Friday, July 29, 2016

सेगुन का पौधा बनकर जिंदा हैं महास्वेता दीदी,आदिवासियों ने उन्हें जिंदा रखा है पलाश विश्वास

सेगुन का पौधा बनकर जिंदा हैं महास्वेता दीदी,आदिवासियों ने उन्हें जिंदा रखा है

पलाश विश्वास

चुनी कोटाल,रोहित वेमुला से पहले जिस लोधा शबर छात्रा की संस्थागत हत्या हुई



महशवेता दी की आदिवासी जीवन पर केंद्रित पत्रिका बर्तिका


कोलकाता के केवड़ातल्ला श्मसान घाट पर  जिस वक्त महाश्वेतादी की राजकीय अंत्येष्टि हो रही थी,उस वक्त आदिवासी गांव कृदा में चक्का नदी के किनारे श्मशान घाट पर लोधा शबर आदिवासियों ने दीदी की याद में सेगुन का पौधा रोप दिया ताकि आंधी तूफां में महाश्वेतादी उऩकी हिफाजत सेगुन वृक्ष बनकर कर सकें।


माफ कीजिये,आज का रोजनामचा भी महाश्वेता दी को समर्पित है।अंतिम दर्शन या अंति प्रणाम नहीं कर सका तो क्या हुआ,1978-79 से लगातार जिस रचनाधर्मिता का सबक वे लगातार मुझे सिखाती रही हैं और 1981 से उनके साथ जो संवाद का सिलसिला रहा है,उसकी चर्चा करके अपनी तरह से उन्हें मुझे श्रद्धांजलि देने की इजाजत जरुर दें।


80-81 में जब दैनिक आवाज चार पेज से छह पेज का सफर तय कर रहा था और झारखंडआंदोलन निर्णायक दौर में था,तब दैनिक आवाज के रविवारीय परिशिष्ट में महाश्वेता दी के रचनासंसार पर केंद्रित मेरे स्तंभ पर लोग यही शिकायत करते थे कि महाश्वेता से गंधा दिया है अखबार।


लगता है कि करीब पैंतीस साल बाद महाश्वेता दी की भारतीय पहचान इतनी तो बन गयी होगी कि अब ऐसा कहने की कोई गुंजाइश नहीं है।


रचनाधर्मिता के लिए सामाजिक यथार्थ की बात तो बहुत होती रही है और नवारुण भट्टाचार्य के लिए रचनाधर्मिता बदलाव के लिए गुरिला युद्ध है और उनके लिखे हर शब्द के पीछे बाकायदा मुकम्मल गुरिल्ला युद्ध की तैयारी है।


मुझे शायद ही कोई रचनाकार मानें लेकिन भारत के तमाम दिग्गज साहित्यकारों से हमारे कमोबेश संबंध और संवाद रहे हैं तो साहित्य,भाषा विज्ञान और सौंदर्यशास्त्र का विद्यार्थी भी रहा हूं।शास्त्रीयसाहित्यपढ़ने में ही छात्र जीवन रीत गया और तथाकथित कामयाबी के लिए जरुरी तैयारी मैंने कभी नहीं की।इस लिहाज से मैंने महाश्वेता देवी के अलावा दुनियाभर मे किसी और रचनाकार को नहीं देखा जिनकी प्राथमिकता रचनाधर्मिता के बदले सामाजिक सक्रियता हो।


लोधा शबर जनजाति से महाश्वेता दी के संबंधों पर खास चर्चा का मकसद यही है कि यह चर्चा जरुर होनी चाहिए कि रचनाकार को किस हद तक सामाजिक सक्रियता को तरजीह देना चाहिए।होता तो यही है कि रचनाधर्मिता के बहाने सामाजिक निष्क्रियता ही अमूमन रचनाकार का चरित्र बन जाता है और उसके कालजयी शास्त्रीयरचनाकर्म का मनुष्यता,सभ्यता और प्रकृति से कोई संबंध होता नहीं है।इसी लिए आज मीडिया और तमाम माध्यमों और विधाओं में समाज अनुपस्थित है तो सामाजिक यथारत से रचनाकारों का लेना देना नही हैं और न ही माध्यमों और विधाओं में हकीकत का कोई आईना है।रचनाकार की सामाजिक सक्रियता अघोषित पर निषिद्ध है हालांकि विचारदारा की जुगाली पर कोई निषेध नहीं है।सारा विभ्रम इसीको लेकर है।


