अभिनव सिन्हा और आह्वाण टीम के लिए
अभिनव जी, बहुजन राजनीति कुल मिलाकर आरक्षण बचाओं राजनीति रही है अबतक।वह आरक्षण जो अबाध आर्थिक जनसंहार की नीतियों, निरंकुश कारपोरेट राज,निजीकरण,ग्लोबीकरण और विनिवेश,ठेके पर नौकरी की वजह से अब सिरे से गैरप्रासंगिक है।आरक्षण की यह राजनीति जो खुद मौकापरस्त और वर्चस्ववादी है और बहुजनों में जाति व्यवस्था को बहाल रखने में सबसे कामयाब औजार भी है,अंबेडकर के जाति उन्मूलन के एजंडे को हाशिये पर रखकर अपनी अपनी जाति को मजबूत बनाने लगी है।अनुसूचित जनजातियों में एक दो आदिवासी समुदायों के अलावा समूचे आदिवासी समूह को कोई फायदा हुआ हो,ऐसा कोई दावा नहीं कर सकता।संथाल औऱ भील जैसे अति पिरचित आजिवासी जातियों को देशभर में सर्वत्र आरक्षण नहीं मिलता।अनेक आदिवासी जातियों को आदिवासी राज्यों झारखंड और छत्तीसगढ़ में ही आरक्षण नहीं मिला है।इसी तरह अनेक दलित और पिछड़ी जातियां आरक्षण से बाहर हैं।जिस नमोशूद्र जाति को अंबेडकर को संविधान सभा में चुनने के लिए भारत विभाजन का दंश सबसे ज्यादा झेलना पड़ा और उनकी राजनीतिक शक्ति खत्म करने के लिए बतौर शरणार्थी पूरे देश में छिड़क दिया गया,उन्हें बंगाल और उड़ीशा के अलावा कहीं आरक्षण नहीं मिला। मुलायम ने उन्हें उत्तरप्रदेश में आरक्षण दिलाने का प्रस्ताव किया तो बहन मायावती ने वह प्रस्ताव वापस ले लिया और अखिलेश ने नया प्रस्ताव ही नहीं भेजा।उत्तराखंड में उन्हें शैक्षणिक आरक्षण मिला तो नौकरी में नहीं और न ही उन्हें वहां राजनीति आरक्षण मिला है।जिन जातियों की सामाजिक राजनीतिक आर्थिक स्थिति आरक्षण से समृद्ध हुई वे दूसरी वंचित जाति को आरक्षण का फायदा देना ही नहीं चाहती। मजबूत जातियों की आरक्षण की यह राजनीति यथास्थिति को बनाये रखने की राजनीति है,जो आजादी की लड़ाई में तब्दील हो भी नहीं सकती। इसलिए बुनियादी मुद्दं पर वंचितों को संबोधित करने के रास्ते पर सबसे बड़ी बाधा बहुजन राजनीति केझंडेवरदार और आरक्षणसमृद्ध पढ़े लिखे लोग हैं।लेकिन बहुजन समाज उन्हीके नेतृत्व में चल रहा है।हमने निजी तौर पर देश भर में बहुजन समाज के अलग अलग समुदायों के बीच जाकर उनको उनके मुहावरे में संबोधित करने का निरंतर प्रयास किया है और ज्यादातर आर्थिक मुद्दों पर ही उनसे संवाद किया है,लेकिन हमें हमेशा इस सीमा का ख्यल रखना पड़ा है।
वैसे ही मुख्यधारा के समाज और राजनीति ने भी आरक्षण से इतर बाकी मुद्दों पर उन्हें अबतक किसी ने संबोधित ही नहीं किया है। जाहिर है कि जानकारी के हर माध्यम से वंचित बाकी मुद्दों पर बहुजनों की दिलचस्पी है नहीं, न उसको समझने की शिक्षा उन्हें है और बहुजन बुद्धिजीवी,उनके मसीहा और बहुजन राजनीति के तमाम दूल्हे मुक्त बाजार के कारपोरेट जायनवादी धर्मोन्मादी महाविनाश को ही स्वर्णयुग मानते हैं और इस सिलसिले में उन्होंने वंचितों का ब्रेनवाश किया हुआ है।बाकी मुद्दों पर बात करें तो वे सीधे आपको ब्राह्मण या ब्राह्मण का दलाल और यहां तक कि कारपोरेटएजेंटतक कहकर आपका सामाजिक बहिस्कार कर देंगे।
बहुजनों की हालत देशभर में समान भी नहीं है।
मसलन अस्पृश्यता का रुप देशभर में समान है नहीं।जैसे बंगाल में अस्पृश्यता उस रुप में कभी नहीं रही है जैसे उत्तरभारत,महाराष्ट्र,मध्यभारत और दक्षिण भारत में। इसके अलावा बंगाल और पूर्वी भारत में आदिवासी,दलित,पिछड़े और अल्पसंख्यकों के सारे किसान समुदाय बदलते उत्पादन संबंधों के मद्देनजर जल जंगल जमीन और आजीविका की लड़ाई में सदियों से साथ साथ लड़ते रहे हैं।
मूल में है नस्ली भेदभाव,जिसकी वजह से भौगोलिक अस्पृश्यता भी है।महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश की तरह बाकी देश में जाति पहचान सीमाबद्ध मुद्दों पर बहुजनों को संबोधित किया ही नहीं जा सकता।
