श्रद्धांजलि
नहीं रहे दलित पैंथर के संस्थापक :नामदेव ढसाल
एच एल दुसाध
नहीं रहे दलित पैंथर के संस्थापक :नामदेव ढसाल
एच एल दुसाध
३० सितम्बर २०१२ बॉम्बे में आयोजित सातवें डाइवर्सिटी डे प्रोग्राम में नामदेव ढसाल को डाइवर्सिटी मैन ऑफ़ वर्ल्ड की ट्रोफी भेंट करते एच एल दुसाध और मिशन डाइवर्सिटी से जुडी अन्य हस्तियाँ
श्रद्धांजलि
नहीं रहे दलित पैंथर के संस्थापक :नामदेव ढसाल
एच एल दुसाध
मित्रों!एक माह पूर्व मैंने विश्वकवि नामदेव ढसाल की अस्वस्थ्यता से आपको अवगत कराया था.पहले से ही कई रोगों से जर्जरित ढसाल साहब विगत कुछ माह से बॉम्बे हॉस्पिटल में पड़े-पड़े कैंसर से लड़ रहे थे.किन्तु आज 15 जनवरी की सुबह 4.30 बजे जालिम कैंसर के खिलाफ उनकी लड़ाई खत्म हो गयी.मैं दून एक्सप्रेस में सवार कोलकाता से बनारस जा रहा था.सुबह पौने पांच बजे मोबाइल घनघना उठा.गहरी नीद से जगकर जब जेब से मोबाइल निकाला,स्क्रीन पर दलित पैंथर के महासचिव सुरेश केदारे का नाम देखकर कुछ अप्रिय संवाद की आशंका से मैं काँप उठा.मोबाइल ऑन किया तो भाई केदारे ने रोते हुए बताया कि दादा नहीं रहे.मैं स्तब्ध रह गया.१०-१५ मिनटों तक सदमे में रहने के बाद मैंने सबसे पहले पलाश विस्बास,डॉ विजय कुमार त्रिशरण और ललन कुमार को फोन पर सूचना दी.कई और मित्रों को भी फोन लगाया पर गहरी नीद में होने कारण उनका रिस्पोंस नहीं मिला.फिर एक –एक कर बुद्ध सरण हंस,डॉ ,डॉ संजय पासवान,अरुण कुमार त्रिपाठी,वीर भारत तलवार ,सुधीन्द्र कुलकर्णी,अजय नावरिया,शीलबोधि वगैरह को एसएमएस कर दुखद समाचार की सूचना दी.
मित्रों अपनी पिछली मुंबई यात्रा के दौरान मैंने संकल्प लिया था कि अगले डेढ़-दो साल में ढसाल साहब की जीवनी पुस्तक के रूप में आपके समक्ष लाऊंगा.अब उनके नहीं रहने पर उनकी बायोग्राफी लिखना और जरुरी हो गया है.अभी तक उनके विषय में जो सूचनाएं संग्रहित कर पाया हूँ उसके आधार पर दावे के साथ कह सकता हूँ कि धरती के नरक(रेड लाईट एरिया) से निकल कर पूरी दुनिया में ढसाल जैसी कोई विश्व स्तरीय शख्सियत सामने नहीं आई है.दुनिया में एक से एक बड़े लेखक,समाज सुधारक,राजा –महाराजा ,कलाकार पैदा हुए किन्तु जिन प्रतिकूल परिस्थितियों को जय कर ढसाल साहब ने खुद को एक विश्व स्तरीय कवि,एक्टिविस्ट के रूप में स्थापित किया ,वह बेनजीर है.मैंने दो साल पहले 'टैगोर बनाम ढसाल' पुस्तक लिख कर प्रमाणित किया थी कि मानव जाति के समग्र इतिहास में किसी भी विश्वस्तरीय कवि ने दलित पैंथर जैसा मिलिटेंट आर्गनाइजेशन नहीं बनाया.दुनिया के दुसरे बड़े लेखक-कवियों ने सामान्यतया सामाजिक परिवर्तन के लिए पहले से स्थापित राजनीतिक/सामाजिक संगठनों से जुड़कर बौद्धिक अवदान दिया.किन्तु किसी ने भी ढसाल की तरह उग्र संगठन बनाने की जोखिम नहीं लिया.दलित पैंथर के पीछे कवि ढसाल की भूमिका का दुसरे विश्व –कवियों से तुलना करने पर मेरी बात से कोई असहमत नहीं हो सकता.इसके लिए आपका ध्यान दलित पैंथर की खूबियों की ओर आकर्षित करना चाहूँगा.
