रवींद्र का दलित विमर्श-सात
रंगभेदी फासिज्म के प्रतिरोध की बची हुई जमीन
हमारा सवाल यही है कि अंध राष्ट्रवाद की परंपरा भारत में न होने के बाद सहिष्णुता,विविधता और लोकतंत्र की साझा विरासत के वारिस हम अपने देश में फासीवाद और नवनाजियों के पुनरूत्थान और रंगभेदी राजकाज और राजनीति के विरोध में कोई प्रतिरोध खड़ा क्यों नहीं कर पा रहे हैं।
पलाश विश्वास
भारत का इतिहास लोकतंत्र का इतिहास है।
भारत का इतिहास लोकगणराज्य का इतिहास है।
धर्म और आस्था चाहे जो हो,भारत में धर्म कर्म लोक संस्कृति,परंपरा और रीति रिवाजों के लोकतंत्र के मुताबिक होता रहा है।
मनुस्मृति के कठोर अनुशासन के बावजूद,अस्पृश्यता और बहिस्कार के वर्ण वर्ग वर्चस्व नस्ली रंगभेद के बावजूद सहिष्णुता और बहुलता का लोकतंत्र भारतीय संस्कृति रही है,जहां मनुष्यता ही हमारी संस्कृति और हमारा लोकतंत्र है।
देशभक्ति हमारी नसों में है लेकिन यह देशभक्ति मनुष्यता के बुनियादी मूल्यों के विरुद्ध कभी नहीं रही है।मनुष्यता के मूल्यों की रक्षा के लिए धर्म युद्ध हमारा राष्ट्रवाद रहा है और यह राष्ट्रवाद मनुष्यता का राष्ट्रवाद है।
पश्चिमी अंध सैन्य राष्ट्रवाद और निरंकुश राष्ट्रवाद भारत का इतिहास नहीं है।
इस राष्ट्रवाद के मसीहा हिटलर और मुसोलिनी हैं तो अमेरिकी साम्राज्यवाद का नस्ली रंगभेद भी यही राष्ट्रवाद है।
भारत का स्वतंत्रता संग्राम ब्रिटिश हुकूमत के इसी साम्राज्यवादी राष्ट्रवाद के विरोध में था और उसके समर्थन में थीं भारत की फासिस्ट नाजी ताकतें जो अब भारत और भारतीय जनता के खिलाफ नस्ली नरसंहार संस्कृति के धर्मावतार बन गये हैं और वे गांधी के हत्यारे भी हैं।
महात्मा गौतम बुद्ध के बाद अंबेडकर,नेताजी और शहीदे आजम की विरासत का वे भगवाकरण कर चुके हैं,इतिहास का वे भगवाकरण कर चुके हैं।फिरभी वे गांधी और रवींद्र का भगवाकरण करने में नाकाम है।
हिंदुत्व की राजनीति के प्रतिरोध की जमीन कुल मिलाकर यही है।
रवींद्र के दलित विमर्श का मकसद इसी प्रतिरोध की जमीन की खोज है।
इसीलिए रवींद्र के दलित विमर्श का आख्यान हमने मनुष्यता के धर्म की चर्चा से की थी जो भारत की विविधता,बहुलतता,उदारता,लोक तंत्र,लोक गणराज्य की साझा सहिष्णु लोक विरासत है।जो सिरे से इस अंध राष्ट्रवाद के विरुद्ध है।इसलिए लंबा खींचने के बावजूद हम इस विमर्श को जारी रखना चाहते हैं।
गांधी और रवींद्रनाथ पश्चिम के इसी अंध साम्राज्यवादी फासिस्ट नाजी राष्ट्रवाद का विरोध कर रहे थे जो अब भारत में मनुस्मृति का कारपोरेट राष्ट्रवाद है,जो उसी तरह गांधी के हिंद स्वराज और रामराज्य के खिलाफ है, जिसतरह रवींद्रनाथ के भारततीर्थ के खिलाफ और भारतीय संविधान,भारत के इतिहास, धर्म, संस्कृति, परंपरा, लोक,जनपद,मातृभाषा,जीवन ,जीविका,मनुष्यता,सभ्यता के खिलाफ भी।
विडंबना यही है कि जिस जर्मनी और इटली में फासीवाद और नाजीवाद में तब्दील हो गया राष्ट्रवाद,वहां लोकतंत्र की ताकतें इसतरह मोर्चाबद्ध है कि नवनाजियों की थोड़ी सी हलचल के विरोध में जनप्रतिरोध की सुनामी खड़ी हो जाती है।
