Sunday, November 24, 2013

वर्ण वर्चस्वी सत्ता में भागेदारी के आत्मघाती सत्ता संघर्ष से असमानता घटी नहीं और न आजादी के आसार बामसेफ के तीन तीन राष्ट्रीय सम्मेलन एक साथ और कुछ गलतफहमियों के बारे में जरुरी सफाई Despite heavy political mobilization, inequality between Dalits, tribals, OBCs and the rest of the population is still stark, and has changed little in the past decade.

वर्ण वर्चस्वी सत्ता में भागेदारी के आत्मघाती सत्ता संघर्ष से असमानता घटी नहीं और न आजादी के आसार

बामसेफ के तीन तीन राष्ट्रीय सम्मेलन एक साथ और कुछ गलतफहमियों के बारे में जरुरी सफाई

Despite heavy political mobilization, inequality between Dalits, tribals, OBCs and the rest of the population is still stark, and has changed little in the past decade.


पलाश विश्वास

Despite heavy political mobilization, inequality between Dalits, tribals, OBCs and the rest of the population is still stark, and has changed little in the past decade.

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अंबेडकरी विचारधारा और आंदोलन के बिखराव का इससे बड़ा सबूत कोई दूसरा हो ही नहीं सकता कि 25 दिसंबर से 29 दिसंबर  के मध्य लखनऊ,नागपुर और पटना में बामसेफ के तीन तीन राष्ट्रीय सम्मलेन हो रहे हैं।


राजनीति में भारतीय बहुजन बहुसंख्य बहिस्कृत वंचित समाज खंडित विखंडित तो है ही,सामाजिक व सांस्कृतिक मोर्चे पर भी अंबेडकरी आंदोलन बिखराव की हालत में है।


रविवार को अंग्रेजी आर्थिक अखबार इकानामिक टाइम्स में बहुजन समाज के इस बिखराव के राजनीतिक नतीजे और जनादेश पर उसके निर्णायक असर पर एक तथ्यात्मक विश्लेषण भी प्रकाशित हुआ है।


हम इस आलेख के साथ वह लेख भी पेश कर रहे हैं।इस आलेख में सर्वे और ग्राफिक्स के जरिये बताया गयी है कि राजनीतिक चेतना के विस्फोट के बावजूद पिछले पूरे दशक में बहुसंख्य पिछड़ों,दलितों और आदिवासियों की हालत में सुधार नहीं हुआ है।


वोटों के जरिये सामाजिक बदलाव का कच्चा चिट्ठा है यह आलेख।


सत्ता में भागेदारी के नतीजतन वर्चस्वी समुदायों के मुकाबले वंचित समूहों की असमानता में कोई अंतर नहीं आया है।


मतदान की प्रवृत्तियां वर्ण वर्चस्व को तोड़ती नहीं प्रबल जाति अस्मिता के बावजूद।


जो इस आलेख में उल्लेखित नहीं है,वह यह है कि इन बहुसंख्य पिछड़े,दलित व आदिवासी समूहों को लक्षित बहुप्रचारित सामाजिक योजनाओं से देहात में नकदी प्रवाह बढ़ने से उपभोक्ता बाजार का विस्तार तो हुआ है ,लेकिन नस्ली भेदभाव की शिकार बहुजन जनता के सामाजिक अवस्थान में छन छनकर होते विकास से कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।


लिखा नहीं है कि भारतीय देहात अब अनंत वधस्थल है।हरित क्रांति ने कृषि की हत्या कर दी।विस्थापन और बेदखली का अभियान निरंतर तेज होता जा रहा है अबाध पूंजी की निरंतरता केसाथ। इंफ्रा परियोजनाओं से महाविनाश के आर्थिक सुधार निर्मम फासिस्ट युद्ध अपराध की तरह निरंकुश है।विदेशी निवेशकों का लक्ष्यस्थल बना है जैसे यह देश,विकसित राष्ट्रों ने वर्ण वर्चस्वी सत्ता के साथ जायनवादी गठबंधन के तहत उसी तरह यूरोप और अमेरिका की आवारा पूंजी का युद्धस्थ भी बना दिया है इस देश को।


यह भी नहीं लिखा है कि नीति निर्धारण देश की संसद नहीं,विश्व बैंक,अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व व्यापार संगठन पेंटागन से होती है तो जनादेश पकता है वाशिंगटन और तेलअबीब में ।नयी किस्म की महाजनी सभ्यता के शिकार हैं भारत के लाखों गांव,जो उपभोक्ता बाजार के केंद्र बनते जा रहे हैं,जहां लोक और भाषा पर कारपोरेट धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का चक्रवाती विध्वंस जारी है। इंफ्रा परियोजनाएं सत्ता की सर्वोच्च प्राथमिकता है तो विदेशी पूंजी निवेश के लिए मुक्त प्रत्यक्ष निवेश और अबाध विनिवेश के मार्फत विश्व भर के लंपट कारपोरेट निवेशकों का आखेटगाह बन गया है यह देश।


