Dear friends,
Here are the day-wise reports of the festival, put together by our press team. Will send photos by tomorrow.
best,
- Kasturi
Day one: 1st KPFF Hindi report
प्रतिरोध का सिनेमा : पहला कोलकाता पीपुल्स फिल्म फेस्टिवल
जैनुल आबेदीन की स्मृति में
प्रतिरोध और जनांदोलनों की दस्तावेजी फिल्मों का महोत्सव
20 जनवरी, 2014/ कोलकाता
जन संस्कृति मंच और पीपुल्स फिल्म कलेक्टिव,कोलकाता की ओर से 22 जनवरी तक चलने वाले फिल्मोत्सव का उद्घाटन आज जाधवपुर विश्वविद्यालय के त्रिगुण सेन प्रेक्षागृह में हुआ । जनसंघर्षों का रेखांकन करने वाले प्रतिरोधी चित्रकार जैनुल आबेदीन की स्मृति में आयोजित इस फिल्म उत्सव में प्रतिरोध और जनांदोलन केंद्र में हैं। फिल्मोत्सव में अगले दो दिनों तक दुनिया और देश के विभिन्न हिस्सों के आंदोलनों को दर्ज करती दस्तावेजी फिल्मों का प्रदर्शन होगा। कारपोरेट फासीवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ प्रतिरोध रचती इन फिल्मों में जनता के आंदोलनों का ताप दर्ज है। समारोह में संजय काक, मोइनाक विश्वास, रानू घोष, सूर्यशंकर दास, नकुल सिंह साहनी, बिक्रमजीत गुप्ता, मौसमी भौमिक और सुकान्त मजूमदार जैसे फ़िल्मकार अपनी फिल्मों पर बातचीत करने के लिए मौजूद रहेंगे।
फिल्मोत्सव का उद्घाटन करते हुए मशहूर फिल्म समीक्षक शमिक बंद्योपाध्याय ने कहा कि इस दौर में कला-माध्यमों पर राजसत्ता की तरफ से तरह-तरह के प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं। जनता के संघर्षों को जनता तक पहुंचाने में सत्ता भरपूर रोड़े डाल रही है, लोकतान्त्रिक आवाजें खामोश कराई जा रही हैं। ऐसे में 'प्रतिरोध का सिनेमा' नई तकनीक के सहारे इस का प्रतिरोध विकसित करने की दिशा में एक कड़ी है। उत्तर प्रदेश की गोरखपुर जैसी जगह, जो सांप्रदायिक ताकतों की प्रयोगस्थली है, वहाँ इस आंदोलन के शुरू होने के गहरे मायने हैं। कवि मायकोव्स्की को याद करते हुए उन्होंने आशा व्यक्त की कि मुख्यधारा के 'बीमार सिनेमा' के खिलाफ'प्रतिरोध का सिनेमा' जनांदोलनों की ऊष्मा के संग संघर्षों की कथा लिखेगा और लोगों तक संघर्षों के स्वर पहुंचाने में कामयाब होगा।
कवि सब्यसांची देव ने आयोजन की सफलता की कामना करते हुए कहा कि फिल्म एक ताकतवर माध्यम है। बंगाल में इसका आयोजन एक बेहतर शुरुआत है। उन्होने कहा कि उदारीकरण के इस दौर में कलाओं की ज़िम्मेदारी बढ़ गई है। ऐसे आयोजन प्रतिरोध की दिशा में सफल प्रयास हो सकते हैं। मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश के हालिया दंगों पर बेहतरीन दस्तावेजी फिल्म बना चुके युवा फ़िल्मकार नकुल सिंह साहनी ने अपना वक्तव्य देते हुए खुद को 'प्रतिरोध का सिनेमा' का एक साथी बताया। उन्होने कहा कि ऐसे फिल्मोत्सव दर्शकों के लिए एक नई अनदेखी दुनिया की हक़ीक़तें जानने का मौका तो मुहैया कराते ही हैं, साथ ही इनसे फ़िल्मकारों को भी काफी कुछ सीखने को मिलता है। दस्तावेजी फिल्मों की मार्फत जनता तक जाने और उससे सीखने की ललक को रेखांकित करते हुए नकुल ने इस बात पर ज़ोर दिया कि 'प्रतिरोध का सिनेमा' जैसे फिल्मोत्सव प्रयोगों को और आगे बढ़ाना होगा।
