आनंद स्वरूप वर्मा
अब से चार वर्ष पूर्व 2013 में भूटान की राजधानी थिंपू में दक्षिण एशिया के देशों का एक साहित्यिक समारोह हुआ था जिसमें सांस्कृतिक क्षेत्र के बहुत सारे लोग इकट्ठा हुए थे। 'अतीत का आइना' (दि मिरर ऑफ दि पास्ट) शीर्षक सत्र में डॉ. कर्मा फुंत्सो ने भारत और भूटान के संबंधों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें कहीं थीं। डॉ. कर्मा फुंत्सो ''हिस्ट्री ऑफ भूटान'' के लेखक हैं और एक इतिहासकार के रूप में उनकी काफी ख्याति है। उन्होंने भारत के साथ भूटान की मैत्री को महत्व देते हुए कहा कि''कभी-कभी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हो जाती हैं जैसी कि अतीत में हुईं।'' उनका संकेत कुछ ही दिनों पूर्व हुए चुनाव से पहले भारत द्वारा भूटान को दी जाने वाली सब्सिडी बंद कर देने से था। उन्होंने आगे कहा कि''शायद भूटान के लोग हमारी स्थानीय राजनीति में भारत के हस्तक्षेप को पसंद नहीं करते लेकिन अपने निजी हितों के कारण राज्य गलतियां करते रहते हैं। उनके इस कदम से दोस्ताना संबंधों को नुकसान पहुंचता है।''अपने इसी वक्तव्य में उन्होंने यह भी कहा था कि भारत के ऊपर अगर हमारी आर्थिक निर्भरता बनी रही तो कभी यह मैत्री बराबरी के स्तर की नहीं हो सकती। उन्होंने भूटान के लोगों को सुझाव दिया कि वे भारत से कुछ भी लेते समय बहुत सतर्क रहें।
डॉ. कर्मा ने ये बातें भूटान के चुनाव की पृष्ठभूमि में कहीं थी। हमारे लिए यह जानना जरूरी है कि उस चुनाव के मौके पर ऐसा क्या हुआ था जिसने भूटान की जनता को काफी उद्वेलित कर दिया था। 13 जुलाई2013 को वहां संपन्न दूसरे आम चुनाव में प्रमुख विपक्षी पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने उस समय की सत्तारूढ़ ड्रुक फेनसुम सोंगपा (डीपीटी) को हराकर सत्ता पर कब्जा कर लिया। पीडीपी को 35 और डीपीटी को 12 वोट मिले। इससे पहले 31 मई को हुए प्राथमिक चुनाव में डीपीटी को 33 और पीडीपी को 12 सीटों पर सफलता मिली थी। आश्चर्य की बात है कि 31 मई से 13 जुलाई के बीच यानी महज डेढ़ महीने के अंदर ऐसा क्या हो गया जिससे डीपीटी अपना जनाधार खो बैठी और पीडीपी को कामयाबी मिल गयी।
दरअसल उस वर्ष जुलाई के प्रथम सप्ताह में भारत सरकार ने किरोसिन तेल और कुकिंग गैस पर भूटान को दी जाने वाली सब्सिडी पर रोक लगा दी। यह रोक भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के निर्देश पर लगायी गयी। डीपीटी के नेता और तत्कालीन प्रधानमंत्री जिग्मे थिनले से भारत सरकार नाराज चल रही थी। भारत सरकार का मानना था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री थिनले मनमाने ढंग से विदेश नीति का संचालन कर रहे हैं। यहां ध्यान देने की बात है कि 1949 की 'भारत-भूटान मैत्री संधि' में इस बात का प्रावधान था कि भूटान अपनी विदेश नीति भारत की सलाह पर संचालित करेगा। लेकिन 2007 में संधि के नवीकरण के बाद इस प्रावधान को हटा दिया गया। ऐसी स्थिति में भूटान को इस बात की आजादी थी कि वह अपनी विदेश नीति कैसे संचालित करे। वैसे, अलिखित रूप में ऐसी सारी व्यवस्थाएं बनी रहीं जिनसे भूटान में कोई भी सत्ता में क्यों न हो, वह भारत की सलाह के बगैर विदेश नीति नहीं तैयार कर सकता। हुआ यह था कि 2012 में ब्राजील के रियो द जेनेरो में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री थिनले ने चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री से एक अनौपचारिक भेंट कर ली थी। यद्यपि भारत के अलावा भूटान का दूसरा पड़ोसी चीन ही है तो भी चीनी और भूटानी प्रधानमंत्रियों के बीच यह पहली मुलाकात थी। इस मुलाकात के बाद भारत के रुख में जबर्दस्त तब्दीली आयी और उसे लगा कि भूटान अब नियंत्रण से बाहर हो रहा है। भूटान ने चीन से 15 बसें भी ली थीं और इसे भी भारत ने पसंद नहीं किया था।