मित्रों,इस आलेख को पढ़कर एक बार फिर पुनर्विचार करें कि सत्ता में भागेदारी की आत्मघाती लड़ाई में अपनों को लहूलुहान करके हम कैसा सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक सशक्तीकरण का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।


इसी सिलसिले में बहुजन सामाजिक सामाजिक आंदोलन को अंबेडकरी विचारधारा की जड़ों में वापस लेने का कार्यभार साफ स्पष्ट हो जाता है और कारपोरेट चंदे से चलने वाली राजनीति के जरिये आजादी दिलाने के ख्वाब बेच रहे सौदागर मसीहों का चेहरा बेनकाब होता है।


अगर कांशीराम जी के बामसेफ को पार्टीबद्ध  राजनीति की जाति अस्मिता में निष्णात करने का फैसला गलत था,तो उसदिन कांशीराम जी को गलत कहकर बामसेफ की निरंतरता बनाये रखने वाले लोग क्यों फिर राजनीतिक दलदल में अंबेडकरी आंदोलन,विचारधारा और बामसेफ को तिलांजलि दे रहे हैं, भक्ति मंडपों के तिलिस्म से बाहर आकर आप अवश्य इस पर सोचें जरुर।


फिर बाबासाहेब अंबेडकर जिस पूंजीवादी और ब्राह्मणवादी सत्ता वर्चस्व के खिलाफ लड़ रहे थे,शैतानी जायनवादी त्रिइबलिश वैश्विक व्यवस्था में उसका पूरा चरित्र बदल गया है।पूंजीवाद के नियम और व्याकरण होते हैं और उसके विकास कार्यक्रम में लोककल्याण का तत्व भी होता है। भारत में जो हो रहा है वह पूंजीवाद नहीं,एकाधिकारवादी कारपोरेट जनसंहार अश्वमेध है वह,जो वैश्विक जायनी व्यवस्था के साथ मनुस्मृति के वाहकों के पारमाणविक गठजोड़ के तहत भारतीय जनता के विरुद्ध युद्ध गृहयुद्ध के तंत्र को मजबूत करते हुए लोकतंत्र और संविधान,जिसके निर्माण में बाबासाहेब अंबेडकर के साथ साथ मुक्तिकामी भारतीय जनता के हजारों साल के स्वतंत्रता संघर्ष का अवदान है,को खत्म करते हुए समता और न्याय के बुनियादी सिद्धांतों को ही निराधार नहीं बना रहा है बल्कि मनुष्यता,प्रकृति  और पर्यावरण के विरुद्ध भी यह अभूतपूर्व युद्धपरिस्थितियों का निर्माण कर रहा है।


मान्यवर कांशीराम  और उनके साथियों ने कर्मचारियों के सामाजिक आंदोलन की जिस वक्त  परिकल्पना दी,आज के हालात उससे एकदम भिन्न हैं।लेकिन शाश्वत सत्य फिर भी वर्णवर्चस्व के नस्ली मनुसमृति वयवस्था ही है।


शाश्वत सत्य फिरभी भौगोलिक अस्पृश्यता के घेरे में युद्धबंदी जनपदों का निरंतर दमन और उत्पीड़न है।


शाश्वत फिरभी असमता ,अन्याय और नस्ली वर्ण व्यवस्था है।


यह वर्ण व्यवस्था कारपोरेट है जैसी अपनी कारपोरेट राजनीति।


इस वर्णव्यवस्था में असवर्ण बनिये राजपूतों और क्षत्रियों को किनारे करके सत्ता पर उसीतरह काबिज हैं जैसे बंगाल में शूद्र कायस्थ और वैद्य।


जाहिर है कि  धर्मोन्मादी कारपोरेट ब्राह्मणवाद से सीधे मुठभेड़ के वास्ते आज भी कांशीराम जी का बामसेफ आंदोलन उतना ही प्रासंगिक हैं जितना अंबेडकरी आंदोलन।


इसीलिए बामसेफ का अवसान करने वाले तत्व न सिर्फ बहुजनसमाज बल्कि कारपोरेट धर्मोन्मादी जायनवादी शिकंजे में छटफटा रही निनानब्वे फीसद जनता के शत्रु हैं।राष्ट्रद्रोही हैं।


हमारा फौरी कार्यभार वैश्विक कारपोरेट आक्रमण से शूद्र,आदिवासी,दलित व अल्पसंख्यक कृषि समाज की आत्मरक्षा के उपाय बतौर सशक्त जनांदोलन तैयार करना है,जिसके बिना भारतीय बहुजन समाज के बचाव का कोई और विकल्प है ही नहीं।सत्ता में भागेदारी तो हरगिज नहीं।