अंध राष्ट्रवाद की भारी कीमत जर्मनी और इटली के साथ उनके सहयोगी जापान ने भी चुकायी है।रोम की प्राचीन सभ्यता अब खंडहर में तब्दील है।
जर्मनी दो दो विश्वयुद्ध में भारी पराजय और विभाजन के बाद फिर अखंड जर्मनी है तो इतिहास को दोहराने की गलती वह नहीं कर सकता।
अमेरिका के आदिवासी अपनी जल जंगल जमीन से बेदखल है और अमेरिका राष्ट्रवाद बेदखली का राष्ट्रवाद है,युद्धक राष्ट्रवाद है और श्वेत आतंकवाद के रंगबेदी राष्ट्रवाद का धारक वाहक अमेरिका है जो इजराइल के जायनी नरसंहारी राष्ट्रवाद से नत्थी है।भारत का रंगभेदी राष्ट्रवाद भी वही है।
जापान ने फासिस्ट सहयोग की वजह से हिरोशिमा और नागासाकी का परमाणु विध्वस झेलने के बाद युद्धक राष्ट्रवाद को तिलांजलि देकर विज्ञान और तकनीक को अपनी बौद्धमय संस्कृति में आत्मसात करके एक मजबूत अर्थव्यवस्था है।
हम बार बार देख रहे हैं कि जर्मनी की आम जनता कैसे बार बार नवनाजियों के पुनरूत्थान के प्रयासों को विफल करने के लिए मोर्चाबंद हो रही है और उनके प्रतिरोध से पुनरूत्थान की हर कोशिश सिरे से नाकाम हो रही है।
जर्मनी में हिटलर को दी जाने वाली सलामी निषिद्ध है।नाजी युद्धक नरसंहारी राष्ट्रवाद के प्रतीक स्वस्तिक पर भी प्रतिबंध है।
अभी हाल ही में ड्रेस्डेन में बार-बार नाजी सल्यूट दे रहे नशे में धुत्त एक अमेरिकी सैलानी को पीट दिया गया।फिर भी नवनाजी फासिस्ट ताकतें बाज नहीं आतीं और जमीन के अंदर उनकी गतिविधियां जारी हैं जो मौका पाते ही सतह पर आ जाती हैं।फिर फिर अपना फन काढ़ लेती हैं।
नागवंशियों के भारत में हम लेकिन उसी विष दंश के शिकार हो रहे हैं।
फिर बर्लिन में जुलूस और रैली करने की योजना थी नवनाजियों की लेकिन हमेशा की तरह जागरुक देशभक्त जर्मनी की नाजीविरोधी फासीवाद विरोधी आम जनता के सशक्त प्रतिरोध से उनका मंसूबा पूरा नहीं हो सका।
हिटलर के सहयोगी रुडलफ हेस की युद्धअपराध की सजा में उम्रकैद के दौरान स्पानी जेल में खुदकीशी करने की तारीख 17 अगस्त को हर बार जर्मनी के नाजी इसी तरह का उपक्रम करते हैं और आम जनता के प्रतिरोध की वजह से नाकाम हो जाते हैं।
अमेरिका के वर्जीनिया के शार्लत्सविले में श्वेत आतंकवादियों के उपद्रव से जरमनी के नाजी कुछ ज्यादा ही जोश में थे।श्वेत आतंकवादियों को अमेरिकी राष्ट्रपति के खुल्ला समर्थन से जरमनी के नवनाजियों का मनोबल बढ़ा हुआ था।लेकिन जर्मनी की वाम और उदारवादी शक्तियों के नेतृत्व में उनका यह उपक्रम भी हर बार की तरह फेल हो गया।
उधर अमेरिका में वर्जीनिया के बाद बोस्टन में रंगभेदी श्वेत आतंकवादियों ने फ्री स्पीच रैली निकालने की कोशिश की तो अमेरिकी सत्ता के समर्थन के बावजूद जनता के प्रतिरोध ने उसे विफल कर दिया।
