पाकिस्तान को धनराशि देना गाँधी की हत्या का कारण नहीं. इससे पहले भी हो चुके थे उनकी हत्या के पांच प्रयास – रुक्मिणी सेन
16 मार्च को हंसल मेहता, तुषार गाँधी और कुमार केतकर एक साथ तीस्ता सीतलवाड़ की किताब " संदेह से परे – गाँधी की हत्या के दस्तावेज: संकलन एवं प्राक्कथन " के अनावरण के लिए एक मंच पर साथ साथ देखे गए।
तीस्ता सीतलवाड़ ने अतिथियों और पत्रकारों को संक्षिप्त संबोधन में कहा :
"गाँधी की हत्या कोई स्वतः स्फूर्त घटना नहीं थी बल्कि उससे पहले भी उनकी हत्या के पांच प्रयास किये जा चुके थे। इनमें से दो में तो गोडसे खुद शामिल था। गाँधी का अस्पृश्यता विरोधी नजरिया और एकजुट राष्ट्र का संकल्प उनके प्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की घृणा का मुख्य कारण था।"
संघ के परिचित अंदाज़ में गोडसे का यह दावा सरासर झूठ था कि उसने गाँधी जी की हत्या इसलिए की थी क्योंकि वह देश के बंटवारे के लिए जिम्मेदार थे और उनके चलते पाकिस्तान को 55 करोड़ की राशि हस्तांतरित की गयी थी। तीस्ता सीतलवाड़ अपने संकलन के परिचय में लिखती हैं, "गाँधी जी की हत्या का प्रयास पहली बार सन 1934 में ही किया गया था जब उन्होंने राष्ट्रीयता, जाति, अर्थव्यवस्था और लोकतान्त्रिक अधिकारों की उस समय की प्रचलित अवधारणाओं के विरोध में आवाज उठाई थी, जो संघ के हिन्दू राष्ट्र की तानाशाही सोच को सीधे-सीधे चुनौती थी। 1933 में, गाँधी जी की हत्या के पहले प्रयास के ठीक एक साल पहले, गाँधी जी ने अस्पृश्यता जैसी वीभत्स प्रथा के खिलाफ बिल का मुखर समर्थन किया था, जिसका जिक्र संघ ने अपने मिथ्या प्रचार में कभी नहीं किया।"
तीस्ता सीतलवाड़ अपनी किताब के परिचय में आगे लिखती हैं, "स्वतंत्रता आन्दोलन और देश के बंटवारे का इतिहास राष्ट्रीयता के सिद्धांत की दो मुख्तलिफ़ विचारधाराओं के द्वन्द का भी इतिहास है। जहाँ लगभग सौ सालों से अधिक समय तक सभी भारतीयों ने विदेशी शासन और ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए एकजुट होकर संघर्ष किया वहीँ बीसवीं सदी की शुरुआत से लेकर इसके मध्य तक ऐसी शक्तियों का जन्म हुआ जो हिंदुस्तान और पाकिस्तान राष्ट्रीयता के संकीर्ण और सांप्रदायिक सिद्धान्तो पर आधारित था। हिदू महासभा, मुस्लिम लीग और आरएसएस, जिन्होंने किसी न किसी समय अंग्रेजो के साथ गठबंधन किया, के जन्म के साथ ही आन्दोलन की उस धारा का जन्म हुआ, जो वृहत् राष्ट्रीय आन्दोलन के विरोध में थी। यह किताब उन महत्वपूर्ण संदर्भो का भी उल्लेख करती है, जहां यह दक्षिणपंथी आन्दोलन साम्राज्यवादी राज्य के साथ गठबंधन में दिखतें हैं। गाँधी के धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा के समानान्तर, 1930 की शुरुआत से जाति और जनता के वृहत आर्थिक अधिकारों पर राष्ट्रीय नेतृत्व की स्पष्ट विचारधारा भी सामने आने लगी। सन 1933 की शुरुआत से ही "धर्मनिरपेक्ष" शब्द के उल्लेख गाँधी जी के लेखो और भाषणों में बार बार आता है"
गाँधी जी की जिंदगी पर हुए हमलों की शुरुआत को समझने के इस समय के राजनैतिक सन्दर्भ को व्यापक रूप में समझना बहुत महत्वपूर्ण है जो इन हमलों के पीछे थे। जैसा कि पहले भी जिक्र किया गया है कि इस समय दो प्रस्तावित कानून, जिनमें से एक अस्पृश्यता पर था, केंद्र के सामने थे। गाँधी की भर्त्सना करने वाले इस विषय पर गाँधी की बहुत आलोचना करते है कि उन्होंने जाति के प्रश्न पर समझौता किया लेकिन गाँधी इस बात पर बहुत स्पष्ट थे कि ऐसी प्रथा, जो मानवीय मूल्यों के विरुद्ध है, का एक धर्मनिरपेक्ष कानून द्वारा जड़ से खात्मा होना चाहिए। नवम्बर 1933 में गाँधी ने इस कानून के खिलाफ लगाये जा रहे उन आरोपों का विरोध किया जो कह रहे थे कि यह कानून लोगों के धार्मिक मामलों में अवांछित हस्तक्षेप है। गाँधी