खंडित बामसेफ सत्ता वर्चस्व की लड़ाई में इस्तेमाल होनेवाला औजार बन सकता है , लेकिन जनजागरण और जनसशक्तीकरण का माध्यम बतौर इसे पुनर्जीवित करने के लिए वंचित समूहों के अलावा सामाजिक शक्तियों की व्यापक गोलबंदी अनिवार्य है और इस आंदोलन के लिए एक भिन्न किस्म की शब्दावली की भी आवश्यकता है।


लेकिन हम मौजूदा सामाजिक यथार्थ से अंबेडकर पूर्व भाषा और कांशीराम जी की तीस साल पहले  की भाषा से आज की समस्याओं को यथायथ संबोधित कर ही नहीं सकते हैं। जबकि इसके साथ ही शाश्वत सत्य यह है कि उदारीकरण,ग्लोबीकरण और निजीकरण,एफडीआईकरण देश बेचो राष्ट्रद्रोही सत्तावर्ग के भारत में निरंकुश कारपोरेट धर्मोन्मादी जायनवादी वर्ण वर्चस्व और बहुजन बहुसंख्य जन गण की गुलामी,कृषि समाज के चौतरफा सत्यानाश का मूल कारण हमारा यह बिखराव है।


इस बिखराव को देश जोड़ो अभियान की नयी भाषा और नये माध्यम बजरिये ही हम खत्म कर सकते हैं।बामसेफ एकीकरण का फौरी कार्यभार यह भी है।


निजी महात्वाकांक्षाओं की सुनियोजित साजिश के तहत ही ऐसा बिखराव  हुआ और होना जारी है।हम नहीं जानते कि यह सिलसिला कब खत्म होगा।लेकिन इस साझिश की परतें खोलकर उसकी काट निकालन बहुत जरुरी है जो परमाणु विकिरण की तरह हमें पीढ़ी दर पीढ़ी विकलांग और लाचार बना रही है।हम हांकते बहुत हैं।पादते उससे ज्यादा हैं।आपसे में मारामारी करते हैं सबसे ज्यादा।असली लड़ाई के मैदान में लेकिन हम हमेशा अनुपस्थित हैं।


समता और सामाजिक न्याय पर आधारित जाति उन्मूलित वर्ग विहीन शोषणविहीन समाज के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए संसाधनों और अवसरों का न्यायपूर्ण बंटवारा अनिवार्य है।


समता और सामाजिक न्याय पर आधारित जाति उन्मूलित वर्ग विहीन शोषणविहीन समाज के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए भूमि सुधार के हमारे पुरखों के सदियों पुराने कार्यक्रम को लागू करना अनिवार्य है।


समता और सामाजिक न्याय पर आधारित जाति उन्मूलित वर्ग विहीन शोषणविहीन समाज के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए जल जंगल जमीन आजीविका नागरिकता नागरिक मानवाधिकार,प्रकृति और पर्यावरण की हिफाजत में बहुसंख्य जनता को गोलबंद करना अनिवार्य है।


समता और सामाजिक न्याय पर आधारित जाति उन्मूलित वर्ग विहीन शोषणविहीन समाज के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए कारपोरेट धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की असुर महिषासुर वध संस्कृति के विरुद्ध सक्रिय जनचेतना का महाविस्फोट अनिवार्य है।


समता और सामाजिक न्याय पर आधारित जाति उन्मूलित वर्ग विहीन शोषणविहीन समाज के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अंबेडकर विचारधारा और एकताबद्ध अंबेडकरी

आंदोलन अनिवार्य है।


समता और सामाजिक न्याय पर आधारित जाति उन्मूलित वर्ग विहीन शोषणविहीन समाज के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए इन सभी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए बामसेफ के एकीकरण के सिवाय दूसरा कोई विकल्प है ही नहीं।


चाहे इसके लिए कितनी ही अड़चनें हों,भारतीय समाज,जनगण और भारत देश से अगर हमारा कहीं कोई जुड़ाव है तो हमें इस काम में आज से और अभी से जुट जाना होगा।अपने अपने द्वीपों से निकलकर।अपने अपने अहंकार और वैमनस्य का परित्याग करते हुए।


