Thursday, August 10, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-2 अनेकता में एकता का विमर्श ही रवींद्र रचनाधर्मिता है और यही मनुष्यता का आध्यात्मिक उत्कर्ष भी। पलाश विश्वास

रवींद्र का दलित विमर्श-2

अनेकता में एकता का विमर्श ही रवींद्र रचनाधर्मिता है और यही मनुष्यता का आध्यात्मिक उत्कर्ष भी।

पलाश विश्वास

Video:The Religion of Man

https://www.youtube.com/watch?v=362W4L0v2Xk


आगे चर्चा से पहले यह साफ कर दूं कि यह संवाद का प्रयास है,कोई शोध निबंध नहीं है।रवींद्र के व्यक्तित्व और कृतित्व को आध्यात्म के नजरिये से देखने परखने की परंपरा रही है।इसके अलावा इस आध्यात्म के अलावा रवींद्र साहित्य में प्रेम और रोमांस पर ज्यादा फोकस किया जाता है।इसकी एक वजह रवींद्र संगीत है और रवींद्र नाथ के लिखे गीतों को रवींद्र संगीत से जुड़े लोग दो पर्व में बांटते हैं-पूजा पर्व और प्रेम पर्व।फिर वहीं आध्यात्म और रोमांस की बात है।

समता और न्याय के पक्ष में,उत्पीड़ितों,वंचितों और अस्पृश्यों के पक्ष में रवींद्र साहित्य की चर्चा कभी नहीं होती।कहीं नहीं होती।बांग्ला साहित्य में भी नहीं।

उनका आध्यात्म वैदिकी विशुद्धता का आध्यात्म नहीं  है बल्कि भारतीय संस्कृति की एकात्मता में उसी बहुलता और विविधता का आध्यात्म है जो मनुष्यता के उत्कर्ष की खोज में व्यक्ति से सर्वकालीन सार्वभौम आदर्शों के प्रति समर्पित है।इस पर कायदे से चर्चा नहीं हुई है।अनेकता में एकता का विमर्श ही रवींद्र रचनाधर्मिता है औय यही मनुष्यता का आध्यात्मिक उत्कर्ष भी।यह मनुस्मृति के रंगभेद के खिलाफ जितना है,वही मुक्तबाजारी कारपोरेट नरसंहार की संस्कृति के खिलाफ भी।

मनुष्यता के इसी  धर्म की बुनियाद पर गांधी जनपदों के विध्वंस पर विकास को पागल दौड़ कहते हैं तो वैज्ञानिक आइंस्टीन कहते हैं कि विज्ञान के विकास के मुकाबले मनुष्यता का विकास नहीं हुआ है।तालस्ताय रुसी सत्ता वर्ग के पाखंड को बेपर्दा करते हुए युद्ध में शांति की बात करते हैं।

यह मनुष्यता सार्वभौम है और यही सार्वभौम मनुष्यता रवींद्र के भारततीर्थ की परिकल्पना है तो गांधी का स्वराज का आध्यात्म भी वहीं मनुष्यता है जो अंततः अस्पृश्यता के खिलाफ समानता और न्याय का विमर्श है।सत्ता वर्ग के राजनीति के हिसाब से सही होने की गरज से हम इस बिंदू पर चर्चा करने से बचते रहे हैं।

इसी वजह से लंबे अरसे तक साहित्य के प्रगतिशील लोगों ने रवींद्र साहित्य को रोमांटिक भी माना है।लेकिन सबसे बड़ी गलतफहमी रवींद्र नाथ को सत्ता वर्ग का कुलीन प्रतिनिधि मानने की रही है।सत्ता वर्ग का कवि मानकर ही बंगाल में नक्सल विद्रोह के दौरान रवींद्र और गांधी की मूर्तियां बम से उड़ायी जाती रही है।

अब भारतीय संविधान और लोकतंत्र जब समता और न्याय के लक्ष्य हासिल करनेे में सिरे से असफल होते जा रहे हैं और राजनीति कारपोरेट एजंडा के मुताबिक चल रही है और धर्मोन्मादी राष्ट्रवादी समाज मुकम्मल मुक्त बाजार में तब्दील है तो भारत की परिकल्पना करने वाले रवींद्र नाथ के व्यक्तित्व और कृतित्व की वस्तुपरक परख और जांच पड़ताल समकालीन चुनौतियों और प्रश्नों का जबाव खोजने के लिए जरुरी है।

