Monday, March 31, 2014

बिरसा मुंडा की तरह हम सभी मार दिए जायेंगे क्योंकि लकड़बग्घा तुम्हारे घर के करीब आ गया है

बिरसा मुंडा की तरह हम सभी मार दिए जायेंगे क्योंकि

लकड़बग्घा तुम्हारे घर के करीब आ गया है


पलाश विश्वास



भाई फैसल अनुराग ने लिखा हैः

बिरसा मुंडा की तरह हम सभी मार दिए जायेंगे यदि हम अब भी नहीं सचेत हुए तो। ये बड़ी कम्पनिओं के एजेंटों की पार्टियाँ हैं। हमारे जंगल और खदानों को लूटने के लिए ये हमें खरीदना चाहतीं हैं। हम बिरसा की तरह मरना पसंद करेंगें लेकिन बिकना नहीं। एक मुंडा ने एक भाषण में यह कहा।

तो रियाज ने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता पोस्ट की है।


इन दोनों के एक ही प्रसंग और संदर्भ में रखकर आज का यह रोजनामचा है।


रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर दोनों टाप के कवि थे तो टाप के पत्रकार भी।हिंदी पत्रकारिता के नवउदारवादी संघी मसीहा संप्रदाय के अभ्युत्थान  से पहले,आपरेशन ब्लू स्टार पर बाकायदा इंदिरागांधी को संपादकीय में बिना देर स्वर्णमंदिर प्रवेश का उपदेश देते हुए हिंदुत्व की मौलिक तूफान रचने में जो सबसे ज्यादा सिद्धहस्त थे और मौजूदा तमाम दिग्गज जिनके आशीर्वादधन्य  गुरुघंटाल हैं,उनके  सर्वव्यापी वर्चस्व की वजह से आज न कविता में और न पत्रकारिता में कोई उनकी कहीं चर्चा करता है।


हमने तो दिनमान से पत्रकारिता के सरोकार के साथ साथ उसकी भाषा भी आत्मसात की है।जिस जनसत्ता प्रभाव में पत्रकीारिता की तत्सम मुक्ति संभव हुआ,उसमें भी सर्वेश्वर और सहाय के साथी हरिशंकर व्यास,वनवारी,जवाहरलाल कौल के साथ मंगलेश डबराल की महती भूमिका रही है।


आज भले ही रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर की तरह औद्योगिक पूंजी का समय नहीं है। लंपट,क्रोनी,आवारा वित्तीय पूंजी के शिकंजे में हैं भारतवर्ष,लेकिन समझने वाली बात तो यह भी है कि उनसे भी पहले सामंती उत्पादनप्रणालीमध्ये  मुक्तिबोध, प्रेमचंद और रामविलास शर्मा का रचा आज भी समान रुप से प्रासंगिक है।शहीदेआजम भगत सिंह के दस्तावेज आज भी हमें दिशाबोध कराते हैं।


सर्वेश्वर का लकड़बग्घा आज का यथार्थ समाजवास्तव है। कारपोरेट क्रोनी कैपिटल अबाध प्रवाहमान,नरसंहार अभियान अबाध और इस राजसूय यज्ञ को फासीवादी कर्मकांड में बदलने का यह आयोजन बाकायदा चुआड़ विद्रोह उपरांत अंत्यजों से बेदखल भूमि के स्थाई बंदोबस्त के  तहत बरतानी गर्भजात शासक वर्णवर्चस्वी नस्ली सत्तावर्ग के सर्वव्यापी आधिपात्य  धाराप्रवाह समय में भगवान बीरसा के अरण्य के अधिकार के उद्गोष के बिना प्रतिरोध असंभव है।


ख्या करने की बात तो यह है कि भारत का संविधान रचने वाले डा.बीआर अंबेडकर ने भी अंततः चेतावनी दी थीः


Parliamentary Democracy has never been a government of the people or by the people, and that is why it has never been a government for the people. Parliamentary Democracy, notwithstanding the paraphernalia of a popular government, is in reality a government of a hereditary subject class by a hereditary ruling class. It is this vicious organization of political life which has made Parliamentary Democracy such a dismal failure. It is because of this Parliamentary Democracy has not fulfilled the hope it held out the common man of ensuring to him liberty, property and pursuit of happiness.