वरना सामाजिक और राजनीति परिवर्तन और जनमुक्ति का हर विमर्श बेमानी है।




अच्छा था कि जैसे अक्सर  सविता कहती है कि कहानी,कविता,उपन्यास और पत्रकारिता की दुनिया में बने रहते और जमीनी पचड़ों में नहीं पड़ते,तो हम लोग चैन से रहते।लेकिन क्या करें,मेरे पिता यही विरासत छोड़ गये हैं कि अपनों का साथ किसी कीमत पर छोड़ना नहीं है। हम जो हैं, सो हैं,मुश्किल है कि हमारे बच्चे और घर के बाकी लोग भी पिताजी की नक्शेकदम पर हैं।पूरा परिवार तबाही के कगार पर है बिना वजह। क्योंकि किसी को कोई फर्क पड़ता नहीं है।


हमारी व्यथा कथा का जैसे अंत नहीं हैं,वैसे ही हमारी गुलामगिरि खत्म होने वाली नहीं है।


लखनऊ में जो हो रहा है,चुनाव से पहले बहुजनसमाज पार्टी के वोटबैंक की कीमत पर एक और बहुजन राजनीतिक पार्टी का चुनावी शंखनाद है।


इस कारपोरेट प्रयत्न पर  हम कुछ कहना नहीं चाहते।


जो सत्ता संघर्ष में हैं वे अपना अपना हिसाब बूझ लें।


ताराराम मेहना एकीकरण मुहिम के साथ शुरु से रहे हैं और अपनी अध्यक्षता छोड़कर एकीकरण के लिए तैयार हैं।वे पटना सम्मेलन के बाद अगर अध्यक्ष बने रहते हैं तो एकीकरण के कार्यक्रम पर हमें उनके बिना ही नये सिरे से सोचना होगा।


नागपुर में देश भर के कार्यकर्ताओं की सहमति से और बाद में जारी विचार विमर्श के जरिये समविचारी संगठनों की सहमति से पटना में एकीकरण राष्ट्रीय सम्मेलन के आयोजन का फैसला हुआ, जिसमें नया संविधान और नया संस्थागत लोकतांत्रिक संगठनात्मक ढांचा तैयार  व लागू होना है।


इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि पटना में  राष्ट्रीय जनांदोलन की समयबद्ध कार्ययोजना तैयार होनी है।


पटना सम्मेलन हमारे लिए देशभर के सभी कार्यकर्ताओं  के आपसी संवाद का मंच है।चुनाव समीकरण बनाने बिगाड़ने काखेल नहीं है यह और न वहां कोई पिकनिक स्थल है और न मनोरंजन केंद्र।


संवाद में किसी विदूषक या किसी जादूगर के लिए कोई जगह भी खाली नहीं है।


बोरकर साहेब मुंबई में एकीकरण सम्मेलन में शामिल हुए थे और हम उनकी बेशकीमती सिफारिशों पर अमल भी कर रहे हैं।


उनकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी और आम सभा ने एकीकरण पहल  का स्वागत किया है और हम आभारी हैं।


हम लोगों की बोरकर साहब और परमार जी से निरंतर बातचीत जारी हैं लेकिन वे एकीकरण की प्रक्रिया से अलग हैं और इसके बावजूद चाहते हैं कि हम सभी लोग उनके संगठन में शामिल हो जायें।


उन्होंने नागपुर में राष्ट्रीय सम्मेलन के सिलसिले में एकीकरण समिति से विचार विनिमय भी नहीं किया।


बहरहाल हम पहले से पटना में एकीकरण सम्मेलन का ऐलान कर चुके हैं और चाहकर भी एक साथ दो जगह हाजिर हो नहीं सकते।


हमें उम्मीद है कि देर सवेर देश भर के कार्यकर्ताओं और समविचारी संगठनों के आह्वान पर वे लोग भी एकीकरण की प्रक्रिया में देर सवेर अवश्य शामिल होंगे।


हम लोगों ने मुंबई और नागपुर में बामसेफ के सभी धड़ों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को न्यौता था,जिनमें माननीय वामन मेश्राम भी शामिल थे।लेकिन अब तक एकीकरण की दिशा में उनकी तरफ से कोई प्रत्युत्तर हमें नहीं मिला है।


इन धड़ों के अलावा बाकी अन्य धड़ों से,दूसरे अंबेडकरी संगठनों से,समविचारी संगठनों से, देश भर के कार्यकर्ताओं से हम लोग निरंतर संपर्क बनाये हुए हैं।


इस सिलसिले में हमें आंशिक सफलता और थोकभाव से गालियां मिल रही हैं।


जाहिर है कि एकीकरण कोई जादू नहीं है,जिसका असर पलक झपकते न झपकते हो जाये।


व्यक्ति वादी अलकतांत्रिक एकतरफा कर्मपद्धति खून में इसतरह गहरी पैठ गयी है कि हममें से बहुतों को इस जटिल प्रक्रिया में अभ्यस्त होने में वक्त लगेगा।