2002 में जब मैंने रवींद्र का दलित विमर्श शीर्षक से एक पुस्तक की पांडुलिपि तैयार की उस वक्त समता  और न्याय के लक्ष्य की दृष्टि से रवींद्र के व्यक्तित्व और कृतित्व की जांच पड़ताल सामाजिक बदलाव के  नजरिये से मुझे बहुत जरुरी लगा था क्योंकि आम लोगों और खासतौर पर बहुजनों यानी आदिवासियों,दलितों,पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को उनके पक्ष में लिखे रवींद्र साहित्य की जानकारी नहीं है और वे रवींद्र नाथ को उनके आध्यात्म की वजह से,उनके साहित्य में वेद पुराण और वैदिकी साहित्य के प्रभाव की वजह से और इसके साथ ही उनकी जाति की वजह से उन्हें ब्राह्मणवादी मानते रहे हैं।

रवींद्रनाथ न जाति से ब्राह्मण हैं और न मनुस्मृत के पक्ष में वर्ण वर्चस्व के प्रवक्ता हैं।इस देश के करोड़ों अछूतों की तरह रवींद्र नाथ बी अछूत है जिन्हें मंदिर में प्रवेशाधिकार नहीं मिलता और वे धर्मस्थल में कैद ईश्वर की जगह मनुष्यता के उत्कर्ष के आध्यात्म में ही ईश्वर की खोज करते हैं।यही उनकी गीताजंलि है।

पुरोहित तंत्र और वर्णवर्चस्व के विरुद्ध उनके इस विद्रोह को बहुजनों ने जाना नहीं है और इसीलिए उन्हें मालूम बी नहीं है कि समता और न्याय की विविधता बहुलता में एकता की संस्कृति के प्रवक्ता होने की वजह से ही वे अपने समय में बहिस्कृत रहे हैं और आजभी मनुस्मृति के राजकाज में उनके बहिस्कार का सिलसिला जारी है।

इसीलिए रवींद्र के दलित विमर्श पर विस्तार से व्यापक चर्चा होना चाहिए जो भारत के इतिहास और परंपरा,संस्कृति के साथ साथ समता और न्याय के संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए अनिवार्य कार्यभार है।

रवींद्र का आध्यात्म वैदिकी संस्कृति का आध्यात्म नहीं है। इसमें दैवी उत्कर्ष नहीं ,मनुष्यता के उत्कर्ष का अनुसंधान है।

इसीलिए मैंने शुरुआत में रवींद्र के 1930 में दिये प्रसिद्ध भाषण 231 पेज के दि रिलीजन आफ मैन की प्रासंगिकता पर जोर दिया है और इसे रवींद्र के कृतित्व और व्यक्तित्व को समझने के लिए अनिवार्य पाठ बताया है।

हम अपनी विरासत को खारिज नहीं कर सकते।

हम अपने इतिहास को बदल नहीं सकते।

रचनाधर्मिता की इसी नींव पर रवींद्र साहित्य,उनका व्यक्तित्व और कृतित्व है।

इतिहास विरोधी विरासत विरोधी असहिष्णुता और संकीर्णता की दृष्टि से रवींद्रनाथ को समझा नहीं जा सकता।वैदिकी सभ्यता भी भारत के इतिहास और विरासत में शामिल है। जैसे भारत की बाकी सभ्यताओं के बिना भारत की पूरी विरासत नहीं बनती और इसके बिना भारत की कल्पना संभव है।

भारत के समूचे इतिहास और समूची विरासत की वैज्ञानिक दृष्टि के बिना हम सच का सामना कर ही नहीं सकते।

लेकिन रवींद्र नाथ वैदिकी सभ्यता के प्रवक्ता कभी नहीं है। वे विशुद्धता के रंगभेद के खिलाफ है और उनकी रचनाओं में सामाजिक यथार्त के साथ साथ सामाजिक बदलाव और मेहनतकशों के पक्ष में समता और न्याय के स्वर हैं,जिन पर चर्चा नहीं हुई है।बांग्ला के पाठकों के लिए रवींद्रनाथ ने स्वयं मानुषेर धर्म पुस्तक लिखकर अपने दार्शनिक चिंतन मनन का खुलासा किया है।लेकिन इसमें शक है कि कितने पाठकों ने इस पुस्तक को पढ़ा होगा।हिंदी में यह पुस्तक अनूदित हुई है या नहीं,मुझे इसकी जानकारी नहीं है।बहरहाल इसकी हिंदी में कहीं चर्चा मैंने सुनी नहीं है।

अत्यन्त वैज्ञानिक पद्धति से  तैयार इस भाषण और उस पर आधारित पुस्तक पर कल इसीलिए मैंने एक वीडियो जारी किया है,जो फेसबुक पर अपलोड नहीं किया जा सका तो यू ट्यूब में इसे जारी किया गया।एक घंटे के इस वीडियो में भारत की संत फकीर,पीर बाउल परंपरा की  रवींद्र आध्यात्म की चर्चा हमने इसलिए की है ताकि जिन पाठकों ने यह भाषण नहीं पढ़ा,उन्हें उसके संदर्भ और प्रसंग समझ में आये ताकि हम रवींद के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बेहतर तरीके से बहस कर सकें।

