Saturday, October 5, 2013

নবান্নে বোধন, প্রতিপদে বিনা আবাহন পুজো উদ্বোধন দুনিয়ার অসুররা এক হও

নবান্নে বোধন, প্রতিপদে

বিনা আবাহন

পুজো উদ্বোধন


দুনিয়ার অসুররা এক হও

পলাশ বিশ্বাস


চার মাসের জন্য ভারতীয় সংস্কৃতির উপর ইউরোপালিয়া নামে একটি উৎসবের আয়োজন করা হয়েছে ব্রাসেলসে। গতকাল তার উদ্বোধন করেন রাষ্ট্রপতি ও রাজা ফিলিপ। এখানে একটি বড় দুর্গা মূর্তি রাখা হয়েছে। তাতে রয়েছেদুর্গা পুজো পদ্ধতি সহ মাতৃশক্তির আরাধনা নিয়ে নানা ছবি, ...


মানুষ অসুর প্রকৃতিও অসুর

বৃষ্টি অসুর পুজোয় বাজারে

ব্যাঘাত অসুর


গড়িয়াহাটে উপচে পড়া ভিড়ে চলছে পুজোর আগের শেষ শনিবাসরীয় শপিং



ইতিহাসের উলটপুরাণ, যে ভবন তৈরিতে বিরোধিতা করেছিল তৃণমূল সেখানেই মহাকরণের বসতি



ঠিকানা বদল৷ প্রতিপদ থেকে পথচলা শুরু নবান্নর৷ শনিবার দুপুর প্রায় পৌনে ১২টা নাগাদ জাতীয় পতাকা উত্তোলন করে রাজ্যের নতুন প্রশাসনিক ভবনের উদ্বোধন করেন মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়৷


এদিনের উদ্বোধনী অনুষ্ঠানে মুখ্যমন্ত্রীর সঙ্গে ছিলেন অর্থমন্ত্রী অমিত মিত্র, পুর ও নগরোন্নয়নমন্ত্রী ফিরহাদ হাকিম, পরিবহণমন্ত্রী মদন মিত্র-সহ রাজ্যের অন্যান্য মন্ত্রী, সচিব, পুলিশ ও প্রশাসনিক কর্তারা৷ গৃহপ্রবেশে অনুষ্ঠানের পর মুখ্যমন্ত্রী পনের তলায় নিজের চেম্বারে চলে যান৷ ক্যাবিনেট রুম ঘুরে দেখেন মুখ্যমন্ত্রী, বিভিন্ন দফতরেরও খোঁজখবর নেন৷ এদিনই অর্থমন্ত্রী, মুখ্যসচিব, স্বরাষ্ট্র সচিবের সঙ্গে একদফা বৈঠকও সারেন৷


সরকারি ভাবে ১১টি দফতরকে সরিয়ে আনা হয়েছে এই নতুন প্রশাসনিক ভবনে৷ বৃষ্টি দেখতে ছাদেও উঠে যান মুখ্যমন্ত্রী৷


নবান্নর উদ্ধোধনের দিন এলাকার নিরাপত্তা ব্যবস্থাও ছিল কড়া। সকাল থেকেই কোনা এক্সপ্রেসওয়ে ও দ্বিতীয় হুগলি সেতুতে কড়া নিরাপত্তা ব্যবস্থা করা হয়৷ গোটা এলাকা জুড়ে মোতায়েন ছিল পুলিশবাহিনী৷



স্টার আনন্দের প্রতিবেদনঃ


পঞ্চমী থেকে ত্রয়োদশী৷ আসা যাবে না গলি থেকে রাজপথে৷ পুজোর অটোর গতিবিধি নিয়ন্ত্রণে এমনই সিদ্ধান্ত পরিবহণ দফতরের৷ পুজোর কটা দিন শহরের রাজপথ দর্শনার্থীদের দখলে৷ যানজট নিয়ন্ত্রণে হিমশিম পুলিশ৷ ফাঁক ফোকর দিয়ে ঢুকে পড়া অটো, পরিস্থিতিকে করে তোলা আরও জটিল৷ সবমিলিয়ে নাজেহাল শহরবাসী৷ এবার যাতে এরকম পরিস্থিতি না হয়, তার জন্য উদ্যোগী পরিবহণ দফতর৷ পরিবহণমন্ত্রী মদন মিত্র জানিয়েছেন, পঞ্চমী থেকে ১৭ তারিখ পর্যন্ত শহরের বড় রাস্তায় অটো চলাচল নিষিদ্ধ৷ তবে গলির ভিতরে অটো চলতে পারে৷ মন্ত্রীর হুঁশিয়ারি, পুজোর ক'দিন অটোয় অতিরিক্ত ভাড়া নেওয়া যাবে না৷


শহরতলির মানুষও যাতে পুজোর সময়ে খুব সহজে যাতায়াত করতে পারেন সেজন্য বিকল্প ব্যবস্থার কথাও জানিয়েছেন পরিবহণমন্ত্রী৷ তিনি জানিয়েছেন, সাধারণের সুবিধার জন্য পুজোয় অতিরিক্ত এসি বাস চালানো হবে৷ গঙ্গাবক্ষে চলবে একাধিক দ্রুতগামী জলযান৷ দক্ষিণেশ্বর, হাওড়া, চন্দননগর, চুঁচুড়া, মিলেনিয়াম পার্কে এই পরিষেবা মিলবে৷


অন্য দিকে


আজ থেকে

রাজ্য প্রশাসনের

নতুন ঠিকানা

হল 'নবান্ন'৷


শারোদত্‍সবের সূচনা হল এভাবেই। এখন স্রেফ ঢাকে কাঠি পড়ার অপেক্ষা। অধীর আগ্রহে অপেক্ষা দেবী বোধনের।


তার আগেই দ্বিতীয়ায়

পুজো উদ্বোধন


এবারও বীরেন্দ্রকৃষ্ণ ভদ্রের কন্ঠে ভাষ্যপাঠ। তারপর মন্ত্রোচ্চারণ ও তর্পণের আচার শেষ করে গঙ্গাস্নান।


রাজ্য প্রশাসনের প্রাণকেন্দ্র। আর কলকাতা নয়। নতুন ঠিকানা গঙ্গা পেরিয়ে আকাশছোঁয়া এইচআরবিসি বিল্ডিং। যার পোশাকি নাম নবান্ন। আজ থেকেই নতুন ঠিকানায় কাজ শুরু করলেন মুখ্যমন্ত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়। রাতেই মুখ্যমন্ত্রী, মুখ্যসচিব এবং স্বরাষ্ট্রসচিবে দফতরের যাবতীয় নথিপত্র সরিয়ে নিয়ে যাওয়া হয়েছে নবান্নতে। ১৫ তলা এই ভবনের একেবারে ওপরের তলায় বসবেন মুখ্যমন্ত্রী। নিশ্ছিদ্র নিরাপত্তা বেষ্টনিতে মুড়ে ফেলা হয়েছে প্রশাসনের নতুন প্রাণকেন্দ্রকে।