स्वागत भाषण देते हुए 'प्रतिरोध का सिनेमा' के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी ने बताया कि आठ साल पहले उत्तर प्रदेश के छोटे से गोरखपुर जैसे कस्बे से शुरू हुआ यह आयोजन अब उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, दिल्ली जैसे सूबों की कई छोटी-बड़ी जगहों तक पहुंचा है। उन्होंने कहा कि इस आंदोलन के पीछे की असली ताकत लोग हैं। वे लोग जिन तक सत्ता प्रतिष्ठान, मीडिया घराने और फिल्मों की मुख्यधारा सच नहीं पहुँचने देती। लोगों में सच जानने की ललक है। सत्ता प्रतिष्ठानों, कारपोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पैसों के चंगुल को तोड़ते हुए जन-भागीदारी और जनता की ही पूंजी से ही हम इस आंदोलन को आगे बढ़ा पाये हैं। इस आंदोलन के आवेग और बढ़ाव का यही कारण है। इस आंदोलन को प्रतिशोध की बजाय प्रतिरोध का सिनेमा बताते हुए उन्होंने कहा कि देश में कारपोरेट फासीवाद और सांप्रदायिकता की पगध्वनियाँ सुनाई दे रही हैं, ऐसे में जरूरत है कि हम दस्तावेजी फिल्मों के माध्यम से प्रतिरोध की आवाज बुलंद करें और ऐसे आंदोलनों को दूर-दराज तक फैला दें। इन वक्ताओं के साथ मंच पर युवा फ़िल्मकार सूर्यशंकर दास, फिल्म समीक्षक विद्यार्थी चटर्जी और गण संस्कृति परिषद, पश्चिम बंगाल के सहसचिव अमितदास गुप्ता भी उपस्थित थे।
उद्घाटन के मौके पर फिल्म समारोह की स्मारिका का भी विमोचन हुआ जिसमें दिखाई जाने वाली फिल्मों के संक्षिप्त परिचय के अलावा संजय काक, सूर्यशंकर दास, नकुल सिंह साहनी, बिक्रमजीत गुप्ता, मोइनाक बिस्वास जैसे महत्त्वपूर्ण फ़िल्मकारों और बीरेन दासगुप्ता, मानस घोष और संजय मुखोपाध्याय जैसे फिल्म अध्येताओं के महत्त्वपूर्ण लेख हैं। साथ ही उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में लगातार हो रही सांप्रदायिक हिंसा की भाकपा- माले द्वारा जारी रपट'मुजफ्फरनगर दंगा: एक राजनीतिक-आपराधिक साजिश'और जैनुल आबेदीन के शताब्दी-वर्ष के मौके पर चित्रकार अशोक भौमिक द्वारा तैयार किए गए चार कविता पोस्टरों का भी लोकार्पण हुआ। उद्घाटन सत्र का संचालन पीपुल्स फिल्म कलेक्टिव, कोलकाता की संयोजक कस्तूरी ने किया।
उद्घाटन सत्र के बाद दूसरे सत्र में गुरविंदर सिंह निर्देशित फिल्म 'अन्हे घोड़े दा दान' दिखाई गई। पंजाब के गांवों के दलित जीवन की गहरी वर्गीय सच्चाईयों को उकेरती जमीन और सम्मान के सवालों को गहराई से गूँथ देती है। शहर में दलितों के विस्थापन की त्रासदी को भी फिल्म उभारती है। फिल्म का परिचय देते हुए फिल्म समीक्षक विद्यार्थी चटर्जी से ने इसे 'मिनिमलिस्ट स्टाइल' का सिनेमा बताते हुए कहा कि अपनी इस शैली में फिल्म जमीनी हकीकतों को बेहतरीन तरीके से व्यक्त कर पाती है। वसुधा जोशी और रंजन पालित के निर्देशन में बनी फिल्म 'वॉएसेज फ्राम बलियापाल' समारोह में दिखाई जाने वाली दूसरी फिल्म थी। 1889 में सामाजिक मुद्दों पर बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली यह फिल्म ओड़िशा के ऐसे इलाके की कहानी है जहां मिसाइल परीक्षण इलाका बनाया जाने वाला था। लगभग 70,000मछुवारों और किसानों के विस्थापन के दर्द को बयान करने के साथ ही यह फिल्म उनके अहिंसक आवेगमय प्रतिरोध को दर्ज करती है।