अब से चार दशक 9 जुलाई 1972 को विश्व कवि नामदेव ढसाल ने अपने साथी लेखकों के साथ मिलकर 'दलित पैंथर' जैसे विप्लवी संगठन की स्थापना की थी.इस संगठन ने डॉ.आंबेडकर के बाद मान-अपमान से बोधशून्य दलित समुदाय को नए सिरे से जगाया था.इससे जुड़े प्रगतिशील विचारधारा के दलित युवकों ने तथाकथित आंबेडकरवादी नेताओं की स्वार्थपरक नीतियों तथा दोहरे चरित्र से निराश हो चुके दलितों में नया जोश भर दिया जिसके फलस्वरूप उनको अपनी ताकत का अहसास हुआ तथा उनमें ईंट का जवाब पत्थर से देने की मानसिकता पैदा हुई.इसकी स्थापना के एक महीने बाद ही ढसाल ने यह घोषणा कर कि यदि विधान परिषद् या संसद सामान्य लोगों की समस्यायों को हल नहीं करेगी तो पैंथर उन्हें जलाकर राख कर देंगे,शासक दलों में हडकंप मचा दिया.
दलित पैंथर के निर्माण के पृष्ठ में अमेरिका के उस ब्लैक पैंथर आन्दोलन से मिली प्रेरणा थी जो अश्वेतों को उनके मानवीय,सामाजिक,आर्थिक व राजनैतिक अधिकार दिलाने के लिए 1966 से ही संघर्षरत था.उस आन्दोलन का नामदेव ढसाल और उनके क्रन्तिकारी युवकों पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने ब्लैक पैंथर की तर्ज़ पर दलित मुक्ति के प्रति संकल्पित अपने संगठन का नाम दलित पैंथर रख दिया.जहाँ तक विचारधारा का सवाल है पैन्थरों ने डॉ.आंबेडकर की विचारधारा को न सिर्फ अपनाया बल्कि उसे विकसित किया तथा उसी को अपने घोषणापत्र में प्रकाशित भी किया जिसके अनुसार संगठन का निर्माण हुआ.यद्यपि यह संगठन अपने उत्कर्ष पर नहीं पहुच पाया तथापि इसकी उपलब्धियां गर्व करने लायक रहीं.बकौल चर्चित मराठी दलित चिन्तक आनंद तेलतुम्बडे ,'इसने देश में स्थापित व्यवस्था को हिलाकर रख दिया और संक्षेप में बताया कि सताए हुए आदमी का आक्रोश क्या हो सकता है.इसने दलित राजनीति को एक मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान की जोकि पहले बुरी तरह छूटी थी.अपने घोषणापत्र अमल करते हुए पैन्थरों ने दलित राजनैतिक मुकाम की खातिर परिवर्तनकामी अर्थो में नई जमीन तोड़ी.उन्होंने दलितों को सर्वहारा परिवर्तनकामी वेग की पहचान प्रदान की तथा उनके संघर्ष को दुनिया के अन्य दमित लोगों के संघर्ष से जोड़ दिया.' बहरहाल कोई चाहे तो दलित पैंथर की इन उपलब्धियों को ख़ारिज कर सकता है किन्तु दलित साहित्य के विस्तार में इसकी उपलब्धियों को नज़रंदाज़ करना किसी के लिए भी संभव नहीं है.
दलित पैंथर और दलित साहित्य एक ही सिक्के के दो पहलूँ हैं.इसकी स्थापना करनेवाले नेता पहले से ही साहित्य से जुड़े हुए थे.दलित पैंथर की स्थापना के बाद उनका साहित्य शिखर पर पहुँच गया और देखते ही देखते मराठी साहित्य के बराबर स्तर प्राप्त कर लिया .परवर्तीकाल में डॉ.आंबेडकर की विचारधारा पर आधारित पैन्थरों का मराठी दलित साहित्य हिंदी पट्टी सहित अन्य इलाकों को भी अपने आगोश में ले लिया.दलित साहित्य को इस बुलंदी पर पहुचाने का सर्वाधिक श्रेय ढसाल साहब को जाता है.'गोल पीठा'पी बी रोड और कमाठीपुरा के नरक में रहकर ढसाल साहब ने जीवन के जिस श्याम पक्ष को लावा की तरह तपती कविता में उकेरा है उसकी विशेषताओं का वर्णन करने की कुवत मुझमे तो नहीं है.
ढसाल साहब और उनकी टीम ने सिर्फ साहित्य सृजन ही नहीं बल्कि मैदान में उतर कर आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी के लिए भी प्रेरित किया.आज हिंदी पट्टी के दलित लेखक अगर मैदान में उतर कर शक्ति के सभी स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन का मुद्दा जोर-शोर से उठा रहे हैं तो उसका बहुलांश श्रेय ढसाल जैसे क्रन्तिकारी पैन्थर को जाता है..
