Lenin, who is also the founder of People's Vigilance Committee on Human Rights (PVCHR) reveals, "In just the last two and half years PVCHR released and rescued 243 bonded labours."
He observes, "All the released labour belonged to Dalits, tribal, OBCs and minorities communities. So, it wouldn't be so far fetched to say that existence of caste system, communalism and patriarchy are the real causes of persistent slavery."
Corruption or non-performance of safety nets and practices of land grabbing and asset domination by high caste groups leaves people without protections.
Further asserting this hypothesis, he adds, "Landless poor, agricultural labourers, some artisans and those without employment are the main victims of this system. Workers employed therein are members of SC, ST and minorities who are mostly non-literate and non-numerate and do not easily understand the arithmetic of loan/ debt/ advance and the documentary evidence remains with the creditor and its contents are never made known to the debtor."
http://www.dnaindia.com/india/report-with-13956010-enslaved-citizens-why-is-slavery-not-an-agenda-for-lok-sabha-elections-1978224
सवर्ण-बहुल गाँव में मतदान का एक दिन
संजीव कुमार
सीवान (बिहार)। बुद्ध की ज्ञान भूमि गया से 50 किमी पूर्व में स्थित चारों दिशाओं से पक्की सड़क से जुड़ा नवादा शहर से 5 किमी पश्चिम में बसा सिसवां गाँव में 90% से अधिक आबादी भूमिहारों और ब्राह्मणों की है। इस गाँव की गिनती हमेशा से जिले के सबसे अधिक आबादी वाले संपन्न गांवो में होती रही है। यहाँ लगभग ढाई हजार से भी अधिक मतदाता नामांकित हैं। तीन दशक पूर्व तक इस गाँव में कुछ मुसहर, कहार जैसे दलित जातियों के लोग भी इस गाँव में रहते थे। पर आज उनपर सूअर पालने, गन्दा रहने और गाँव को गन्दा करने का आरोप लगाकर उन्हें गाँव से कुछ दूरी पर पूर्व और पश्चिम दिशा में गाँव के नदी और नहर किनारे पृथक कर बसाया जा चुका है। इस गाँव में बिजली, टेलीफोन, पुस्तकालय, स्वस्थ्य केंद्र, आदि सत्तर के दशक से ही उपलब्ध है पर वहीँ से 200-300 मीटर की दूरी पर नदी किनारे जातीय भेदभाव का परिचायक मुसहरों की उस बस्ती में आज भी बिजली का एक बल्व तक नहीं है। कहने को तो बहुत कुछ है इस गाँव के बारे में पर फ़िलहाल चुनाव का माहौल है, इसलिए चुनाव के बारे में बात हो तो बेहतर हो।
10 अप्रैल को यहाँ नवादा में चुनाव होना था। 27 वर्ष का हो गया हूँ पर घर से बाहर दिल्ली में पढ़ाई करने के कारण आज तक कभी मतदान नहीं किया था। पहली बार लगा कि अगर इस बार मतदान नहीं किया तो मुझे शायद मुझसे मतदान का हक़ छीन लिया जाना चाहिए, आखिर हमारा विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र आज खुद ही अपना गला घोंटने को तत्पर जो दिख रहा है। हूँ तो विद्यार्थी और वो भी सेल्फ-फाय्नेंसड, हजार रूपये खर्च कर मतदान करना महंगा लग रहा था पर क्या करें मन जो नहीं मान रहा था। 10 अप्रैल को सुबह लगभग पांच बजे गाँव पहुंचा तो सफ़र से थका आँख को नींद लग गई। मतदान तो 7 बजे से ही शुरू हो गया था पर मुझे मतदान केंद्र पहुंचते- पहुंचते तक़रीबन आठ साढ़े आठ बज गए। मतदान केंद्र जाने से पहले मैंने मुसहरों की उस बस्ती में जाना अधिक जरूरी समझा जहाँ के लोग मुझे कुछ वर्षों से आशा की नजर से देखा करते थे। मैंने वहां जाकर लोगों को जितना जल्दी हो सके मतदान करने को कहा, पर ज्यादातर लोग खेतों में मजदूरी करने जा चुके थे और दोपहर तक ही लौटते।