শেষদিনের মহাকরণ। লক্ষ লক্ষ কর্মচারীর ভবিষ্যত্ জড়িয়ে আছে এমন হাজার হাজার ফাইল, দস্তাবেজ, অমূল্য নথি- সবই নিপুনভাবে সরানো গেল তো? সবকিছু ঠিকঠাক ভাবে নতুন ভবনে ঠাঁই করে নিতে পারল তো? কিন্তু অর্থদফতরের মত গুরুত্বপূর্ণ দফতরেই এখনও সরানো বাকি প্রচুর নথি।


লালদিঘির পাড়ে

নিঃসঙ্গ হয়ে দাঁড়িয়ে মহাকরণ৷

নেই কোনও কর্মী৷

ইতিউতি শুধু দেখা মিলল

হাতেগোনা জনাকয়েক নিরাপত্তারক্ষীর৷

তাঁরাও অপেক্ষায়,

কবে আবার পুরনো চেহারায়

ফিরবে মহাকরণ৷

চেনা ব্যস্ততা আজ উধাও৷

গঙ্গাপাড়ে নবান্নে

যখন গৃহপ্রবেশের আমেজ,

লালদিঘির পাড়ে দাঁড়িয়ে থাকা

সুবিশাল মহাকরণ তখন নিঃসঙ্গ,

নিস্তব্ধ৷ শুনশান করিডর৷

তালাবন্দি ঘর৷

রাজ্য প্রশাসনের

দীর্ঘ কয়েক দশকের

পুরনো ঠিকানা

আজ জৌলুসহীন৷


প্রফুল্লচন্দ্র ঘোষ থেকে

মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়৷

শাসকের চেয়ারে

বহু বদলের সাক্ষী লালবাড়ি৷

প্রতিদিন সকাল থেকে

অজস্র কর্মী, সাধারণ

মানুষের আনাগোনা,

কাগজপত্র নাড়াচাড়ার শব্দ,

জমা ফাইলের ধুলো,

এই সবেই অভ্যস্ত

ঐতিহ্যে মোড়া এই ভবন৷

সেই ছবিটার পাশে

শনিবারের মহাকরণ

যেন ভাঙা হাট৷


মহাকরণ থেকে মোট ১১টি দফতর নবান্নে চলে গিয়েছে৷ কর্মীরাও সকাল সকাল পাড়ি দিয়েছেন নতুন ঠিকানায়৷ মহাকরণের শূন্য বারান্দা, করিডর পেরিয়ে কেবল ইতিউতি দেখা মিলল কেবল চাবির গোছা হাতে কয়েকজন নিরাপত্তারক্ষীর৷


উত্তরপ্রদেশ ও মধ্যপ্রদেশে নিম্নচাপ৷ পশ্চিমবঙ্গ ও বাংলাদেশের ওপর বিস্তৃত নিম্নচাপ অক্ষরেখা৷ পুজোর আগে শেষ শনিবারে দুপুরেই আকাশ কালো করে মেঘ, অঝোর বৃষ্টি৷ মাটি পুজোর কেনাকাটা৷ প্রতিপদেও বিরূপ প্রকৃতি৷ শরতের আকাশেও বর্ষার মেঘ৷ অকাল বর্ষণে ভাসল শহর৷ আশঙ্কা, পুজোকেও রেহাই দেবে না বৃষ্টি৷


পুজোর আগে  শেষ শনিবারের সকালটা ছিল রোদ ঝলমলে৷ দুপুর গড়াতেই পেঁজা তুলোর দলকে সরিয়ে নীল আকাশের দখল নেয় জলভরা মেঘ৷ তারপর অঝোর ধারা৷ টানা বৃষ্টিতে জল জমে যায় শহরের বেশ কিছু এলাকায়৷

হাতে মাত্র কয়েকটা দিন৷ এখনও শেষ হয়নি কেনাকাটা৷ কিন্তু অসুর হয়ে হাজির বৃষ্টি৷ বৃষ্টিভেজা শহরে নাকাল সাধারণ মানুষ৷


আলিপুর আবহাওয়া দফতর জানিয়েছে, উত্তর ও মধ্য প্রদেশের ওপর তৈরি হয়েছে নিম্নচাপ, যার জেরে একটি নিম্নচাপ অক্ষরেখা বিস্তৃত পশ্চিমবঙ্গ থেকে বাংলাদেশ পর্যন্ত৷ বায়ুমণ্ডলে ঢুকছে জলীয় বাস্প৷ তারওপর বেলা বাড়ার সঙ্গে সঙ্গে প্রচণ্ড গরম৷ সবমিলিয়ে স্থানীয়ভাবে মেঘ তৈরি হয়ে মুষল ধারায় বৃষ্টি কলকাতা ও রাজ্যের বিভিন্ন অংশে৷  


আবহাওয়া দফতরের পূর্বাভাস, আগামী ২৪ থেকে ৪৮ ঘণ্টা চলতে পারে এইরকম৷ ভারী বৃষ্টি হবে দার্জিলিং,  জলপাইগুড়ি ও কোচবিহারে৷ উত্তরবঙ্গের অন্যান্য জেলাগুলির সঙ্গে বৃষ্টি চলবে দক্ষিণবঙ্গের জেলাগুলিতেও৷ পুজোর সময়ও বৃষ্টি হতে পারে বলে জানিয়েছেন আবহবিদরা৷


গঙ্গাপাড়ে বেআইনি নির্মাণ নিয়ে ৩০টি পুরসভাকে চিঠি পোর্ট ট্রাস্টের৷ সব বেআইনি নির্মাণ বন্ধের নির্দেশ৷ যদিও এই নির্দেশকে কার্যত বুড়ো আঙুল দেখিয়ে উত্তরপাড়ায় গঙ্গার তীরে অবাধে চলছে নির্মাণ৷ দায় কার? তুঙ্গে চাপানউতোর৷ গঙ্গাপাড়ে ফ্ল্যাট কিনে বিপাকে৷ ক্রমশ আলগা হচ্ছে ভিত৷ ফাটল ধরছে বহুতলের দেওয়ালে৷ চন্দননগরের পাশাপাশি এ ছবি গঙ্গা তীরবর্তী অঞ্চলের সর্বত্র৷


ASUR Adivasi Wisdom Documentation Initiative

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प्रेस-कॉन्फ्रेंस/28 सितंबर 2013

सुषमा असुर ने आज झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा कार्यालय में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अपील की है कि दुर्गा पूजा के नाम पर असुरों की हत्या का उत्सव बंद होना चाहिए. असुर आदिम आदिवासी समुदाय की युवा लेखिका सुषमा ने कहा कि महिषासुर और रावण जैसे नायक असुर ही नहीं बल्कि भारत के समस्त आदिवासी समुदायों के गौरव हैं. वेद-पुराणों और भारत के ब्राह्मण ग्रंथों में आदिवासी समुदायों को खल चरित्र के रूप में पेश किया गया है जो सरासर गलत है. हमारे आदिवासी समाज में लिखने का चलन नहीं था इसलिए ऐसे झूठे, नस्लीय और घृणा फैलाने वाले किताबों के खिलाफ चुप्पी की जो बात फैलायी गयी है, वह भी मनगढंत है. आदिवासी समाज ने हमेशा हर तरह के भेदभाव और शोषण का प्रतिकार किया है. असुर, मुण्डा और संताल आदिवासी समाज में ऐसी कई परंपराएं और वाचिक कथाएं हैं जिनमें हमारा विरोध परंपरागत रूप से दर्ज है. चूंकि गैर-आदिवासी समाज हमारी आदिवासी भाषाएं नहीं जानता है इसलिए उसे लगता है कि हम हिंदू मिथकों और उनकी नस्लीय भेदभाव वाली कहानियों के खिलाफ नहीं हैं.


झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा की सुषमा असुर ने कहा कि असुरों की हत्या का धार्मिक परब मनाना देश और इस सभ्य समाज के लिए शर्म की बात होनी चाहिए. सुषमा ने कहा कि देश के असुर समाज अब इस मुद्दे पर चुप नहीं रहेंगे. उसने जेएनयू दिल्ली, पटना और पश्चिम बंगाल में आयोजित हो रहे महिषासुर शहादत दिवस आयोजनों के साथ अपनी एकजुटता जाहिर की और असुर सम्मान के लिए संघर्ष को जारी रखने का आह्वान किया. सुषमा ने कहा कि वह सभी आयोजनों में उपस्थित नहीं हो सकती है पर आयोजकों को वह अपनी शुभकामनाएं भेजती है और उनके साथ एकजुटता प्रदर्शित करती है.




प्रेस कॉन्फ्रेंस में अखड़ा की महासचिव वंदना टेटे भी उपस्थित थीं. उन्होंने कहा कि आदिवासियों के कत्लेआम को आज भी सत्ता एक उत्सव की तरह आयोजित करती है. रावण दहन और दुर्गा पूजा जैसे धार्मिक आयोजनों के पीछे भी एक भेदभाव और नस्लीय पूर्वाग्रह की मनोवृत्ति है.


सुषमा असुर

वंदना टेटे

झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा


असुर (आदिवासी)

http://hi.wikipedia.org/s/6x7x

मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से

असुर भारत में रहने वाली एक प्राचीन आदिवासी समुदाय है. असुर जनसंख्या का घनत्व मुख्यतः झारखण्ड और आंशिक रूप से पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में है. झारखंड में असुर मुख्य रूप से गुमला, लोहरदगा, पलामू और लातेहार जिलों में निवास करते हैं. समाजविज्ञानी के. के. ल्युबा के अनुसार वर्तमान असुर महाभारत कालीन असुर के ही वंशज है. असुर जनजाति के तीन उपवर्ग हैं- बीर असुर, विरजिया असुर एवं अगरिया असुर. बीर उपजाति के विभिन्न नाम हैं, जैसे सोल्का, युथरा, कोल, जाट इत्यादि. विरजिया एक अलग आदिम जनजाति के रूप में अधिसूचित है.



अनुक्रम

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इतिहास[संपादित करें]

असुर हजारों सालों से झारखण्ड में रहते आए है. मुण्डा जनजाति समुदाय के लोकगाथा 'सोसोबोंगा' में असुरों का उल्लेख मिलता है जब मुण्डा 600 ई.पू. झारखण्ड आए थे. असुर जनजाति प्रोटो-आस्ट्रेलाइड समूह के अंतर्गत आती है.[1] ऋग्वेद तथा ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद्, महाभारत आदि ग्रन्थों में असुर शब्द का अनेकानेक स्थानों पर उल्लेख हुआ है. बनर्जी एवं शास्त्री (1926) ने असुरों की वीरता का वर्णन करते हुए लिखा है कि वे पूर्ववैदिक काल से वैदिक काल तक अत्यन्त शक्तिशाली समुदाय के रूप में प्रतिष्ठित थे। मजुमदार (1926) का मानना है कि असुर साम्राज्य का अन्त आर्यों के साथ संघर्ष में हो गया. प्रागैतिहासिक संदर्भ में असुरों की चर्चा करते हुए बनर्जी एवं शास्त्री ने इन्हें असिरिया नगर के वैसे निवासियों के रूप में वर्णन किया है, जिन्होंने मिस्र और बेबीलोन की संस्कृति अपना ली थी और बाद में उसे भारत और इरान तक ले आये. भारत में सिन्धु सभ्यता के प्रतिष्ठापक के रूप में असुर ही जाने जाते हैं. राय (1915, 1920) ने भी मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से असुरों को संबंधित बताया है. साथ ही साथ उन्हें ताम्र, कांस्य एवं लौह युग तक का यात्री माना है. पुराने राँची जिले में भी असुरों के निवास की चर्चा करते हुए सुप्रसिद्ध नृतत्वविज्ञानी एस सी राय (1920) ने उनके किले एवं कब्रों के अवशेषों से सम्बधित लगभग एक सौ स्थानों, जिसका फैलाव इस क्षेत्र में रहा है, पर प्रकाश डाला है.


जनसंख्या[संपादित करें]

भारत में असुरों की जनसंख्या 1991 की जनगणना[2] के अनुसार केवल 10,712 ही रह गयी है वहीं झारखण्ड में असुरों की जनसंख्या 7,783 है.[3] झारखंड के नेतरहाटइलाके में बॉक्साइट खनन के लिए जमीन और उसके साथ अपनी जीविका गँवा देने के बाद असुरों के अस्तित्व पर संकट आ गया है.


व्यवसाय[संपादित करें]

असुरों की लोहा पिघलाने वाली भट्ठी

असुर दुनिया के लोहा गलाने का कार्य करने वाली दुर्लभ धातुविज्ञानी आदिवासी समुदायों में से एक है. इतिहासकारों और शोधकर्ताओं का यह मानना है यह प्राचीन कला भारत में असुरों के अलावा अब केवल अफ्रीका के कुछ आदिवासी समुदायों में ही बची है. असुर मूलतः कृषिजीवी नहीं थे लेकिन कालांतर में उन्होंने कृषि को भी अपनाया है. आदिकाल से ही असुर जनजाति के लोग लौहकर्मी के रूप में विख्यात रहे हैं. इनका मुख्य पेशा लौह अयस्कों के माध्यम से लोहा गलाने का रहा है. पारंपरिक रूप से असुर जनजाति की आर्थिक व्यवस्था पूर्णतः लोहा गलाने और स्थानान्तरित कृषि पर निर्भर थी, लोहा पिघलाने की विधि पर गुप्ता (1973) ने प्रकाश डालते हुए लिखा है कि नेतरहाट पठारी क्षेत्र में असुरों द्वारा तीन तरह के लौह अयस्कों की पहचान की गयी थी. पहला पीला, (मेग्नीटाइट), दूसरा बिच्छी (हिमेटाइट), तीसरा गोआ (लैटेराइट से प्राप्त हिमेटाइट). असुर अपने अनुभवों के आधार पर केवल देखकर इन अयस्कों की पहचान कर लिया करते थे तथा उन स्थानों को चिन्हित कर लेते थे. लौह गलाने की पूरी प्रक्रिया में असुर का सम्पूर्ण परिवार लगा रहता था.


सामाजिक संगठन[संपादित करें]

असुर समाज 12 गोत्रों में बँटा हुआ है. असुर के गोत्र विभिन्न प्रकार के जानवर, पक्षी एवं अनाज के नाम पर है. गोत्र के बाद परिवार सबसे प्रमुख होता है. पिता परिवार का मुखिया होता है. असुर समाज असुर पंचायत से शासित होता है. असुर पंचायत के अधिकारी महतो, बैगा, पुजार होते हैं.


