Sunday, May 24, 2015

नीग्रो मज़दूरों के गीतों और खेतिहर मजूरों के टिटकारीदार टप्पों से हो कर ब्लूज़ तक का सफ़र जैज़-संगीत के उन रेशों को खोलता है, जो मूल रूप से अफ्रीकी हैं, जिन्हें अपनी दुनिया से उखाड़ कर एक दूसरे मुल्क में ग़ुलाम बना कर ले जाये जाने वाले लोगों ने अपनी जातीय स्म


नीग्रो मज़दूरों के गीतों और खेतिहर मजूरों के टिटकारीदार टप्पों से हो कर ब्लूज़ तक का सफ़र जैज़-संगीत के उन रेशों को खोलता है, जो मूल रूप से अफ्रीकी हैं, जिन्हें अपनी दुनिया से उखाड़ कर एक दूसरे मुल्क में ग़ुलाम बना कर ले जाये जाने वाले लोगों ने अपनी जातीय स्मृति में सँजोये रखा और अपने ख़ून और पसीने से, अपनी पीड़ा और श्रम से सींच कर मज़बूत किया। 



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नीलाभ अश्क जी मंगलेश डबराल और वीरेन डंगवाल के खास दोस्त रहे हैं और इसी सिलसिले में उनसे इलाहाबाद में 1979 में परिचय हुआ।वे बेहतरीन कवि रहे हैं।लेकिन कला माध्यमों के बारे में उनकी समझ का मैं शुरु से कायल रहा हूं।अपने ब्लाग नीलाभ का मोर्चा में इसी नाम से उन्होंने जैज पर एक लंबा आलेख लिखा है,जो आधुनिक संगीत और समता के लिए अश्वेतों के निरंतर संघर्ष के साथ साथ आधुनिक जीवन में बदलाव की पूरी प्रक्रिया को समझने में मददगार है।नीलाभ जी की दृष्टि सामाजािक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में कला माध्यमों की पड़ताल करने में प्रखर है।हमें ताज्जुब होता है कि वे इतने कम क्यों लिखते हैं।वे फिल्में बी बना सकते हैं,लेकिन इस सिलसिले में भी मुझे उनसे और सक्रियता की उम्मीद है।
नीलाभ जी से हमने अपने ब्लागों में इस आलेख को पुनः प्रकाशित करने 
की इजाजत मांगी थी।उन्होने यह इजाजत दे दी है।
  • आलेख सचमुच लंबा है।लेकिन हम इसे हमारी समझ बेहतर बनाने के मकसद से सिलसिलेवार दोबारा प्रकाशित करेंगे।
  • पाठकों से निवेदन है कि वे कृपया इस आलेख को सिलसिलेवार पढ़े।
चट्टानी जीवन का संगीत 

जैज़ संगीत पर एक लम्बे आलेख की सातवीं कड़ी

7.

नीग्रो मज़दूरों के गीतों और खेतिहर मजूरों के टिटकारीदार टप्पों से हो कर ब्लूज़ तक का सफ़र जैज़-संगीत के उन रेशों को खोलता है, जो मूल रूप से अफ्रीकी हैं, जिन्हें अपनी दुनिया से उखाड़ कर एक दूसरे मुल्क में ग़ुलाम बना कर ले जाये जाने वाले लोगों ने अपनी जातीय स्मृति में सँजोये रखा और अपने ख़ून और पसीने से, अपनी पीड़ा और श्रम से सींच कर मज़बूत किया। दूसरी ओर जैज़-संगीत के बहुत-से रेशे यूरोपीय संगीत के हैं। ईसाई भजनों और नाच-गाने की महफ़िलों तथा फ़ौजी धुनों से मिल कर बने हैं। जैज़ की ऐसी ही एक प्रारम्भिक मंज़िल है -- रैगटाइम।

http://youtu.be/A44QDL-K-bY?list=PL8DF504CDE7860A2C  ( रैगटाइम)

