अमेरिका ने 2005 में मोदी का वीजा रद््द कर दिया था। अधिकृत तौर पर कारण बताया गया था कि गुजरात दंगों की वजह से अमेरिकी मानवीय मूल्यों और प्रजातांत्रिक अवधारणाओं का उल्लंघन हुआ है। वैसे यह सर्वज्ञात है कि भारतीय संविधान में मूल अधिकारों का परिच्छेद ही अमेरिकी संविधान बल्कि उसके 'डिक्लरेशन ऑफ राइट्स' से प्रेरित होकर लिया गया है। अमेरिका इस कारण विश्व प्रजातंत्र में खुद को मानव अधिकारों का सबसे बड़ा पोषक बताने में गुरेज नहीं करता। वह दुनिया के हर देश में मानव अधिकारों की रक्षा करने का दम भरते हुए सबसे ज्यादा मानव अधिकारों को ही जिबह करता रहता है।
यह हैरत की बात है कि मोदी ने भी, संघ परिवार के राष्ट्रवाद का कट्टर चेहरा होने के बावजूद, अमेरिका के वीजा-इनकार को खुद को दिए गए दंड की तरह लिया था। तब से मोदी अमेरिका जाने के लिए लगातार राजनीतिक कोशिशें करते रहे। गुजराती और कई आप्रवासी भारतीय रसूखदारों ने भी वाइट हाउस में दस्तक दी कि गुजरात के 2002 के दंगों में मोदी की कथित आरोपित भूमिका को लेकर उनके साथ अमेरिका तिरस्कार का बर्ताव न करे। अमेरिकी अधिकारियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। ऐसा करने के पीछे अमेरिका को विरोधाभासों से भी दो चार होना पड़ा था। भारत में यूपीए की सरकार से पहली बार आत्मीय तालमेल महसूस करने के कारण यह महादेश मनमोहन सरकार से खुशनुमा रिश्ते रखना चाहता था।
दूसरी ओर वैश्विक इस्लामी समुदाय को संदेश दिया जा रहा था कि अमेरिका इस्लामी आतंकवाद से जूझने के बावजूद धर्मनिरपेक्षता के मामले में गुजरात की कट्टर हिंदूवादी सरकार को धर्मनिरपेक्ष प्रमाणपत्र नहीं देने जा रहा। यह अलग बात है कि जिस तरह अमेरिका ने इराक के सद्दाम हुसैन और इस्लामी कट््टरवादिता के सरगना उसामा बिन लादेन की अंतरराष्ट्रीय कानूनों की बखिया उधेड़ते हुए हत्या की उस कलंक से अमेरिका का उबर पाना इतिहास की ओर से तो इजाजत योग्य नहीं है।
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अपने अमेरिका प्रवास में शीर्ष राजनयिकों से मिलने जाकर राजनीतिक मिन्नतें भी कीं। लेकिन अमेरिका टस से मस नहीं हुआ। हो सकता है राजनाथ सिंह ने मोदी के भाजपाई विकल्पों पर भी चर्चा की हो। इसके बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मोहन भागवत के नेतृत्व वाला धड़ा अमेरिकी अस्वीकार की परवाह किए बिना मोदी के नेतृत्व पर सान चढ़ाता रहा। अलबत्ता मोदी उसकी पहली प्राथमिकता नहीं थे। यह तो नितिन गडकरी के ऊपर भ्रष्टाचार के प्रथम दृष्टया प्रमाण जनमत में स्वीकार हो गए। इसलिए कट्टर हिंदूवादिता के लिए मोदी का नेतृत्व निर्विकल्प हो गया। गडकरी के लिए तो पहली बार भाजपा ने अध्यक्षता दो कार्यकाल तक कायम रखने के लिए अपना संविधान तक संशोधित कर लिया था। मोदी को अमेरिकी वीजा नहीं मिला तो क्या हुआ। उन्हें संघ परिवार से उत्तराधिकार प्रमाणपत्र तो मिल ही गया।
मोदी और नैन्सी की मुलाकात के बाद भी वीजा को लेकर अमेरिकी रुख में बदलाव का कोई अधिकारिक बयान नहीं आया है। अमेरिकी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता जेन साकी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा है कि मोदी के साथ अमेरिकी राजदूत नैन्सी पॉवेल की वेलेंटाइन दिवस के दिन मुलाकात का यह अर्थ नहीं है कि मोदी के अमेरिका प्रवेश की नीति में कोई बदलाव आया है।