जी ने कहा कई बार ऐसी परिस्थितयां होती हैं जहां राज्य को धार्मिक मामलो में दखलंदाजी करनी पड़ती है, हालांकि राज्य को अवांछित हस्तक्षेप से बचना चाहिए। इस कानून के समर्थन में केंद्रीय विधायिका में दिये गए भाषण के एक साल बाद उनकी जिन्दगी पर पहला हमला हुआ। उस समय देश के बंटवारे या पकिस्तान को 55 करोड़ दिए जाने का कोई मसला ही नहीं था। यह एक तथ्य है कि गाँधी जी एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के प्रखर समर्थक थे और धर्म के नाम पर किसी भी तरह के भेदभाव के विरुद्ध थे, इस बात ने इन्हें हिन्दू तानाशाही ताकतों के बीच काफी अलोकप्रिय बना दिया था"
गाँधी और अम्बेडकर के मतभेदों के बारे तीस्ता सीतलवाड़ के विचार :
"सन 1925 में गाँधी जी ने व्य्कोम आन्दोलन, तथाकथित "अस्पृश्य" लोगों के व्यम्कोम मदिर के आसपास की सडकों पर प्रवेश पर प्रतिबन्ध के विरोध में त्रावणकोर( आज का केरल) के स्थानीय नेताओं द्वारा चलाए गए आन्दोलन का पूर्ण समर्थन किया। गाँधी जी ने यंग इंडिया के माध्यम से इस आन्दोलन के सन्देश को पूरे देश में पहुँचाया, जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय मीडिया ने इस मुद्दे को उठाया। मार्च 1925 में गाँधी जी स्वयं व्यकोम गए और न केवल इस आन्दोलन के समर्थन में जनसभा को संबोधित किया बल्कि साथ ही उन कट्टरपंथी नेताओं से बातचीत भी की, जो इस आन्दोलन का विरोध कर रहे थे। अंततः जनवरी 1926 में त्रावणकोर सरकार को सत्याग्रहियों के सामने झुकना पड़ा और व्यकोम मंदिर के आसपास की सडकें "अस्पृश्य" लोगों के लिए खोल दी गयी। गाँधी जी ने इस मुद्दे को आगे बढ़ाते हुए मांग रखी की सभी सार्वजनिक जगहें , जिसमे मंदिर भी शामिल हों, सभी लोगों के प्रवेश के लिए खुलें हों। इसके कुछ साल बाद, 20 सितबर 1962 में, इन्होने "कम्युनल अवार्ड " कानून को क्रियान्वयित करने के लिए आमरण अनशन किया। इसके बाद ही पूना या येरवाडा समझौता अस्तित्व में आया, जो अस्पृश्यता के खिलाफ आन्दोलन के लिए एक बड़ा प्रेरणास्रोत बना."
"इस विषय पर गाँधी और अम्बेडकर के बीच मतभेदों का काफी विस्तार से प्रलेखन और विश्लेषण हुआ है। अम्बेडकर द्वारा अखिल भारतीय अस्पृश्यता लीग (जो बाद में हरिजन सेवक संघ के नाम से जाना गया) की आलोचना निसंदेह सटीक, बेहद प्रोग्रेसिव और प्रेरणादायक आलोचना थी । उनका मानना था कि लीग के लक्ष्य और सिद्धांत व्यक्तिवादी और सुधारवादी थे और यह दलितों की राजनैतिकक और सामाजिक मुक्ति के लिए नहीं बने थे। इस विषय पर इनके मतभेद विभिन्न उल्लेखों के अलावा इन महान नेताओं के बीच हुए पत्राचार में भी देखे जा सकते हैं। सन 1933 में केंदीय विधायिका के समक्ष पेश किये गए दोनों बिलों पर भी काफी बहस हुई और दोनों एक दूसरे से सहमत नहीं थे। फिर भी इस बात को मानना होगा कि चाहे गाँधी जी की नैतिक ताकत का स्त्रोत उनका धर्म था लेकिन वह इसमें मूलभूत बदलाव के समर्थक थे और इसमें निहित संरचनात्मक जातिगत गैरबराबरी में बदलाव चाहते थे, जो उन ताकतों के लिए खतरा थी जो हिदू धर्म के नाम पर कठमुल्लावाद को बढ़ावा देना चाहते थे।"
वरिष्ठ पत्रकार कुमार केतकर के अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अब एक संगठन मात्र नहीं, एक विचारधारा है जो समाज के हर वर्ग और हर राजनैतिक पार्टी में व्याप्त है। केतकर आगे कहते हैं कि मोदी की इस जीत में दस प्रतिशत कारक तो वह प्रचार है जो तथाकथित विकास के मुद्दे पर किया गया लेकिन बड़ा कारण सन 2000 गुजरात में हुए दंगे हैं। वरिष्ठ पत्रकार के अनुसार संघ, बंगाल में भी घुसपैठ करने में सफल हुआ है। अगले चुनावों में चाहे यह सबसे महत्वपूर्ण दल के रूप में न आये लेकिन दूसरे बड़े दल के रूप में उभर सकता है।