लोकतांत्रिक उदारवादियों की जवाबी रैली के सामने खड़े ही नहीं हो सके अमेरिकी श्वेत आतंकवादी।हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति ने श्वेत आतंकवादियों की इस रैली को पुलिस के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कहकर मटियाने की कोशिश की।फिर रंगभेद के किलाप लोकतांत्रिक रैली की भी तारीफ कर दी अपना दामन बचाने के मकसद से।
इन घटनाओं का ब्यौरा आप अन्यत्र देख सकते हैं।
हमारा सवाल यही है कि अंध राष्ट्रवाद की परंपरा भारत में न होने के बाद सहिष्णुता,विविधता और लोकतंत्र की साझा विरासत के वारिस हम अपने देश में फासीवाद और नवनाजियों के पुनरूत्थान और रंगभेदी राजकाज और राजनीति के विरोध में कोई प्रतिरोध खड़ा क्यों नहीं कर पा रहे हैं।
भारत में शहीदेआजम भगतसिंह की देशभक्ति पर आजतक किसी ने सावल खड़ा नहीं किया है लेकिन अंध राष्ट्रवाद की सुनामी में आगे क्या होगा,कहना मुश्किल है क्योंकि इतिहास बदलने का फासिस्ट उपक्रम जारी है और हम उसका कोई प्रतिरोध अभीतक कर नहीं सके हैं।
शहीदेआजम भगतसिंह नास्तिक थे।
शहीदेआजम भगतसिंह कम्युनिस्ट थे।
शहीदेआजम भगतसिंह साम्राज्यवादविरोधी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक हैं,जो फासीवाद और नाजीवाद के विरुद्ध थे।
परम सात्विक,वर्णाश्रम और रामराज्य के प्रवक्ता गांधी के हत्यारों का महिमामंडन अब फासिज्म का राजकाज है और मनुष्यता,सभ्यता और लोकतंत्र के सारे प्रतीकों की मिटाने की कारपोरेट मुक्तबाजारी राजनीति के निशाने पर हैं रवींद्रनाथ समेत भारतीय साहित्य और संस्कृति के तमाम स्तंभ।
धर्म और राष्ट्रवाद,दोनों अब नवनाजी फासिस्ट ताकतों के सबसे बड़े हथियार हैं,जिनके मुकाबले हम निःशस्त्र हैं।
आस्था की जडें भारतीय आम जनता के मानस में इतनी गहरी बैठी हैं कि उनकी आड़ में भावनाओं को भड़काकर धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल नस्ली रंगभेद के राजकाज निरंकुश है और उनके अस्मिता विमर्श के प्रतिरोध में आम जनता के मानस को स्पर्श करने वाले विमर्श का हमने अभीतक सृजन करने का कोई प्रयास नहीं किया है तो दिनोंदिन फासिज्म का प्रतिरोध असंभव होता जा रहा है।
गौरतलब है कि शहीदेआजम भगतसिंह की देशभक्ति का भारतीय जनमास पर अमिट छाप है लेकिन उनकी नास्तिकता,उनके साम्यवाद,उनके साम्राज्यवादविरोध, फासिज्म के खिलाफ प्रतिरोध के उनके क्रांतिकारी विमर्श को हम आगे बढ़ाने और जनता तक संप्रेषित करने के कार्यभार का निर्वाह करने की अभीतक कोशिश नहीं की है तो उनकी देशभक्ति और उनके सर्वोच्च बलिदान का इस्तेमाल फासीवादी नस्ली रंगभेद की शक्तियां अपने अंध राष्ट्रवाद को मजबूत करने में कर रहे हैं।
इसी तरह नेताजी सुभाष चंद्र बोस के द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भारत को स्वतंत्र कराने के प्रयास में देश से बाहर निकलकर अंग्रेजों के दुश्मन हिटलर के साथ संवाद करने,जापान के साथ मिलकर आजाद हिंद फौज बनाकर भारत को अंग्रेजी हुकूमत की गुलामी से रिहा कराने के प्रयासों की वजह से भारत में फासिज्म के विरोद में उनकी राजनीति और अखंड भारती की धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद की उनकी विरासत को समझने की कोई कोशिश ही नहीं हुई है।