भारतीय जनता का खुद्दार सवाल यह है कि हमारा हर बड़ा राजनेता अमेरिका जाने को क्यों तड़पता रहता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस सूची के सबसे बड़े नाम हैं। भारतीय संसद में वे ओबामा के चेहरे पर मुस्कराहट देखते वक्त बिछे बिछे जा रहे थे। अपने आव्रजन कानूनों की आड़ में यह ठंडा, क्रूर और निरपेक्ष दिखता अमेरिका ही है जिसने पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम, पूर्व रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडीज, विख्यात सिने कलाकार शाहरुख खान और अनगिनत भारतीयों की सुरक्षा-जांच के नाम पर कपड़े तक उतरवा कर तौहीन किए जाने का खुद प्रचार भी किया है।
अमेरिका ने भारतीय छात्रों के पैरों में बेड़ियां तक डाली हैं। उसने भारतीय राजनयिक देवयानी खोबरागड़े के खिलाफ फौजदारी मुकदमा तक भारत सरकार के कड़े विरोध के बावजूद चला रखा है। अमेरिका की वीजा नीति में आवेदकके ऊपर अहसान करने की मुद्रा व्यंग्योक्ति में झिलमिलाती रहती है।
जवाहरलाल नेहरू-युग में भारत को बदनाम पीएल-480 का करार अमेरिका से करना पड़ा था। उसके तहत लगभग सड़ा अनाज आयातित हुआ था। तकनीकी परीक्षण के बाद मनुष्यों के उपयोग में नहीं आ सकने वाली दवाइयों को भी भारतीय बाजार में अमेरिका वर्षों से बेचता रहा है और बड़ी संख्या में भारतीय मरीज मरते रहे हैं। अपने सौंदर्य प्रसाधनों को बेचने के लिए इस व्यापारिक देश ने लगातार भारतीय ललनाओं को विश्व सुंदरी के खिताब देने के कुचक्र रचे हैं।
भारत शायद अकेला देश है जिसकी दो सुंदरियों को लगातार मिस वर्ल्ड और मिस यूनिवर्स के खिताब अमेरिकी बाजारवाद की पहल पर दिए गए थे। भारतीय बाजार में अमेरिकी सौंदर्य प्रसाधनों की धाक जमने के बाद अब भारतीय सुंदरियां अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में जिताई नहीं जा रही हैं। अमेरिकापरस्त भारतीय इसी खुशफहमी में जीते हैं कि कई अमेरिकी मूल के लोगों को साहित्य, विज्ञान, चिकित्सा आदि के विश्वस्तरीय पुरस्कार मिलते रहते हैं। भले ही ऐसे विदेशी भारतीय भी अमेरिकापरस्त हो चुके होते हैं।
अमेरिका ने खुद को शिक्षा-उद्योग के सबसे बड़े संस्थान-मॉडल के रूप में विकसित करने का दावा कर रखा है। एशियाई और अफ्रीकी देशों के लाखों विद्यार्थी अमेरिका की ओर आकर्षित होकर अपना अपना देश छोड़ने की भगदड़ में शामिल हैं। अमेरिका को अपेक्षया सस्ती दरों पर बेहतर मानवीय कलपुर्जे मिल जाने जैसा गर्व होता है। वह इसके बदले में इन देशों में अपनी अपसंस्कृति और अर्धनग्न फैशन बेचता है। वह सीधे-सीधे और कई बार आप्रवासी भारतीयों के जरिए भी इन देशों में राजनीतिक हस्तक्षेप करता है। वह यह भी तय करने की कोशिश करता है कि भारत सहित तमाम अफ्रीकी-एशियाई मुल्कों में किस पार्टी या विचारधारा की सरकार बने जिससे उसकी संगति बैठ सके। उसे मनमोहन सिंह के रूप में एक अनुकूल राजनेता मिल ही गया जिसके कारण भारत-अमेरिकी परमाणु करार और थोक और खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी निवेश सहित कई अन्य अमेरिकानुकूल समझौते किए गए। इस प्रक्रिया में उसने कांग्रेस पार्टी की चूलें ही ढीली कर दीं। उससे सहयोगी दलों के अतिरिक्त वामपंथी पार्टियों ने भी छोड़छुट्टी कर ली।
गुजरात के मुख्यमंत्री और उनके उत्साही समर्थकों को नरेंद्र नाम बहुत सुहाता है क्योंकि वह स्वामी विवेकानंद का संन्यास-पूर्व का नाम है। अपने साढ़े तीन वर्षों के अमेरिकी प्रवास में पहले तो विवेकानंद ने अमेरिका की दिल खोलकर प्रशंसा की। जब उन्होंने गोरे अमेरिकियों के काले इरादों का दंश झेला, तब उसकी कटुतम आलोचना की। मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की इच्छा से भरे वीरोचित मुद्रा के संघ कार्यकर्ता उनकी तुलना विवेकानंद से करते हैं। मोदी अगर अमेरिका के बारे में विवेकानंद को पढ़ लें तो अमेरिका जाना भूल जाएंगे या विवेकानंद को भूल जाएंगे।