चाय के बाद के सत्र की शुरुआत सूर्यशंकर दास द्वारा निर्देशित फिल्म 'रिप्रेशन डायरी: द केस ऑफ ओड़िशा'दिखाई गई। यह फिल्म छोटे-छोटे वीडियो टुकड़ों की एक डायरी है, बेहतरीन कोलाज है, जो ओड़िशा में चल रही खनिज लूट, भीषण नृशंस दमन के अनसुने सच को सामने लाती है। फिल्म का दूसरा पहलू है आदिवासी व किसान समुदायों का जल-जंगल-जमीन के लिए प्रतिरोध। इस दमन, शोषण और अपमान के बहुराष्ट्रीय-देशी शासकवर्गीय दुष्चक्र के बीच भी लोगों का जुझारूपन, लड़ने की उनकी जरूरत और आकांक्षा,सबको फिल्म एक सूत्र में गूँथ कर पेश करती है। फिल्म के बाद दर्शकों के सवालों का जवाब देते हुए निर्देशक सूर्यशंकर दास ने कहा कि बड़े मीडिया घराने और अखबारात बहुराष्ट्रीय और देशी दलालों के हाथ बिके हुए हैं। ऐसे में 'प्रतिरोध का सिनेमा' जैसे आयोजन ही वह मौका हैं, जहां से हम अपनी बात कह सकते हैं। संघर्षरत लोगों के खुद के बनाए हुए वीडियो फुटेजों
का महत्त्व बताते हुए उन्होंने कहा कि जहां-जहां दमन होगा,संघर्ष होगा, कैमरा लिए हमें भी उस प्रतिरोध में शामिल रहना होगा।
कश्मीर के सवालों पर बेहतरीन फिल्म 'जश्ने आजादी'बना चुके जाने-माने फ़िल्मकार संजय काक की 'माटी के लाल'फिल्म समारोह की अगली प्रस्तुति थी। पंजाब, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा के विभिन्न जनांदोलनों को एक जगह एक वृत्तान्त में समेटने की कोशिश करती यह फिल्म जनता के संघर्ष के विभिन्न तौर-तरीकों और प्रयोगों को दर्ज करती है। भारतीय लोकतन्त्र की भयावहता का पर्दाफाश करती यह फिल्म बस्तर के आदिवासियों के सशस्त्र प्रतिरोध के साथ पंजाब के किसानों और ओड़िशा के आदिवासियों के संघर्ष को सामने लाती है। सरकारों द्वारा जनता के खिलाफ चलाये जा रहे युद्ध की बारीक पड़ताल करते हुई यह फिल्म लोगों की आँखों में बदलाव के सपने रेखांकित करती है। फ़िल्मकार संजय काक ने दर्शकों के सवालों का जवाब देते हुए कहा कि सरकारें और सत्ता वर्ग आदिवासी-मजदूर-किसान जैसे तबकों के खिलाफ युद्धरत हैं। ऐसे में लोग जैसे भी प्रतिरोध कर सकते हैं, वे कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि यह लोगों की जिंदगी का सवाल है, वे तो अपनी लड़ाई लड़ेंगे ही, लड़ ही रहे हैं। प्रतिबद्धता तय करना हमारे ऊपर है।
पहले दिन की आखिरी फिल्म युवा फ़िल्मकार नकुल सिंह साहनी की 'मुजफ्फरनगर टेस्टीमोनियल' थी। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में 07 सितंबर 2013 से शुरू हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद अभी तक सैकड़ों जाने जा चुकी,हजारों-हजार लोग गाँव छोड़ राहत शिविरों में विस्थापित हैं। लोकसभा चुनाव में राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए सरकार उन्हें खदेड़ने पर तुली है। नकुल साहनी का कैमरा हमें मुजफ्फरनगर की उन कठोर और भयावह सच्चाईयों से रूबरू कराता है जो मुख्यधारा में कहीं दर्ज नहीं हैं। इन दंगों के पीड़ितों में 95 फीसदी