कल जंगल महल,आदिवासी भूगोल और महाअरण्य मां की राजकीय अंत्येष्टि संपन्न हो गयी ह।जल जंगल जमीन से बेदखली के शिकंजे में फंसे आदिवासियों पर सैन्य राष्ट्र के लगातार हमलों के बीच उन्हें गोलियों से सलामी दी गयी,जिन गोलियों से छलनी चलनी हुआ जाता है समूचा आदिवासी भूगोल।आदिवासी की तरह जीनेवाली भारत की महान लेखिका का यह राजकीय सम्मान भव्य जरुर है।


जनसत्ता में हमारे सहयोगी रहे चित्रकार सुमित गुहा ने सिलसिलेवार तस्वीरें फेसबुक पर पोस्ट की है तो खबरों में वे दृश्य लाइव हैं।महानगरीय भद्रलोक दुनिया की चकाचौंध के दायरे से बाहर रोज रोज मरने वाले मारे जाने वाले आदिवासी भूगोल का कोई चेहरा इस राजकीय आयोजन में नहीं है।वे अपने आदिवासी परंपराओं के मताबिक अपनी मां का अंतिम संस्कार करने जा रहे हैं।


इसकी पहल शबर जनजाति के आदिवासी जंगल महल में कर रहे हैं।जिस जंगल महल में आदिवासी उत्पीड़न के खिलाफ वाम शासन के अंत के लिए परिवर्तनपंथी आंदोलन का चेहरा बनकर ममता बनर्जी के जरिये सत्ता और सत्ता वर्ग के साथ नत्थी हो गयी हमारे समय की सर्वश्रेष्ठ रचना धर्मी सामाजिक कार्यकर्ता।


गौरतलब है कि झारखंड और बंगाल में शबर जनजाति की आबादी है और वे लोग भारत में सबसे प्राचीन गुफा चित्र और हां,पुस्तकचित्र बनाने वाले लोग हैं।1757 में पलाशी की लड़ाई में बंगाल के नवाब सिराजदौल्ला की निर्णायक हार के बाद झारखंड,बंगाल और ओड़ीशा के जंगल महल में किसान आदिवासी विद्रोह का सिलसिला चुआड़ विद्रोह के साथ शुरु हुआ,जो भारत की आजादी के बादअब भी किसी न किसी रुप में जारी है।


महाश्वेतादेवी के रचना विषय का मुख्य संसाधन और स्रोत है।


उसी चुआड़ विद्रोह के असम और पूर्वोत्तर से लेकर बंगाल बिहार ओड़ीशा,महाराष्ट्र और आंध्र,फिर समूचे मध्य भारत और राजस्थान गुजरात तक भारी पैमाने पर अछूत ,शूद्र और आदिवासी राजा रजवाड़े राज कर रहे थे,जिन्होंने विदेशी हुकूमत के खिलाफ लगातार संघर्ष जारी रखा।चुआड़ विद्रोह के दौरान ही इन तमाम आदिवासियों के अपराधी तमगा दे दिया गया।पंचकोट और तमाम गढ़ों के राजवंशजों को चोर चुहाड़ साबित करके उनके विद्रोह को जनविद्रोह और स्वतंत्रतता संग्राम न बनने देने के मकसद से ईस्टइंडिया कंपनी के किलाफ पहले आदिवासी विद्रोह को चुआड़ विद्रोह बताया गया।यही नहीं,बागी जनजातियों को क्रिमिनल मार्क कर दिया गया और आजादी के बाद भी ये जनजाति नोटिफाइड अपराधी बतौर चिन्हित हैं।लोधा और शबर जनजातियां इसीलिए सराकीर रिकार्ड में अपराधी हैं आज भी।


चुनी कोटाल का किस्सा फिर चर्चा में है रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के बाद।चुनी कोटल लोधा शबर जनजाति की छात्रा थी,जिनकी प्रगतिशील वाम जमाने में पहली संस्थागत हत्या हुई और तब रोहित वेमुला की हत्या के विरुद्ध जैसा आंदोलन हो रहा है,वैसा कोई आंदोलन हुआ नहीं है।चुनी कोटाल की लड़ाई अकेली महाश्वेता दी लड़ती रही हैं।


महाश्वेता दी ने इन्ही शबर जनजाति के लोगं के लिए पश्चिम बंग लोधा शबर कल्याण समिति का गठन किया था और आदिवासियों ने उन्हें ही इस समिति का कार्यकारी अध्यक्ष चुना था।समिति का मख्यालय पुरुलिया के राजनौआगढ़ में है।