ब्लूज़ की तरह रैगटाइम के स्रोत भी 19वीं सदी के अमरीकी गृह-युद्ध के बाद की उथल-पुथल में खोये हुए हैं, लेकिन इतना तय है कि जैज़ में पियानों तथा बैंजो और गिटार जैसे तार वाले वाद्यों का समावेश रैगटाइम के ही माध्यम से हुआ। रैगटाइम उन्नीसवीं सदी की आख़िरी चौथाई में उभर कर सामने आया था और उसके पहले-पहले नमूने १८९० के आस-पास मिलने लगे थे और उसकी लोकप्रियता का सबसे बड़ा दौर १८९५ से ले कर १९१५-१६ तक रहा जब धीरे-धीरे जैज़ ने ब्लूज़ के साथ रैगटाइम को भी अपने अन्दर समा लिया. बाक़ायदा प्रकाशित संगीत के रूप में सामने आने से पहले रैगटाइम की शुरुआत सेंट लूइज़ और न्यू और्लीन्ज़ जैसे शहरों के अफ़्रीकी-अमरीकी वेश्यालयों और रूप के बाज़ारों में हुई थी जहां न केवल ग्राहकों का मनोरंजन दरकार था, बल्कि नाचने-गाने के लिए संगीत की संगत भी. 
रैगटाइम के विकास में उन संगीत-सभाओं का बड़ा योगदान रहा, जो 19वीं सदी में अमरीका के गाँव-देहात और कस्बों में हुआ करती थीं। ये संगीत-सभाएँ, जिन्हें 'मिंस्ट्रेल शो' कहा जाता था, ऐसे अजीबो-ग़रीब सांस्कृतिक उत्सव थे, जिनमें गोरे संगीतकार अपने चेहरों पर काला रंग मल कर नीग्रो संगीतकारों की नकल करने की कोशिश किया करते। बाद में नीग्रो संगीतकारों ने इस तरह की अपनी मण्डलियाँ भी बना ली थीं। ब्लूज़ और रैगटाइम के बीच का फ़ासला सिर्फ़ अफ्रीकी अथवा यूरोपीय संगीत-शैलियों की वजह से नहीं था, बल्कि दोनों शैलियों के उद्देश्यों में भी अन्तर था। ब्लूज़ अगर अभिव्यक्ति-प्रधान थे, तो रैगटाइम का सारा उद्देश्य था -- मनोरंजन। ब्लूज़ की प्रेरणा और उत्स किसी हद तक अन्तर्मुखी था तो रैगटाइम बहिर्मुखी संगीत था। एक मानवीय पीड़ा की सहज अभिव्यक्ति था तो दूसरा स्वाँग और नकलचियों की जटिलता से युक्त। ब्लूज़ में शब्दों का महत्व था तो रैगटाइम में धुनों का।
'मिन्स्ट्रेल शो' में पेश की जाने वाली धुनों को परखने पर उनमें और रैगटाइम में काफ़ी साम्य दिखायी देता है। इसके अलावा रैगटाइम के विकास में उन फ़ौजी बैण्डों का भी एक अपना ही योगदान रहा, जो अमरीका के जर्मन, इतालवी और फ्रांसीसी आप्रवासियों ने बनाये थे। इस तरह जो संगीत गाँव-देहात की नाच-गानों की महफ़िलों में पैदा हुआ था और बैंजो तथा गिटार पर बजाया जाता था, उसमें इन फ़ौजी बैण्डों तक आते-आते पियानो और ट्रम्पेट -- दो और वाद्य जुड़ गये। रैगटाइम की कुछ धुनों के सिलसिले में तो पियानो वादक को साफ़ हिदायत दी गयी रहती थी कि धुन को फ़ौजी कवायद की लय पर बजाया जाय।
कुछ जानकारों ने रैगटाइम की धुनों में भी अफ्रीकी प्रभाव खोजने की कोशिश की है, लेकिन ऐसा शायद तभी हुआ होगा, जब ब्लूज़ की परम्परा से पुष्ट नीग्रो संगीतकारों ने रैगटाइम बजाना शुरू किया होगा। लेकिन बुनियादी तौर पर संरचना और स्वर-दोनों ही पहलुओं से रैगटाइम पर यूरोपीय प्रभाव ज़्यादा गहरे थे।
रैगटाइम उस तरह तालबद्ध नहीं है जैसे फ़ौजी क़वायद और नाच की धुनें तालबद्ध होती हैं -- २/४ या ३/४ की ताल पर, नल्कि रैगटाइम में धुन कुछ इस तरह बजायी जाती है कि वह किसी भी ताल पर सही बैठ जाये. उसकी सबसे बड़ी निशानी होती है एक  ख़ास क़िस्म का स्वर-लोप जिसमें लय का चढ़ाव-उतार ताल के बीच-बीच में होता है. नतीजा यह होता है कि कुछ सुर प्रमुख हो कर उभरते हैं जो लगता है कि ताल की अगवानी कर रहे हैं या उसके पीछे-पीछे चल रहे हैं. लय और ताल का यह अनोखा मेल ताल को कुछ इस तरह तेज़ कर देता है कि सुनने वाले धुन के साथ-साथ अनायास हरकत करने लगते हैं और इसी ख़ूबी ने रैगटाइम को नाच के लिए इतना मुफ़ीद बना दिया था.
ब्लूज़ की सबसे बढि़या मिसाल अगर 'सेंट लूइज़ ब्लूज़' है तो रैगटाइम का सबसे उम्दा नमूना है 'मेपल लीफ़ रैग।' 'मेपल लीफ़ रैग' रैगटाइम की उन मशहूर धुनों में से एक है, जो पिछली सदी के आख़िरी दशक में, रैगटाइम के उत्कर्ष काल में उभर कर सामने आयीं। इसके रचयिता थे रैगटाइम के सबसे मशहूर संगीतकार और पियानोवादक -- स्कॉट जॉपलिन।