-Dr Babasaheb Ambedkar


भारतीय लोकतंत्र के मौजूदा हालात और विकल्पहीनता के इस संकट पर इस अंबेडकरी तात्पर्य के संदर्भ में भी चर्चा होनी चाहिेए।


अंबेडकर क्या,जिस बरतानी संसदीय लोकतंत्र के हम लोग अनुगामी हैं,उसपर जार्ज बनार्ड शा का लिखा एप्पिल कार्ट का अध्ययन भी बेहद प्रसंगिक है। जहां जनता के द्वारा, जनता के लिए और जनती की सरकार वाली अवधारणा पर शा की दीर्घायित विचारोत्तेजक प्रस्तावना है।


धनतंत्र कोई नयी व्यवस्था तो है ही नहीं। भारतीय वंशवादी नस्ली सामाजिक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में अंबेडकर की यह चेतावनी समझनी होगी।


मुझे तो ताज्जुब हो रहा है कि स्टार स्पोर्ट्स पर हर ओलर अंतराल अबकी बार मोदी सरकार के उद्घोष को भारतीय जीत की  धारावाहिकता में या मोदी की तर्ज पर या घर घर मोदी की तर्ज पर रुपांतरित करने से कैसे चूक गये मोदियाये सृजनकर्मी।


इस नारे को तो हिसाब से अब यह होना चाहिेए कि अबकी बार मोदी की सरकार,भारत की जय जयकार।


लगता है कि सेमीफाइनल या फाइनल में अश्वमेधी घोड़ों के पिट जाने की आशंका से उन्होंने यह दुस्साहस नही किया होगा।


खेलों में जो मुक्त बाजार का खेल है,वह आइकोनिक अर्थव्यवस्था की पृष्ठभूमि है।


विज्ञापनी सितारे अब चुनाव के सबसे जीतने काबिल उम्मीदवार है।यह संकट कितना घनघोर है कि चंडीगढ़ में किरण खेर और गुल पनाग का मुकाबला है तो मेरठ में मोहसिना किदवई के संसदीय विकल्प बतौर प्रस्तुत हैं नगमा।बंगाल में तो सितारे ही चुनाव मैदान में हैं और उनके रोडशो में फैनीतूफान में बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिकता निष्णात है।


भारतीय समाज में जाति व्यवस्था, वर्णवर्चस्व, वंशवाद और नस्ली क्षेत्रीय भेदभाव का नतीजा है आज का फासीवाद,जिसे विकास के लिए धर्मोन्माद के विकल्प बतौर मैनेजरी सूचनाई विशेषज्ञता और दक्षता के मार्फत सर्जिकल प्रिसिजन के साथ पहले ही खस्ताहाल जनप्रतिनिधित्व शून्य लोकतंत्र की देह में असंवैधानिक नीति निर्धारक चिप्स की सतरह प्रस्थापित किया जा रहा है।


बताया जा रहा है कि संघ परिवार अब राम मंदिर को हिंदुत्व का सबसे बड़ा मुद्दा नहीं मानता।


इसे संघी एजंडा का विचलन समझने की भूल कर रहे हैं हम।


हिंदुत्व के मुकाबले अगर ध्रूवीकरण हुआ तो अहिंदू अस्मिताओं का भी ध्रूवीकरण होना लाजिमी है। जिसका विस्फोट हम हाल में खूब देखते रहे हैं।


इसीलिए अस्मिताओं के कामयाब और नाकाम पिटे हुए चेहरों को भी फैसन परेड में केसरिया कायाकल्प में प्रस्तुत करना संघी रणनीति है ताकि पैदल सेनाओं को एकदूसरे के विरुद्ध लामबंद किया जा सकें।


राम मंदिर हो न हो,संघ परिवार का हिंदू राष्ट्र का एजंडा मौलिक तौर पर अमल में लाने की तैयारी है।


दरअसल हम जिस लकड़बग्घे के सामने हैं,उसका चेहरा शायद सर्वेश्वर के बिंबसंयोजन में भी अनुपस्थित है।


हिटलरी मुसोलिनिया फासीवाद नाजीवाद का जायनी मुक्त बाजारी उत्तरआधुनिक संस्करण है यह लकड़बग्घा,जो अब तक का सबसे जहरीला तत्व है।


विकास के बहाने इस विकल्प को जनादेश में अनूदित करने का प्रकल्प मोदी सर्वभूतेषु है।


दैविक विशुद्धता नस्ली भेदभाव का अंतःस्थल है और हम ईश्वरत्व में लोकतंत्र को समाहित करने लगे हैं।


लकड़बग्घा का यह अवतार ग्रह ग्रहांतर में भी स्वतंत्रता और मानवाधिकार, प्रकृति,पर्यावरण,मनुष्य और मौसमचक्र के भयावह विवर्तन का महाकाव्य है,जहां मर्यादा पुरुषोत्तम या देवि दुर्गा के हाथों सारे आयुध सौंपे जा रहे है दानवीकृत बहुसंख्य के वध के लिए।


इस वधउत्सव में बिरसा मुंडा का प्रतिरोधकल्पे आवाहन बेहद जरुरी है।


ध्यान देने वाली बात है कि अस्मिताओं के आधार पर हो रहे निर्वाचन में जाति,वंश के साथ आवारा क्रोनी पूंजी के तमाम तत्वों की निर्णायक भूमिका है।