स्वतंत्रता के लिए युद्ध के मकसद से भारत छोड़ने से पहले युवाओं और छात्रों को संबोधित करके नेताजी ने फासीवादी हिंदुत्व को सबसे बड़ा खतरा बताया था।
हम नेताजी के इस भाषण को शेयर कर चुके हैं और इस पर सिलसिलेवार चर्चा कर चुके हैं।लेकिन हिंदुत्व की राजनीति का विरोध करने वाले लोकतांत्रिक ताकतों की नेताजी के फासीवाद विरोधी विचारों में कोई दिलचस्पी नहीं है और जाहिर है कि इस पर आगे कोई बात चली नहीं है।हमने नेताजी को फासिस्ट मानकर नवनाजियों के हवाले कर दिया है।
इसी तरह बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर का भगवाकरण भी निर्विरोध हो गया क्योंकि नस्ली रंगभेद पर आधारित जाति व्यवस्था के अन्याय और असमानता के सामाजिक यथार्थ को वाम,उदार और लोकतांत्रिक ताकतों के सवर्ण नेतृत्व और तमाम माध्यमों,विधाओं पर काबिज सवर्ण विद्वतनों ने मनुस्मृति स्थाई बंदोबस्त को जारी रखने के मकसद से सिरे से नजरअंदाज किया है।
रवींद्र के दलित विमर्श को नजरअंदाज करने का नजरिया भी वहीं है।
रवींद्र विमर्श में वैदिकी प्रभाव का महिमामंडन ही लोकतंत्र का उदार,वाम और धर्मनिरपेक्ष विमर्श है।लेकिन रवींद्र साहित्य में दलित विमर्श और बौद्धमय भारत की अटूट छाप और उनकी रचनाधर्मता के बौद्ध साहित्यस्रोतों और प्रभावों पर भारत में चर्चा नहीं होती.यह भी हिंदुत्व की राजनीति है।
गांधी और रवींद्रनाथ भगतसिंह की तरह नास्तिक नहीं हैं।
गांधी और रवींद्रनाथ अंबेडकर की तरह वैदिकी साहित्य या वैदिकी इतिहास के विरुद्ध नहीं हैं।वे भारतीय जनमानस की आस्था पर चोट किये बिना ब्राह्मणधर्म के नस्ली रंगभेदी राजनीति और विमर्श के विपरीत बौद्धमय अखंड भारत की साझा विरासत की विविधता,बहुलता,सहिषणुता और लोकतंत्र के मुताबिक स्वराज और स्वतंत्रता की बात करते रहे हैं और भारतीय जनमानस पर उनका इसीलिए इतना गहरा असर है।
गांधी के रामराज्य की परिकल्पना ने उन्हें भारतीय जनता के साम्राज्यवाद विरोधी एकताबद्ध महासंग्राम के नेतृ्तव से नहीं रोका क्योंकि उनका हिंदुत्व रवींद्र के भारत तीर्थ का हिंदुत्व है जो फासीवादी हिंदुत्व के विरुद्ध है।
इसीलिए परम सात्विक वैष्णव और वर्णाश्रम के समर्थक गांधी की हत्या के बिना भारत में नवनाजी हिंदुत्व का पुनरूत्थान असंभव था।
गांधी का राष्ट्रवाद हिंदुत्व का नवनाजी फासिज्म का राष्ट्रवाद नहीं था और उनके हिंद स्वराज में मुसलमान विदेशी नहीं थे।
अंबेडकर चूंकि मनुस्मृति और जाति व्यवस्था के साथ साथ ब्राह्मणधर्म और वैदिकी साहित्य के विरोधी रहे हैं तो भारतीय आम जनता में यहां तक कि सभी दलितों,पिछड़ों और आदिवासियों के लिए वे गांधी की तरह मान्य नहीं है क्योंकि इन तमाम जन समुदायों की दि्नचर्या और जीनवनयापन,सामाजिक यथार्थ मनुस्मृति अनुशासन के शिकंजे में हैं और उनकी आस्था ब्राह्मण धर्म कर्म रीति रिवाज जन्म मृत्यु पुनर्जन्म संस्कारों में हैं।