आदतन कुछ लोगों की महत्वाकांक्षाएं भी सतह पर आ जायेंगी और इसी आग की दरिया में डूबकर ही हमें राष्ट्रव्यापी जनांदोलन का निर्माण करना होगा जो तपिश और झलसते रहने का सबब भी होगा।


धुआंधार गलतफहमियां होंगी,दुष्प्रचार होगा,आपसी मतभेद होंगे,विवाद होंगे, मनमुटाव होगा क्योंकि फर्क यह पड़नेवाला है कि एकतरफा कार्यप्रणाली को जब आप सार्वजनिक आचरण की लोकतांत्रिकता में बदलते हैं,तब सबकुछ व्याकरण सम्मत विशुद्ध पंजिका के मुताबिक बिना झंझट बिन समस्या बिन विवाद होगा,ऐसा असंभव ही है।


लोकतंत्र के झमेले बहुत हैं,तानाशाही निर्विवाद होती है।


तानाशाही में  सोचने समझने की जिम्मेदारी सर्वोच्च शिखर को है।शिखर जैसा सोचेगा,जैसी उसकी सनक होगी या मर्जी होगी,मिजाज के माफिक वह जारी करेगा हुक्मनामा और बाकी लोगों को कुछ करना नहीं है,सिर्फ अंध भेड़ धंसान में समाहित हो जाना है। नामावली जाप करनी है या पेलबुक प्रोपाइल पर तस्वीरें पोस्ट करनी हैं।


लोकतांत्रिक तरीके से सहमति की प्रक्रिया बेहद जटिल है।


इसमें अपनी कही के अलावा दूसरों के मतामत को समझने की तहजीब बेहद जरुरी है।दूसरों की गलतियों और बदतमीजियों को भी सांगठनिक प्रक्रिया में समाहित कर लेने का हाजमा जरुरी है और दुर्भाग्य से अंबेडकरी आंदोलन की ऐसी कोई विरासत फिलहाल नहीं है।


कोई शार्ट कट है नहीं और कामयाबी से हम बहुत दूर हैं,ये बातें दिमाग में रखकर लगातार सक्रियता अखंड प्रतिबद्धता से यकीनन हम यथा स्थिति को तोड़ सकते हैं।


अभी प्रक्रिया शुरु हुई हैं,इसके नतीजे अभी अभी मिल जायेंगे रेडीमेड,ऐसा समझकर जो फेंस पर बैठे हमारी ताकत तौल रहे हैं कि जितनी ताकत होगी,उसी के मुताबिक साथ देंगे,वे अंततः धारा को बदलने में मददगार हो सकते हैं,ऐसा उम्मीद करना मुश्किल है।


बल्कि जो बहुत थोड़े लोग आगे हर तरह का जोखिम उठाक,हर किस्म के झटके सहकर बदलाव के लिए आखिरी दम तक लड़ेंगे,हो सकता है कि वे ही बदलाव करने में कामयाब हो जाये।


लेकिन अभी अंबेडकरी आंदोलन का जो हाल है,कामयाबी का सपना देखना भी असंभव है।


सच पूछिये,तो वामन मेश्राम जी से मेरी निजी कोई तकलीफ नहीं है।हमने जब भी उनसे बात की है,उन्होंने ध्यान से सुना।हमेशा उनकी अगुवाई में बामसेफ के मंच पर हमें अपनी बात रखने का मौका दिया।निजी तौर पर भी वे हमेशा मददगार रहे हैं।


लेकिन हमने निजी संबंधों के बजाय उन तमाम ईमानदार कार्यकर्ताओं का साथ देना उचित समझा जो वास्तव में भारत में जनांदोलन के पक्ष में हैं।निजी तौर पर बिना किसी विवाद के हमने स्वेच्छा से एक शक्तिशाली मित्र खोया।तो यकीनन  मुक्त बाजार में भारतीय जनता को चौतरफा सर्वनाश से बचाने के लिए बामसेफ के सभी धड़ों का एकीकरण हमारे लिए सर्वोच्च प्राथमिकता है,निजी संबंध नहीं।


वामन मेश्राम ने तब बामसेफ को नेतृत्व दिया,जब मान्यवर कांशीराम ने राजनीतिक दल बनाने की घोषणा की और खापर्डे साहब के नेतृत्व में मेश्राम और बोरकर जी जैसे चुनिंदा कार्यकर्ताओं ने बामसेफ को जीवित रखने का फैसला किया।लेकिन वह टीम भी जल्दी बिखर गयी।


वामन मेश्राम के करिश्माई नेतृत्व और बोरकर की संगठनात्मक दक्षता का विखंडन सबसे पहले हुआ।


इसी विखंडन के बाद मैं 2005 में वामन मेश्राम से तब मिला, जब नागपुर में नागरिकता संसोधन कानून के लिए सम्मेलन आयोजित किया गया।इससे पहले मैं किसी भी स्तर से अंबेडकरी आंदोलन से जुड़ा नहीं था। न अंबेडकर को पढ़ा था।