महात्मा गाँधी के पोते तुषार गाँधी ने तीस्ता सीतलवाड़ ने किताब की तरफ इंगित करते हुए कहा कि "यह किताब इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें कपूर कमीशन की रिपोर्ट भी शामिल है। कपूर कमीशन रिपोर्ट में ऐसे कई ऐसे साक्ष्य शामिल हैं जो उस क्रम को उजागर करते हैं, जिनकी परिणिति गाँधी की हत्या में हुई और यह साक्ष्य उस समय उपलब्ध नहीं थे, जब उनकी हत्या का केस चल रहा था"।
1960 में जब गाँधी की हत्या के कुछ दोषी जब अपनी सजा काट कर जेल से बाहर आये, तब उन्होंने उस साजिश के बारे में खुल के बोलना शुरू किया जिसका अंजाम गाँधी की हत्या के तौर पर हुआ। इसी के बाद केन्द्र सरकार ने इस साजिश के अन्य पहलुओं को जांचने के लिए कपूर कमीशन का गठन किया।
सिटी लाइट्स और शाहिद के निर्देशक और साथ ही आज के समय में घृणा पर आधारित प्रचार के बारीक़ अवलोकक हंसल मेहता ने धर्मनिरपेक्षता पर तीस्ता सीतलवाड़ की किताब का पुरजोर समर्थन करते हुए कहा कि हिंदुत्ववादी ताक़तों द्वारा जिस मनगढ़ंत का इतिहास का निर्माण कर किया जा रहा है वह हिन्दुस्तान को नेस्तनाबूद कर देगा।
गाँधी की हत्या की साजिश विषय पर आयोजित कार्यक्रम की शुरुआत कामरेड पानेसर और गाँधी वादी नेता नारायण भाई देसाई को याद करने के साथ हुई और इसके बाद प्रसिद्ध सूफी गायक रागिनी रेणु ने "वैष्णव जन तो तेने कहिये '' का खूबसूरत गायन किया.
इस किताब के प्राक्कथन में तीस्ता सीतलवाड़ लिखती हैं –
तीस जनवरी 1948 को गाँधी जी की हत्या मात्र एक दुर्घटना नहीं थी बल्कि कट्टरपंथी ताकतों के आशय की अभियक्ति और जंग का एलन था। जिन ताक़तों ने गाँधी की हत्या की साजिश रची थी वह लोग धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक भारत के खिलाफ एक जंग का एलान करना चाहते थे और उन लोगों के खिलाफ भी जो इन मूल्यों का समर्थन करते हैं। साथ ही यह घोषणा थी उस मंशा की भी जो हिन्दुस्तान को हिन्दू राष्ट्र के रूप में देखना चाहती थी। यह कृत्य उन मूल्यों पर हमले का संकेत था, जिनके लिए भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन ने साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। यह किताब उन महतवपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेजों का संकलन है, जो उस राजनीति, परिस्थितियों और कारणों को उचित सन्दर्भ में देखने में मदद करतें हैं। गाँधी की हत्यां को न्योयोचित ठहराने और उनके हत्यारों को शहीद के तौर पर महिमामंडित करने के प्रयास मई 2014 में नई सरकार के केंद्र में आने के बाद अचानक बढ़ गए हैं। इसलिए जरूरी हो जाता है कि इससे सम्बंधित परिस्थितयों और संदर्भो को सही-सही अवाम के सामने रखा जाये।
गाँधी के सिद्धांतो , मूल्यों और उनके खिलाफ फैलाई जा रही असंगत घृणा और मिथ्याप्रचार को अगर समझना है, तो उस नृशंस कृत्य की राजनैतिक प्रकृति को समझना होगा। यह किताब एक प्रयास है उनकी हत्या के घटनाक्रम तथा उसके बाद के तमाम सरकारी दस्तावेजो को संकलित रूप में एक साथ पेश करने का। साथ ही गुजराती, मराठी और हिंदी में दस्तावेजो का अनुवाद उस विचारधारा को बारीकी से समझाने में मदद करता है, जो इस हत्या के लिए जिम्मेदार थी। हालाँकि उनकी हत्या से सम्बन्धित कई दस्तावेज 'कम्युनल कॉम्बैट' के कई अंको में आ चुके हैं पर यह संकलन इस विषय में नई सामग्री प्रस्तुत करता है। पहली बार "महात्मयाचे आखेर" का प्रथम अंग्रेजी अनुवाद इस किताब का हिस्सा है। साथ ही वाई डी फाड़के द्वारा इस हत्या को न्यायोचित ठहराने के प्रयासों का विश्लेषण और गोडसे पर लिखे प्रदीप दलवी के नाटक का विश्लेषण भी इस किताब का हिस्सा है। इस किताब में हाल ही में भारत सरकार द्वारा गाँधी की हत्या से जुड़े दस्तावेजो को नष्ट करने से उठे विवादों पर भी नज़र डाली गयी है।
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