अंबेडकर की राजनीति के समर्थक भी इस ब्राह्मणवाद से मुक्त नहीं है और मौका पाते ही वे ब्राह्मण तंत्र के तिलिस्म के पहरुए और पैदल सेना में तब्दील हो जाते हैं।
किसी अछूत के साहित्य में नोबेल पुरस्कार पाने की उपलब्धि,उनके गीत संगीत सवर्ण संस्कृति के राष्ट्रवाद और अस्मिता में बदल जाने का सच और भारतीय राष्ट्र और राष्ट्रवाद के अलावा बांग्लादेश के राष्ट्र और राष्ट्रवाद के निर्माता बन जाने का यथार्थ फासीवादी ताकतों के हिंदू कारपोरेट राष्ट्र के लिए गांधी से कम बड़ा खतरा नहीं है,जिसे सिरे से खारिज करने में लगा है फासीवाद।
इसके विपरीत हम उस विमर्श को सिरे से नजरअंदाज कर रहे हैं,जो भारत में फासिज्म के खिलाफ प्रतिरोध की सबसे मजबूत जमीन है।
नेताजी,भगतसिंह और अंबेडकर आम जनता की आस्था को कहीं स्पर्श नहीं करते तो गांधी और रवींद्र उसी आस्था को बौद्धमय भारत के आदर्शों और मूल्यों के तहत फासीवादी रंगभेदी हिंदुत्व के खिलाफ भारतीय मनुष्यता के धर्म की साझा विरासत बना देते हैं और विडंबना यही है कि हम उस जमीन पर खड़ा होेने से सिरे से इंकार करते हैं।
इसी सिलसिले में पहले लिखे कुछ जरुरी तथ्यों को फिर दोहराना चाहता हूं।मेरे पास वक्त बहुत कम है।ईश्वर में मेरी कोई आस्था नहीं रही है।इसलिए अनिश्चित भविष्य पर मैं निर्भर नहीं हूं।रवींद्र विमर्श के बहाने इतिहास की कुछ अनकही जरुरी बातें भी सामने आ रही हैं।मुझे संवाद के परिसर से हमेशा के लिए बाहर हो जाने से पहले इस संवाद को अंजाम तक पहुंचाना है।चूंकि यह प्रिंट में नहीं हो रहा है तो फिर फिर उलट पलुट कर देखने का मौका यहां नहीं है।
जितनी तेजी से हम संवाद आगे बढ़ाना चाहते हैं,पाठक शायद इसके लिए तैयार न हों और सोशल मीडिया की भी अपनी सीमायें हैं।जाहिर है कि कुछ जरुरी प्रसंगों को बीच बहस में दोहराने की जरुरत होगी ,जिनके बिना बात कहीं नहीं पहुंचेगी।
इससे पहले हमने जो लिखा है,उस पर नये तथ्यों के आलोक में दोबारा विचार करें।मसलनः
चंडाल आंदोलन के भूगोल में रवींद्र की जड़ें है जो पीर फकीर बाउल साधु संतों की जमीन है और उसके साथ ही बौद्धमय भारत की निरंतता के साथ लगातार जल जंगल जमीन के हकहकूक का मोर्चा भी है।
श्रावंती नगर की चंडालिका की कथा का सामाजिक यथार्थ अविभाजित बंगाल का चंडाल वृत्तांत है,जिसकी पृष्ठभूमि में बंगाल का नवजागरण और ब्रह्मसमाज है।
रवींद्र के व्यक्तित्व कृत्तित्व में वैदिकी प्रभाव की खूब चर्चा होती रही है। लोकसंस्कृति में उनकी जड़ों के बारे में भी शोध की निरंतरता है।लेकिन चंडालिका के अलावा कथा ओ कहानी की सभी लंबी कविताओं में जो बौद्ध आख्यान और वृत्तांत हैं और उनकी रचनाधर्मिता पर महात्मा गौतम बुद्ध का जो प्रभाव है,उसके बारे में बांग्लादेश में थोड़ी बहुत चर्चा होती रही है,लेकिन भारत के विद्वतजनों ने रवींद्र जीवन दृष्टि पर उपनिषदों के प्रभाव पर जोर देते हुए बौद्ध साहित्य के स्रोतों से व्यापक पैमाने पर रवींद्र के रचनाकर्म पर कोई खास चर्चा नहीं की है।