आदिवासी जाति से बाहर हैं तो मध्यभारत,हिमालय और पूर्वोत्तर में जातिव्यवस्था के बावजूद अस्पृश्यता के बजाय नस्ली भेदभाव के तहत दमन और उत्पीड़न है।
उत्पादन प्रणाली को ध्वस्त करने,कृषि को खत्म करने की जो कारपोरेट जायनवादी धर्मोन्मादी राष्ट्रव्यवस्था है,उसे महज अंबेडकरी आंदोलन और अंबेडकर के विचारों के तहत संबोधित करना एकदम असंभव है।फिर भारतीय यथार्थ को संबोधित किये बना साम्यवादी आंदोलन के जरिये भी सामाजिक शक्तियों की राज्यतंत्र को बदलने के लिए गोलबंद करना भी असंभव है।यह बात तेलतुंबड़े जी भी अक्षरशः मानते हैं।
ध्यान देने की बात है कि अंबेडकर को महाराष्ट्र और बंगाल के अलावा कहीं कोई उल्लेखनीय समर्थन नहीं मिला। पंजाब में जो बाल्मीकियों ने समर्थन किया,वे लोग भी कांग्रेस के साथ चले गये।
बंगाल से अंबेडकर को समर्थन के पीछे बंगाल में तब दलित मुस्लिम गठबंधन की राजनीति रही है,भारत विभाजन के साथ जिसका पटाक्षेप हो गया।अब बंगाल में विभाजनपूर्व दलित आंदोलन का कोई चिन्ह नहीं है।बल्कि अंबेडकरी आंदोलन का बंगाल में कोई असर ही नहीं हुआ है।अंबेडकर आंदोलन जो है ,वह आरक्षण बचाओ आंदोलन के सिवाय कुछ है नहीं।बंगाल में नस्ली वर्चस्व का वैज्ञानिक रुप अति निर्मम है,जो अस्पृश्यता के किसी भी रुप को लज्जित कर दें।यहां शासक जातियों के अलावा जीवन के किसी भी प्रारुप में अन्य सवर्ण असवर्ण दोनों ही वर्ग की जातियों का कोई प्रतिनिधित्व है ही नहीं।अब बंगाल के जो दलित और मुसलमान हैं,वे शासक जातियों की राजनीति करते हैं और किन्हीं किन्हीं घरों में अंबेडकर की तस्वीर टांग लेते हैं।अंबेडकर को जिताने वाले जोगेंद्रनाथ मंडल या मुकुंद बिहारी मल्लिक की याद भी उन्हें नही है।
इसी वस्तु स्थिति के मुखातिब हमारे लिए अस्पृश्यता के बजाय नस्ली भेदभाव बड़ा मुद्दा है जिसके तहत हिमालयऔर पूर्वोत्तर तबाह है तो मध्य भारत में युद्ध परिस्थितियां हैं।जन्मजात हिमालयी समाज से जुड़े होने के कारण हम ऴहां की समस्याओं से अपने को किसी कीमत पर अलग रख नहीं सकते और वे समस्याएं अंबेडकरी आंदोलन के मौजूदा प्रारुप में किसी भी स्तर पर संबोधित की ही नहीं जा सकती जैसे आदिवासियों की जल जंगल जमीन और आजीविका से बेदखली के मुद्दे बहुजन आंदोलन के दायरे से बाहर रहे हैं शुरु से।
ऐसे में अंबेडकर का मूल्यांकन नये संदर्भों में किया जाना जरुरी ही नहीं,मुक्तिकामी जनता के स्वतंत्रता संग्राम के लिए अनिवार्य है।आप यह काम कर रहे हैं तो मौजूदा हालात के मद्देनजर आपको और ज्यादा जिम्मेदारी उठानी होगी। आप जो प्रयोग कर रहे हैं,उसकी एक भौगोलिक सीमा है।आप जिन लोगों से संवाद कर रहे हैं,वे आपके आंदोलन के साथी हैं।वंचित समुदायों के होने के बावजूद उत्पादन प्रणाली में अपना अस्तित्व बनाये रखने की लड़ाई में वे आम बहुजन मानसिकता को तोड़ पाने में कामयाब हैं।इसलिए उन्हें आपकी भाषा समझने में कोई दिक्कत होगी नहीं।फिर जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय,मुंबई विश्वविद्यालय या कोई भी विश्वविद्यालय परिसर मूक अपढ़ हमेशा दिग्भ्रमित कर दिया जाने वाला सूचना तकनीक वंचित भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करता। यह सामाजिक संरचना बेहद जटिल है और इसके भीतर घुसकर उन्हें आप अंबेडकर के मूल्यांकन के लिए राजी करें और अंबेडकर के प्रासंगिक विचारों के साथ बुनियादी परिवर्तन के लिए राजी करें,इसके लिए आपकी भाषा भी आपकी रणनीति का हिस्सा होना चाहिए।ऐसा मेरा मानना है।
हम तो आपको सही मायने में जनप्रतिबद्ध कार्यकर्ता के रुप में सबसे ज्यादा कुशल व प्रतिभासंपन्न तब मानेंगे जब अभिनव जैसा विश्लेषण आप बहुजनों के मूक जुबान से करवाने में कमायाब है।खुद काम करना बहुत कठिन भी नहीं है,लेकिन विकलांग लगों से काम करवा लेने की कला भी हमें आनी चाहिए,खासकर तब जबकि वह काम किसी विकलांग समाज के वजूद के लिए बेहद जरुरी है। हम अंबेडकर का पूनर्मूल्यांकन कर सकते हैं, लेकिन इसका असर इतना नहीं होगा ,जितना कि खुद बहुजनों को हम अंबेडकर के पुनर्मूल्यांकन के लिए तैयार कर दें,एसी स्थिति बना देने का।दरअसल हमारा असली कार्यभार यही है।