मुस्लिम समुदाय के लोग थे, जबकि मीडिया इसे दोतरफा दंगा बता रहा था। फिल्म संघ परिवार के'बहू बचाओ -बेटी बचाओ' जैसे नारों के साथ सांप्रदायिक उन्माद फैलाने की योजना का पर्दाफाश करती है और साथ ही तथाकथित समाजवादी सपा सरकार और उसकी पुलिस के काले कारनामों को भी उजागर करती है। फिल्म के बाद नकुल साहनी ने विस्तार से मुजफ्फरनगर और उत्तर प्रदेश में चल रही सांप्रदायिक प्रयोग की राजनीति के बारे में दर्शकों से बातचीत की।
त्रिगुण सेन प्रेक्षागृह के बाहर प्रगतिशील आंदोलन के हमराह और चित्रकला में प्रतिरोध विकसित करने वाले महान चित्रकारों चित्तप्रसाद और जैनुल आबेदीन की कलाकृतियों की प्रदर्शनी भी आयोजित की गई थी। किसान-मजदूरों के रोज़मर्रा की जिंदगी की हकीकत के साथ बंगाल के भयावह अकाल का यथार्थ बयान करने वाले चित्रों को दर्शकों को गहरे प्रभावित किया। साथ ही कोलकाता के युवा छायाकरों के चित्रों की प्रदर्शनी ने भी दर्शकों को आकर्षित किया।
पहले कोलकाता पीपुल्स फिल्म फेस्टिवल के लिए
कस्तूरी, संयोजक, प्रतिरोध का सिनेमा- कोलकाता द्वारा जारी
फोन: +91- 9163736863, मेल:cor.kolkata@gmail.com
2nd Day Report:
विस्थापित लोग सब कुछ गँवाकर अपनी यादें और गीत साथ ले जा पाते हैं- मौसमी भौमिक
प्रतिरोध का सिनेमा : कोलकाता, दूसरे दिन की रपट
21 जनवरी, 2014/कोलकाता
जन संस्कृति मंच और कोलकाता पीपुल्स फिल्म कलेक्टिव द्वारा आयोजित 'प्रतिरोध का सिनेमा' के फिल्मोत्सव का दूसरा दिन गहमागहमी और दर्शकों के बहस-मुबाहिसे से जीवंत बना रहा। फिल्म समारोह में लोगों ने सिर्फ दर्शक बनकर नहीं, सक्रिय भागेदारी से फिल्म सत्रों को मुकम्मल बनाया। बहस की निरंतरता प्रेक्षागृह के बाहर निकाल रहे लोगों की बात-चीत से भी अंदाजी जा सकती थी।
दूसरे दिन के पहले सत्र की शुरुआत बंगाल के जाने-पहचाने दस्तावेजी फ़िल्मकारों, मोइनाक विश्वास और अर्जुन की फिल्म 'स्थानीय संबाद' से हुई। फिल्म कोलकाता के विभिन्न इलाकों में बसे शहरी जीवन को बेहद धैर्य के साथ सधे तरीके से वर्णित करती है। फिल्म के कैनवास पर चोर, व्यापारी, कवि, प्रेमी, दुकानदार, साधू आदि तरह-तरह के पात्र हैं। इतने तरह के पात्रों के साथ फिल्म के बिखरने का खतरा रहता है पर यह फिल्म इन सबको एक साथ सँजो कर कोलकाता शहर के बदलते देश-काल को दिखा पाने में पूरी तरह सफल साबित होती है। फिल्म के बाद मोइनाक विश्वास ने कोलकाता शहर के सामाजिक मानचित्र में बदलाव संबंधी दर्शकों के सवालों पर अपनी गुफ्तगू रखी। इस दिन की दूसरे फिल्म थी बांग्ला-हिन्दी फिल्म 'क्वार्टर नंबर 4/11', जिसके निर्देशक हैं रानू घोष। यह फिल्म कोलकाता जैसे शहरों के भीतर जमीन के सवालों को केंद्र में रखती है। 'विकास' के नाम पर रीयल-स्टेट के धंधों की चीर-फाड़ करती यह फिल्म शहरों के भीतर विस्थापन की भीषण दुख-गाथा को आवाज देती है।