इधर मतदान केंद्र पर धड़ल्ले से मतदान हो रहा था। बहुत कम ही मतदाता दिख रहे थे जिन्होंने एकल मतदान का प्रयोग किया हो। सभी अपने वोट को अंत के लिए बचाकर जितना जल्दी हो सके किसी प्रकार की कोई अशान्ति होने से पहले गाँव से बाहर रहने वाले अपने भाई, बहन या गाँव के किसी भी हम उम्र के बदले मतदान कर रहे थे। वैसे इसमें गाँव की औरतें, मर्दों से आगे थी या यूँ कहें कि उन्हें आगे करवाया जाता था ताकि मतदान अधिकारी ज्यादा विरोध नहीं कर पायें। आखिर भारत जैसे पुरुष-प्रधान देश में नारियों को अबला का सम्मान मिलने का उन्हें और उन्हें यह सम्मान देने वाले पुरुषों को इसका कुछ तो फायदा मिलना ही चाहिए। एक-एक मतदाता अपनी पांचो उंगली स्याही से रंगाने के बाद भी दम नहीं ले रहे थे, आखिर भगवन ने उन्हें 10 उंगली जो दी थीं। और अगर भगवन का दिया दस उंगली भी कम पड़े तो वैज्ञानिकों की लेबोरेटरी से दूर गाँव की ओपन लेबोरेटरी से इजात घरेलु नुस्खे कब काम आयेंगे। एक से अधिक मतदान देने का पहला देशी मन्त्र है अंगुली पर स्याही लगते ही अंगुली को अपने बालों में घुसा कर रगड़ दीजिये और फिर बाहर जाकर पपीते के दूध से स्याही पूरी तरह छुड़ा कर दोबारा मतदान के लिए तैयार हो जाइये। अब मतदान अधिकारी भी क्या करें? एक तो वो अपने घर से सैकड़ों मील दूर थे, खाना पानी के लिए स्थानीय ग्रामीणों पर ही निर्भर थे और ऊपर से सवर्णों का गाँव जो लड़ने झगड़ने में कभी पीछे नहीं रहते। ऐसे गाँव में मतदान अधिकारीयों को भी बल तभी मिल पता है जब गाँव के मतदाता बंटे हुए हों या कम से कम कुछ लोग बोगस (दूसरे के नाम पे मतदान) मतदान का विरोध करने वालें हों। हालाँकि इस गाँव के मतदाता मुख्यतः दो उम्मीदवारों (जदयु और बीजेपी) में लगभग बराबर बंटे हुए थे पर दोनों पक्ष ने आपसी समझौता कर लिया था और दोनों पक्ष ही अपने अपने उम्मीदवार को बोगस मतदान करने में धड़ल्ले से जुटे थे।
वैसे गाँव के बाहर रहने वालों का अनुपात गाँव के दलितों और मुसहरों में सबसे अधिक था पर बोगस मतदान के मामले में उनका योगदान नगण्य था। गाँव के मुसहर और दलित बोगस तो छोडिये, वो तो अपने खुद के मताधिकार के प्रयोग से डरते थे। कल तक वो गाँव के सवर्णों से डरते थे तो आज पुलिस और रक्षाकर्मियों से डरते थे। आज तक ये लोग सवर्णों के अधिपत्य से स्वतंत्र नहीं हो पाये हैं। आज इनके वोटों का कुछ भाग एक तीसरे यादव वर्ण के उम्मीदवार को जा भी रहा है तो वो सिर्फ इसलिए कि गाँव का ही एक सवर्ण उस यादव उम्मीदवार से पैसे लेकर उन दलितों से उसे मत दिलवा रहा है। गाँव के आधे से अधिक दलित और मुसहर उस एक सवर्ण की बात इस लिए मान रहे हैं क्योंकि वो सवर्ण उनके लिए महाजन है और गाँव का ज्यादातर दलित और मुसहरोंने उससे कर्ज ले रखा है। हालाँकि कुछ ऐसे मुसहर थे जो स्वतंत्र रूप से भी राजद के उस यादव उम्मीदवार को ही अपना वोट देना चाहते थे। लेकिन गरीबी की मार ने इन दलितों को उनके मतदान केन्द्रों से हजारों मील दूर दिल्ली, पंजाब और कलकत्ता आदि शहरों में धकेल दिया था। जो बचे-खुचे गाँव में ही रह गए थे, पर वो तो सवर्णों की तरह पाने घरवालों के बदले उनका मतदान तो दे नहीं सकते थे। डरते जो थे, अब सताए हुए वर्ग पर तो हर कोई हाथ साफ़ करना चाहता है फिर चाहे वो गाँव के सवर्ण हो या शुराक्षकर्मी या फिर मतदान कर्मी।