भाषा एवं साहित्य[संपादित करें]

आदिम जनजाति असुर की भाषा मुण्डारी वर्ग की है जो आग्नेय (आस्ट्रो एशियाटिक) भाषा परिवार से सम्बद्ध है. परन्तु असुर जनजाति ने अपनी भाषा की असुरी भाषा की संज्ञा दिया है. अपनी भाषा के अलावे ये नागपुरी भाषा तथा हिन्दी का भी प्रयोग करते हैं. असुर जनजाति में पारम्परिक शिक्षा हेतु युवागृह की परम्परा थी जिसे 'गिति ओड़ा' कहा जाता था. असुर बच्चे अपनी प्रथम शिक्षा परिवार से शुरू करते थे और 8 से 10 वर्ष की अवस्था में 'गिति ओड़ा' के सदस्य बन जाते थे. जहाँ वे अपनी मातृभाषा में जीवन की विभिन्न भूमिकाओं से सम्बन्धित शिक्षा, लोकगीतों और कहावतों के माध्यम से सीखा करते थे, विभिन्न उत्सव और त्यौहारों के अवसर पर इनकी भागीदारी भी शिक्षा का एक अंग था. इस तरह की शिक्षा उनके लिए कठिन नहीं थी फलतः वे खुशी-खुशी इसमे भाग लिया करते थे. 'गिति ओड़ा' की यह परम्परा असुर समुदाय में साठ के दशक तक प्रचलित थी पर उसके बाद से इसमें निरन्तर ह्रास होता गया और वर्त्तमान समय में यह पूर्णतः समाप्त हो चुका है. असुर भाषा का व्याकरण एवं शब्दकोष अभी तक नहीं है. साहित्य की एकमात्र प्रकाशित एवं सुषमा असुर और वंदना टेटे द्वारा संपादित पुस्तक 'असुर सिरिंग' (2010) है. इसमें असुर पारंपरिक लोकगीतों के साथ कुछ नये गीत शामिल हैं. असुर आदिवासी समुदाय पर के के ल्युबा की 'द असुर', वैरियर एल्विन की 'अगरिया' और ट्राईबल रिसर्च इंस्टीच्युट, रांची से 'बिहार के असुर' पुस्तक प्रकाशित है.


धर्म और पर्व-त्यौहार[संपादित करें]

असुर प्रकृति-पूजक होते हैं. 'सिंगबोंगा' उनके प्रमुख देवता है. 'सड़सी कुटासी' इनका प्रमुख पर्व है, जिसमें यह अपने औजारों और लोहे गलाने वाली भट्टियों की पूजा करते हैं. असुर महिषासुर को अपना पूर्वज मानते है. हिन्दू धर्म में महिषासुर को एक राक्षस (असुर) के रूप में दिखाया गया है जिसकी हत्या दुर्गा ने की थी. पश्चिम बंगाल औरझारखण्ड में दुर्गा पूजा के दौरान असुर समुदाय के लोग शोक मनाते है.[4]

जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली में पिछले कुछ सालों से एक पिछड़े वर्ग के छात्र संगठन ने 'महिषासुर शहीद दिवस' मनाने की शुरुआत की है.[5]


चुनौतियाँ[संपादित करें]

सुषमा असुर

वर्तमान समय में झारखण्ड में रह रहे असुर समुदाय के लोग काफी परेशानियों का सामना कर रहे हैं. समुचित स्वास्थ्य सेवा,शिक्षा, परिवहन, पीने का पानी आदि जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी इन्हें उपलब्ध नहीं है. लोहा गलाने और बनाने की परंपरागत आजीविका के खात्मे तथा खदानों के कारण तेजी से घटते कृषि आधारित अर्थव्यवस्था ने असुरों को गरीबी के कगार पर ला खड़ा किया है. नतीजतन पलायन, विस्थापन एक बड़ी समस्या बन गई है. गरीबी के कारण नाबालिग असुर लड़कियों कीतस्करी अत्यंत चिंताजनक है. ईंट भट्ठों और असंगठित क्षेत्र में मिलनेवाली दिहाड़ी मजदूरी भी उनके आर्थिक-शारीरिक और सांस्कृतिक शोषण का बड़ा कारण है. नेतरहाट में बॉक्साइट खनन की वजह से असुरों की जीविका छीन गयी है और खनन से उत्पन्न प्रदूषण से इनकी कृषि भी बुरी तरह प्रभावित हुई है. पहले से ही कम जनसंख्या वाले असुर समुदाय की जनसंख्या में पिछले कुछ सालों में कमी आई है. इन दिनों असुर समुदाय से आने वाली एक युवा सुषमा असुर, जो नेतरहाट में रहती हैं, अपने समुदाय की कला-संस्कृति और अस्तित्व को बचाने के लिए प्रयासरत है.[6]




सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. वापिस ऊपर जायें↑ डॉ. रोज केरकेट्टा. "झारखण्ड का आदिवासी इतिहास". अखड़ा वेबसाईट. अभिगमन तिथि: 2013-08-30.

  2. वापिस ऊपर जायें↑ Sarit Kumar Chaudhuri, Sucheta Sen Chaudhuri. Primitive Tribes in Contemporary India. अभिगमन तिथि: 2013-08-30.

  3. वापिस ऊपर जायें↑ "भारतीय जनगणना वेबसाईट, झारखण्ड अनुसूचित जनजाति आकड़ा". अभिगमन तिथि: 2013-08-30.

  4. वापिस ऊपर जायें↑ "दुर्गा नहीं महिषासुर की जय". बीबीसी हिंदी. 27 सितंबर, 2009. अभिगमन तिथि: 2013-08-30.

  5. वापिस ऊपर जायें↑ "Move to observe 'Mahishasur Day' on JNU campus". The Indian Express. Oct 24, 2012. अभिगमन तिथि: 2013-08-30.

  6. वापिस ऊपर जायें↑ "असुरों का ज्ञान सहेजने में जुटीं सुषमा". प्रभात खबर. 16 मार्च, 2013. अभिगमन तिथि: 2013-08-30.


बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]


Ashok Kumar Pandey
नवरातों पर तीन यादें...तीन मुख़्तसर यादें

१- जिस परिवार में जन्म हुआ वहां देवी दुर्गा को कुल देवी माना जाता है और नवरातों के बाद दो बकरों की बलि देकर दुर्गा आव्हान की परम्परा थी. हर पीढ़ी में एक या दो व्यक्ति को सेवईक घोषित किया जाता था और उस पर युवा होते होते देवी आने लगती थीं. अपनी पीढ़ी में मैं इकलौता था. कोई पंद्रह साल का रहा होऊँगा जब पहली बार दो बकरों की बलि दी, हवन में सबसे आगे बैठकर 'या देवि सर्वभूतेषु' का जप किया और 'देवी' आईं. जब कम्युनिस्टों से पहली मुलाक़ात हुई और नास्तिकता का ज़िक्र चला तो मैंने अपना अमोघ अस्त्र सामने रख दिया. एक कामरेड ने अलग से लम्बी बात की और इसके पीछे की सायकालाजी को समझने में मदद की.