पिता के निधन के बाद आजीवन जिन शरणार्थियों की लड़ाई लड़ते रहे वे,उनकी नागरिकता संकट में थी,शरणार्थी नेताओं के कहने पर मैं नागपुर गया था।


वहां बांग्ला भाषा पर वामन मेश्राम के प्रतिकूल मंतव्य से ज्यादातर बंगाली साथी नाराज हो गये।तब उन्होंने जो साथ छोड़ा,आजतक हम उन्हें दोबारा जोड़ नहीं पाये।


लेकिन तब भी और अब भी भारतभर में कोई शरणार्थी मुद्दे पर बोल ही नहीं रहा था,बोल नहीं रहा है और मेश्राम के नेतृत्व में बामसेफ यह मामला ईमानदारी से उठा रहा था।फिर हमारे परम मित्र लेफ्टिनेंट कर्नल सिद्धार्थ बर्वे लगातार हमसे संपर्क साधे रहे,जिसकी वजह से 2007 में मैं पहली बार बामसेफ के राष्ट्रीय अधिवेशन में पटना गया।


यह नोट करने वाली बात है कि तबसे लगातार मैं जहां भी गया, बामसेफ के लिए मैंने कभी कोई चंदा नहीं किया।मैं डेलीगेट फीस देने लायक न था और न किराया भरने काबिल,बामसेफ ने यह सारा खर्च उठाया।


गुलबर्गा सम्मेलन के बाद मुझे काम करने के लिए लैपटाप देने के लिए मुंबई में बामसेफ के साथियों ने पैसे भी इकट्ठा कर लिये थे,लेकिन तब तक मतभेद इतने बढ़ते गये कि मैंने वह लैपटाप लिया नहीं।


कृपया कोई यह नहीं समझें कि संगठन ,नेतृत्व या कार्यपद्धति की आलोचना करने की वजह से हमारे पुराने सारे मित्र रातोंरात हमारे दुश्मन हो गये हैं।बल्कि उम्मीद करें कि हालात जल्दी बदलेंगे और एकीकृत बामसेफ में न सिर्फ पुराने सारे लोग होंगे,बल्कि अंबेडकरी आंदोलन से बाहर जो बड़ी संख्या में हमारे लोग इधर उधर भटक रहे हैं,वे बी आपके हमारे साथ होंगे। इसके लिए जरुरी है कि संगठन,नेतृत्व और कार्यपद्धति दुरुस्त किये जाये।


अंबेडकर और कांसीराम से लेकर बाकी तमाम महापुरुषों.साधु संतों का हवाला दिये बिना अंबेडकरी आंदोलन में कोई है नहीं।विचारधारा एक है,मिशन एक है तो हम किसके हित साधने के लिए अलग अलग हैं,यह सोचने समझने की दरकार है।



आरोप प्रत्यारोप,गाली गलौज और वैमनस्य के अंधड़ से अब भी न निकले तो फिर वहीं ढाक के तीन पात।


हमें उम्मीद है कि देशभर में हमारे तमाम लोग बहुजनसमाज के हित में अपने निहित हितों से ऊपर उठकर साथ आयेंगे।वैमनस्य को जड़ से उखाड़ फेंकना हमारा मकसद है।


अगर मुझे राजनीति करनी होती तो मैं नैनीताल से लोकसभा चुनाव लड़ने का प्रस्ताव निरंतर न ठुकरा रहा होता,जहां बंगाली शरणार्थी वोटबैंक निर्णायक है।बहुजन समाज पार्टी में मैं शामिल हो सकता था।


नंदीग्राम प्रकरण से पहले माकपा के सर्वोच्च स्तर तक मेरे संबंध थे और मैं माकपा में भी शामिल हो सकता था। फिर सिंगुर नंदीग्राम आंदोलन का पूरा समर्थन करने के बाद ममता बनर्जी के परिवर्तन ब्रिगेड में शामिल होने का विकल्प हमारे सामने खुला हुआ था।


बामसेफ को बहुजन मुक्ति पार्टी में समाहित करने से सही मायने में यह सवाल उठ गया कि आखिर क्यों कांशीराम जी के पैसले के विरुद्ध बामसेफ को अलग बनाये रखा गया।


फिर जब राजनीति ही करनी है तो बहुजन एकता के लिए क्यों कांसीराम जी की बनायी पार्टी बहुजन समाज पार्टी के साथ बामसेफ का समायोजन नहीं किया गया,इसके लिए संबद्ध लोग अवश्य जवाबदेह हैं।