वैसे इस गाँव के मतदाताओं के झुकाव और समर्थन को मैं वर्गीकृत कर सकूँ तो एक वर्गीकरण साफ़ झलकता है जिसमे तीस वर्ष से कम उम्र के ज्यादातर मतदाता बीजेपी के समर्थक हैं जबकि जदयू के ज्यादातर समर्थक चालीस और पचास को पार किये हुए हैं। कुछ परिवार तो ऐसे दिखे जिसमें पिता ने जद यू को मत दिया पर नवयुवक बेटे ने बीजेपी को। वैसे ये वर्गीकरण वहां दलितों पर लागू नहीं हो सकता है क्योंकि इनके हर उम्र वर्ग के मतदाता बीजेपी विरोधी है। जो लोग जद यू के समर्थक हैं वो अपनी मर्जी से मतदान नहीं कर रहे हैं बल्कि अपने सवर्ण मालिकों के आधिपत्य में वो मतदान कर रहे हैं जबकि ज्यादातर दलित नवयुवक रोजगार की तलाश में गाँव से बाहर हैं।
लगभग तीन बज चुके थे और मतदाताओं की भीड़ लगभग नगण्य हो चुकी थी। उधर गाँव के पास ही दो अन्य सवर्ण बहुल गाँव से बीजेपी के उम्मीदवार को थम्पीइंग मतदान की सूचना मतदान केंद्र के पास जमावड़ा लगाये लोगों के मोबाइलों पर आ रही थी। ज्यादातर लोग विचलित नजर आ रहे थे। आखिर गाँव के इज्जत का सवाल था। इज्जत? हाँ भाई, जिला का सबसे बड़ा सवर्ण बहुल गाँव और मतदान के मामले में पीछे ! आखिर गाँव के दोनों खेमे (बीजेपी और जदयू) में वोटों का बटवारा कर थम्पीइंग मतदान करने का गुप्त समझौता हो गया। तीसरा उम्मीदवार का समर्थक? उसमें तो एक ही सवर्ण था जिसने सौ से डेढ़ सौ वोट के लिए राजद उम्मीदवार से पैसे लिए थे और वो टारगेट वह मुसहरों और दलितों के वोट के सहारे पूरा कर चुका था। लेकिन एक और रोड़ा था, ??
मेरे द्वारा नरेन्द्र मोदी के खिलाफ गुजरात के डेवलपमेंट मॉडल पर चलाये जा रहे जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन के विद्यार्थियों के समग्र अभियान की खबर गाँव वालों को पहले से थी। मतदान के दिन एकाएक मुझे देखकर मतदान केंद्र पर जमे बीजेपी के समर्थक सबसे अधिक आशंकित थे। लोग मुझसे पूछ रहे थे कि मैंने किसको मतदान किया, जिस पर मेरे एक ही जवाब था "उसको जो बीजेपी के उम्मीदवार को हराने के सबसे करीब हो"। मामला साफ़ था, मैं उस तीसरे उम्मीदवार का समर्थन कर रहा था जिसे दलितों का ही कुछ वोट मिला था। लोग मेरे ऊपर व्यंगात्मक रूप से समाज-विरोधी (वर्ण-विरोधी) होने का आरोप लगा रहे थे पर साथ ही साथ मेरे शिक्षा के स्तर का सम्मान भी कर रहे थे और मेरे द्वारा मोदी विरोधी अभियानों का भी सम्मान कर रहे थे। वो इस बात का भी सम्मान कर रहे थे कि मैं किसी एक खास उम्मीदवार को मतदान करने का आग्रह किसी से नहीं कर रहा था। उन्हें ये भी पता चल गया था कि जब मैं सुबह दलितों की बस्ती में गया था तो वहां के दलितों ने मुझसे यह सलाह मांगी कि वो किस मतदान करें तो मैंने उन्हें सलाह देने से मना कर दिया था और उनसे कहा कि ये अधिकार उनका है और ये फैसला उनको ही लेना है। मैंने सिर्फ उनसे इतना ही कहा कि गुजरात में मोदी जी की सरकार दलितों और आदिवासियों के लिए ही सर्वाधिक घातक रही है।