वह दिन और आज का दिन देवि वापस नहीं आईं.

२- नवरात्र बीतने के बाद का पहला दिन था. मैं व्रत तोड़कर किसी काम से बाहर निकला था. देवरिया में राम गुलाम टोले के ढाले से लेकर शराबी गली तक लाइन लगी थी. तब इत्ती उम्र नहीं थी कि देखते ही समझ जाता. एक बुजुर्ग से पूछा तो बोले, 'सब राक्षस नौ दिन तक देवता बने थे अब दारू का आचमन कर फिर से मूल रूप में आने के लिए लाइन में लगे हैं, इससे जबर लाइन मीट की दूकान पर लगी है...ढोंगी ससुर.'

३- परीक्षाओं के दिन थे. उस दिन दोपहर में बहुत भूख लगी थी जबरदस्त. मैं औरNirbhay हास्टल से निकले और सीधे पहुंचे अदालत की दुकान पर. तीस रुपये में मीट की थाली मिलती थी. हमने दो प्लेट आर्डर दिया और चौकी पर जम गए. थोड़ी देर में अदालत खुद उठ के हमारे क़रीब आये. दरमियाँ कद के लहीम-शहीम अदालत. बोले, बाबा...नवरातर में मीट खइब लोगन?' हमें न याद था नवरातर का दिन न अब इससे कोई फर्क पड़ता था तो बोले , तू परोस मरदे...तोहके का करके बा? 'हम मियाँ हईं त का तोह लोगन का धरम बिगाडब...मीट त नाहीं मिली'

और अदालत ने हमारी मीट की याचिका खारिज़ कर दी!

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ASUR Adivasi Wisdom Documentation Initiative

September 23

असुरों की जय हो!

असुरों के हत्यारों का उत्सव मनानेवालों का समूल नष्ट हो!!


असुरों के अपमान का बाजार सजने लगा है. अपने समाज के साथ दुर्गा फिर आदिवासी असुरों के हत्या का जश्न मनाएगी. सारे राजनीतिक दल जाकर उसके चरणों में गिरेंगे. पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी और साहित्यकार भी दुर्गा की आरती उतारेंगे. लेकिन आदिवासी समाज विजयादशमी को शहादत के रूप में मनाएंगे. महिषासुर जैसे पूर्वजों को याद करेंगे और अपने पूर्वजों को मारनेवालों को कभी माफ नहीं करने का संकल्प लेंगे.


जो महिषासुर के शहादत दिवस में शामिल होना चाहते हैं. उन्हें हम पश्चिम बंगाल के दो आयोजनों का पता दे रहे हैं.


1. 'आदि शहीद स्मारक फेस्टिवल महिषासुर स्मरण', भेलागोड़ा, काशीपुर, पुरुलिया

संपर्क: चरियन महतो 09933000702


2. 'शिखर दिसोम खेरवाल बिर लॉक्चर कमिटि हुडुर दुर्गा' आयोजन, झापड़ा, पुरूलिया

संपर्क: अजीत हेम्बरोम 08972113531


দুর্গার পুজো নিয়ে নানা বিতর্ক

চন্দ্রশেখর ভট্টাচার্য

গ্রামবাংলায় দুর্গাপুজোই প্রধান উৎসব ৷ নানা বিতর্কের অবকাশ রয়েছে এই পুজোকে কেন্দ্র করে। পুরাণ মতে, বিন্ধ্যাচলের কোল বংশীয় রাজা সুরথ প্রথম মৃন্ময়ীমূর্তিতে দুর্গা পুজো করেন৷ সে-পুজো শরৎকালে হয়েছিল? মনে হয় না! তার নানা কারণ আছে। প্রত্যেক সেনা বাহিনীর রণযাত্রার নিজস্ব নিয়ম আছে। বর্ষার পর যুদ্ধযাত্রা মানেই চলাচলে সমস্যা। তখন যুদ্ধ করা যায় না।

       তা হলে, শ্রীরাম কি শরতে যুদ্ধ করেন নি?  এই নিয়েও নানা প্রশ্ন আছে৷ কারণ, বিন্ধ্যের দক্ষিণে এই পুজো করলেও তার আগে অযোধ্যায় দুর্গাপুজোর উল্লেখ কোনও রামায়ণে নেই৷ বাল্মিকী রামায়নে অকালবোধনই নেই৷ এমন কি, বনবাসের আগে বা পরেও কখনও তিনি অযোদ্ধায় দুর্গা পুজো করেছেন বলে কোনো উল্লেখ নেই।

       নদীয়ার তাহেরপুরের রাজা কংসনারায়ণ প্রথম লক্ষ লক্ষ টাকা ব্যয়ে মাটির মূর্তি পুজো করেন বলে প্রচারিত৷  কিন্তু,বারো ভূঁইঞার এক ভূঁইঞা, যিনি মোগলদের কর দেন, তাঁর পক্ষে কি এত টাকা ব্যয় করা সম্ভব ছিল! কংসনারায়ণ পুজো শুরু করেন ১৫৮৩ খ্রীস্টাব্দে। বাংলায় তার চেয়েও প্রাচীন পুজো হল বিষ্ণুপুরের মল্ল রাজবাড়ির। শুরু হয়েছিল ৯৯৭ খ্রীস্টাব্দ বা ৪০৪ বঙ্গাব্দে। কংসনারায়ণের বাড়িও এই বাংলায় নয়, বাংলাদেশে, বর্তমানে রাজশাহীর তাহেরপুরে।

       দুর্গাপুজোর ইতিহাসে দেখা যায়,  আগে বসন্তকালেই হত মূল দুর্গাপুজো৷ তার নাম ছিল 'বাসন্তী' পুজো৷ বাংলার রাজ়নৈতিক ইতিহাস বলছে, রাজা শশাঙ্কর আমলে বাংলার ধর্মমত ছিল শৈব৷ কিন্তু, তখনও দুর্গার পুজো হত না৷ রাজা গোপালের পর থেকে পাল আমলে বাংলায় বৌদ্ধধর্মের প্রাধান্যে দুর্গা কেন, কোনও মূর্তিপুজোরই চল ছিল না৷ তা সত্বেও সুবচনী, মঙ্গলচণ্ডী, শীতলা, মনসা-র মতো অ-কুলীণ দেবীরা নিচু শ্রেণির মানুষের পুজো পেয়েছেন, মূর্তি ছাড়াই৷ সিংহবাহিনী দশভূজা তখনও নেই৷ বল্লাল সেনের আমলেই ফের মূর্তি পুজার চল৷ তখনও বাসন্তীই প্রধান দেবী৷ বীরেন্দ্রকৃষ্ণ ভদ্রের কণ্ঠে বাণীকুমার  রচিত  মহিষাসুরমর্দিনী', যা মহালয়া মানেই পরিচিত, তাও কিন্তু প্রথমে বসন্তকালেই প্রচারিত হত, 'বসন্তেশ্বরী' নামে, শরতে নয়৷