चंडालिका में अस्पृश्यता के खिलाफ,मनुस्मृति के खिलाफ उनकी युद्धघोषणा को सिरे से नजरअंदाज किया गया है।
जड़ों से,लोक और लोकायत में रचे बसे रवींद्र साहित्य में प्रकृति,पर्यावरण और प्रकृति से जुड़ी मनुष्यता के प्रति प्रेम उनके गीतों को रवींद्र संगीत बनाता है,जो बंगाल के आमलोगों का कंठस्वर उसीतरह है जैसे वह स्त्री अस्मिता का पितृसत्ता के विरुद्ध प्रतिरोध और उनकी मुक्ति का माध्यम है तो बांग्ला राष्ट्रीयता का प्रतीक भी वही है।
जड़ों से जड़ने की इसी अनन्य जीजिविषा की वजह से रोमांस से सरोबार मामूली से लगने वाले उनके गीत के बोल आमार बांग्ला आमि तोमाय भालोबासि सैन्य राष्ट्र के नस्ली नरसंहार अभियान के विरुद्ध बांग्ला राष्ट्रीयता की संजीवनी में तब्दील हो गयी और जाति धर्म से ऊपर उठकर मुक्तिसंग्राम में इसी गीत को होंठों पर सजाकर लाखों लोगों ने अपने प्राणों को उत्सर्ग कर दिया।भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास भूगोल बदल गया स्वतंत्र बांग्लादेश के अभ्युदय से जहां राष्ट्रीयता उनकी मातृभाषा है।
इसी तरह स्वतंत्र भारतवर्ष की समग्र परिकल्पना जहां रवींद्र की कविता भारत तीर्थ है,राष्ट्रीय एकता, अखंडता और संप्रभुता का राष्ट्रगान जनगण मन अधिनायक है तो भारतीय दर्शन परंपरा,भारतीय इतिहास,भारतीय सभ्यता और संस्कृति की अंतरतम अभिव्यक्ति गीतांजलि है।
हमने स्पष्ट कर दिया है कि मनुस्मृति विधान के तहत जाति व्यवस्था की विशुद्धता,अस्पृश्यता और बहिस्कार के खिलाफ खड़े गांधी,अंबेडकर और रवींद्र तीनों पर महात्मा गौतम बुद्ध और उनके धम्म का प्रभाव है।
हम मौजूदा रंगभेद की राजनीति, सत्ता और अर्थव्यवस्था की नरसंहार संस्कृति के लिए बार बार महात्मा गौतम बुद्ध के दिखाये रास्ते पर चलने और धम्म के अनुशीलन पर जोर देते रहे हैं।समूचे रवींद्र साहित्य की दिशा और समूची रवींद्र रचनाधर्मिता,उनकी जीवनदृष्टि पर उसी बौद्धमय भारत की अमिट छाप है।
इसी सिलसिले में रवींद्र साहित्य के बौद्ध प्रसंग पर मैंने ढाका बांग्ला अकादमी के उपसंचालक कवि डा.तपन बागची का बांग्ला में लिखे मूल शोध निबंध को अपने हे मोर चित्त,prey for humanity video के साथ सोशल मीडिया पर शेयर किया है।
रवींद्रनाथ ने अचानक चंडालिका नहीं लिखी है।इससे पहले रुस की चिट्ठी,शूद्र धर्म,राष्ट्रवाद और मनुष्य का धर्म जैसे महत्वपूर्ण कृतियों में उन्होंने भारत की सबसे बड़ी समस्या वर्ण वर्चस्व की वजह से नस्ली विषमता बताते हुए भारत को खंडित राष्ट्रीयताओं का समूह बताया है और इसे सामाजिक समस्या माना है।
औपनिवेशिक भारत की समस्या को वे वैसे ही राजनीतिक समस्या नहीं मानते थे,जैसे गुरुचांद ठाकुर,महात्मा ज्योतिबा फूले,अयंकाली,नारायणगुरु और पेरियार।