हमारी पूरी चिंता उन वंचितों को संबोधित करने की है,जिनके बिना इस मृत्युउपत्यका के हालात बदले नहीं जा सकते।किसी खास भूगोल या खास समुदाय की बात हम नहीं कर रहे हैं,पूरे देश को जोड़ने की वैचारिक हथियार से देशवासियों के बदलाव के लिए राजनीतिक तौर पर गोलबंद करने की चुनौती हमारे समाने हैं। क्योंकि बदलाव के तमाम भ्रामक सब्जबाग सन सैंतालीस से आम जनता के सामने पेश होते रहे हैं और उन सुनामियों ने विध्वंस के नये नये आयाम ही खोले हैं।
आप का उत्थान कारपोरेट राजनीति का कायकल्प है जो समामाजिक शक्तियों की गोलबंदी और असमिताओं की टूटन का भ्रम तैयार करने का ही पूंजी का तकनीक समृद्ध प्रायोजिक आयोजन है।इसका मकसद जनसंहार अश्वमेध को और ज्यादा अबाध बनाने के लिए है। लेकिन वे संवाद और लोकतंत्र का एक विराट भ्रम पैदा कर रहे हैं और नये तिलिस्म गढ़ रहे हैं।उस तिलिस्म कोढहाना भी मुक्तिकामी जनता के हित में अनिवार्य है,जो आप बखूब गढ़ रहे हैं।
जहां तक तेलतुंबड़े का सवाल है,अगर बहुजन राजनीति का अभिमुख बदलने की मंशा हमारी है तो महज आनंद तेलतुंबड़े नहीं, कांचा इलेय्या, एचएल दुसाध, उर्मिलेश, गद्दर, आनंद स्वरुप वर्मा जैसे तमाम चिंतकों और सामाजिक तौर पर प्रतिबद्ध तमाम लोगों से हमें संवाद की स्थिति बनानी पड़ेगी।ये लोग बहुजन राजनीति नहीं कर रहे हैं। अंबेडकर के पुनर्मूल्यांकन अगर होना है तो संवाद और विमर्श से ऐसे लोगों के बहिस्कार से हम बहुजन मसीहा और दूल्हा संप्रदायों के लिए खुल्ला मैदान छोड़ देंगे।जो बहुजनों का कारपोरेट वधस्थल पर वध का एकमुश्त सुपारी ले चुके हैं।
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Palash Biswas आह्वान टीम के लिए
Palash Biswas असहमति के बावजूद हम चाहते हैं कि इस अनिवार्य मुद्दे पर संवाद जारी रहे।आह्वान टीम अपने असहमत साथियों के साथ जो निर्मम भाषा का प्रयोग करती है,उसे थोड़ा सहिष्णु बनाने का यत्न करें तो यह विमर्श सार्थक संवाद में बदल सकता है।
तेलतुंबड़े अंबेडकरवादियों में एकमात्र ऎसे विचारक हैं जो समसामयिक य़थार्थ से टकराने की कोशिश करते हैं।
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सबकी अपनी सीमाबद्धता है।अंबेडकर की भी अपनी सीमाबद्धता रही है। मार्क्स भी सीमाओं के आर पार नहीं थे।न माओ।लेकिन सबने इतिहास में निश्चित भूमिका का निर्वाह किया है।
हम मानते हैं कि आह्वाण की युवा प्रतिबद्ध टीम भी एक ऎतिहासिक भूमिका में है और उसे इसका निर्वाह और अधिक वस्तुवादी तरीके से करना चाहिए।लेकिन जब हम आम जनता को संबोधित करते हैं तो हमें इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि वे अकादमिक या वस्तुवादी भाषा में अनभ्यस्त हैं और उनका संसार पूरी तरह भाववादी है।
इस द्वंद्व के समाधान के लिए भाषा की तैयारी मुकम्मल होनी चाहिए।
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आप अंबेडकर,तेलतुंबड़े और दूसरे तमाम समकालीन प्रतिबद्ध असहमत लोगों के प्रति भाषा की सावधानी बरतें तो हमें लगता है कि आपका यह प्रयास और ज्यादा संप्रेषक और प्रभावशाली होगा।
याद करें कि आपके आधारपत्र और वीडियो रपट देखने के बाद हमें तत्काल बहस से बाहर जाना पड़ा। क्योंकि हम जिन लोगों के साथ काम कर रहे हैं वे इस भाषा में अंबेडकर का मूल्यांकन करना नहीं चाहते।
दरअसल मूर्तिपूजा के अभ्यस्त जनता से आप सीधे तौर पर उनकी मूर्तियां खंडित करने के लिए कहेंगे तो संवाद की गुंजाइश बनेगी ही नहीं।