http://youtu.be/reI43yUCaUI  (मेपल लीफ़ रैग)

अमरीका के मिसूरी राज्य में सेंट लूइज़ नगर के पास सिडेलिया नामक स्थान में जा बसने से पहले स्कॉट जॉपलिन (1868-1917) बरसों तक पियानोवादक के रूप में अमरीका के दक्षिणी प्रान्तों के छोटे-छोटे घटिया किस्म के कस्बों का दौरा करते रहे थे। लेकिन स्कॉट जॉपलिन के सिडेलिया पहुँचने के बाद जल्द ही यह कस्बा रैगटाइम का एक महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया।
स्कॉट जॉपलिन ने अनेक धुनें बनायीं, जिनमें रैगटाइम की एक शुद्ध-सी शैली अपनायी गयी है, जहाँ चार अलग-अलग थीमों को उठा कर उन्हें दोहराया जाता है। यही नहीं, बल्कि पश्चिमी परम्परा के आधार पर स्वर-लिपि को भी इस प्रकार तैयार किया जाता है कि धुन ठीक वैसे ही पेश की जाय, जैसे कि वह 'लिखी' गयी है; उसमें हेर-फेर की या अपनी तरफ़ से जोड़ने-घटाने की कोई गुंजाइश नहीं रहती थी। जौपलिन ने, जिन्हें लोग "रैगटाइम का सम्राट" कहने लगे थे, रैगटाइम के प्रभाव को "अजीब और नशीला" कहा था. उन्हीं ने संगीत के सिलसिले में "स्विंग" शब्द का प्रयोग भी किया था कि रैगटाइम को कैसे बजाया जाये. "धीरे-धीरे बजाओ जब तक कि तुम पेंग न पकड़ लो" यानी झूमने न लगो. यही वजह है कि यह शब्द "स्विंग" आगे चल कर जैज़ के एक आरम्भिक रूप पर लागू भी किया गया जो रैगटाइम से विकसित हुआ था. बहुत बारीक़ी में न भी जायें तो भी इतना कहा जा सकता है कि किसी ग़ैर-रैगटाइम संगीत को रैगटाइम में बदलने के लिए उसके सुरों की लय को बदल दिया जाता है जिस से मूल धुन की ताल में भी फ़र्क़ आ जाता है. सबसे लोकप्रिय बिनावट थी चार-चार मात्राओं के टुकड़ों की जिन्हें दोहराया जाता या हल्का-सा व्यवधान दे कर फिर से शुरू किया जाता. ख़ास-ख़ास बिनावटें थीं -- अअबबअससस, अअबबअससदद और अबबससअ. लेकिन चार-चार मात्राओं की ये बिनावटें चार से ले कर चौबीस मात्राओं के बीच किसी भी लम्बाई की हो सकती थीं. रैगटाइम का ज़माना साउण्ड-रिकौर्डिंग से पहले के युग में आ चुका था, मगर उसकी आरम्भिक धुनें बची रह गयी हैं तो इसलिए कि ब्लूज़ और दूसरे अफ़्रीकी-अमरीकी संगीत के विपरीत, जिसमें सुन कर नक़ल करने या सीधे-सीधे आशु-रचना करने का चलन था, रैगटाइम पूरी तरह पियानो-आधारित था और उसकी स्वर-लिपि "लिख" कर तैयार की जाती थी. इसी ने रैगटाइम को उसकी शास्त्रीय संगीत जैसी ख़ासियत दी थी.
