा!


वीरेन डंगवाल

वीरेन डंगवाल


*

जन्म: 05 अगस्त 1947


जन्म स्थान

कीर्ति नगर, टेहरी गढ़वाल,उत्तराखंड, भारत

कुछ प्रमुख

कृतियाँ

इसी दुनिया में (1990), दुष्चक्र में सृष्टा (2002)

विविध

रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार(1992), श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1994), शमशेर सम्मान(2002), साहित्य अकादमी पुरस्कार(2004) सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से से विभूषित।

जीवनी

वीरेन डंगवाल / परिचय

अभी इस पन्ने के लिये छोटा पता नहीं बना है। यदि आप इस पन्ने के लिये ऐसा पता चाहते हैं तो kavitakosh AT gmail DOT com पर सम्पर्क करें।


Viren Dangwal


<sort order="asc" class="ul">

</sort> <sort order="asc" class="ul">

वीरेन डंगवाल

http://hi.wikipedia.org/s/1cdb

मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से

वीरेन डंगवाल

वीरेन डंगवाल


जन्म:

५ अगस्त १९४७

कीर्ति नगर, टेहरी गढ़वाल, उत्तराखंड,भारत

कार्यक्षेत्र:

कवि, लेखक

राष्ट्रीयता:

भारतीय

भाषा:

हिन्दी

काल:

आधुनिक काल

विधा:

गद्य और पद्य

विषय:

पद्य

साहित्यिक

आन्दोलन:

नई कविता,

प्रमुख कृति(याँ):

दुष्चक्र में सृष्टा

साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत


वीरेन डंगवाल (५ अगस्त १९४७)साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी कवि हैं। उनका जन्म कीर्तिनगर, टेहरी गढ़वाल, उत्तराखंड में हुआ। उनकी माँ एक मिलनसार धर्मपरायण गृहणी थीं और पिता स्वर्गीय रघुनन्दन प्रसाद डंगवाल प्रदेश सरकार में कमिश्नरी के प्रथम श्रेणी अधिकारी। उनकी रूचि कविताओं कहानियों दोनों में रही है। उन्होंने मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली, नैनीताल और अन्त में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की।[1]


बाईस साल की उम्र में उन्होनें पहली रचना, एक कविता लिखी और फिर देश की तमाम स्तरीय साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में लगातार छपते रहे। उन्होनें १९७०- ७५ के बीच ही हिन्दी जगत में खासी शोहरत हासिल कर ली थी। विश्व-कविता से उन्होंने पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख्त, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊश रोजेविच और नाज़िम हिकमत के अपनी विशिष्ट शैली में कुछ दुर्लभ अनुवाद भी किए हैं। उनकी ख़ुद की कविताएँ बाँग्ला, मराठी, पंजाबी, अंग्रेज़ी, मलयालम और उड़िया में छपी है। वीरेन डंगवाल का पहला कविता संग्रह ४३ वर्ष की उम्र में आया। 'इसी दुनिया में' नामक इस संकलन को रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (१९९२) तथा श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (१९९३) से नवाज़ा गया। दूसरा संकलन 'दुष्चक्र में सृष्टा' २००२ में आया और इसी वर्ष उन्हें 'शमशेर सम्मान' भी दिया गया। दूसरे ही संकलन के लिए उन्हें २००४ का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी दिया गया। समकालीन कविता के पाठकों को वीरेन डंगवाल की कविताओं का बेसब्री से इन्तज़ार रहता है। वे हिन्दी कविता की नई पीढ़ी के सबसे चहेते और आदर्श कवि हैं। उनमें नागार्जुन और त्रिलोचन का-सा विरल लोकतत्व, निराला का सजग फक्कड़पन और मुक्तिबोध की बेचैनी और बौद्धिकता एक साथ मौजूद है। पेशे से हिन्दी के प्रोफ़ेसर। शौक से बेइंतहा कामयाब पत्रकार। आत्मा से कवि। बुनियादी तौर पर एक अच्छे- सच्चे इंसान। उम्र ६० को छू चुकी। पत्नी रीता भी शिक्षक। दोनों बरेली में रहते हैं। वीरेन १९७१ से बरेली कॉलेज में हिन्दी पढाते हैं। उन्हें २००४ में उनके कविता संग्रह दुष्चक्र में सृष्टा के लिए साहित्य अकादमी द्वारा भी पुरस्कृत किया गया है।[2]

संदर्भ[संपादित करें]

  1. "वीरेन डंगवाल की छह कविताएँ" (एचटीएमएल). रचनाकार. अभिगमन तिथि: २००९.

  2. "वीरेनदा के बारे में" (एचटीएमएल). वीरेन डंगवाल. अभिगमन तिथि: २००९.

श्रेणी: