प्रफुल भाई, इन्हें माफ़ करना... ये खुद अपने दुश्मन हैं !
अभिषेक श्रीवास्तव
प्रफुल बिदवई: 1949 - 23 जून, 2015 |
इसे दुर्भाग्य कहूं या सौभाग्य कि प्रफुल बिदवई के गुज़रने की ख़बर मुझे राजदीप सरदेसाई की श्रद्धांजलि से मिली। बुधवार को दोपहर ढाई बजे से प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में पत्रकारों पर हो रहे हमले पर एक कार्यक्रम था जिसमें मैं थोड़ी देर से पहुंचा, जब राजदीप बोल रहे थे। हॉल में घुसते ही प्रफुल को दी जा रही श्रद्धांजलि को सुनकर झटका तो लगा, लेकिन उससे कहीं बड़ा झटका इस बात से लगा कि पत्रकारों के भ्रष्ट आचरण पर बोलते हुए राजदीप ने अपना बरसों पुराना जुमला पलट दिया। जो लोग पिछले कुछ वर्षों के दौरान सार्वजनिक कार्यक्रमों में राजदीप को सुनते रहे हैं, वे जानते हैं कि उनकी बात इस वाक्य के बगैर पूरी नहीं होती, ''हम्माम में सब नंगे हैं।'' आज भी उन्होंने इस वाक्य को हमेशा की तरह कहा, लेकिन अपने पिता दिलीप सरदेसाई की तरह सीधा खेलने के बजाय रिवर्स स्वीप कर गए। वे बोले कि अब यह कहने से काम नहीं चलेगा कि ''हम्माम में सब नंगे हैं।'' प्रफुल के बहाने क्या वे खुद को नैतिकता का सर्टिफिकेट दे रहे थे? या फिर पांच साल पहले अपने साथ हुए बरताव का दुहराव नहीं चाहते थे? सवाल यह भी है कि क्या सिर्फ पांच साल में पत्रकारों ने इस बात को भुला दिया कि कम से कम राजदीप तो हमें नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले आदर्श पत्रकार नहीं हो सकते?
केवल एक वरिष्ठ पत्रकार को यह बात याद थी, हालांकि उन्होंने भी इस पर कोई प्रतिवाद सार्वजनिक रूप से नहीं किया बल्कि नीचे मिलने पर बोले, ''मज़लिंग मीडिया पर कार्यक्रम करवा रहे हैं ये लोग और राजदीप को बुला लिया है? बताओ ये कोई बात है? ये क्या बोलेगा?''
जिन्हें नहीं याद है, उन्हें याद दिलाने के लिए बताना ज़रूरी है कि आज से पांच साल पहले दिसंबर 2010 में 1, रायसीना रोड के शराबखाने से बस आधा किलोमीटर की दूरी पर स्थित ऑल इंडिया विमेन्स प्रेस कॉर्प्स में राडिया टेप कांड को लेकर एक चिंतन बैठक हुई थी। उस बैठक को विमेन्स प्रेस क्लब, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया और प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने संयुक्त रूप से आयोजित किया था। राजदीप तब एडिटर्स गिल्ड के अध्यक्ष हुआ करते थे। बैठक की शुरुआत मरहूम विनोद मेहता ने की थी जिसमें उन्होंने राडियागेट में फंसे पत्रकारों का नाम नहीं लिया था (क्योंकि मामला न्यायाधीन था)। इसके बाद राजदीप बोले। वे इस विडंबना से दुखी थे कि जिस साल मीडिया ने इतने अहम उद्घाटन किए, उसी साल वह जनता के सामने उसका भरोसा तोड़कर अपराधी बन बैठा। बात यहां तक तो ठीक थी, लेकिन अचानक राजदीप ने गियर बदला और कुछ ऐसा बोल गए जिसे वहां बैठा कोई भी पचा नहीं सका।