गौरतलब है कि 1083 मेंपुरुलिया जिले के 164 शबर गांवों और टोलों को एकजुट करने के मकसद से चुआड़विद्रोह के सिलिसिले में अग्रेजी हुकूमत के लिए सरदर्द बने पंचकोट राजवंस के उत्तराधिकारी गोपीबल्लभ सिंहदेव पुरुलिया एक नंबर ब्लाक के मालडी गांव में शबर उन्नयन परिषद चला रहे थे और उन्होंने ही शबर मेला का आयोजन शुरु किया।यह इसलिए खास बात है कि आदिवासियों के लिए निरंतर सक्रियता का महाश्वेता दी का मक्तांचल यही शबर भूमि और वहां आयोजित होने वाला शबर मेला है।राजनौआगढ़ में बने लोधा शबर कल्याण समिति के मुख्यालयका नाम अब महाश्वेता भवन है,जो महाश्वेता दी की सामाजिक सक्रियता का मुख्यालय भी रहा है,ऐसा कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वहीं से वे हर शबर लोधा गांव जाकर उनके घर गर के दुःख तकलीफों,रोजमर्रे की समस्याओं की सिलसिलेवार जानकारी हासिल करती रही है।

1981 से लगातार मेरे पास दीदी की पत्रिका बर्तिका के अंक आते रहे हैं।उस पत्रिका के लिए लिखना एकदम हम जैसे खालिस लेखकों के लिए असंबव ता क्योंकि वह पत्रिका आदिवासी भूगोल की हर समस्या को वहां की जमीन पर खड़े होकर जिलेवार,गांव तहसील मुताबिक सर्वे के साथ संबोधित करती रही है।जैसे बर्तिका के लिए लिखना बिना आदिवासी रोजमर्रे कीजिंदगी से जुड़े असंभव था, मसमझ लीजिये कि महास्वेता देवी की तगह लिखना आम लेखकों के लिए उतना ही असंभव है।


बेमौत मारी गयी चुनी कोटाल की लड़ाई महाश्वेता दी लगातार लड़ती रही।इसीतरह आदिवासी भूगोल में उनके हक हकूक की कानूनी लड़ाई में भी वे लगातार सक्रिय रही हैं।मसलन डकैती के फर्जी मामले में केंदा थाने में लोधा शबर युवक बुधन की पुलुस ने पीट पीटकर हत्या कर दी तो इसके खिलाफ दीदी की लड़ाई कानूनी थी तो लोधा शबर आदिवासियों के लिए सरकारी अनुदान में बंदरबांट के खिलाफ उन्होंने हाईकोर्ट का दरवाजा भी खटखटाकर देख लिया।


शबर आदवासियों के साथ दीदी के रिश्ते को समझने के लिए शायद यह काफी होगा कि शबर मेले के संस्थापरक आयोजक वयोवृद्ध गोपीबल्लभ सिंह देव फिलहाल बीमार चल रहे हैं और उन्हें सदमा न लगे ,इसलिए उन्हें महाश्वेतादी के महाप्रयाण की खबर दी नहीं गयी है।लगभग तीस साल से लगातार दीदी वहां आती जाती रही है जैसे हम लोग घर फिर फिर लौटते हैं।मैगसेसे पुरस्कार में मिले दस लाख रुपये महाश्वेता दी ने इसी लोधा शबर कल्याण परिषद को दे दिये और हर साल इसी शबर मेले के मार्पत बाकी देश से राशन पानी,कपड़े लत्ते,दवा,नकदी वे आदिवासियों तक पहुंचाती रही हैं।

दीदी की अंत्येष्टि पर सुमित जनसत्ता में हमारे सहकर्मी चित्रकार समित गुहा ने अपने फेसबुक वाल पर जो तस्वीरें पोस्ट की हैंः


--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

महत्वपूर्ण खबरें और आलेख मोदी-केजरीवाल जंग : देश की राजनीति गटर बनती जा रही है

हस्तक्षेप के संचालन में छोटी राशि से सहयोग दें



LATEST

mahashweta devi महाश्वेता दी
शख्सियत

जनांदोलनों की मां और हजार चौरासवीं की मां महाश्वेता दी हमारे लिए जनप्रतिबद्धता का मोर्चा छोड़ गयीं

जंगल
Read More
रिहाई मंच द्वारा 'सामाजिक न्याय की चुनावी राजनीति और सांप्रदायिक गठजोड़' विषय पर यूपी प्रेस क्लब, लखनऊ में आयोजित सेमिनार
उत्तर प्रदेश

सामाजिक न्याय की लड़ाई जातिवादी दिशा में भटक गई है- अनिल चमड़िया

बेटियों के अपमान पर ही टिकी
Read More
A video purportedly recorded by the attackers and shared online shows four Dalit men chained to a car and being beaten with iron rods. (Screenshot from video)
धर्म - मज़हब

छोड़ दो ऐसे धर्म और काम को जिसमें सम्मान नहीं मिलता

हाल ही में मा. नरेंद्र मोदीजी के
Read More
केजरीवाल कार्टून,
देश

जनता आटो हड़ताल से परेशान और सीएम को पीएम से जान का खतरा !

जनता आटो हड़ताल से
Read More
Himanshu Kumar हिमांशु कुमार, प्रसिद्ध गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनकी फेसबुक टाइमलाइन से साभार
धर्म - मज़हब

इतिहास-वेद किसानों और दस्तकारों की आर्थिक हालत के बारे में नहीं बताते!

अपनी हाई स्कूल में पढ़ने वाली
Read More
Arvind Kejriwal and Narendra Modi
आजकल

मोदी-केजरीवाल जंग : देश की राजनीति गटर बनती जा रही है

रामशरण जोशी देश की राजनीति गटर बनती
Read More
Thodur Madabusi Krishna थोडुर मादाबुसी कृष्‍णा
आजकल

ब्राह्मण जब ब्राह्मणवाद को चुनौती देगा तब बात बनेगी थोडुर मादाबुसी कृष्‍णा ने यही किया

अभिषेक श्रीवास्तव बेजवाड़ा
Read More
Taslima Nasreen
ধারণা

যতদিন নাস্তিক মরছিল, ততদিন কারও টনক নড়েনি

Taslima Nasreen যতদিন নাস্তিক মরছিল, ততদিন কারও টনক নড়েনি। বলেছিলাম, নাস্তিক
Read More
Barack Obama
ENGLISH

HILLARY ONLY CANDIDATE WHO BELIEVES IN AMERICA'S FUTURE: BARACK OBAMA

HILLARY ONLY CANDIDATE WHO BELIEVES IN AMERICA'S FUTURE:
Read More
Breaking News-2
ENGLISH

SUSPENDED DALIT IAS OFFICER WRITES LETTER TO MADHYA PRADESH CM, SEEKS MERCY KILLING

SUSPENDED DALIT IAS OFFICER WRITES
Read More
Donation
ADVERTISEMENT

SUPPORT INDEPENDENT JOURNALISM

 
Read More
Salman Khan with Modi!
बहस

इस देश में सारा खेल क़िस्मत का है, बस क़िस्मत सलमान खान जैसी हो

राजीव मित्तल इस देश
Read More
जावेद अनीस, लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
बहस

राजनीति की सफाई पर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती

जावेद अनीस हमारे चुनावी व्यवस्था में बड़े सुधारों की जरूरत
Read More
Let Me Speak Human!
COLUMN

IF HILLARY CLINTON WINS DEFEATING TRUMP, WOULD THE RESULT BE DIFFERENT?

Palash Biswas Welcome! Hillary Clinton officially became
Read More
CPI(M)
मध्य प्रदेश/ छत्तीसगढ़

सीतू के हत्यारों और संतोष यादव के हमलावरों पर कार्रवाई करो

रायपुर। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने बीजापुर जिले
Read More
Rihai Manch
उत्तर प्रदेश

सामाजिक न्याय की चुनावी राजनीति और सांप्रदायिक गठजोड़

रिहाई मंच 'सामाजिक न्याय की चुनावी राजनीति और सांप्रदायिक गठजोड़'
Read More
All India radio आकाशवाणी
खोज खबर

यह आकाशवाणी की लोक प्रसारक सेवा है

अरुण तिवारी नई दिल्ली। बधाई दीजिए कि बीती 23 जुलाई, 2016
Read More
Sabita Biswas सबिता बिश्वास, लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
मुद्दा

आपदाओं का कोई बॉर्डर नहीं होता

हिंसा और घृणा की भाषा ही अब मातृभाषा सबिता बिश्वास आपदाओं का
Read More
नीतीश मिश्र युवा पत्रकार हैं।
आपकी बात

बहनजी एक संकल्प लीजिए कि अब कोई भी बेटी या बहन को समाज इतना मजबूर न करे कि उसे ….

 कश्मीर पर स्टेटस अपडेट करने पर
Read More
Arvind Kejriwal and Narendra Modi
देश

मुझे तो दिल्ली में नहीं बाँध पाए। हाँ, मोदी जी ज़रूर दिल्ली में बंध गए-केजरीवाल

नई दिल्ली। दिल्ली
Read More
letter to editor, आपकी बात, AApki baat, letter to editor
आपकी बात

गोरक्षा का केसरिया पलटन का आतंक

क्या केसरिया पलटन गाय के नाम पर फैलायी जा रही संगठित हिंसा
Read More

पोस्ट्स नेविगेशन

1 2 3  520 Older


--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

विरासत से बेदखली का कितना ख्याल है हमें? हिंदुत्व का पुनरूत्थान का मतलब नवजागरण की विरासत से बेदखली है। इसी तरह टुकड़ा टुकड़ा मरते जाना नियति है क्योंकि फिजां कयामत है! जनम से जाति धर्म नस्ल कुछ भी हो,जनप्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता हुए तो आप अछूत और बहिस्कृत हैं! पलाश विश्वास

विरासत से बेदखली का कितना ख्याल है हमें?

हिंदुत्व का पुनरूत्थान का मतलब नवजागरण की विरासत से बेदखली है।

इसी तरह टुकड़ा टुकड़ा मरते जाना नियति है क्योंकि फिजां कयामत है!

जनम से जाति धर्म नस्ल कुछ भी हो,जनप्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता हुए तो आप अछूत और बहिस्कृत हैं!

पलाश विश्वास

विरासत से बेदखली का कितना ख्याल है हमें?

इसी तरह टुकड़ा टुकड़ा मरते जाना नियति है क्योंकि फिजां कयामत है।

जनम से जाति धर्म नस्ल कुछ भी हो,जनप्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता हुए तो आप अछूत और बहिस्कृत हैं।


महाश्वेतादी की अंत्येष्टि राजकीय हो रही है।हम उनके अंतिम दरशन भी नहीं कर सकते क्योंकि वे पूरी तरह सत्तावर्ग के कब्जे में हैं।मरने के बाद भी उनकी विरासत बेदखल हो गयी है।जैसा कि हमेशा होता रहा है।


कवि जयदेव,लालन फकीर से लेकर रवींद्रनाथ,विवेकानंद और नेताजी की विरासत ऐसे ही बेदखल होती रही है।गांधी की विचारधारा भी अब सत्ताविमर्श है जैसे अंबेडकरी आंदोलन अब सत्ता संघर्ष है।


अपने मशहूर चाचा इस महादश के सर्वश्रेष्ठ फिल्मकार  ऋत्विक घटक की त्रासदी कुल मिलाकर महाश्वेतादेवी की त्रासदी है।


तमाम खबरों में,तमाम चर्चाओं में महाश्वेतादी को समाजिक कार्यकर्ता बताया जा रहा है।सही भी है।वे यह देख  पाती तो उन्हें कोई अफसोस भी नहीं होता।


प्रतिष्ठा और पुरस्कार के लिहाज से साहित्य में उनका कद किसी से कम नहीं है।उनका यह परिचय उनकी निरंतर सामाजिक सक्रियता के आगे बौना है।


हमने उन्हीं से सामाजिक कार्यकर्ता का विकल्प अपनाने का सबक सीखा है और मुझे भी सामाजिक कार्यकर्ता ही अंतिम तौर पर मान लिया जाये,तो यह सही ही होगा।


महाश्वेतादी तो कालजयी हैं लेकिन बिना कालजयी बने सामाजिक कार्यकर्ता होने पर लोग मुहर लगा दें,तो हम जैसों के लिए यह बहुत बड़ी बात है।


महाश्वेतादी के लिखने के मेज पर हमेशा लोधा शबर खेड़िया मुंडा संथाल आदिवासियों के रोजमर्रे की जिंदगी की समस्याओं को लेकर कागजात का ढेर लगा रहता था।


साहित्य लिखने से बढ़कर,इतिहास दर्ज करने से बढ़कर उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता यही थी कि समसामयिक इतिहास में रियल टाइम में हस्तक्षेप कर लिया जाये।


उन्होंने तमाम राष्ट्रनेताओं, राजनेताओं, मंत्रियों, राजनीतिक दलों और सरकारों,सत्ता संस्थानों को जितने ज्ञापन और पत्र उन्हीं रोजमर्रे की समस्याओं से तुरंत निपटाने के लिए लिखा है,वह उनके लिखे साहित्य और इतिहास से बेहद बड़ा कृतित्व है।


मेरे पिता रोजाना इसी तरह शरणार्थी समस्या पर विभिन्न राज्य सरकारों,केंद्रीय मंत्रियों, प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और राज्यसरकारों को सैकड़ों पत्र लिखा करते थे और वे लगभग अनपढ़ थे।


कक्षा दो से मेरी यह अनवरत रचनाधर्मिता रही है।


तब कंप्यूटर नहीं था।ळिखने के बाद नौ मील दूर रुद्रपुर जाकर लिखे को टाइप करवाकर प्रितिलिपियां निकालकर रजिस्ट्री एकनालेजमेंट के साथ भेजान मेरा रोजनामचा रहा है बचपन का।


पिता दौड़ लगाते रहते थे देशभर में और राजनीति की परवाह किये बिना शरणार्थी समस्या पर वे किसी के साथ भी राजभवन से लेकर राष्ट्रपति भवन और प्रधामनमंत्री कार्यालय तक दौड़ लगाते रहते थे।कहने को वे शरणार्थी संगठन के अध्यक्ष थे,लेकिन वास्तव में कोई संगठन था नहीं।


महाश्वेता देवी की तस्वीर में कहीं न कहीं मेरे पिता की तस्वीर चस्पां है।वे भी तकनीक का इस्तेमाल नहीं करती थीं।


वे भी हाथ से लिखकर जनसमस्याओं को लेकर सत्ता से टकराती थीं और उनका कोई संगठन भी वैसा नहीं था।न वे कोई एनजीओ चलाती थीं।


ममता बनर्जी के बंगाल की मुख्यमंत्री बनने से पहले सत्ता का कोई समर्थन उन्हें कभी मिला नहीं था।वे विशुध सामाजिक कार्यकर्ता थीं,साहित्यरकार जो हैं ,सो हैं।


बीड़ी पीने और खैनी खाने तक उनकी प्रतिबद्धता सीमाबद्ध नहीं रही है।उनकी कोई चीज निजी रह नहीं गयी थी।कंघी से लेकर साबुन तेल टुथपेस्ट,घर तक सबकुछ वे अपने अछूत आदिवासी परिजनों के साथ बांटती थीं।


यह अनिवार्य अलगाव की स्थिति थी।


मुंबई में नवभारत टाइम्स के समाचार संपादक भुवेद्र त्यागी जागरण में जब हमारे साथ थे तो सीधे इंटर पास करके डेस्क पर आये थे।उन दिनों राम पुनियानी जी के साथ बेटा टुसु काम कर रहा था।पत्रकारिता में उसकी दिलचस्पी थी तो मुंबई में नभाटा कार्यालय में मेरे साथ जब वह गया तो भुवेंद्र ने साफ साफ कहा था कि पहले तय कर लो समाज सेवा करनी है या पत्रकारिता।


भुवेंद्र ने साफ साफ कहा था कि पुनियानी जी जैसे किसी भी व्यक्ति के सात काम करोगे तो तुम्हारी कुछ हैसियत हो या नहो,मीडिया के नजर में तुम एक्टिविस्टबन जाओगे और कहीं भी तुम्हारे लिए कोई दरवाजा खुला नहीं रहेगा।खिड़कियां और रोसनदान भी बंद मिलेंगे।


तब मैं जनसत्ता में था।मुझे भी लोग शुरु से सामाजिक कार्यकर्ता जानते रहे हैं।मेरी जनसत्ता में नौकरी की कबर सार्वजनिक तो हाल में हुई है।


इंडियन एक्सप्रेस समूह में नौकरी करते हुए मुझे एक्टिविज्म की पूरी आजादी मिलती रही है।इसलिए भुवेंद्र के कहे का आशय तब कायदे से मैं भी समझ न सका।


सच यही है।महाश्वेता दी का  शुरुआती उपन्यास झांसीर रानी देश पत्रिका में धारावाहिक छपा लेकिन बाद में देश पत्रिका और आनंद बाजार प्रतिष्ठान के प्रकाशन से उनका कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं छपा।