रैगटाइम के विकास में उसके नज़दीकी रिश्तेदार "केकवौक डान्स" का बड़ा हाथ था. यह नाच, जो अमरीका के दक्षिणी राज्यों में बगानों पर काम करने वाले दासों के बीच उपजा था, "केकवौक डान्स" दरअसल गोरों के नाचने के तरीकों की नकल था और दास-प्रथा के उन्मूलन के बाद सामने आया. इसमें काले ग़ुलाम भाग लेते थे और अक्सर बगान के मालिक दर्शकों के तौर पर मौजूद रहते. चूंकि यह यूरोपीय नाचों की नक़ल में उभरा था इसलिए हरकतों में लयात्मकता होते हुए भी कुछ अजीब-सा मखौलियापन घुला-मिला रहता. इसका मूल नाम तो "चौकलाइन वौक" था, मगर चूंकि इस नाच के अन्त में भाग लेने वाले ग़ुलाम जोड़े बना कर अदा और अन्दाज़ के साथ लय-ताल पर तीन बार नाच के पूरे दायरे में "चलते" हुए उसका चक्कर लगाते और सबसे अच्छे जोड़े को बतौर इनाम केक दिया जाता, इसलिए इसे "केक वौक" कहा जाने लगा. ज़ाहिर है, इस नाच की अपनी धुनें भी बनने लगीं और रैगटाइम में इन धुनों की ख़ास भूमिका रही. ग़ुलामी के दिनों को याद करते हुए बहुत-से लोगों ने अपने संस्मरणों में "केकवौक नाच" के दिलचस्प ब्योरे दिये हैं.
एक ज़माने में रैगटाइम बजाने वाले शेपर्ड एड्मण्ड्स ने 1950 में कुछ यादें दर्ज करायी थीं जो उन्होंने टेनेसी में रहने वाले अपने माता-पिता से सुनी थीं. शेपर्ड ने बताया था कि "केकवौक मूल रूप से बगानों का नाच था, महज़ एक हरकत जो लोग खुशी-खुशी बैन्जो के संगीत के साथ किया करते थे क्योंकि उनके लिए बिना हिले, थिर खड़े रहना मुश्किल था. यह इतवार को हुआ करता जब ज़्यादा काम न होता और ग़ुलाम -- जवान और बूढ़े, दोनों -- मालिकों की अच्छी उतरनें पहन कर बैन्जो की धुनों पर टांगें ऊंची-ऊंची उछालते और इठलाते हुए एक घेरे में चला करते. दरअसल वे यह सारी कूद-फांद "बड़े घर" में रहने वाले गोरे मालिकों की नकल में किया करते थे, लेकिन मालिक लोग जो इन सारे करतबों को देखने के लिए इकट्ठा होते, इन लोगों का असली मकसद पकडअ न पाते और उलटे उस जोड़ी को इनाम में एक केक देते जो सबसे अच्छी नकल करती." इस तरह हालांकि यह सारा नाच-गाना गोरों पर व्यंग्य करने के लिए होता, गोरे मालिक इसे एक सीधा-सादा शगल मान कर खारिज कर देते जो ग़ुलामों ने उनकी दिलजोई के लिए पेश किया होता. लेकिन यह भी सही है कि गोरों के खिल्ली उड़ाने के लिए किये जाने वाले इस नाच को वक्त के साथ ग़ुलामों ने अपना लिया और इसकी धुनें अफ़्रीकी धुनों के साथ घुल-मिल कर रैगटाइम के लिए खाद बन गयीं.