       দুর্গা পুজোয় 'নবপত্রিকা প্রবেশ ও কুল্পারম্ভ' বলে একটি প্রথা আছে। এই নবপত্রিকাকে আমরা 'কলাবঊ' বলেও বলে থাকি। আসলে, নয় রকমের গাছের চারাকে 'নবপত্রিকা' বলে পুজো করা হয়। বাংলার ঋতুচক্রে শরৎ ছিল কৃষকের অভাব ও দুযোর্গের মাস৷ বাংলায় বন্যার সময় হল আগস্ট এর শেষ থেকে সেপ্টেম্বর মাস। ফলে এই সময় ফসল নস্ট হত৷ তার আগেই হলকর্ষণ, বীজবপন, কৃষিশ্রমিকের খোরাকি মেটাতে কৃষক সর্বস্বান্ত হতেন কৃষকেরা ৷ তাঁদের মজুত শষ্যও শেষ হয়ে যেত৷ অনেক সময় ঋণের দায়ে মহাজনের কাছে জমি বাঁধা পড়ত বা বিক্রি হয়ে যেত৷ শরতে তাঁর জীবনে কোনও আনন্দই ছিল না৷ বরং, বর্ষা-পরবর্তী ধান ও শীতের সব্জি তাঁকে দু'টো পয়সার মুখ দেখাত, মনে আনন্দ আনতো৷ সে অন্নপূর্ণা ও বাসন্তীর পুজোয় মেতে উঠতে পারতো৷ তাই জমিদার-মহাজনদের কাছে শরৎ ছিল উৎসবের মাস, আপামর বাঙালীর তা নয়৷ বাংলায় শরতে দুর্গা পুজো শুরুর সঙ্গে এই জমিদার-মহাজনদের সম্পর্কি প্রধান, চাষের সাঙ্গে যুক্ত মানুষদের নয়।

       কলকাতার পুজোর ইতিহাসেও দেখা যায়, জগৎ শেঠ-উমিচাঁদ-ঘসেটি বেগম-মির জাফরদের সহযোগিতায় ইংরজেরা সিরাজ-উদ-দৌল্লাকে পরাস্ত করায় ইংরেজদের 'মুন্সি' রাজা নবকৃষ্ণ দেব প্রথম জাঁকের সঙ্গে দুর্গাপুজো করেন৷ তিনি ওয়ারেন হেস্টিংসের ফারসি শিক্ষক হিসাবে চাকরি শুরু করে প্রথমে 'মুন্সি' ও পরে 'রাজা' উপাধি পান৷ তাঁদের বাড়ির পুজোয় আসতেন ইংরেজ কর্তারা, জুতো পরেই৷ সেই উপলক্ষে মদ ও বাঈজীদের আসর বসতো, ফোর্ট উইলিয়াম থেকে কামান দাগা হত, ভাসানে আর্মি ব্যান্ড আসতো৷ তাই,  দেশপ্রেমিকরা এই পুজোকে 'বেইমানের পুজো' আখ্যা দিতেন৷ কলকাতার আরেক পুরানো পুজো হল বড়িশার সাবর্ণ চৌধুরীদের বাড়ির পুজো, ৪০০ বছরের বেশী পুরানো। কলকাতার প্রত্যেকটি সাবেকি পুজোর ইতিহাসেই এই কাহিনী।

       ধীরে ধীরে ঋতুর বদলে, কৃষির চরিত্র বদলে, নিবিড় চাষের ফলে শরতেও কৃষক কিছুটা পয়সার মুখ দেখতে থাকল৷ পাশাপাশি, রাজা-জমিদার মহাজনদের  বাড়ির পুজোর রেওয়াজ তাঁদেরকেও প্রভাবিত করল৷ এই প্রথার প্রচলনে সহায়ক হল মধ্যসত্ত্বভোগী অনুকরণপ্রিয় কর্তাভজার দল৷ গ্রামীণ মানুষ তাকেই মানতে বাধ্য হল৷ পুজোর ইতিহাসে তাই দেখা যায় শারদার পুজো শহরে থেকেই গ্রামে ছড়িয়েছে৷ ধীরে ধীরে সুবচনী, মঙ্গলচণ্ডী, শীতলা, মনসা-র মতো লৌকিক দেবীরা কৌলিন্য হারিয়েছে, তাদের জায়গা নিয়েছে দেবী দুর্গা৷ গ্রাম বাংলায় পুজোয় সপ্তদশ থেকে উনবিংশ শতকে পাওয়া যেত ভক্তির প্রাবল্য৷ তার খানিকটা উল্লেখ বঙ্কিমচন্দ্রের আনন্দমঠে "মা যা ছিলেন, মা যা হইয়াছেন, মা যা হইবেন"-এর কথা পাওয়া যায়৷ গ্রামের পুজায় পরিবর্তনের চালচিত্র প্রসঙ্গে এই বিষয়টি গুরুত্বপূর্ণ৷

পুজোর জন্য থাকত স্থায়ী পুজামণ্ডপ৷ আটচালায় তৈরি হত একচালা প্রতিমা, তা দেখতে গুরুমশাইর পাঠশালার ছাত্রদের অবস্থা পাওয়া যায় সনৎ সিংহের গানে - 'মন বসে কি আর?... না না না, তাক তা ধিনা, তাক তা ধিনা, তাক কুড়কুড়, কুড়ুর কুড়ুর তাক'৷

যৌবনের প্রতিকী দেবী দুর্গা

বহু শাস্ত্রে ও পুথিতে দেবী দুর্গাকে প্রজননের, উদ্দাম যৌবনের ও অবাধ মদ্যপানের দেবী বলে বর্ণনা করা হয়েছে৷ তার একটি নিদর্শণ তামিল মহাকাব্য শিলপদ্দিকারম। তামিলভাষায় প্রধান পাঁচটি মহাকাব্যের অন্যতম এটি ব্ল্যাঙ্ক ভার্স-এ লেখা ৷ আনুমানিক ষষ্ঠ শতাব্দীতে এটি লেখেন চের সাম্রাজ্যের রাজা সেঙ্গুত্তুভান-এর 'ভাই' হিসাবে পরিচিত পণ্ডিত ইলাঙ্গো আডিগাল৷

শিলপদ্দিকারম এর কাহিনিতে আছে, কারুর বা তাঞ্জাভুরের কাছে এক ধনী ব্যবসায়ীর কন্যা কান্নাগি ওরফে কানাক্কির সঙ্গে তারই আশৈশব বন্ধু স্থানীয় ধনী মৎস্যজীবীর পুত্র কোভালম-এর জাঁকজমকের সঙ্গে বিয়ে হয়৷ সুখেই চলছিল তাঁদের সংসার। হঠাৎই তাতে ছন্দপতন ঘটে৷ কোভালমের নজর পরে মাধবী নামে এক নর্তকীর দিকে৷ কান্নাগিকে ভুলে মাধবীর প্রেমে বিভোর হয়ে কোবালম তার সঙ্গেই রাত কাটাতে থাকে, মাধবীর প্রেমে নিজের সব সম্পদও বিলিয়ে দেয়৷