मामला केवल चीन से संबंध तक ही सीमित नहीं था। भारत यह नहीं चाहता कि भूटान दुनिया के विभिन्न देशों के साथ अपने संबंध स्थापित करे। 2008 तक भूटान के 22 देशों के साथ राजनयिक संबंध थे जो थिनले के प्रधानमंत्रित्व में बढ़कर 53 तक पहुंच गए। चीन के साथ अब तक भूटान के राजनयिक संबंध नहीं हैं लेकिन अब भूटान-चीन सीमा विवाद दो दर्जन से अधिक बैठकों के बाद हल हो चुका है इसलिए भारत इस आशंका से भी घबराया हुआ था कि चीन के साथ उसके राजनयिक संबंध स्थापित हो जाएंगे। भारत की चिंता का एक कारण यह भी था कि अगर भारत (सिक्किम) -भूटान-चीन (तिब्बत) के संधि स्थल पर स्थित चुंबी घाटी तक जिस दिन चीन अपनी योजना के मुताबिक रेल लाइन बिछा देगा, भूटान की वह मजबूरी समाप्त हो जाएगी जो तीन तरफ से भारत से घिरे होने की वजह से पैदा हुई है। उसे यह बात भी परेशान कर रही थी कि थिनले की डीपीटी को बहुमत प्राप्त होने जा रहा था जिन्हें वह चीन समर्थक मानता था। इसी को ध्यान में रखकर चुनाव की तारीख से महज दो सप्ताह पहले उसने अपनी सब्सिडी बंद कर दी और इस प्रकार भूटानी जनता को संदेश दिया कि अगर उसने थिनले को दुबारा जिताया तो उसके सामने गंभीर संकट पैदा हो सकता है। भारत के इस कदम को भूटान की एक बहुत बड़ी आबादी ने 'बांह मरोड़ने की कार्रवाई माना'।
भारत के इस कदम पर वहां के ब्लागों, बेवसाइटों और सोशल मीडिया के विभिन्न रूपों में तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली। भूटान के अत्यंत लोकप्रिय ब्लॉगर और जाने-माने बुद्धिजीवी वांगचा सांगे ने अपने ब्लॉग में लिखा 'भूटान के राष्ट्रीय हितों को भारतीय धुन पर हमेशा नाचते रहने की राजनीति से ऊपर उठना होगा। हम केवल भारत के अच्छे पड़ोसी ही नहीं बल्कि अच्छे और विश्वसनीय मित्र भी हैं। लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि हम एक संप्रभु राष्ट्र हैं इसलिए भूटान का राष्ट्रीय हित महज भारत को खुश रखने में नहीं होना चाहिए। हमें खुद को भी खुश रखना होगा।' अपने इसी ब्लॉग में उन्होंने यह सवाल उठाया कि चीन के साथ संबंध रखने के लिए भूटान को क्यों दंडित किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि 'कौन सा राष्ट्रीय नेता और कौन सी राष्ट्रीय सरकार अपनी आत्मा किसी दूसरे देश के हाथ गिरवी रख देती है? हम कोई पेड सेक्स वर्कर नहीं हैं जो अपने मालिकों की इच्छा के मुताबिक आंखें मटकाएं और अपने नितंबों को हिलाएं।' डॉ. कर्मा ने भी थिंपू के साहित्य समारोह में भारत की नाराजगी का कारण भूटान के चीन से हाथ मिलाने को बताया था।
बहरहाल सब्सिडी बंद करने का असर यह हुआ कि जनता को भयंकर दिक्कतों से गुजरना पड़ा लिहाजा थिनले की पार्टी डीपीटी चुना हार गयी और मौजूदा प्रधानमंत्री शेरिंग तोबो की पीडीपी को कामयाबी मिली।
उपरोक्त घटनाएं उस समय की हैं जब हमारे यहां केन्द्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार थी। 2014 में एनडीए की सरकार बनी और नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए। इस सरकार ने उसी नीति को, जो मनमोहन सिंह के ही नहीं बल्कि इंदिरा गांधी के समय से चली आ रही थी, और भी ज्यादा आक्रामक ढंग से लागू किया।