वे आउटलुक के राडिया कांड पर किए उद्घाटन से नाराज़ थे। उन्हें इसे लेकर कुछ निजी दिक्कतें थीं। वो यह, कि पत्रिका ने बरखा दत्त और वीर सांघवी से संपर्क नहीं किया और उनका बयान नहीं लिया। उन्हें इस बात से दिक्कत थी कि पत्रिका ने अपनी वेबसाइट पर असंपादित फुटेज क्यों चलाया (जिसमें संयोग से उनका नाम भी एकाध बार आता है)। उन्हें दिक्कत इस बात से थी कि आवरण पर उन पत्रकारों की तस्वीर क्यों है जिनका 2जी घोटाले से कोई लेना-देना नहीं है। वे बोले:
''यह पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों को पलटने जैसा है... यह खराब पत्रकारिता है... यह सड़न कोई नयी नहीं है... ऐसा दशकों से होता ही आ रहा है... इस प्रतिस्पर्धी दौर में पहुंच ही सूचना का पर्याय है... अभी कुछ भी साबित नहीं हुआ है... संबद्ध पत्रकार पेशेवर दुराचार के नहीं, बल्कि पेशेवर रूप से गलत निर्णय लेने के दोषी हैं... उनकी साख को बट्टा लगा है... मुझे लगता है कि आउटलुक औरओपेन ने जो कुछ भी किया है वह पूरी तरह अनैतिक है...।''
राजदीप ने माइक रखा भी नहीं था कि आउटलुक की पूर्व पत्रकार पूर्णिमा जोशी ने तुरंत अपना प्रतिवाद जताते हुए कहा था कि आखिर एडिटर्स गिल्ड का अध्यक्ष कॉरपोरेट के संदेश कांग्रेस तक पहुंचाने को कैसे ''जस्टिफाइ'' कर सकता है। दि टेलीग्राफ की राधिका रामशेषन ने राजदीप के इस वाक्य पर आपत्ति जतायी कि ''कुछ भी नया नहीं है''। फिर दि हिंदू की विद्या सुब्रमण्यम ने भी राजदीप को आड़े हाथों लिया। अचानक बैठक में पूरा माहौल राजदीप के खिलाफ़ बन गया और पहली पंक्ति में अपने बॉस के आप्तवचन सुनने बैठे आशुतोष (अब गुप्ता), भूपेंद्र चौबे और विवियन फर्नांडीज़ के सामने ही राजदीप की ऐसी-तैसी होने लगी। इसके बाद कैश फॉर वोट मामले में सीएनएन-आइबीएन की संदिग्ध भूमिका पर बात आयी तो एक अन्य पत्रकार ने पत्रकारों के मालिक बन जाने पर सवाल खड़ा कर दिया। राजदीप से और सवाल पूछे जाने थे, लेकिन देरी का बहाना बनाकर वे सबसे पहले उठकर घबराट में बैठक से चले गए थे।
बुधवार को प्रेस क्लब में सारे वक्ताओं के बोल लेने के बाद मंच से घोषणा की गयी कि राजदीप और रवीश कुमार को जल्दी निकलना है क्योंकि उन्हें अपना प्रोग्राम तैयार करना है। रवीश तो निकल लिए, लेकिन इस घोषणा के बाद भी राजदीप बड़े सुकून से बैठे रहे और इस अंदाज़ में ज्ञान देते रहे कि उन्हें कोई जल्दी नहीं है। सिर्फ पांच साल के भीतर एक बड़े पत्रकार को लेकर दिल्ली में माहौल बदल गया था, लोगों ने राडिया कांड में बरखा दत्त और वीर सांघवी के किए उसके 2010 के बचाव को भुला दिया था क्योंकि पत्रकारों पर हमलों की सूरत में अब सभी को एक होना है। किसी ने भी राजदीप से नहीं पूछा कि आप किस नैतिक आधार पर यहां आए हैं, किस नैतिक हैसियत से बोल रहे हैं और आपकी बात क्यों सुनी जाए। पत्रकारों की याददाश्त इतनी कमज़ोर तो नहीं होती? अफ़सोस इसलिए भी ज्यादा हुआ क्योंकि उनके बगल में हरतोश सिंह बल बैठे हुए थे जो राडिया कांड के वक्तओपेन में थे लेकिन बाद में निकाल दिए गए और आज कारवां में नौकरी करते हुए लेबर कोर्ट में मुकदमा लड़ रहे हैं।
पत्रकारों के बीच राजदीप की इस मौन स्वीकार्यता को पुष्ट करने वाला एक तर्क जनसत्ता के कार्यकारी संपादक ओम थानवी ने अपने वक्तव्य में दे दिया जब वे बोले कि पत्रकार एक-दूसरे की संपत्ति, घर-मकान आदि को लेकर ओछी बातें करना छोड़ें और साथ आवें। अचानक याद आया कि कुछ महीने पहले आज तक के एक बड़े आयोजन में राजदीप सरदेसाई वित्त मंत्री अरुण जेटली का साक्षात्कार ले रहे थे। उन्होंने अरुण जेटली से पूछा था कि एक साल में अडानी की संपत्ति इतनी ज्यादा कैसे हो गयी? पूरी सहजता से जेटली ने कहा, ''संपत्ति तो राजदीप सरदेसाई की भी कुछ साल में कई गुना हो गयी है। इसका क्या जवाब है?'' राजदीप तुरंत मुंह चुराते हुए और बेहया मुस्कान छोड़ते हुए अगले सवाल पर आ गए थे।
इसीलिए, सिर्फ इन्हीं वजहों, से राजदीप को पत्रकारिता और नैतिकता पर बोलते देखकर हॉल में घुसते ही मन खिन्न हो गया था। इमरजेंसी की 40वीं सालगिरह पर जब राजदीप सरदेसाई पत्रकारों के बीच यह कहते हैं कि आज के दौर में दुश्मन को पहचान पाना मुश्किल है, तो उनकी नीयत पर शक़ होता है और उन पत्रकारों की याददाश्त पर भी शक़ होता है जिन्होंने कभी इस शख्स को खदेड़ दिया था, लेकिन आज अपने ऊपर हो रहे हमलों की सूरत में राजदीप का प्रवचन चुपचाप सुनते हैं। सभागार में दस्तखत के लिए घूम रहे उपस्थिति दर्ज कराने वाले उस रजिस्टर पर शक़ होता है जिसमें हर दूसरे नाम के आगे संस्थान के कॉलम में फ्रीलांसर लिखा है, लेकिन सामने बैठे वक्ता इस बात पर दुख जताते होते हैं कि प्रफुल बिदवई जैसा तीक्ष्ण और सरोकारी पत्रकार बिना नौकरी के मर गया। उनसे मुंह पर कहने वाला कोई नहीं कि प्रफुल इसलिए अपना इलाज करवाते-करवाते अचानक नींद में चले गए क्योंकि तुम अब तक लखटकिया नौकरी में हो और स्वस्थ हो, 60 में भी 40 के दिखते हो, फिर भी जेटली से सवाल पूछते वक्त मुंह से फेचकुल फेंकने लगते हो। लगता है गज़नी के डर से सारे पत्रकारों को शॉर्ट टर्म मेमरी लॉस हो गया है।
आज यूपी और एमपी में दो पत्रकारों को जिंदा जलाया गया है तो सबको अपनी जान की चिंता हो आयी है। जिस तरीके से पत्रकारों पर हमले की बात आज बढ़-चढ़ कर हो रही है, ऐसा लग रहा है गोया खुद को पत्रकार जताने का यही एक तरीका बचा रह गया है। शुरू में लगा था कि शायद कुछ गंभीर प्रयास होंगे, लेकिन अब कम से कम दिल्ली के पत्रकारों के मुंह से अपनी जान को असुरक्षा की बातों में एक किस्म की रूमानियत-सी टपक रही है। उन्हें लग रहा है कि अब तक तो हमें दलाल समझा जाता था, शुक्र हो जगेंद्र जैसों का कि उन्होंने यह संदेश दे दिया कि पत्रकार भी सच के लिए जान दे सकते हैं। ''हम्माम में सब नंगे नहीं हैं''- राजदीप का यह पलट-जुमला खाये-पीये-अघाये पत्रकारों के अपनी ही कब्र पर लोटने के शौक़ का नायाब उदाहरण है।
शाहजहांपुर के पत्रकार कह रहे हैं कि जगेंद्र पत्रकार नहीं था। दिल्ली के मिडिल क्लास पत्रकार कह रहे हैं कि हम सब जगेंद्र हैं। दोनों झूठ हैं। सरासर झूठ। अफ़सोस यह है कि इस झूठ की बुनियाद पर और मक्कारों के कंठ से निकले मर्सिये की लय पर एक मोर्चा तन रहा है। पत्रकारों के इस तंबू-कनात में ढेर सारे छेद हैं। प्रफुल भाई, इन्हें माफ़ करिएगा। ये नहीं जानते, कि इनका दुश्मन कोई और नहीं, खुद इनके भीतर बैठा है।
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