इसी  भाषण में रवीन्द्रनाथ ने कहा हैः

I have mentioned in connection with my per-

sonal experience some songs which I had often

heard from wandering village singers, belonging

to a popular sect of Bengal, called Baiiis,' who

have no images, temples, scriptures, or ceremo-

nials, who declare in their songs the divinity of

Man, and express for him an intense feeling of

love. Coming from men who are unsophisticated,

living a simple life in obscurity, it gives us a clue

to the inner meaning of all religions. For it sug*

gests that these religions are never about a God of

cosmic force, but rather about the God of human

Personality.

रवींद्रनाथ बंगाल के बाउल परंपरा की बात कर रहे हैं।जिसका असर उनकी तमाम रचनाओं पर पड़ा है।बाउल विशुद्धता के रंगभेेद के खिलाफ है।रवींद्र खुद को बाउल कहते रहे हैं यानी धार्मिक जाति नस्ली  भेदभाव से  ऊपर हैं उनकी मनुष्यता और वे ईश्वर में भी मनुष्यता का दर्शन करते हैं।

वैदिकी साहित्य के अलावा रवींद्र की रचनाओं में महात्मा गौतम बुद्ध के धम्म का भी गहरा असर है।इसके अलावा वे ब्रह्मसमाजी थे,जिन्हें तत्कालीन हिंदू समाज म्लेच्छ मानता रहा है।उनकी रचनाधर्मिता बंगाल के नवजागरण की परंपरा में है और उनके गीतों में स्त्री स्वतंत्रता का स्वर पितृसत्ता के खिलाफ सबसे ज्यादा मुखर है।

रवींद्र,गांधी,ताल्स्ताय और यहां तक कि आइंस्टीन में मनुष्यता बोध ही उनका आध्यात्म है।यह गहरा मनुष्यता बोध अनेकता में एकता और व्यक्ति से विश्वमानव के उत्कर्ष की कथा है।

गांधी की राजनीति में भी इसी आध्यात्म का प्रभाव है,जिसके तहत रामनाम को उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एकता का रामवाण बना दिया था।इस आध्यात्म में असहिष्णुता, अस्पृश्यता, असमता,अन्याय और हिंसा की कोई जगह नहीं है।

देह की कोशिकाओं के अंतर्संबंध के तहत मनुष्यता में अंतर्निहित एकता को चिन्हित करने वाले रवींद्र नाथ मानते हैंः

मनुष्य के इतिहास की मुख्य समस्या क्या है?जहां कोई अंधत्व,मूढ़त्व मनुष्य और मनुष्य में विच्छेद घटित कर देता है।मानवसामज का सर्वप्रधान तत्व मनुष्यों की एकता है।सभ्यता का अर्थ ही यही है-एकत्रित होने का अभ्यास।

इसी मनुष्यता के धर्म की बुनियाद पर रचा बसा है रवींद्र का भारत तीर्थ जहां चंडालिका के अस्पृश्यता के विरुद्ध फिर बुद्धं शरणम् गच्छामि है।

रवींद्रनाथ सभ्यता के विकास के लिए व्यक्ति के मानवीय मूल्यों पर समर्पित होने पर जोर देते हैं और कहते हैंछ

Creation has been made possible through the

continual self-surrender of the unit to the universe.

And the spiritual universe of Man is also ever

claiming self-renunciation from the individual

units. This spiritual process is not so easy as the

physical one in the physical world, for the intelli-

gence and will of the units have to be tempered

to those of the universal spirit  

जैविकी जीवन से मुक्त मनुष्ता के उत्कर्ष के लक्ष्य की व्याख्या करते हुए कोशिकाओं में एकता के तत्व की बात वे वैज्ञानिक ढंग से रखते हैंः

The Spirit of Life began her chapter by intro-

ducing a simple living cell against the tremen-

dously powerful challenge of the vast Inert. The

triumph was thrillingly great which still refuses to

yield its secret She did not stop there, but defi-

antly courted difficulties, and in the technique of

her art exploited an element which still baffles our

logic.


This is the harmony of self-adjusting inter-rela-

tionship impossible to analyse. She brought close

together numerous cell units and, by grouping

them into a self-sustaining sphere of co-operation,

elaborated a larger unit It was not a mere agglom-

eration. The grouping had its caste system in the

division of functions and yet an intimate unity of

kinship. The creative life summoned a larger

army of cells under her command and imparted

into them, let us say, a communal spirit that fought

with all its might whenever its integrity was

menaced.


3 comments:

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