मोदी गुजरात में सरदार पटेल की विश्व की सबसे बड़ी मूर्ति लगाने के पीछे पड़े हैं। उनकी गुजरात-सुत, सरदार पटेल के गुरु, राष्ट्रपिता और अमेरिका के अनुसार सहस्राब्दी महापुरुष महात्मा गांधी से कुछ लेना-देना नहीं है।
गांधी ने भारत की आजादी के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट की स्वत:स्फूर्त अंग्रेजी हुकूमत से मध्यस्थता करने की दोस्ताना पेशकश को ठुकरा दिया था। गांधी ने कहा था कि भारत अपनी आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए खुद समर्थ है। आज से ज्यादा बुरे आर्थिक हालात के बावजूद नेहरू ने अमेरिकी खेमे को शरणम गच्छामि कहना कबूल नहीं किया था। उन्होंने अमेरिकी और कम्युनिस्ट खेमों के बीच तीसरी ताकत का निर्माण कर उसका नेतृत्व खुद किया था। तब से अमेरिका भारत के खिलाफ पाकिस्तान की आर्थिक, सैनिक और राजनीतिक मदद दोस्ती में सेंध लगाते हुए लगातार कर रहा है। हिंद महासागर में अमेरिका का सातवां जंगी जहाजी बेड़ा खड़ा रहने के बावजूद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साहस ने आखिर बांग्लादेश का निर्माण करवा ही दिया। कांग्रेस ने खुद को अमेरिका की गोद में धकेल दिया है। लेकिन राष्ट्रवाद का नारा बुलंद करने वाली भाजपा भी कॉरपोरेट दुनिया के चंगुल में फंस गई है। नरेंद्र मोदी से फीस लेकर अमेरिकी कंपनियां प्रचार कर रही हैं।
सरदार पटेल की विश्व की सबसे ऊंची प्रस्तावित मूर्ति का प्रकल्प भी उनके ही हाथों में है। वैश्विक और भारतीय कॉरपोरेट घरानों के गठजोड़ से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी की तरफ धकेला जा रहा है। भारतीय लोकतंत्र का पैना सवाल है कि तमाम आर्थिक मुश्किलों के बावजूद क्यों जरूरी है कि दुनिया की सबसे संख्याबहुल जम्हूरियत को पश्चिमी देशों की चाटुकारिता में शामिल कर दिया जाए। मोदी गुजरात के विकास को लेकर चुनौती देते हैं कि वैसा विकास करने के लिए छप्पन इंच का सीना चाहिए। मोदी अपनी वही छाती अमेरिका नहीं जाने का एलान करके क्यों नहीं फुलाते? भाजपा के राष्ट्रगौरव यह घोषणा क्यों नहीं करते कि उन्हें अमेरिकी वीजा के होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
एशिया और अफ्रीका के कई मुल्क जिनमें थाईलैंड, नामीबिया, इराक, मिस्र, सीरिया, अफगानिस्तान और पाकिस्तान वगैरह शामिल हैं, अमेरिका के शिकार हुए हैं। एशिया और अफ्रीका महाद्वीपों में अमेरिकी गिद्ध-दृष्टि भारत और विकासशील देशों के राजनीतिकों को अपने पंजों में दबोचने की है। अमेरिकी राजदूत और गुजरात के मुख्यमंत्री ने रक्षाबंधन का त्योहार तो नहीं मनाया होगा। नरेंद्र मोदी और नैन्सी पॉवेल की वेलेंटाइन डे के एक दिन पहले हुई मुलाकात के रोमांटिक अर्थ भी नहीं निकलने चाहिए। पता नहीं वह कौन-सा रहस्य है जो भारतीय नेताओं को अमेरिका जाने के नाम पर उनके आत्मसम्मान तक पर चोट पहुंचाता रहता है! अपना इलाज कराने के लिए उद्योगपति, नेता, नौकरशाह और फिल्मी कलाकार अमेरिका जाते रहते हैं। यहां तक तो समझ में आता है। लेकिन राजनीति कोई कैंसर की बीमारी नहीं है और अमेरिका कोई काबिल डॉक्टर भी नहीं है।
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