फूले और गुरुचांद ठाकुर अंग्रेजी हुकूमत के बदले ब्राह्मणों के हुकूमत के विरोध में गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम में दलितों,पिछड़ों की हिस्सेदारी से मना किया था।बंगाल में चंडाल आंदोलन भी ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध न होकर सवर्म जमींदारों के खिलाफ था और राजनीतिक आजादी के बजाये वे जाति व्यवस्था के तहत अपनी अस्पृश्यता से मुक्ति और सबके लिए समान अवसर,समानता और न्याय की मांग कर रहे थे।बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर भी अस्पृश्यताविरोधी आंदोलन से राजनीति की शुरुआत की और उन्होंने जाति उन्मूलन का एजंडा सामने रखा।
बहुजनों के तमाम पुरखे, नेता जिस सामाजिक बदलाव की बात करते हुए अंग्रेजों से ब्राह्मणतंत्र को सत्ता हस्तांतरण का विरोध कर रहे थे,रवींद्र साहित्य में भी उसी सामाजिक बदलाव की मांग प्रबल है।
बहुचर्चित चंडालिका रवींद्रनाथ ने 1933 में लिखी।
चंडालिका को उन्होंने चंडाल आंदोलन के बिखराव से पहले सामाजिक बदलाव के लिए जाति व्यवस्था पर आधारित रंगभेदी नस्ली विषमता के खिलाफ पेश किया, इस पर खास गौर किये जाने की जरुरत है।
1937 में चंडाल आंदोलन के महानायक गुरुचांद ठाकुर, जिनके आंदोलन की वजह से 1911 की जनगणना में बंगाल के अस्पृश्य चंडालों को नमोशूद्र बतौर दर्ज किया गया और बंगाल में अस्पृश्यता निषेध लागू हो गया,का निधन हो गया,उसी वर्ष रवींद्रनाथ ने चंडालिका को नृत्यनाटिका के रुप में पेश करके बाकायदा अपनी तरफ से अस्पृश्यता के विरोध में एक सांस्कृतिक आंदोलन की शुरुआत कर दी।
क्योंकि बंगाल में बाकी देश की तरह मंदिर प्रवेश आंदोलन या पेयजल के अधिकार के लिए आंदोलन नहीं हुए,चंडालिका का यह सांस्कृतिक रंगकर्म चंडाल आंदोलन के सिलसिले में बेहद महत्वपूर्ण है,खासकर जबकि तमाम बहुजन नेता ब्राह्मणधर्म के विकल्प के रुप में गौतम बुद्ध के धम्म का प्रचार कर रहे थे और रवींद्रनाथ की चंडालिका कथा बंगाल के सामाजिक यथार्त की अभिव्यक्ति के लिए सीधे बौद्ध साहित्य से ली गयी।
चंडालिका की रचना से बहुत पहले जिस गीतांजलि पर नोबेल पुरस्कार मिलने की वजह से रवींद्र को कविगुरु,गुरुदेव और विश्वकवि जैसी वैश्विक उपाधियां मिलीं,उसी गीताजलि में उन्होंने लिखाः
शतेक शताब्दी धरे नामे सिरे असम्मानभार
मानुषेर नारायणे तबु करो ना नमस्कार।
तबु नतो करि आंखि देखिबारे पाओ नाकि
नेमेछे धुलार तले दीन पतितेर भगवान
अपमाने होते हबे ताहादेर सबार समान।
मेरे पिता शरणार्थी नेता जो पूर्वी बंगाल से उखाड़े गये और भारतभर में छितरा दिये गये अछूत विभाजनपीड़ित शरणार्थियों के पुनर्वास,मातृभाषा,आरक्षण, नागरिकता और नागरिक मानवाधिकार के लिए तजिंदगी लड़ते रहे,वे इस कविता को बंगाल के और बाकी भारत के अछूतों के आत्मसम्मान आंदोलन का मूल मंत्र मानते थे।वे मानते थे कि सामाजिक विषमता की वजह सेही विस्थापन होता है।