একদিন সম্বিত ফেরে, তখন সে কপর্দকশূণ্য৷ নিজের ভুল বুঝে সে ফিরে আসে পতিব্রতা কান্নাগির কাছে। কান্নাগি তাঁকে গ্রহণ করেন৷ কোবালম চায় অন্যত্র চলে গিয়ে নিজে ব্যবসা করবেন৷ ব্যবসার পুঁজির জন্য কান্নাগি নিজের পায়ের একটি মুক্তো বসান মল কোবালামকে দেন৷ দিনের পর দিন পায়ে হেঁটে একের পর দুর্গম বন পার হয়ে তিরুচিরাপাল্লি থেকে মাদুরাই যাওয়ার পথে তাঁরা পৌঁছন শবর যোদ্ধা মারবারদের এলাকায়৷ রাতে কোভালম-কান্নাগি দেখেন, যুদ্ধে যাওয়ার আগে এক নগ্ন দেবীর পুজা করছেন যোদ্ধারা৷ সেই দেবীর নাম 'কোররাবাই'৷ সেই দেবীর দু-পাশে বাহন সিংহ ও হরিণ৷ দেবীর চার হাতে শূল, শঙ্খ, চত্রু ও বরাভয়৷ পায়ের নিচে মহিষের মুণ্ড। যুদ্ধে বিজয় প্রার্থণায় মদ্যপ যোদ্ধারা নিজেদের গলা চিরে স্ব-রক্তে দেবীর অঞ্জলি দিচেছন, মদ ও মাংসে ভোজ সারছেন এবং অবাধ যৌনাচারে লিপ্ত হচেছন৷

ভয় পেয়ে যান কোবালাম ও কান্নাগি। কিন্তু মারবার যোদ্ধারা তাদের আভয় দেন।  পাশাপাশি তারা কোবালম-কান্নাগিকে নিজেদের এলাকা নিবির্ঘ্নে পার করে দেন। এ কাহিনি ষষ্ঠ শতাব্দীর। কোবালম-কান্নাগির দেখা সেই মূর্তিই এখনো আছে তামিলনাডুর তানজোরের পুণ্ডমঙ্গেশ্বর ও পুজাইয়ের মন্দিরে৷ 'শিলপদ্দি' বা পায়ের মল খুলে দিয়েছিলেন কান্নাগি, সেই কারনেই কাহিনির নাম 'শিলপদ্দিকারম'। শিলপদ্দিকারম আজও সমাভ জনপ্রিয়৷ গান, নাচ, নাটকের মাধ্যমে আজও তামিল শিল্পীরা দেশে-বিদেশে এটি অভিনয় করেন। শিলপদ্দিকারম যে প্রশ্নের উদ্রেক করে, তা হল, দুর্গার পুজো কি তবে সত্যই অবাধ মদ্যপান ও যৌনতার উৎসব?

এ-প্রসঙ্গে প্রাচীন স্মার্ত পুথিকার জিমূতবাহনের  'কালবিবেক', রঘুনন্দনের  অষ্টাবিংশতিতত্ত্ব', শূলপাণির দুরগোৎসববিবেক আলোচিত হতে পারে ৷ খ্রিষ্টপূর্ব প্রথম শতকে বিহারের সহরসার রাজা শালিবাহনের পুত্র জিমূতবাহন লিখেছিলেন কালবিবেক ৷ চতুর্দশ শতকে নবদ্বীপে জন্মানো পণ্ডিত শূলপাণির লেখা অনেক গ্রন্হের অন্যতম হল দুরগোৎসববিবেক ৷ এই তিনজনের লেখাতেই দেখা যাচেছ, দুর্গা পুজোয় আমোদ-প্রমোদই প্রধান এবং মদ্যপান বিধেয়৷ তাঁরা লিখেছেন, "আদিম রিপুর প্রবৃত্তি এবং অবাধ যৌনাচারের হুল্লোড় না থাকলে দেবী প্রসন্না হতেন না ৷ বরং, কুপিতা এই দেবী উপাসকদের প্রাণভরে অভিশাপ দিতেন৷"

মার্কণ্ডেয় পুরাণ এর অংশ শ্রীশ্রীচণ্ডী অনুযায়ী দেবী নিজেই মহিষাসুর বধের আগে 'তিষ্ঠঃ তিষ্ঠঃ ক্ষণং তিষ্ঠঃ' বলে 'মধু'পান করছেন। লোকসংস্কৃতির গবেষক সনৎ মিত্র জানাচ্ছেন, এই মধুপান আসলে মদ্যপান ৷ কারও কারও মতে, অসুররা রুদ্র বংশ-জাত বলেই রুদ্রানী দুর্গা মদ্যপান করছেন আপন শক্তিকে সংহত করতে। মহাভারতের পরিশিষ্ট 'হরিবংশ'-র

'আযার্স্তব'-এ বলা হয়েছে, 'শিখীপিচ্ছধ্বজাধরা' ও 'ময়ূরপিচ্ছধ্বজিনী' এই বিন্ধ্যবাসিনী দেবীর মদ্য ও মাংসে ছিল অপরিসীম আসক্তি। সপ্তম ও অষ্টম শতকের কবি বাণদেব ভট্ট ও বাকপতিও এই মতেই বিন্ধ্যবাসিনী দেবীর পুজোর উল্লেখ করে বলেছেন, দেবী পশু ও নররক্তের পিপাসু ছিলেন। কথাসরিþৎসাগর-এর 'বেতালপঞ্চবিংশতি' অংশে একাদশ শতকের পণ্ডিত সোমদেব ভট্ট বলেছেন, রাজা যশকেতুর রাজ্যে মহিষের কাটা মুণ্ড-র উপর নৃত্যরতা আঠারো হাত বিশিষ্ট এক দেবীর কথা, দস্যু ও ডাকাতরা যার কাছে নরবলি দিত। শাস্ত্র মতে এই দেবীর নাম 'পাতালভৈরবী'। একই সঙ্গে তারা লিখেছেন দেবীর পুজোয় অবাধ যৌনাচারের কথাও।

এই হিসাবে দেবীকে যৌনতার দেবী ভেবে নিলে ভুলই হবে। আসলে তিনি ফসল ও মানব প্রজননের প্রতীকি দেবী৷ মাতৃতান্ত্রিক সমাজব্যবস্থার যুগে ভারতীয় সভ্যতায় পৌরাণিক সব দেবীই এই প্রজননের প্রতীক৷ আফ্রো-এশিয় সংস্কৃতিতেও এমন আরও অনেক উদাহরণ আছে৷ দুর্গা মূর্তি তৈরিতে যৌনকর্মীর ঘরের মাটির ব্যবহার আবশ্যিক করার পিছনেও সম্ভবত এই যুক্তিই গ্রাহ্য হয়েছে ৷

দুর্গা পুজোর রীতি ও অনুষঙ্গেও আছে প্রজননেরই প্রতীকিকরণ৷ পুজোর আবশ্যিক উপকরণ জলভরা ঘট ও সশীষ ডাব মাতৃগর্ভের প্রতীক – বাইরে কঠিন, ভিতর জলে পূর্ণ, যার ভিতরে বীজ বপন হয়, সন্তান বাঁচে ও বাড়ে৷ তার উপরে থাকে রক্তবস্ত্র, যা 'রজস্বলা' নারীর প্রতীক৷ দেবীর বোধনে নবপত্রিকার প্রবেশ ও স্থাপন, বেলগাছের সঙ্গে জোড়া বেল বেঁধে দুর্গার স্তনদ্বয়ের প্রতিরূপ সৃজন তারই উদাহরন। ৷ বেল শিবের প্রতীক, তাই বেলগাছের সঙ্গে জোড়া বেল শিব-দুর্গার মিলন চিহ্ন৷ জলপূর্ণ ঘট-এ হয় প্রাণপ্রতিষ্ঠা, অর্থাৎ মাতৃগর্ভে প্রাণসঞ্চার৷ তার চার পাশে লালসুতোর ঘেরা চতুষ্কোণ-এ সেই ঘটস্থাপন অর্থাৎ সূতিকাগৃহ নির্মান। আর থাকে চিৎ করা কড়ি যা জন্মদ্বারের প্রতীক৷