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उन्हें अपने स्तर तक लाने से पहले उनके स्तर पर खड़े होकर उनके मुहावरों में संवाद हमारा प्रस्थानबिंदु होना चाहिए।
माओ ने इसीलिए जनता के बीच जाकर जनता से सीखने का सबक दिया था।
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भारतीय यथार्थ गणितीय नहीं है और न ही उसे सुलझाने का कोई गणितीय वैज्ञानिक पद्धति का आविस्कार हुआ है।
हर प्रदेश,हर क्षेत्र की अपनी अपनी अस्मिता है।हर समुदाय की अस्मिता अलग है।ये असमिताएं आपस में टकरा रहीं हैं,जिसका सत्तावर्ग गृहयुद्ध और युद्ध की अर्थव्यवस्था में बखूब इस्तेमाल कर रहा है।
मनुस्मृति भी एक बहिस्कार और विशुद्धता के सिद्धांत पर आधारित अर्थशास्त्र ही है,ऎसा हम बार बार कहते रहे हैं।
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हमें आपकी दृष्टि से कोई तकलीफ नहीं है,न आपके विश्लेषण से। हम सहमत या असहमत हो सकते हैं। लेकिन हम चाहते हैं कि जिस ईमानदारी से आप संवाद और विमर्श का बेहद जरुरी प्रयत्न कर रहे हैं,वह बेकार न हों।
तेलतुंबड़े को झूठा साबित करना मेरे ख्याल से क्रांति का मकसद नहीं हो सकता।बाकी आपकी मर्जी।
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आप इस बहस को आह्वान के मार्फत व्यापक पाठकवर्ग तक पहुंचा रहे हैं,इसके लिए आभार।हम इस प्रयत्न का अपनी असहमतियों के बावजूद स्वागत करते हैं।संवादहीन समाज में समस्याओं की मूल वजह संवादहीनता की घनघोर अमावस्या है,आप लोग उसे तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं।
आपकी आस्था वैज्ञानिक पद्धति में है।हमारी भी है।लेकिन शायद आपकी तरह दक्षता हमारी है नहीं है।
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हम अपने सौंदर्यबोध में वस्तुवादी दृष्टि के साथ जनता को संबोधित करने लायक भाववादी सौंदर्यशास्त्र का भी इस्तेमाल करते हैं अपने नान प्रयोग में इसी संवादहीनता को तोड़ने के लिए।
कृपया इसे समझने का कष्ट करें कि आपके शत्रु वास्तव में कौन हैं और मित्र कौन।
Abhinav Sinha पलाश जी, आपके सुझावों का स्वागत है। लेकिन यह समझने की आवश्यकता है कि राजनीतिक बहस में एक-दूसरे का गाल नहीं सहलाया जा सकता है। इसमें call a spade a spade की बात लागू होती है। तेलतुंबडे जी ने अपने लेख में हमारे प्रति कोई रू-रियायत नहीं बरती है, और न ही हमने अपने लेख में उनके प्रति कोई रू-रियायत बरती है। इसमें दुखी होने, कोंहां जाने, कोपभवन में बैठ जाने वाली कोई बात नहीं है। यह शिकायत जब तेलतुंबडे जी की ही नहीं है (क्योंकि वे स्वयं भी उसी भाषा का प्रयोग अपने लेख में करते हैं, जिस पर पलाश जी की गहरी आपत्ति है) तो फिर किसी और के परेशान होने की कोई बात नहीं है।
दूसरी बात, यहां बहस व्यक्तियों की सीमाबद्धता की है ही नहीं। यहां बहस विज्ञान पर है। सवाल इस बात का है कि अंबेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई वैज्ञानिक परियोजना थी? क्या उनके पास एक समतामूलक समाज बनाने की कोई वैज्ञानिक परियोजना थी ? निश्चित रूप से सीमाओं से परे न तो मार्क्स हैं और न ही माओ। ठीक वैसे ही जैसे आइंस्टीन या नील्स बोर भी नहीं थे। लेकिन अंबेडकर से अलग मार्क्स ने सामाजिक क्रांति का विज्ञान दिया। अंबेडकर अपने तमाम जाति-विरोधी सरोकारों के बावजूद सुधारवाद, व्यवहारवाद के दायरे से बाहर नहीं जा सके; सामाजिक परिवर्तन के विज्ञान को समझने में वे नाकाम रहे। और हमारे लिए अंबेडकर की अन्य व्यक्तिगत सीमाओं का कोई महत्व नहीं है, लेकिन उनकी इस असफलता का महत्व दलित मुक्ति की पूरी परियोजना के लिए है।
इसलिए व्यक्तियों की सीमाएं होती हैं, इस सर्वमान्य तथ्य पर बहस ने हमने अपने लेख में की है, और न ही हम आगे ऐसी बहस कर सकते हैं।