दिनांक:15 दिसम्बर,2014 जय भीम-जय भारत-जय ढसाल
नहीं रहे दलित पैंथर के संस्थापक :नामदेव ढसाल
एच एल दुसाध
मित्रों!एक माह पूर्व मैंने विश्वकवि नामदेव ढसाल की अस्वस्थ्यता से आपको अवगत कराया था.पहले से ही कई रोगों से जर्जरित ढसाल साहब विगत कुछ माह से बॉम्बे हॉस्पिटल में पड़े-पड़े कैंसर से लड़ रहे थे.किन्तु आज 15 जनवरी की सुबह 4.30 बजे जालिम कैंसर के खिलाफ उनकी लड़ाई खत्म हो गयी.मैं दून एक्सप्रेस में सवार कोलकाता से बनारस जा रहा था.सुबह पौने पांच बजे मोबाइल घनघना उठा.गहरी नीद से जगकर जब जेब से मोबाइल निकाला,स्क्रीन पर दलित पैंथर के महासचिव सुरेश केदारे का नाम देखकर कुछ अप्रिय संवाद की आशंका से मैं काँप उठा.मोबाइल ऑन किया तो भाई केदारे ने रोते हुए बताया कि दादा नहीं रहे.मैं स्तब्ध रह गया.१०-१५ मिनटों तक सदमे में रहने के बाद मैंने सबसे पहले पलाश विस्बास,डॉ विजय कुमार त्रिशरण और ललन कुमार को फोन पर सूचना दी.कई और मित्रों को भी फोन लगाया पर गहरी नीद में होने कारण उनका रिस्पोंस नहीं मिला.फिर एक –एक कर बुद्ध सरण हंस,डॉ ,डॉ संजय पासवान,अरुण कुमार त्रिपाठी,वीर भारत तलवार ,सुधीन्द्र कुलकर्णी,अजय नावरिया,शीलबोधि वगैरह को एसएमएस कर दुखद समाचार की सूचना दी.
मित्रों अपनी पिछली मुंबई यात्रा के दौरान मैंने संकल्प लिया था कि अगले डेढ़-दो साल में ढसाल साहब की जीवनी पुस्तक के रूप में आपके समक्ष लाऊंगा.अब उनके नहीं रहने पर उनकी बायोग्राफी लिखना और जरुरी हो गया है.अभी तक उनके विषय में जो सूचनाएं संग्रहित कर पाया हूँ उसके आधार पर दावे के साथ कह सकता हूँ कि धरती के नरक(रेड लाईट एरिया) से निकल कर पूरी दुनिया में ढसाल जैसी कोई विश्व स्तरीय शख्सियत सामने नहीं आई है.दुनिया में एक से एक बड़े लेखक,समाज सुधारक,राजा –महाराजा ,कलाकार पैदा हुए किन्तु जिन प्रतिकूल परिस्थितियों को जय कर ढसाल साहब ने खुद को एक विश्व स्तरीय कवि,एक्टिविस्ट के रूप में स्थापित किया ,वह बेनजीर है.मैंने दो साल पहले 'टैगोर बनाम ढसाल' पुस्तक लिख कर प्रमाणित किया थी कि मानव जाति के समग्र इतिहास में किसी भी विश्वस्तरीय कवि ने दलित पैंथर जैसा मिलिटेंट आर्गनाइजेशन नहीं बनाया.दुनिया के दुसरे बड़े लेखक-कवियों ने सामान्यतया सामाजिक परिवर्तन के लिए पहले से स्थापित राजनीतिक/सामाजिक संगठनों से जुड़कर बौद्धिक अवदान दिया.किन्तु किसी ने भी ढसाल की तरह उग्र संगठन बनाने की जोखिम नहीं लिया.दलित पैंथर के पीछे कवि ढसाल की भूमिका का दुसरे विश्व –कवियों से तुलना करने पर मेरी बात से कोई असहमत नहीं हो सकता.इसके लिए आपका ध्यान दलित पैंथर की खूबियों की ओर आकर्षित करना चाहूँगा.