हम लोग फिरभी पार्टी की घोषणा से पहले वामन मेश्राम के साथ संवाद का इंतजार कर रहे थे। तभी मुंबई यूनिट ने चंदे का हिसाब मांग लिया।जैसे भी हो सही गलत हिसाब देकर इस मामले को निपटाया जा सकता था।बात हो सकती थी।नहीं हुई।


मुंबई यूनिट भंग कर दी गयी।दूसरी बनी यूनिट भी हिसाब मांगने पर भंग कर दी गयी।लेफ्टिनेंट कर्नल सिद्धार्थ बर्वे साहेब को निकाल बाहर किया गया।


इससे पहले भी देश भर में बिना सुनवाई ईमानदार कार्यकर्ताओं को निकाला जाता रहा।लेकि मुंबई में और महाराष्ट्र में ऐसा पहला वाकया हुआ।


इसपर मुंबई में एकीकरण की मुहिम चली तो हमने उनका साथ देना तय किया।


बामसेफ में मेरी यात्रा महज छह साल पुरानी है।लेकिन जनमजात जनांदोलनों से मेरा निरंतर वास्ता रहा है,जिसकी वजह से उत्तराखंड के लोग जानते हैं कि हमने अपने पिता तक का विरोध करने से कभी नहीं हिचकिचाया।


कुछ लोग मुझ पर कारपोरेट का खेलने का आरोप लगा रहे हैं तो वे यह क्यों नहीं समझते कि जनांदोलन या संगठन का नेतृत्व जो लोग कर रहे हैं,वे किसी भी कार्यकर्ता से कहीं ज्यादा जवाबदेह हैं।हमारे कथित कारपोरेट खेल से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन नेतृत्व और संगठन के कारपोरेट खेल से बहुजन भारतीयों के सर्वनाश के भागीदार भी हम हो जाते हैं।


मेरा निजी जीवन यथेष्ट पारदर्शी है और मैं इस संदर्भ में आगे कोई सफाई दूंगा नहीं।


हम देशभर के कार्यकर्ता बामसेफ को संस्थागत संस्था बनाने पर सहमत हुए और इस फैसले में हम सब लोग शामिल हैं और इसके कार्यान्वयन की जिम्मेदारी भी साझा है।हमारे पुराने मित्र आरोप लगाते हैं कि कर्नल बर्वे की मित्रता की वजह से हम मेश्राम जी से अलग हो गये।वे भूल जाते हैं कि कर्नल बर्वे से जितनी मित्रता है,उतनी ही मित्रता हमारी मेश्राम जी,मातंग जी और विलास खरात से रही है।


किन्हीं भी परिस्थितियों में हमने हमेशा संवाद जारी रखने की कोशिश की है।समस्या यह हुई कि एकतरफा फैसलों से संवाद का वह सिलसिला टूट गया।


सही मयने में गड़बड़ी किसी व्यक्ति में नहीं होती।गड़बड़ी विचारधारा,उद्देश्य और संगठनात्मक ढांचे में होती है।


संस्थागत लोकतांत्रिक ढांचा न होने के कारण अंबेडकरी आंदोलन लगातार बिखरता गया।हमने लगातार आंदोलन के बजाय मसीहा और राजनीतिक दलों का निर्माण किया।जनांदोलन हुआ ही नहीं है।


यह सब लिखने का आशय यही है कि अब देशभर के कार्यकर्ता व्यक्तिनिर्भर संगठन और एकतरफा फैसले को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करेंगे।


राजनीति हमारा मकसद नहीं है,इसलिए जिन्हें राजनीति करनी हैं,वे करते रहें।हमें कोई तकलीफ नहीं।लेकिन हमारे यहां उनके लिए कोई स्पेस नहीं है।


लेकिन अब भी जो अराजनीतिक सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक आंदोलन के जरिये बहुजनों का हाल बदलने का ख्वाब देखते हैं,ऐसे सभी लोगों के साथ हम लोग काम करने को तैयार हैं।लेकिन संगठनात्मक ढांचा के तहत ही काम करना है,इसमें कोई दो राय नहीं है।


हम किसीके साथ शामिल नहीं हो रहे हैं और न हमसे जुड़े तमाम संगठनों का किसी गुट या धड़े में विलय हो रहा है।


मेश्रामजी के बामसेफ,बोरकर साहेब के बामसेफ या झल्ली साहेब के बामसेफ या ताराराम साहेब के बामसेफ के अलावा रिपब्लिकन पार्टी के विभिन्न धड़ों और बहुजन समाजपार्टी से लेकर तमाम दूसरे संगठनों और पार्टियों में जो बहुजनसमाज के कार्यकर्ता सक्रिय हैं,उनसे हमारा कोई विवाद नहीं हैं।उनका हमारे साथ आने का हमेशा स्वागत किया जायेगा।