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अगर भाषा के आधार पर ही बहस से बाहर जाना उचित होता हो, साथी, तो फिर हमें तेलतुंबडे जी द्वारा प्रयोग की जाने वाली भाषा पर तुरंत ही बहस से बाहर जाना चाहिए था। हमारे लिए भाषा तब भी उतनी अहमियत नहीं रखती थी, और अब भी नहीं रखती है। मूल बात है बहस के आधारभूत मुद्दे। अगर भाषा पर ही आपकी पूरी आपत्ति ही है तो आपको यह सीख पहले तेलतुंबडे जी को देनी चाहिए, जो बेवजह ही हमें अपना शत्रु समझते हैं। विचारधारात्मक बहस आप तीखेपन से चलायें तो सही है, अगर हम चलायें तो ग़लत। यह कहां की नैतिकता है? तेलतुंबडे जी ने अपने वक्तव्य में असत्यवचन कहा था। तो अब हम क्या करें ? क्या इस बात की ओर इंगित न करें ? क्या इसी प्रकार से बहस चलायी जाती है ? हमें लगता है कि यह बौद्धिक-राजनीतिक बेईमानी होगी।
जहां तक भारत की जटिलता का प्रश्न है, तो आपके अस्मिताओं, गणितीय-गैरगणितीय यथार्थ और उनके गणितीय व गैर-गणितीय समाधानों के बारे में विचारों पर अपनी प्रतिक्रिया हम संक्षेप में नहीं दे सकते हैं। लेकिन इस पर आह्वान के उपरोक्त लेख में ही हमारे विचार स्पष्ट हैं। आप उन्हें ही संदर्भित कर सकते हैं। संक्षेप में इतना ही कि इस जटिलता से हम भी वाकिफ हैं और हम इसका कोई 'दो दुनाई चार' वाला समाधान प्रस्तावित भी नहीं कर रहे हैं। अगर आप गौर से हमारे लेख का अवलोकन करें तो स्वयं ही यह बात स्पष्ट हो जायेगी।
Palash Biswas अभिनव जी,हम आपका लेख पढ़ चुके हैं और वक्तव्य भी सुन चुके हैं। हम कोई तेलतुंबड़े जी का पक्ष नहीं ले रहे हैं और न आपके पक्ष का खंडन कर रहे हैं। हम सारे लोग अलग अलग तरीके से भारतीय यथार्थ को संबोधित कर रहे हैं। अगर हम राज्यतंत्र में परिवर्तन चाहते हैं और उसके लिए हमारे पास परियोजना है,तो उस परियोजना का कार्यान्वयन भी बहुसंख्य जनगण को ही करना है।
हीरावल दस्ते के जनता के बहुत आगे निकल जाने से सत्तर के दशक की सबसे प्रतिबद्ध सबसे ईमानदार पीढ़ी का सारा बलिदान बेकार चला गया।क्योंकि जनता से संवाद की स्थिति ही नहीं बनी।
विचारधारा अपनी जगह सही है,लेकिन उसे आम जनता को,जो हमसे भी ज्यादा अपढ़ और हमसे भी ज्यादा भाववादी है,उस तक आप वैज्ञानिक पद्धति से वस्तुपरक विश्लेषण संप्रेषित करके उन्हें मुक्ति कामी जनसंघर्ष के लिए देशभर में तमाम अस्मिताओं के तिलिस्म तोड़कर कैसे संगठित करेंगे,जनपक्षधर मोर्चे की बुनियादी चुनौती यही है।
अवधारणाएं और विचारधारा अपनी जगह सही हैं,लेकिन तेलतुंबड़े हों या आप,या हम या दूसरे लोग,हम सामाजिक यथार्थ के मद्देनजर मुद्दों को टाले बिना एकदम तुरंत जनता को संबोधित नहीं कर पा रहे हैं।
यह आह्वान टीम ही नहीं,पूरे जनपक्षधर मोर्चे की भारी समस्या है।शत्रू पक्ष के लोगों में वैचारिक सांगठनिक असहमति होने के बावजूद जबर्दस्त समन्वय और अविराम औपचारिक अनौपचारिक संवाद है।
लेकिन आप जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं,वैसे देश के अलग अलग हिस्से में हमारे तमाम लोग बेहद जरुरी काम कर रहे हैं।लेकिन हमारे बीच कोई आपसी संवाद और समन्वय नहीं है।
Palash Biswas जब हमारा बुनियादी लक्ष्य मुक्तिकामी जनता को राज्यतंत्र में बुनियादी परिवर्तन के लिए जातिविहीन वर्गविहीन समाज की स्थापना के लिए संगठित करना है,तो आपस में संवाद में हार जीत और रियायत के सवाल गैरप्रासंगिक हैं।
जब आप सांगठनिक तौर पर नीतियां तय कर रहे होते हैं,तो वस्तुपरक दृष्टि से पूरी निर्ममता से चीजों का विश्लेषण होना ही चाहिए।
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लेकिन जब आप सार्वजनिक बहस करते हैं या लिखते हैं तो आपको जनता के हर हिस्से को और खासकर जिस बहुसंख्य सर्वहारा वर्ग को आप संबोधित कर रहे हैं,उसपर होने वाले असर का आपको ख्याल रखना होगा।