खैर, इधर मतदान केंद्र पर बीजेपी और जद यू के समर्थक मुझसे राजनीतिक बहस के बहाने या किसी कार्य के बहाने मुझे उलझाने की कोशिश में लगे थे। अब तक गाँव के लोगो ने गाँव के दो में से एक बूथ के सभी मतदान कर्मियों और शुराक्षकर्मियों से तालमेल बना लिया था। मैंने भी स्थिति भांप ली थी और लगातार मतदान केंद्र का चक्कर लगा रहा था। शुरक्षाकर्मी मुझे देखते ही भड़क जा रहे थे। इस बीच उनसे मेरी तीन चार बार झड़प हो चुकी थी। वो सभी लोगों को तो बिना रोके टोके मतदान केंद्र के अन्दर आने जाने दे रहे थे पर मुझे मतदान केंद्र के आस पास देखते ही चौकन्ने होकर मुझे केंद्र से दूर करने लगते थे। उसी दौरान मैंने मतदान भवन की खिड़की से थम्पीइंग होते देख लिया। इस बार मैं बेधड़क मतदान केंद्र में घुस गया और सुरक्षाकर्मियों समेत मतदान कर्मियों पर बरस पड़ा। खतरा देख सुरक्षाकर्मी मुझे मतदान केंद्र के अन्दर ही रहकर सब कुछ पर निगाह रखने को कहने लगे। पर बीजेपी और जद यू दोनों के समर्थक इससे होने वाले नुकसान को भांप गए। गाँव के कुछ लोग मेरे ऊपर हावी होने की कोशिश की पर समझदार लोगों ने मुझे समझा बुझाकर मनाने की कोशिश की। पर जब मैंने किसी की न सुनी तो गाँव वालों का साथ पाकर सुरक्षाकर्मी मेरे पर हावी होने लगे और मुझे जबरदस्ती मतदान केंद्र से बाहर करने लगे।
इस बीच ना जाने कहाँ से गाँव के कुछ लोग मेरे समर्थन में भी खड़े हो गए थे। मैंने इलेक्शन कमीशन के जिला कार्यालय में घटना की सूचना फ़ोन से दे दी और दस मिनट के अन्दर तीन गाड़ी सुरक्षाकर्मी और मतदान अधिकारी आ गए और मतदान खत्म होने के बाद ही वहां से गए। पर सवाल ये उठता है कि अगर मतदान केंद्र के अन्दर बैठ सभी मतदान कर्मी मिले हो तो कोई कितना रोक सकता है। मैं रात की ट्रेन पकड़ कर ही दिल्ली आ गया पर बाद में फ़ोन पर पता चला कि अतिरिक्त सुरक्षाकर्मियों के आने के बाद भी कुछ अनुचित मतदान हुए थे। हुआ यूं कि सुरक्षाकर्मी वोटिंग मशीन के पास तो होते नहीं थे जिसका फायदा उठाकर मतदान पीठासीन अधिकार एक एक मतदाता के वोटिंग मशीन के पास जाने के बाद लगातार दस दस बार वोटिंग नियंत्रण मशीन दबाकर उन्हें दस दस वोट देने दिया।
खींच-तान कर गाँव में लगभग 50% मतदान हुआ। पूरे गाँव में शर्मिंदगी की लहर है कि ढाई हजार से ऊपर मतदाता होने के वावजूद गाँव से सिर्फ 1226 वोट ही पड़ पाए जबकि पड़ोस के ही एक अन्य सवर्ण बहुल गाँव में कुल 1900 मतदाता में से पंद्रह सौ से भी अधिक मतदान हुआ। गाँव के लोग इस बात से शर्मिंदा हैं कि वो भूमिहार समाज को और अपने उम्मीदवार गिरिराज सिंह को क्या मुंह दिखायेंगे। पर मैं इस बात से शर्मिंदा हूँ कि क्या यही है हमारी दुनियां का सबसे मजबूत लोकतंत्र?
About The Author
संजीव कुमार, लेखक रंगकर्मी व सामाजिक कार्यकर्ता हैं व छात्रों के मंच "भई भोर" व "जागृति नाट्य मंच" के संस्थापक सदस्य हैं।
– Archbishop Desmond Tutu
"I have cherished the ideal of a democratic and free society in which all persons live together in harmony and with equal opportunities. It is an ideal which I hope to live for and to achieve. But if it needs be, it is an ideal for which I am prepared to die."
– Nelson Mandela
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