उन्होंने सिनेमा पर फोकस करने वाली पत्रिकाओं प्रसाद और उल्टोरथ जैसी पत्रिकाओं में अपने तमाम महत्वपूर्ण उपन्यास छपवाये।


एकमात्र महाश्वेता देवी और उनके बेटे नवारुण भट्टाचार्य ही अपवाद है कि बंगाल के सत्तावर्ग के तमाम प्रतिष्ठानों की किसी मदद के बिना वे शिखर तक पहुंचे।



रचनाकार होने से पहले अपनी जनप्रतिबद्धता को सर्वोच्च वरीयता देना राजनीतिक तौर पर हमेशा सही भी नहीं होता।सविता कल रात घर लौटने से पहले गरिया रही हैं और कह रही हैं कि कैसा निर्मम निष्ठुर हूं मैं कि दीदी का अंतिम दर्शन भी कर नहीं रहा हूं और उनकी अंत्येष्टि में भी शामिल नहीं हूं।


यह अंतिम संसकार दरअसल हमारा भी हो रहा है,ऐसा हम समझा नहीं सकते।


गिरदा के बाद सिलसिला शुरु हुआ है।एक एक करके अत्यंत प्रियजनों को विदाई कहते जाना  कंटकशय्या की मृत्यु यंत्रणा से कम नहीं है।वीरेनदा समूचा वजूद तोड़ कर चले गये।नवारुण दा लड़ते हुए मोर्चे पर ही खत्म हो गये।


पंकज सिंह से नीलाभ तक अनंत शोकगाथा है और महाश्वेतादी के बाद सारे प्रियजनों के चेहरे एकाकार हो गये,जिनमें मेरे माता पिता ताउ ताई चाचा चाची और बसंतीपुर गांव में मेरे पिता के दिवंगत सारे लड़ाकू साथी शामिल है।


हर बार थोड़ा थोड़ा मरता रहा हूं और हर बार नये सिरे से लहूलुहान सूरज के सामने खड़े होकर नये सिरे से लड़ाई का सौगंध खाता हूं।मौत की आहटें बहुत तेज हो गयी है और सारे कायनात पर कयामती फिजां हावी है।


इस महादेश के बहुजनों को मालूम नहीं है कि विवेकानंद ने कहा था कि भविष्य शूद्रों का है।वे जनम से कायस्थ थे जो वर्णव्यवस्था के मुताबिक ब्राह्मण या क्षत्रिय नहीं है।ईश्वर को वे नरनारायण कहते थे और धम कर्म के वैदिकीकर्मकांड के बजाय वे नरनारायण की सेवा को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे।


रामकृष्ण मिशन का सारा कर्मकांड विवेकानंद के इसी विचारधारा पर केंद्रित है।हिंदुत्व और हिंदुत्व के पुनरूत्थान के प्रवक्ता बतौर उन्हे जो पेश किया जा रहा है,वह वैसा ही है जैसे गौतम बुद्ध से लेकर बाबासाहेब अंबेडकर को विष्णु का अवतार बनाया जाना है या अनार्य द्रविड़ देव देवियों,अवतारों,टोटम का हिंदुत्वकरण है।


इस महादेश के बहुजनों को मालूम नहीं है कि रवींद्रनाथ अस्पृश्य थे और ब्रह्मसमाजी थे,जिसे बंगाल में म्लेच्छ समझा जाता रहा है।उनकी सामाजिक स्थिति के बारे में समूचे शरत साहित्यमें सिलसिलेवार ब्यौरे हैं।


हिंदुत्व की तमाम कुप्रथाओं का अंत इन्ही ब्रह्मसमाजियों ने किया, जिन्हें हिदुत्व के झंडवरदार हिंदू नहीं मानते थे।इसी को हम नवजागरण कहते हैं।


हिंदुत्व का पुनरूत्थान का मतलब नवजागरण की विरासत से बेदखली है।


राजा राममोहन राय इंग्लैंड में अकले मरे तो ईश्वरचंदर् विद्यासागर आदिवासियों के गांव में आदिवासियों के बीच।रवींद्र की सारी महत्वपूर्ण कविताओं की थीम अस्पृश्यता के विरोध मे है और अमोघ पंक्ति फिर वही बुद्धं शरणं गच्छामि है।चंडालिका और रुस की चिट्ठीवाले रवींद्रनाथ को हम नहीं जानते।