किसी धड़े विशेष की शक्ति बढ़ाने के बजाय अंबेडकरी आंदोलन और बहुजनसमाज का सशक्तीकरण हमारा मकसद है।कोई राष्ट्रीय सम्मेलन या राजनीतिक पार्टी हमारा अंतिम लक्ष्य है ही नहीं।


इसे नोट कर लिया जाये कि पटना में हो रहा बामसेफ राष्ट्रीय सम्मेलन ताराराम मेहना का सम्मलेन नहीं है।यह अंबेडकरी आंदोलन के एकीकरण का सम्मेलन है।भले ही इसका आयोजन ताराराम मेहता और उनके साथी कर रहे हैं।


चूंकि संगठनात्मक ढांचा अभी हम बना नहीं पाये हैं,इसलिए सम्मेलन संबंधी हैंड बिल वगैरह में इस मुद्दे का खुलासा कायदे से नहीं हो पाया कि ताराराम मेहना सिर्फ उद्घाटन सत्र का नेतृत्व करेंगे।उनसे हम लोगों की बात हुई है।वे पहले भी अध्यक्षता छोड़ने की बात कर चुके हैं।नये संविधान के मुताबिक ।पटना सम्मेलन में ही एकीकृत बामसेफ के नये अध्यक्ष चुन लिये जायेंगे।


बेहतर होता कि पटना सम्मेलन के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता एकीकृत बामसेफ के कार्यकारी अध्यक्ष एनबी गायकवाड़ ही करते।ऐसा नहीं हो पाया कम से कम हैंडवबिल में। लेकिन यह भी ध्यान देने वाली बात है कि इस सम्मेलन का आयोजन ताराराम मेहना और सुवचन राम जी के तत्वावधान में हो रहा है और यह एकीकरण की प्रक्रिया के तहत ही है।


वैसे ताराराम मेहना को एन बी गायकवाड़ की अध्यक्षता में काम करने से कोई कष्ट नहीं है और न ही वे अध्यक्ष पद पर बने रहने के लिए अड़े हुए हैं।


हैंडबिल में तकनीकी गड़बड़ी से जो गलतफहमी देश के कार्यकर्ताओं को हो सकती है,उसके खुलासे के लिए यह स्पष्टीकरण है।हम उम्मीद करते हैं कि आयोजकों की ओर से तकनीकी त्रुटियां अवश्य दूर कर ली जायेंगी और इन्हें एकीकरण की प्रक्रिया में व्यवधान बनने नहीं दिया जायेगा।हम लोगों ने आयोजकों को यह स्पष्ट भी कर दिया है।


अब चाहे जो हो,जो लोग एकीकरण का लक्ष्य सामने लेकर सामने आये हैं,उन्हें अपनी एकजुटता मजबूती से बनाये रखनी होगी।वरना सारी कवायद नये सिरे से करनी पड़ेगी और हमारे पास वक्त है ही नहीं।


मुद्दे की बात तो यह है कि अगर हम  महत्वपूर्ण अतीत की भूमिका के बावजूद वामन मेश्राम के एकाधिकारवादी नेतृत्व के खिलाफ खड़े हो सकते हैं तो बाकी जो भी हमारे साथ काम करते हैं,उन्हें यह ख्याल रखना होगा कि एकीकरण की प्रक्रिया में लगे ईमानदार कार्यकर्ताओं को ब्रांडेड बनाने की कोई कोशिश सही नहीं जायेगी।


सभी कार्यकर्ताओं और सभी समविचारी संगठनों के मतामत और लोकतांत्रिक पद्धति से ही फैसले होंगे और यह अनिवार्य है।


पटना में सबकी भागेदारी से लोकतांत्रिक तरीके से नयी शुरुआत हो,इसकी जिम्मेदारी किसी व्यक्ति विशेष या समूह विशेष पर नहीं है।यह हम सबकी जिम्मेदारी है।अगर  चूक हो रही है कहीं तो उसकी जिम्मेदारी भी साझा है।


अपने ऐतिहासिक कार्यभार को समझकर आगे आने और सहभागी बनने की चुनौती हम सबके सामने है।बाकी लोकतंत्र है।


वर्ण वर्चस्व के नस्ली लोकतंत्र में जो होता है,उसे समझने के लिए  अब लीजिये, इकानामिक टाइम्स का वह लेख और अंदाजा लगाइये कि हम कितनी गहराई में हैं या सतह पर ही तूफान रच रहे हैं।

Despite heavy political mobilization, inequality between Dalits, tribals, OBCs and the rest of the population is still stark, and has changed little in the past decade.


As elections approach, with a series of state polls already underway and a general election next year, appeals by various parties for votes of the Dalit, tribal and other backward classes will only intensify.


Ever since the Janata Party government set up the Mandal Commission in the late '70s to identify the  ..


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