http://youtu.be/s8qpMcrEtTg (Judy Garland performs a cakewalk in the 1944 MGM musical, Meet Me In St. Louis.)



बहरहाल. १८९९ में "मेपल लीफ़ रैग" और उसके बाद "द एण्टरटेनर" जैसे लोकप्रिय नमूनों के प्रकाशन के साथ ही स्कौट जौपलिन मशहूर हो गये और बरसों तक संगीतकारों के लिए लय, ताल और मात्राओं की बिनावट और उनके आरोह-अवरोह के लिहाज़ से प्रेरणा-स्रोत बने रहे. हालांकि जैज़ के उभरने के साथ ही उन्हें और सच पूछिये तो रैगटाइम संगीत शैली को भुला दिया गया, लेकिन बीच-बीच में रैगटाइम को नयी ज़िन्दगी भी मिलती रही मिसाल के लिए १९४० के दशक में जब बहुत-से बैण्डों ने रैगटाइम की रिकौर्डिंग 78 आर.पी.एम. के पुराने तवों पर करके उन्हें बाज़ार में जारी किया. मगर सब से महत्वपूर्ण पुनुरुद्धार 1950 के बाद हुआ जब रैगटाइम के विविध नमूनों के रिकौर्ड सामने आये. और 1971 में जोशुआ रिफ़्किन ने स्कौट जौपलिन की धुनों का एक संकलन तैयार किया जिसे ग्रमी पुरस्कारों के लिए नामांकित भी किया गया.  1973 में अमरीका की न्यू इंग्लैण्ड रैगटाइम संरक्षण मण्डली ने "द रेड बैक बुक" के नाम से स्कौट जौपलिन की धुनों को उन्हीं के समय के संगीत-संयोजन के साथ प्रस्तुत किया. इस ऐल्बम ने "चेम्बर संगीत" की श्रेणी में उसी वर्ष का ग्रैमी पुरस्कार जीता. 
रैगटाइम को (स्कौट जौपलिन के काम को सामने रखते हुए) मोत्सार्त, शोपां और ब्राह्म्स जैसे पश्चिमी शास्त्रीय संगीतकारों द्वारा मिनुएट, माज़ुर्का और वौल्ट्ज़ जैसे नृत्यों के लिए रचे गये संगीत का अमरीकी प्रारूप कहा गया है और उसने क्लौद देबुसी और इगोर स्त्राविंस्की जैसे बहुत-से शास्त्रीय संगीतकारों पर अपना असर भी छोड़ा.
रैगटाइम के पीछे जो असर थे, उनमें एक दिलचस्प असर उन धारणाओं का भी था जो गोरों ने काले ग़ुलामों के बारे में बना रखी थीं और जिन्हें कुछ काले लोगों ने भी अपना लिया था. मसलन १८९५ में मनोरंजन के क्षेत्र में एक जाने-माने काले संगीतकार अर्नेस्ट होगन ने एकदम शुरुआती रैगटाइम धुनों में से दो प्रकाशित कीं, जिनमें से एक का शीर्षक था "औल कून्ज़ लूक अलाइक टू मी" याने "सारे कल्लू मुझे एक-से लगते हैं." 