नस्ली रंगभेद की विश्वव्यापी साम्राज्यवादी हिंसा की वजह से आज आधी मनुष्यता शरणार्थी हैं तो आजादी के बाद इसी नस्ली भेदभाव के कारण पूरा का पूरा आदिवासी भूगोल विस्थापन का शिकार है।
विस्थापन का शिकार है हिमालय और हिमालयी लोग भी इसी नस्ली विषमता की वजह से दोयम दर्जे के नागरिक माने जाते हैं।
उन्नीसवीं सदी से शुरु चंडाल आंदोलन की मुख्य मांग अछूतों को सवर्णों की तरह हिंदू समाज में बराबरी और सम्मान देने की मांग थी जिस वजह से पूर्वी बंगाल के चंडाल भूगोल में महीनों तक अभूतपूर्व आम हड़ताल रही।
केरल में भी अयंकाली ने किसानों और मछुआरों की मोर्चांबदी से इसीतरह की हड़ताल की तो तमिलनाडु की द्रविड़ अनार्य अस्मिता का आत्मसम्मान आंदोलन भी इसी नस्ली भेदभाव के खिलाफ था और इसी जातिव्यवस्था और मनुस्मृति विधान के तहत बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने नागपुर में हमारे जन्म से पहले अपने लाखों अनुयायियों के साथ हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धम्म की दीक्षा ली।
लेकिन असमानता और अन्याय की व्यवस्था कारपोरेट हिंदुत्व से देश के विभाजन और सत्ता हस्तांतरण के सत्तर साल बाद राष्ट्रवाद की अंध आत्मघाती सुनामी में तब्दील है और इस व्यवस्था के शिकार तमाम जन समुदाय जल जंगल जमीन नागरिकता नागरिक और मानव अधिकारों से लगातार बेदखली के बाद उसी नरसंहार संस्कृति की पैदल सेना है।
रवींद्रनाथ जिस परिवार में जनमे,वह मूर्तिपूजा के खिलाफ ब्रह्मसमाज आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था।वे जाति से पीराली ब्राह्मण थे जिन्हें अछूत माना जाता रहा है और सामाजिक बहिस्कार की वजह से उनका परिवार पूर्वी बंगाल छोड़क कोलकाता चला आया।उनेक दादा प्रिंस द्वारका नाथ टैगोर को फोर्ट विलियम का ठेका मिला और वे बंगाल में ब्रिटिश राज के दौरान उद्यमियों में अगुवा बन गये,जिनका लंदन के स्टाक एक्सचेंज में भी कारोबार था तो पूर्वीबंगाल में उनकी बहुत बड़ी जमींदारी थी।
इसके बावजूद उनका परिवार कुलीन हिंदू समाज के लिए अछूत था।रवींद्र के पिता महर्षि द्वारका नाथ टैगोर ब्रह्म समाज आंदोलन के स्तंभ थे।
टैगोर परिवार और ब्रह्मसमाज आंदोलन के नेताओं पर बौद्धधर्म का गहरा असर था और उन सभी ने इस पर काफी कुछ लिखा।
इस पारिवारिक पृष्ठभूमि पर हम अलग से चर्चा करेंगे।
रवींद्रनाथ की रचनाओं में चंडालिका के अलावा नेपाली बौद्ध साहित्य से लिये गये आख्यान पर आधारित भिक्षा, उपगुप्त, पुजारिनी, मालिनी, परिशोध, चंडाली, नगरलक्ष्मी,मस्तकविक्रय जैसी रचनाएं लिखी गयी हैं।उनका कविता संकलन कथा ओ काहिनी की सारी रचनाएं इसी नेपाली बौद्ध साहित्य के आख्यान पर आधारित हैं।कथा ओ काहिनी की 33 कविताएं इसी तरह लिखी गयी,जिनमें लंबी कविताएं दो बिघा जमीन,विसर्जन,देवतार ग्रास और पुरातन भृत्य जैसी रचनाएं शामिल हैं।
पुनश्च की कविताओं का स्रोत भी बौद्ध साहित्य है।जिनमें शाप मोचन बेहद लोकप्रिय और चर्चित है।
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