चाय के बाद युवा फ़िल्मकार सुरभि शर्मा की दस्तावेजी फिल्म 'बिदेशिया इन बंबई' का प्रदर्शन हुआ। यह फिल्म उत्तर भारत के भोजपुरी भाषी इलाके उन प्रवासी मजदूरों की कहानी है जो बंबई जाकर बस गए हैं। फिल्म भोजपुरी संगीत के नए रूपों के बहाने विस्थापित मजदूरों की बंबई में जिंदगी और उनके गांवों में इसके असर को दर्ज करने की कोशिश करती है। बंबई जैसे बड़ी पूंजी के शहर में यह फिल्म विस्थापित मजदूरों के संसार तक हमें लिवा जाती है। अगली फिल्म थी 'गाड़ी लोहरदग्गा मेल' जिसका निर्देशन बीजू टोप्पो और मेघनाथ ने किया है। यह फिल्म गीतों और बतकही का अद्भुत संगम है। एक रेल लोगों की जिंदगी में कैसे दर्ज है और एक पूरे समुदाय की स्मृतियों को कैसे प्रभावित करती है, इस फिल्म के सहारे हम यह समझ पाते हैं। नवंबर 1907 में शुरू हुई छोटी लाइन की लोहरदग्गा मेल के जनवरी 2007 में बंद कर दी गई। रेल के आखिरी दिनों में निर्देशक-द्वय प्रसिद्ध मुंडारी विद्वान स्वर्गीय रामदयाल मुंडा और लोक कलाकारों- मुकुन्द नायक और मधु मंसूरी के साथ रेल के सफर में हैं, जहां गीतों और बहसों से उस इलाके के चित्र हमारे सामने उभरते हैं।
बंगाल में और बंगाल से विस्थापन और संगीत पर केन्द्रित प्रसिद्ध बंगला गायिका मौसमी भौमिक और सुकान्त मजूमदार की प्रस्तुति 'द ट्रेवेलिंग आर्काइव' ने दर्शकों को सम्मोहित कर लिया। लोक संगीत के मौलिकता की धारणा को प्रश्नांकित करते हुए उन्होंने कहा कि संगीत हर तरह से बदलता जाता है। देश-काल उस पर गहरा असर डालते हैं। लैला नाम की गायिका का उदाहरण देते और उनकी संगीत रिकार्डिंग और बातचीत सुनवाते हुए मौसमी भौमिक ने कहा कि संगीत देश-सीमाओं-गायन प्रणालियों से बंधा नहीं होता। वह अपनी सीमाएं खुद ही तोड़ता चलता है। आखिर में दर्शकों के कहने पर उन्होंने एक लोकगीत गाकर अपनी प्रस्तुति की समाप्ति की।
दिन की आखिरी प्रस्तुति तारीक और कैथरिन मसूद निर्देशित 1995 की बांग्लादेश की दस्तावेजी फिल्म 'मुक्तीर गान' थी। दुनिया के स्तर पर सराही गई यह फिल्म बांग्लादेश के 1971 के मुक्ति-युद्ध के सांस्कृतिक पक्ष को पेश करती है। उस तूफानी दौर में विस्थापित कैंपों के बीच देशगीत, कठपुतली, नाटक जैसे अनेक कलाविधाओं के साथ जनता में प्रतिरोधी ऊर्जा का संचार करने के लिहाज से 'बांग्लादेश मुक्ति संग्रामी शिल्पी संगष्ठा' ने जो काम किया था, यह फिल्म उन ऐतिहासिक वीडियो टुकड़ों का इस्तेमाल करती है।
दूसरे दिन भी सभागार के बाहर बहुतेरे दर्शकों ने प्रतिक्रियाएं लिखीं, जिनमें से एक थी-
"झुलस उठा रक्त
रक्त-धमनियों में भर गई उत्तेजना
चुप रहो ! बंद करो !!
सामना करो नंगी हकीकत का
सीधा चल रहा है युद्ध, सामना करो !
नया है प्रतिद्वंद्वी
पर हमारे पास भी हैं कवच और कुंडल !!"
पहले कोलकाता पीपुल्स फिल्म फेस्टिवल के लिए
कस्तूरी, संयोजक, प्रतिरोध का सिनेमा- कोलकाता द्वारा जारी
फोन: +91- 9163736863, मेल: cor.kolkata@gmail.com
Day 3 Report
प्रतिरोध का सिनेमा : पहला कोलकाता पीपुल्स फिल्म फेस्टिवल
जैनुल आबेदीन की स्मृति में
प्रतिरोध और जनांदोलनों की दस्तावेजी फिल्मों का महोत्सव
22 जनवरी, 2014/ कोलकाता
जन संस्कृति मंच और पीपुल्स फिल्म कलेक्टिव, कोलकाता द्वारा आयोजित पहले कोलकाता पीपुल्स फ़िल्म फेस्टिवल का तीसरा दिन राज्य सत्ता के दमन , कामगारों के संघर्ष और प्रतिरोध की कला के इर्द –गिर्द संयोजित था .