Palash Biswas यह कोप भवन में जाने की बात नहीं है। हम जिन तबकों के साथ जमीनी स्तर पर काम कर रहे हैं,वे मसीहों और दूल्हों के शिकंजे में फंसे मूर्ति पूजक संप्रदाय है तो सीधे अंबेडकर की मूर्ति को एक झटके से गिराकर उनके बीच आप काम नहीं कर सकते हैं।वे तो आपको सुनते ही नहीं है। न वे विचारधारा समझते हैं,न राज्य का चरित्र जानते हैं,न राजकाज की गतिविधियों पर उनकी दृष्ठि है और न वे अर्थव्यवस्था के बुनियादी सिद्धांतों के जानकार हैं।
Palash Biswas जाति विमर्श जब आप चला रहे थे,तब आपके आक्रामक तेवर से जो बातें संप्रेषित हो रही थीं,उसे आगे बढ़ते देने से अंबेडकर के पुनर्मूल्यांकन का काम और मुश्किल हो जाता।यह अनिवार्य कार्यभार है और आपने इस पर विमर्श की पहल करके भी बढ़िया ही किया है।लेकिन इस विमर्श औ...See More
Palash Biswas अब देशभर में कश्मीर से लेकर कन्याकुमरी तक हजारों की तादाद में ऐसे पुरातन बीएसपी और बामसेफ के कार्यक्रता भी हमारे साथ हैं,जो अंबेडकरी आंदोलन की चीड़फाड़ के लिए तैयार हैं और अस्मिताओं से ऊपर उठकर अंबेडकर के जाति उन्मूलन के मूल एजंडा के तहत ही उनका मूल्यांकन करने को तैयार हैं और जनसंहारी अर्थ व्यवस्था के विरुद्ध देश व्यापी जनप्रतिरोध के साझ मोर्चे के लिए तैयार हैं। जब आपने विमर्श चलाया तब यह हालत नहीं थी।तेलतुंबड़े जी भी इस बहस को जारी रखने के हक में हैं।देश भर में और भी लोग जो वाकई बदलाव चाहते हैं, इस विमर्श को जारी रखने की अनिवार्यता मानते हैं।
Palash Biswas अब बुनियादी समस्या लेकिन वही है कि हमें उस भाषा और माध्यम पर मेहनत करनी होगी, जिसके जरिये हम वंचितों को तृणमूल स्तर पर इस विमर्श में शामिल कर सकें,ताकि अस्मिताओं का तिलिस्म टूटे और अंधेरा छंटे। विश्लेषण आप भले ही सही कर रहे हों,उसे आडियेंस तक सहीतरीके से संप्रेषित करना आपकी सबसे बड़ी चुनौती है।
Palash Biswas हमारी तुलना में आप लोग युवा हैं, तकनीक दक्ष हैं,विश्लेषण पारंगत प्रतिबद्ध टीम है तो अब आपको इस चुनौती का सामना तो करना ही होगा कि बेहतर तरीके से हम अपनी बात कैसे वंचित तबके तक ले जायें।
क्योंकि अंबेडकर के खिलाफ वंचित तबके के लोग कुछ भी सुनना नहीं चाहते।वे तेलतुंबड़े को भी नही पढ़ते हैं और न सुनते हैं।
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पहले उन्हें इस विमर्श के लिए मानसिक तौर पर तैयार करना होगा वरना आप जो कर रहे हैं,वह सत्तावर्ग की समझ में तो आयेगा लेकिन सर्वहारा जिस हालत में हैं, वे वहां से एक कदम आगे नहीं बढ़ेंगे।
आगे भविष्य आप लोगों का है,हम लोग तेजी से अतीत में बदल रहे हैं।
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आपसे ही उम्मीदे हैं कि आप इन समस्याओं का समाधान निकालकर माध्यमों का बेहतर इस्तेमाल करके वंचित समुदायों समेत देश भर के सर्वहारा सर्वस्वहारा तबकों को बुनियादी परिवर्तन के लिए संगठिक करेंगे।
मैं कोई आपकी आलोचना के लिए आपको यह सुझाव नहीं दे रहा हूं,बल्कि जो काम आप लोग कर रहे हैं,उसे अति महत्वपूर्ण मानते हुए उसको पूरे देश को संप्रेषित करने की गरज से ऎसा कर रहा हूं।
Abhinav Sinha हम सहमत हैं, पलाश जी कि जनता के साथ जुड़ने की जरूरत है। उनके साथ एकता-संघर्ष-एकता का रिश्ता बनाने की जरूरत है। आप हम पर यक़ीन कर सकते हैं कि हम यह काम कर भी रहे हैं। आह्वान में लिखने वाला एक-एक युवा कार्यकर्ता मुख्य रूप से मज़दूर मोर्चे पर कार्यरत है। हमें वहां कभी अंबेडकर के प्रश्न पर या उनकी आलोचना के प्रश्न पर कभी समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है, जबकि जिन मज़दूर साथियों के बीच हम काम कर रहे हैं, उनका बहुलांश दलित है। यह समस्या हमेशा मध्यवर्गीय दलित चिंतकों के साथ आती है। अंबेडकर की किसी आलोचना को सुनने के लिए समूची दलित आबादी का यह तीन-चार फीसदी हिस्सा तैयार नहीं है। यह हिस्सा बथानी टोला और लक्ष्मणपुर बाथे के हत्यारों के छूटने पर कोई शोर नहीं मचाता, आंदोलन तो बहुत दूर की बात है। लेकिन अंबेडकर के एक कार्टून पर (जिसमें कुछ भी अंबेडकर विरोधी नहीं था) सुहास पल्शीकर के कार्यालय में तोड़-फोड़ कर सकता है।