कल्लू की मुश्किलों की बात कर रहे हो
मुझसे पूछो क्या गुज़री है मेरे साथ

मेरी जानू है लूसी जेनी स्टबल्स
जिसने छोड़ दिया है आखिर मेरा हाथ
वर्जिनिया से आया एक और कल्लू नाई
तबियत उसी पे मेरी लूसी की आयी
कहती है  कल्लू दिखें  एक जैसे
ज़रूरत मुझे अब रहे तेरी कैसे

मिला है मुझे अब इक और दिलबर जानी
तू छोड़ मेरा पीछा ये दुनिया है फ़ानी
ज़रूरत मुझे अब रहे तेरी कैसे
 कल्लू मुझे सब दिखें  एक जैसे 


http://youtu.be/AvfaNKBpIgk (औल कून्ज़ लूक अलाइक टू मी)

(Talk about a coon a having trouble, I think I have enough of ma own. Its all about ma Lucy Janey Stubbles, and she has caused my heart to mourn. Thar s another coon barber from Virginia. In society he is the leader of the day. And now ma honey gal is gwine to quit me, yes she s gone and drove this coon away. She had no excuse, to turn me loose. I have been abused, I am all confused. Cause these words she did say....CHORUS - All coons look alike to me, I have got another beau you see. And he is just as good to me as you ever tried to be. He spends his money free, I know we cant agree. SO, I DONT LIKE YOU NO HOW, ALL COONS LOOK ALIKE TO ME.)

कून बिज्जू को कहते हैं और यह शब्द काले ग़ुलामों के लिए हिकारत और व्यंग से इस्तेमाल होता था. जहां इस गीत और उसकी धुन ने रैगटाइम को पूरे अमरीका भर में लोकप्रिय बनाने में मदद दी, वहीं इसमें जो नस्लवादी छींटाकशी का इस्तेमाल था, भले ही व्यंग के तौर पर, उसकी वजह से बहुत-से लोगों ने इसकी नक़ल में इसी क़िस्म के और भी कई गीत और धुनें बनायीं जिनमें न सिर्फ़ बेहद नस्लवादी भावनाएं व्यक्त की गयी थीं, बल्कि काले लोगों की पिटी-पिटाई हिकारत-भरी छवियां अंकित की गयी थीं. आगे चल कर होगन ने रैगटाइम को बड़े पैमाने पर लोकप्रिय बनाने और एक विशाल श्रोता समुदाय के सामने लाने के लिए गर्व प्रकट किया तो साथ ही बड़े अफ़सोस के साथ अपने पहले गीत पर शर्म का इज़हार भी किया और कहा कि समझ के विकसित होने के साथ उन्हें शिद्दत से यह एहसास हुआ था कि उन्होंने वह गीत लिख कर जैसे अपनी नस्ल और जाति के साथ ग़द्दारी की थी. 
समय के साथ रैगटाइम की अनेक शाखाएं-प्रशाखाएं फैलती चली गयीं और १९१५ के बाद हालांकि जैज़ ने अफ़्रीकी अमरीकी संगीत के अखाड़े में अपनी ज़ोरदार हाज़िरी दर्ज करा दी थी, रैगटाइम के कलाकार नयी-नयी दिशाओं में प्रयोग करते रहे. केकवौक का ज़िक्र किया ही गया है, उसके साथ-साथ फ़ोक रैगटाइम, स्लो ड्रैग, टू स्टेप, क्लासिक रैग, नौवल्टी पियानो और स्ट्राइड पियानो जैसे अनेक रूप विकसित होते चले गये.
जैसा कि मैंने कहा, परिपक्व रैगटाइम 1897 में उभर कर सामने आया जब कई जाने-माने गीत और धुनें प्रकाशित हुईं. उस समय जहां कुछ संगीतकार पूरी तरह रैगटाइम को समर्पित थे, वहीं जेली रोल मौर्टन जैसे वादक भी मौजूद थे जो रैगटाइम के साथ-साथ जैज़ संगीत की शुरुआती रचनाएं भी पेश कर रहे थे. जेली रोल मौर्टन ने, जिनका ज़िक्र आगे किया जायेगा, इस दौर में बहुत-से प्रयोग किये और अपनी प्रस्तुतियों में स्पेनी असर भी समोया, जिससे उनके संगीत में हाबानेरा या कहा जाये कि ख़ास टैंगो लय भी सुनायी देने लगी. हुआ यह कि कैरिब्बियाई क्षेत्र के समुद्र-तट के शहरों जैसे हवाना  और न्यू और्लीन्ज़ और अमरीका की दक्षिणी बन्दरगाहों के बीच नियमित आवा-जाही थी और संगीत और संगीतकार इस आवा-जाही में शामिल थे. नतीजे के तौर पर अफ़्रीकी-अमरीकी संगीत में अफ़्रीकी-क्यूबाई प्रभावों का समावेश उन्नीसवीं सदी से ही होने लगा था जब हाबानेरा की लय-ताल लोकप्रिय होने लगी. हाबानेरा अफ़्रीकी आधार पर "लिखी" जाने वाली पहली लय थी. इसमें ऊंचे सुरों और निचले सुरों का इस्तेमाल एक साथ होता था जिन्हें त्रेसियो और बैकबीट कहते थे. त्रेसियो के साथ-साथ उसके एक और रूप सिन्क्वियो का समावेश भी हुआ. लय-ताल की इन सारी बिनावटों की जड़ें अफ़्रीकी थीं, जिन्हें अमरीकी, स्पेनी और फ़्रान्सीसी मूल की अलग-अलग शैलियों ने अपना लिया था.