इस क्रम में सुबह सबसे पहले नए भारतीय सिनेमा कैटगरी के तहत आमिर बशीर निर्देशित हारुद दिखाई गयी. हारुद, जिसका अर्थ पतझड़ भी होता है, ऐसे कश्मीरी युवक रफ़ीक की कहानी है जिसका बड़ा भाई तौकीर टूरिस्ट फोटोग्राफर था और एक दिन अचानक गायब हो गया. रफ़ीक बिना किसी मकसद के यूं ही घूमता फिरता है और एक दिन उसे अचानक अपने भाई का खोया हुआ कैमरा भी मिल जाता है. फ़िल्म का परिचय देते हुए संजय जोशी ने हारुद के बहाने नए भारतीय सिनेमा में हुई दस्तावेजी सिनेमा की आवाजाही को रेखांकित किया.
दुपहर के सत्र में भारतीय राज्य सत्ता के चरित्र को उजागर करती हुई आनंद पटवर्धन की ज़मीर के बंदी और कुमुद रंजन की आफ्टर द आफ्टरमाथ दिखाई गयी. ज़मीर के बंदी श्रीमती गांधी द्वारा थोपे गए आपातकाल की कहानी कहती है जिसमे इसके कारणों की पड़ताल के साथ महत्वपूर्ण राजनैतिक बंदियों के इंटरव्यू भी शामिल हैं. कुमुद रंजन की फ़िल्म आफ्टर द आफ्टरमाथ 2012 के साल में हमें बिहार के बथानी टोला में नसीमुद्दीन से मिलवाती है जिनके परिवार के छह लोगों की रणवीर सेना ने 1996 में बर्बर हत्या कर दी थी. इस भयानक काण्ड में दलित और मुसिलम समुदाय के कुल २० लोगों की हत्या हुई थी और साल 2012 में सभी अभियुक्तों को कोर्ट ने बरी कर दिया था .
ज़मीर के बंदी का परिचय देते हुए सब्यसाची देब ने आपातकाल की परिघटना और आज के समय के अघोषित आपातकाल को सम्बद्ध किया साथ ही भारतीय दस्तावेजी सिनेमा में आनंद पटवर्धन के महत्व को रेखांकित किया. आफ्टर द आफ्टरमाथ का परिचय देते हुए और संजय जोशी ने स्वतंत्र फिल्म निर्माण और फ़िल्म स्क्रीनिंग के महत्व को रेखांकित किया.
चाय के बाद के सत्र में डाक्युमेंटरी क्लासिक के तहत मन्जीरा दत्ता की 1988 में बनी बाबूलाल भुइयां की कुर्बानी दिखाई गयी. यह फ़िल्म 1981 में मैलागोरा कोयलरी में काम करने वाले बाबूलाल की सी आई एस ऍफ़ के जवान द्वारा की गयी हत्या के बहाने हाशिये पर रह रहे भारतीय मजदूर वर्ग की दशा और इस कुर्बानी के मायनों की पड़ताल करती है. इस फ़िल्म का परिचय देते हुए पूर्बा रुद्रा ने भारतीय दस्तावेजी सिनेमा द्वारा नए सामाजिक सच को रेखांकित किये जाने के फिल्मकारों के प्रयास और विशेष तौर पर रंजन पालित के छायांकन की सराहना की.
2011 के जून महीने में मारुति उद्योग के मजदूरों द्वारा आयोजित साहसिक हड़ताल पर नकुल सिंह साहनी द्वारा पेश की जानी वाली प्रस्तुति उनके किसी अतिआवश्यक काम के चलते फेस्टिवल में अनुपस्थित हो जाने के कारण सिर्फ 15 मिनट के विडियो अंश को दिखाकर ही सम्पन्न हो सकी. इस विडियो अंश के जरिये हमें न सिर्फ उस ऐतिहासिक हड़ताल का पता चलता है बल्कि इसके बहाने एक बड़े हुए वर्ग संघर्ष का भी अहसास होता है. इस प्रस्तुति का परिचय देते राजीव कुमार ने बताया कि कैसे मजदूरों के टिफिन के जरिये कैमरे की चिप फैक्ट्री के अन्दर पहुंचाई गयी और फिर उस चिप के जरिये अन्दर का सच हम सब तक पेश हो पा रहा है.