हमें आप जैसे प्रतिबद्ध लोगों का साथ चाहिए। आप यकीन करें कि आलोचना से हमसे कोई नाराज़ नहीं हुआ है। हम खुद महाराष्ट्र में काम कर रहे हैं। आह्वान से जुड़ी एक टीम मुंबई विश्वविद्यालय के कालीना कैंपस में काम कर रही है। वहां भी हमने अंबेडकर के विचारों पर अपना स्टैंड रखा। लोगों से बहसें जरूर हुईं लेकिन हमें नहीं लगता कि इसकी वजह से दलित जनता से हम कोई कट गये। वंचित और दलित आबादी का असली सरोकार अपने जीवन की मूल समस्याओं, राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक हक़ों पर जुझारू संघर्ष से है। जो यह करेगा, वह उनके साथ खड़ी होगी। हम यही करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन जो विचारधारात्मक विभ्रम है उसके सफाये के लिए जरूरी है कि अंबेडकरवाद की एक वैज्ञानिक आलोचना पेश की जाये। क्योंकि दलित मुक्ति की परियोजना के ठहरावग्रस्त होने का सबसे बड़ा कारण आज अंबेडकरवाद की एक वैज्ञानिक आलोचना का अभाव है।
Divyendu Shekhar आप लोग एक यूनिवर्सिटी खोल लें क्रिपया। आम आदमी आपके इन विचारों से अपने आपको काफ़ी दूर पाता है
19 hours ago via mobile · Like
Abhinav Sinha आम आदमी की मेधा से सबसे ज्यादा अपरिचित और विश्वविद्यालयों और कारपोरेट घरानों में नौकरी करने वाले लोग ही आम आदमी के बारे में ऐसी टिप्पणी कर सकते हैं। सन्देह पैदा होता है कि ये कहीं केजरीवाल वाला 'आम आदमी' तो नहीं है!
Divyendu Shekhar सर। आम आदमी इतनी थ्योरी को समझने की शक्ति नहीं रखता। उसको आपको सरल शब्दों में समझाना पड़ेगा। और विश्वविद्यालय । में पढे़ और काॅर्पोरेट में काम करने वाले लोग समाज में वो बदलाव ला रहे हैं जो बाक़ी वामपंथ ना जाने कितने सालों में नहीं ला पाया। हाँ केजरीवाल उस आंदोलन का एक ज़रूरी पात्र है क्योंकि वो उन लोगों से जुड़ पाया जिनसे आप नहीं जुड़ पाये। जिस दिन आप उस इंसान से उसकी भाषा में बात कर पायेंगे उस दिन आपकी बात कोई सुनेगा। तब तक आपकी ये सारी debates irrelevant और किताबी हैं।
18 hours ago via mobile · Like
Abhinav Sinha दिव्येंदु, यहां पर एक संगोष्ठी में चली बहस का जि़क्र हो रहा था। केजरीवाल जिस ''आम आदमी'' की राजनीति कर रहा है, उससे जुड़ा है। हम जिस मज़दूर वर्ग की राजनीति कर रहे हैं, उससे जुड़े हैं। केजरीवाल की राजनीति का क्या होना है, ये तो जल्द ही पता चल जायेगा। सवाल राजनीति का है, कौन किस वक्त जनता से कितना जुड़ा इसका नहीं। उस नाटक का पात्र बनना हमारा मकसद नहीं है, जिसका कि केजरीवाल पात्र है। संगोष्ठी में राजनीतिक दायरे के अनुभवी और व्यहार से जुड़े लोग जुटते हैं। वहां वह राजनीतिक भाषा में ही बात करते हैं। हम जब लोगों के बीच होते हैं तो हमारी भाषा अलग होती है। फेसबुक पर वैसे भी ये बहसें जनता के लिए अप्रासंगिक ही रहेंगी, क्योंकि देश की कुल आबादी के 10 प्रतिशत के पास भी इंटरनेट कनेक्शन नहीं है। फेसबुक पर हम यह बहस सीधे समूची आम जनता को गोलबंद करने के लिए चला भी नहीं रहे हैं। जो ऐसा सोचता है, उसकी मेधा के बारे में जितना कम कहा जाय उतना अच्छा है। तुम फेसबुक पर ही अपनी ''जनता के करीब'' भाषा से गोलबंदी कर सकते हो। हमें यहां इस बात का रिपोर्ट कार्ड पेश करने की जरूरत नहीं है, कि हम आम जनता के बीच किस पद्धति और भाषा के जरिये जाते हैं। हालांकि, हमारे ऐसे अभियानो और आन्दोलनों की रपट भी फेसबुक पर आती रहती है। लेकिन शायद तुम फेसबुकिया टिप्पणी के लिए मुद्दे चुनने में काफी सेलेक्टिव हो। केजरीवाल की अदा भी कुछ ऐसी ही है। ताज्जुब नहीं।