पिछले एक डेढ़ महीने से भारत-भूटान-चीन के आपसी संबंधों को लेकर जो जटिलता पैदा हुई है उसके मूल में भारत का वह भय है कि भूटान कहीं हमारे हाथ से निकल कर चीन के करीब न पहुंच जाय। आज स्थिति यह हो गयी है कि चुंबी घाटी वाले इलाके में यानी डोकलाम में अब चीन और भारत के सैनिक आमने-सामने हैं और दोनों देशों के राजनेताओं की मामूली सी कूटनीतिक चूक एक युद्ध का रूप ले सकती है। चीन उस क्षेत्र में सड़क बनाना चाहता है जो उसका ही क्षेत्र है लेकिन भारत लगातार भूटान पर यह दबाव डाल रहा है कि वह उस क्षेत्र पर दावा करे और चीन को सड़क बनाने से रोके। भूटान को इससे दूरगामी दृष्टि से फायदा ही है लेकिन भारत इसे अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानता है। अब दिक्कत यह है कि सिक्किम (भारत) और तिब्बत (चीन) के बीच डोकलाम में अंतर्राष्ट्रीय सीमा का बहुत पहले निर्धारण हो चुका है और इसमें कोई विवाद नहीं है। 1980 के दशक में भूटान और चीन के बीच बातचीत के 24 दौर चले और दोनों देशों के बीच भी सीमा का निर्धारण लगभग पूरा है। यह बात अलग है कि फिलहाल जिस इलाके को विवाद का रूप दिया गया है उसमें चीन भूटान के हिस्से की कुछ सौ गज जमीन चाहता है और बदले में इससे भी ज्यादा जमीन किसी दूसरे इलाके में देने के लिए तैयार है। चीन के इस प्रस्ताव से भूटान को भी कोई आपत्ति नहीं है लेकिन भारत के दबाव में उसने इस प्रस्ताव को मानने पर अभी तक अपनी सहमति नहीं दी है। अगर चीन को भूटान से यह अतिरिक्त जमीन नहीं भी मिलती है तो भी अभी जो जमीन है वह बिना किसी विवाद के चीन की ही जमीन है। भारत का मानना है कि अगर वहां चीन ने कोई निर्माण किया तो इससे सिक्किम के निकट होने की वजह से भारत की सुरक्षा को खतरा होगा। चीन ने तमाम देशों के राजदूतों से अलग-अलग और सामूहिक तौर पर सभी नक्शों और दस्तावेजों को दिखाते हुए यह समझाने की कोशिश की है कि यह जगह निर्विवाद रूप से उसकी है। अब ऐसी स्थिति में भारत के सामने एक गंभीर समस्या पैदा हो गयी है। उसने अपने सैनिक सीमा पर भारतीय क्षेत्र में यानी सिक्किम के पास तैनात कर दिए हैं और भूटान में भी भारतीय सैनिक चीन की तरफ अपनी बंदूकों का निशाना साधे तैयार बैठे हैं। स्मरणीय है कि भूटान की शाही सेना को सैनिक प्रशिक्षण देने के नाम पर पिछले कई दशकों से वहां भारतीय सेना मौजूद है।
चीन और भारत दोनों देशों में उच्च राजनयिक स्तर पर हलचल दिखायी दे रही है। तमाम विशेषज्ञों का मानना है कि समस्या का समाधान बातचीत के जरिए संभव है क्योंकि अगर युद्ध जैसी स्थिति ने तीव्र रूप लिया तो इससे दोनों देशों को नुकसान होगा। शुरुआती चरण में रक्षा मंत्रालय का कार्यभार संभाल रहे अरुण जेटली ने जो बयान दिया कि''यह 1962 का भारत नहीं है'' और फिर जवाब में चीन ने अपने सरकारी मुखपत्र में जो भड़काऊ लेख प्रकाशित किए उससे स्थिति काफी विस्फोटक हो गयी थी लेकिन समूचे मामले पर जो अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया दिखायी दे रही है उससे भारत को एहसास होने लगा है कि अगर तनाव ने युद्ध का रूप लिया तों कहीं भारत अलगाव में न पड़ जाए और यह नुकसानदेह न साबित हो।
26 जुलाई को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल जी-20 के सम्मेलन में भाग लेने चीन जा रहे हैं और हो सकता है कि वहां सीमा पर मौजूद तनाव के बारे में कुछ ठोस बातचीत हो और इससे उबरने का कोई रास्ता निकले। भारत और चीन दोनों ने अगर इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया तो यह समूचे दक्षिण एशिया के लिए एक खतरनाक स्थिति को जन्म देगा।
1. इस इलाके को भूटान 'डोकलाम', भारत 'डोक ला' और चीन 'डोंगलाङ' कहता है। (19 जुलाई 2017)
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