तीसरे दिन की शाम को आयोजित हुआ पैनल डिस्कशन इस फेस्टिवल की उपलब्धि था. इसका विषय था जन संघर्ष और नया कैमरा. इसमें फिल्मकार संजय काक, रानू घोष , सूर्य शंकर दाश और राजीव कुमार ने हिस्सा लिया और इसका संचालन प्रतिरोध का सिनेमा अभियान से जुड़े संजय जोशी ने किया. इस बातचीत में संजय काक ने विस्तार से नए बनाते हुए सिनेमा परिद्रश्य की चर्चा करी और उसमे नयी तकनालाजी और सिनेमा दिखाने के नए प्रयासों के महत्व को रेखांकित किया. रानू घोष ने बताया कि कैसे फंडिंग उनके खुद के काम की सीमा बनती रही है और वे अपने मन के काम के लिए स्वतंत्र प्रयास करती हैं. वे फंडिंग वाली फिल्मों और अपने खुद के पैसों से बनी फ़िल्म के फर्क को भी ठीक से समझती है और प्रतिरोध का सिनेमा जैसे अभियानों से मजबूती भी ग्रहण करती है. सूर्य शंकर दाश ने ओडिशा के अपने अनुभव के संदर्भ के साथ कहा कि मेरे लिए सिर्फ छोटे कैमरे का होना ही महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि यह किन लोगों के हाथ में है. उन्होंने ओडिशा के जनजीवन को तबाह कर रही कुख्यात बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता द्वारा ओडिशा के मीडिया छात्रों के बीच पुरुस्कारों के लालच के साथ अपने कोर्पोरेट सोशल रेस्पोंस्बिलिटी (CSR) प्रयास पर फ़िल्म प्रतियोगिता आयोजित किये जाने के कुत्सित अभियान की चर्चा भी की . राजीव कुमार ने कैमरे को कलम की तरह सस्ता और सर्वसुलभ होने की जरुरत पर बल दिया. एक दर्शक दीपांजन ने जब यह सवाल किया कि इस तरह के फेस्टिवल को हमें और छोटी जगहों पर ले जाना चाहिए तभी इसका कुछ मतलब होगा तब संजय जोशी ने विस्तार से प्रतिरोध का सिनेमा अभियान की यात्रा के बहाने बताया कि कैसे आम लोगों के सहयोग पर आधारित यह प्रयोग समूचे भारत के छोटे बड़े कस्बों में अपनी सार्थकता साबित कर पा रहा है. दीपांजन द्वारा ही जब यह सवाल उठाया गया कि स्पोंसरशिप से कोई हर्ज नहीं होना चाहिए तब अन्य दर्शकों ने ही उनकी बात का प्रतिवाद किया और कहा कि खुद प्रतिरोध का सिनेमा की यात्रा से क्या कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए कि बिना स्पोंसरशिप लिए भी सार्थक अभियान संचालित किये जा सकते हैं. 100 मिनट चले इस सत्र में पैनल के अलावा लगभग 100 दर्शकों की भी सक्रिय भागीदारी रही.
उत्सव की आखिरी फ़िल्म थी बिक्रमजीत गुप्त निर्देशित अचल . आज के वैश्विक समय में अन्चीहे तमाम चरित्रों
की कहानी कहती यह फ़िल्म दर्शकों द्वारा खूब सराही गयी. फ़िल्म के बाद चर्चा के दौरान फ़िल्म के निर्देशक बिक्रम्जीएत गुप्त, छायाकार अमित मजूमदार और साउंड रिकार्डिस्ट सुकांतो मजूमदार के साथ फ़िल्म के प्रवाह को बनाए रखने के लिए कैमरे और साउंड के बारे में विस्तार से बात करी. निर्देशक बिक्रमजीत ने विस्तार से बताया कि कैसे इस फ़िल्म के कम बजट ने फ़िल्म के ट्रीटमेंट को प्रभावित किया और फ़िल्म को सवारने में इससे ताकत भी मिली.
फ़िल्म उत्सव का समापन संजय तिवारी के समूह द्वारा मोहिनेर घोरागुली के गीत हे भालोबासी और इन्टरनेशनलके गायन से हुआ जिसमे गायन समूह के अलावा दर्शकों ने भी भागीदारी की.
पहले कोलकाता पीपुल्स फिल्म फेस्टिवल के लिए
कस्तूरी, संयोजक, प्रतिरोध का सिनेमा- कोलकाता द्वारा जारी
फोन: +91- 9163736863, मेल: cor.kolkata@gmail.com
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