পুরাণ মতে, দুর্গা পর্ণশবরী ৷ তিনি শবরদের দেবী। পর্ণশবরী ৷ দেবী ভাগবতে হলেন 'সর্বশবরানাং ভগবতী'৷ ঝাড়খণ্ডের বনবাসী শবর মেয়েরা এখনও দুর্গা মূর্তি বিসর্জনের শোভাযাত্রায় আকণ্ঠ মদ্যপানের পর উর্ধাঙ্গ অনাবৃত রেখেই নাচতে নাচতে বিসর্জনে যান৷ এখনও এটাই দস্তুর ৷ তার আগে তাদের বেশির ভাগই মদ্যপান করে থাকেন। তাতে আর যাই থাক, যৌনতার নামে অশ্লীলতা নেই। উন্মুক্ত শরীর হলেও তা অশ্লল্লীতার অনুষঙ্গে নয়। শিলপদ্দিকারম-এও দেখা গেল, অবাধ মদ্যপান ও যৌনাচারে লিপ্ত থাকলেও মারবাররা কিন্তু কান্নাগিকে স্পর্শও করলেন না। পূর্ণ সম্ভ্রমে তাদের বন এলাকা পার করে দিলেন।

বাবু কালচারে উৎসব বদলে গেল অনাচারে

যৌবনের দেবীর উৎসবে যৌবনের স্বাভাবিক উল্লাসকেই এখন বদলে দেওয়া হচ্ছে যৌনতার অনাচারে ৷ উৎসব বদলে যাচ্ছে অশ্ললীতায়। মুসলিম শাসনে ধর্মীয় গোঁড়ামীর কারণে বাংলায় যৌনতার উপর চেপে বসেছিল কড়া বিধিনিষেধ। ইংরেজ শাসনে সেই নিষেধ যেন উঠে গেল। সেই পথে তৎকালীন পয়সাওয়ালা বাবুসমাজে ঢুকে পড়ল যৌনতার অনাচার।

রবীন্দ্রনাথের ভাইপো ক্ষিতীন্দ্রনাথ ঠাকুর কলকাতায় সেকালের দুর্গা বিসর্জনের বর্ণনা প্রসঙ্গে লিখেছেন, "চিৎপুর রোডের এই অংশের দুই পার্শ্ব সেকালে বড় অধিক পরিমানে বারবণিতাদিগের অধিকৃত থাকিত৷ ...আরও মনে হয়, সেকালে একাল অপেক্ষা মদ্যপানের কিছু বেশি প্রাবল্য ছিল৷ যাঁহাদের গৃহের প্রতিমা বিসর্জন হইত, সেই সকল বাবু ও তাঁহাদের সাঙ্গোপাঙ্গো নকল বাবুরাও প্রতিমার সঙ্গে সঙ্গে নানাপ্রকার অঙ্গভঙ্গী করিতে করিতে কানে খড়কে দিয়া পান চিবাইতে চিবাইতে চলিতেন৷ ... যাঁহাদের পয়সা ছিল, তাঁহারাই প্রতিমার সম্মুখে বাঁশের ময়ূরপঙ্খীতে খেমটার নাচ নাচাইতে কুণ্ঠিত হইতেন না৷' এর 'নির্লজ্জ বা বেহায়া ভাব আছে' সে কথা জানিয়ে তিনি লিখছেন, "তাঁহারা ও তাঁহাদের সাঙ্গোপাঙ্গো সকলেই নূ্যনাধিক মদ্যপান করিয়া বাহির হইতেন কেহ কেহ নেশার ঝোঁকে ঢলিয়া পড়িতেন৷ ... বাবুরা তো এইরূপে ঊর্দ্ধনেত্রে নানাবিধ অশ্লীল অঙ্গভঙ্গী করিতে করিতে চলিতেন৷"

শোভাবাজার রাজবাড়ির কর্ণধার আলোককৃষ্ণ দেব কয়েক বছর আগে বলেছেন, "আগের আমলে শোভাবাজার রাজবাড়িতে সারা রাত নাটক হত। বড়রা বসতেন সামনের দিকে, কম বয়সী যুবকরা তাদের পিছনে এবং ছোটরা একেবারে পিছনে। নাটক চলাকালে যৌনতাগন্ধী অংশে পরিবারের নেশায় মত্ত যুবকরা বারবার 'এনকোর' বলে সেই অংশ পুরাভিনয়ে বাধ্য করত ৷ এমনও হয়েছে যে, একই দৃশ্য বহুবার অভিনয়ের ফলে ভোর হয়ে এলেও নাটক শেষই হয় নি৷"

ব্রিটিশ আমল থেকেই ধনী পরিবারগুলির 'ফুলবাবু'দের দ্বারা এর কুৎসিত রূপায়ণ শুরু ৷ শোভাবাজারে মদ্যপান করতে করতে বাঈজি নাচ দেখেছেন লর্ড কার্জন৷ ব্রিটিশদের উৎসাহে বাবু কালচারের আমলে যৌনতার অনাচার আরও বাড়ে৷ এখন দুর্গাপুজোয় মদ্যপান ও অশ্ললীলতার ব্যাপকতার সঙ্গে সেদিনের সেই যৌব-অভিষেকের কোনও সম্পর্ক নেই৷ পণ্যায়নের দৌলতে সবর্নাশের পিচ্ছিল পথগামী শত শত রোমিও তাই এখন প্রতি পুজোয় শ্রীঘরে যায়৷ ক্ষিতিন্দ্রনাথের ভাষাতেই তাই বলা যায়, "সে বাবুও নাই, সে ঢাকীও নাই, সে উৎসাহও নাই, কাজেই পূজার আর সে রসকস নাই!"

ছবিঃ লেখক।

http://www.guruchandali.com/default/2012/10/23/1350956527646.html#.UlBGe9KBloI


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आप सभी को जोहार!

आज मुझे पंकज दादा ने बताया कि इंटरनेट में कुछ लोग ये बोल रहे हैं कि नेतरहाट के असुर लोग महिषासुर को अपना पुरखा नहीं मानते हैं. उन सबसे हमको येही कहना है कि झूठ बात को आपलोग नहीं फैलाइए. हम असुर लोग हैं और महिषासुर हो कि रावण वो सब हमलोग का पुरखा-पूवर्ज हैं. उनकी हत्या का परब मनाना किसी भी तरह से उचित नहीं है. आपलोग हजारों साल से हमलोग को मारने और फिर मारकर परब मनाने का खेल बंद कीजिए.


सुषमा असुर

http://mohallalive.com/2012/02/21/save-me-save-humanity/

mohallalive.com


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