http://youtu.be/Lw033a5Nozw?list=PLgM3h2uWLn7LMfdDltkL1jPPrFyw9hDEh (हाबानेरा)

(जारी)

नीलाभ जी के लिखे हुए कुछ टुकड़े देखे "चट्टानी जीवन का संगीत" में . बेहद दिलचस्प और बांधे रखने वाले. इनमें एक गहरा सच बस रहा है. और गुलामी की पीड़ा समाई है. वो जैसे जैसे आप पढेंगे वैसे वैसे संगीतमय होती हुई एक चित्र बनाती चलती है. फिर उस चित्र में एक रंग का पक्षी आकर बैठता है. इसके बाद तो मानो पूरे आसमान का चित्र उभरने लगता है. एक रंगीन बादल का टुकडा भीतर भीतर बजने लगता है. एक घुप्प उदासी भरी हुई अपने पूरे वजूद में गाने लगती है जोर से. इतने सधे हुए सुर में, कि हर दिशा में बंधे हुए दासता के छोर, राग की उस तीव्रता से ही खुल जाएँ. मगर ये होना इतना आसान कहाँ?

इन्हें आप भी पढ़िए, अभी कुछ अंश हैं....दुखों में बसे संगीत के
फिर कुछ टुकड़े और जुड़ेंगे इस दुनिया के सच और घनी उदासी के ...
फिर एक सघनतम संगीत हर और बज उठेगा मानो बन्धनों से मुक्ति का ..
कोई शंखनाद नहीं सुनेगे आप, मगर पीड़ा की रागिनियाँ नस नस में फड़क उठेगी....

आज बहुत अरसे बाद इतना शानदार लिखा हुआ पढने को मिला .....
आपसे भी कहूँगा इसे जरूर पढ़ें ....
और फिर कहें, मैंने जो कहा. क्या यह आवाजें आपको सुनाई नहीं दे रहीं?


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