इसी तरह नेताजी फासीवादी नहीं थे औऱ भरत में वे सामंतवाद और साम्राज्यवाद के साथ साथ फासीवाद के खिलाफ शुरु से आकिरतक लड़ रहे थे और भारत में  अपने अंतिम भाषण में फासीवाद के खिलाफ उन्होंने युद्धघोषणा तक कर डाली थी।हिंदी नहीं, साझा विरासत की हिंदुस्तानी उनकी राष्ट्रीयता और भाषा थी।


महाश्वेता दी को आदिवासी समाज मां का दर्जा देता है।आदिवासियों और किसानों के संघर्षों को ही उऩ्होंने साहित्य का विषय बनाया तथाकथित सबअल्टर्न आंदोलन और दलित साहित्य आंदोलन से बहुत पहले।झांसीर रानी किसी व्यक्ति का महिमामंडन नहीं है और न कोई वीरगाथा,यह बुंदेलखंडी जनजीवन का महा आख्यान है जो घास की रोटियों पर आज भी वहां के आम लोग लिख रहे हैं।


महाश्वेतादी के मामा थे इकानामिक एंड पालिटिकल वीकली के संस्थापक संपादक शचिन चौधरी।तो शांति निकेतन में दी के शिक्षकों में शामिल थे रवींद्रनाथ, नंदलाल बसु और रामकिंकर।रवींद्रनाथ उन्हें बांग्ला पढ़ाते थे।इस समृद्ध संपन्न विरासत से आदिवासियों का मां बनने तक का सफर समझे बिना हम महाश्वेता दी की समाजिक सक्रियता,उनकी विचारधारा,उनका साहित्य और उनका सौदर्यबोध समझ नहीं सकते।


भाषा बंधन में मैंने बंगाल से बाहर बसे शरणार्थियों के लिए अलग से पेज मांगे थे।जो मिले नहीं।फिर 2003 के नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ संघर्ष और आंदोलन में हम उन्हें साथ चाहते थे।लेकिन आदिवासी मसलों के अलावा शरणार्थी मसले से वे उलझना नहीं चाहती थीं और उन्होंने यह कार्यभार हमारे हवाले छोड़ा।नंदीग्राम सिंगुर जनविद्रोह तक हमारा सफर साथ साथ था।परिवर्तनपंथी हो जाने के बाद दीदी का हाथ और साथ छूट गया।जैसे आइलान का हाथउसके पिता के हाथ से छूट गया।समुंदर मं डूबने केबाद या तो आप लाश में तब्दील हो जात हैं यापिर अकेले ही समुंदर की लहरों से जूझकर जीना होता है।यही हुआ है।


इसका मतलब यह नहीं है कि आदिवासी आंदोलन के साथ नत्थी हो जाने के बाद उनका दलियों या शरणार्थियों से कुछ लेना देना नहीं था।


अपने उपन्यास अग्निगर्भ में उन्होंने लिखा हैः


जाति उन्मूलन हुआ नहीं है।प्यास बुझाने के लिए पेयजल और भूख मिटाने के लिए अन्न परिकथा है।फिर भी हम सबको कामरेड कहते हैं।(मूल बांग्ला से अनूदित)।

यह दलित कथा व्यथा उनकी जीवन दृष्टि है तो विचारधारा की राजनीति का निर्मम सामाजिक यथार्थ भी,जिसका मुकाबला उन्होनें जीवन और साहित्यसे बिल्कुल यथार्थ जमीन पर खड़े होकर किया।


पहले हकीकत की  उस जमीन पर खड़े होने की जरुरत है।सच का सामना जरुरी है।मामाजिक होना जरुरी है।तभी थाने में बलात्कार की शिकार आदिवासी औरत द्रोपदी मेझेन या स्तनदायिनी यशोदा की दलित या बहुजन अस्मिता और उसके संघरष को गायबनाम भैंस राजनीतिक आख्यान के बर्क्श समझने की दृष्टि मिलेगी।


वरना हम जल जंगल जमीन से बेदखल तो हैं ही,नागरिक और मानवाधिकार और आजीविका रोजगार से लेकर लोकतंत्र संविधान कानून के राज समता न्याय और मनुष्यता सभ्यता प्रकृति से बेदखली के साथ साथ विरासत औऱ इतिहास से बेदखल होने का यह अनंत सिलसिला कभी टूटने वाला नहीं है।



--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!