अब से चार दशक 9 जुलाई 1972 को विश्व कवि नामदेव ढसाल ने अपने साथी लेखकों के साथ मिलकर 'दलित पैंथर' जैसे विप्लवी संगठन की स्थापना की थी.इस संगठन ने डॉ.आंबेडकर के बाद मान-अपमान से बोधशून्य दलित समुदाय को नए सिरे से जगाया था.इससे जुड़े प्रगतिशील विचारधारा के दलित युवकों ने तथाकथित आंबेडकरवादी नेताओं की स्वार्थपरक नीतियों तथा दोहरे चरित्र से निराश हो चुके दलितों में नया जोश भर दिया जिसके फलस्वरूप उनको अपनी ताकत का अहसास हुआ तथा उनमें ईंट का जवाब पत्थर से देने की मानसिकता पैदा हुई.इसकी स्थापना के एक महीने बाद ही ढसाल ने यह घोषणा कर कि यदि विधान परिषद् या संसद सामान्य लोगों की समस्यायों को हल नहीं करेगी तो पैंथर उन्हें जलाकर राख कर देंगे,शासक दलों में हडकंप मचा दिया.
दलित पैंथर के निर्माण के पृष्ठ में अमेरिका के उस ब्लैक पैंथर आन्दोलन से मिली प्रेरणा थी जो अश्वेतों को उनके मानवीय,सामाजिक,आर्थिक व राजनैतिक अधिकार दिलाने के लिए 1966 से ही संघर्षरत था.उस आन्दोलन का नामदेव ढसाल और उनके क्रन्तिकारी युवकों पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने ब्लैक पैंथर की तर्ज़ पर दलित मुक्ति के प्रति संकल्पित अपने संगठन का नाम दलित पैंथर रख दिया.जहाँ तक विचारधारा का सवाल है पैन्थरों ने डॉ.आंबेडकर की विचारधारा को न सिर्फ अपनाया बल्कि उसे विकसित किया तथा उसी को अपने घोषणापत्र में प्रकाशित भी किया जिसके अनुसार संगठन का निर्माण हुआ.यद्यपि यह संगठन अपने उत्कर्ष पर नहीं पहुच पाया तथापि इसकी उपलब्धियां गर्व करने लायक रहीं.बकौल चर्चित मराठी दलित चिन्तक आनंद तेलतुम्बडे ,'इसने देश में स्थापित व्यवस्था को हिलाकर रख दिया और संक्षेप में बताया कि सताए हुए आदमी का आक्रोश क्या हो सकता है.इसने दलित राजनीति को एक मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान की जोकि पहले बुरी तरह छूटी थी.अपने घोषणापत्र अमल करते हुए पैन्थरों ने दलित राजनैतिक मुकाम की खातिर परिवर्तनकामी अर्थो में नई जमीन तोड़ी.उन्होंने दलितों को सर्वहारा परिवर्तनकामी वेग की पहचान प्रदान की तथा उनके संघर्ष को दुनिया के अन्य दमित लोगों के संघर्ष से जोड़ दिया.' बहरहाल कोई चाहे तो दलित पैंथर की इन उपलब्धियों को ख़ारिज कर सकता है किन्तु दलित साहित्य के विस्तार में इसकी उपलब्धियों को नज़रंदाज़ करना किसी के लिए भी संभव नहीं है.
दलित पैंथर और दलित साहित्य एक ही सिक्के के दो पहलूँ हैं.इसकी स्थापना करनेवाले नेता पहले से ही साहित्य से जुड़े हुए थे.दलित पैंथर की स्थापना के बाद उनका साहित्य शिखर पर पहुँच गया और देखते ही देखते मराठी साहित्य के बराबर स्तर प्राप्त कर लिया .परवर्तीकाल में डॉ.आंबेडकर की विचारधारा पर आधारित पैन्थरों का मराठी दलित साहित्य हिंदी पट्टी सहित अन्य इलाकों को भी अपने आगोश में ले लिया.दलित साहित्य को इस बुलंदी पर पहुचाने का सर्वाधिक श्रेय ढसाल साहब को जाता है.'गोल पीठा'पी बी रोड और कमाठीपुरा के नरक में रहकर ढसाल साहब ने जीवन के जिस श्याम पक्ष को लावा की तरह तपती कविता में उकेरा है उसकी विशेषताओं का वर्णन करने की कुवत मुझमे तो नहीं है.
ढसाल साहब और उनकी टीम ने सिर्फ साहित्य सृजन ही नहीं बल्कि मैदान में उतर कर आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी के लिए भी प्रेरित किया.आज हिंदी पट्टी के दलित लेखक अगर मैदान में उतर कर शक्ति के सभी स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन का मुद्दा जोर-शोर से उठा रहे हैं तो उसका बहुलांश श्रेय ढसाल जैसे क्रन्तिकारी पैन्थर को जाता है..
दिनांक:15 दिसम्बर,2014 जय भीम-जय भारत-जय ढसाल
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