Divyendu Shekhar हमने आपके एक कटाक्ष का जवाब दिया। लेकिन सोचने की बात ये है कि आप उस जगह और उस बहस में क्यों नहीं आ पाते जहाँ वो है? क्योंकि आज अंबेडकर का कोई महत्व नहीं है। वो 50 साल पहले "थे"। बहरहाल आप अपना काम चालू रखें। मेरा बस यही कहना है कि दुनिया काफ़ी बदल गयी है
17 hours ago via mobile · Like
Abhinav Sinha आपकी शिक्षा और नसीहत पर ध्यान दिया जायेगा ! हमें जिस बहस में जिस जगह होना है, वहां हम हैं; आपको और 'आप'को जिस जगह जिस 'बहस' में होना है, वहां वह है। समय दोनों का ही हिसाब कर देगा। अंबेडकर के बारे में हमारे विचारों के बारे में बिना पढ़े टिप्पणी न करें, तो बेहतर होगा। पहले हमारे विचार जान लें। हमारा काम किसी की नसीहत के बिना भी जारी था और जारी रहेगा। बाकी, दुनिया तो हमेशा ही बदलती रहती है, इस सत्य से अवगत होने के लिए भी किसी नसीहत की जरूरत नहीं है। हमने भी आपके कटाक्ष का ही जवाब दिया था। आपका हस्तक्षेप ही पहला था इस थ्रेड में। ग़ौर करें, कृपया।
Divyendu Shekhar बिल्कुल। हमारी विचारधारा अब भी यही कहती है कि नेहरू गांधी और अंबेडकर अब भूल जाने लायक हैं। उनको पढ़ के तो और कुछ नहीं होना
17 hours ago via mobile · Like
Rohit Parmila Ranjan http://www.indianexpress.com/.../after-maoists.../1215873/
Rohit Parmila Ranjan those people who talks about sr.
Economic and Political Weekly
If you haven't read it already, do read the independent fact finding committee's report on the Muzaffarnagar riots. The full report is available in Economic and Political Weekly web exclusives:
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The Economic Times
ISRO's GSLV-D5 launch: 10 things that make it special http://ow.ly/sinuC
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Himanshu Kumar
मुझे अजनबी सा जो जानकार के दिखा रहे हैं गली गली
इस शहर में मेरा घर भी है कहीं ये किसी को पता नहीं
मुज़फ्फर नगर मेरा अपना पुश्तैनी शहर है यहीं पैदा हुआ बड़ा हुआ . आज मुझे लोग इस तरह समझाते हैं जैसे मैं यहाँ के बारे में अनजान होऊँ .
और मुझे ये भी लगता है कि
मेरे कातिलों की तलाश में कई लोग जान से जायेंगे
मेरे क़त्ल में मेरा हाथ है कहीं ये किसी को पता नहीं
बशीर बदर साहब आज बेसाख्ता याद आये उनका घर मेरठ के दंगों में जला दिया गया था तब उन्होंने लिखा था
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस भी नहीं खाते बस्तियां जलाने में
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Jayantibhai Manani, Pankaj Chaturvedi, Ashutosh Singh and 70 others like this.
Anand Rishi मार्मिक और सटीक !
Shalinee Tripathi Subhash सच है हिमांशु जी ,मुज्ज़फर्नगर के जलने का दुःख आपको कितना हुआ होगा इसकी सिर्फ कल्पना कर सकते हैं हम लोग...कोई कहीं भी रहे जब अपनी जन्मस्थली पर दंगों की खबर सुनता है तो आँखों से आंसू नहीं खून गिरता है...
37 minutes ago · Like · 1
Palash Biswas सत्ता खेल के जो खिलाड़ी है,उनके लिए आम जनता का यह भोगा हुआ यथार्थ भी पूंजी है,हिमांशु जी। नकदीकरण की होड़ से भी बचना है असहाय लोगों को।जख्म है,मलहम नहीं लेकिन।नमक की आवक बहुत है।
Economic and Political Weekly
"How bad climate impacts will be beyond the mid-century depends crucially on the world urgently shifting to a development trajectory that is clean, sustainable, and equitable, a notion of equity that includes space for the poor, for future generations and other species."
Read about the alarming report of IPCC on global warming:http://www.epw.in/commentary/ipccs-summary-policymakers.html
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