ध्यान देने योग्य बात यह है कि कांग्रेस को भारतीय जनता खारिज करती ,उससे पहले तमाम रेटिंग एजंसियां खारिज कर चुकी है।


विनिवेश,प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश,भारत अमेरिकी परमाणु संधि का कार्यान्वयन, कर संशोधन और श्रम कानूनों का सफाया,सेवाओं के मुक्त बाजार के संदर्भ में कांग्रेस की नीतिगत विकलांगता के विरोध में कारपोरेट साम्राज्यवाद का स्वर अपने ही गुलामों के विरुद्ध मुखर है।


ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि भारतीय राजनीति में कांग्रेस एक मंच बतौर अपनी भूमिका निभाती रही है,जिसका कोई वैचारिक चरित्र कभी नहीं रहा है।


कांग्रेस एजंडा मार्फत काम करती रही है।


आर्थिक सुधारों को लागू करते वक्त पांरपारिक जनाधार की चिंता कांग्रेस की सबसे बड़ी राजनीतिक मजबूरी रही है तो नेतृत्व में वंशवादी विरासत का बोझ उसकी ऐतिहासिक कमजोरी।


मीडिया जो उसके विरुद्ध हुआ,उसे समझने के लिए मीडियामध्ये आप का अभ्युत्थान और माडियामध्ये उसका उसीतरह विसर्जन के घटनाक्रम को समझने की जरुरत है।


कारपोरेट और अमेरिकी हितों के विरुद्ध किसी तरह का स्वर इस पतित लोकतंत्र में मुक्तबाजार में तब्दील लोकतंत्र में असंभव हुआ,इसीलिए अरविंद केजरीवाल के तमाम वरदहस्त अब परिदृश्य से अदृश्य हैं।


उसी तरह अमेरिकी एजंडे को लागू करने में नाकाम कांग्रेस जनाधारों को टटोलने और वंशवादी नेतृत्व बहाल करने के अनिवार्य कार्यभार के चलते अब इस मुक्तबाजारी लोकतंत्र में जनादेश का विकल्प नहीं है।


इस पर भी ध्यान देना जरुरी है कि आर्थिक सुधारों के पहले चरण के कार्यान्वयन में राममंदिर सर्वस्व संघ परिवार गुजरात के भयावह नरसंहार के बावजूद पूरी तरह व्यर्थ रहा है।


जो सुधार लागू हुए वे मनमोहनी पहली और दूसरी यूपीए सरकारों ने पिछले दशक में लागू कर दिये।


विनिवेश मंत्रालय का आविस्कार भाजपा ने किया तो उसके राजकाज को संभव बनाया वाम समर्थित यूपीए ने ही।


प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश की अनंत धारा और अबाध पूंजी प्रवाह के महायज्ञ को पूर्णाहुति दी गयी मनमोहनी ईश्वरत्व केमाध्यम से ही।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है श्रम कानूनों का सफाया न कर पाना।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है खुदरा बाजार और रक्षा क्षेत्र में विदेशी पूंजी विनिवेश को संभवव न बना पाना।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है जंगल में जारी जनयुद्ध को सलवा जुडु़म पद्धति से निपटा न पाना और बहुराष्ट्रीय पूंजी की असंख्य परियोजनाओं का वर्षों से लंबित हो जाना।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है करसंशोधनों के जरिये प्रभुवर्ग के साथ कारपोरेट लंपट क्रोनी आवारा  पूंजी को पूरीतरह करमुक्त न कर पाना।मुक्त बाजार से मुटियाये कारपोरेट इंडिया को अब छूट,रियायत और प्रोत्साहन में कोई रुचि है ही नहीं।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है वित्तीय संशोधनो के जरिये वित्तीय पूंजी के हवाले नागरिकों की जन माल न  कर पाना।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है बायोमेट्रिक डिजिटल आधार प्रकल्प के बावजूद सब्सिडी को पूरी तरह खत्म न कर पाना।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकाम है भारत अमेरिका परमाणु संधि का कार्यान्वयन करके आतंक के विरुद्ध युद्ध के बहाने एशिया महाद्वीप  के बाजार में एकाधिकार वर्चस्व के लिए रणनीतिक अमेरिकी,इजरायली बरतानी पारमाणविक गठजोड़ के तहत बाजार और संसाधनों पर पूरा कब्जा कर पाना।


मनमोहन की सबसे बड़ी नाकामी है भारतीय देहात को कृषि के सफाये के साथ उपभोक्तावादी शहरी चरित्र न दे पाना।


ये तमाम सुधार विकास के पर्याय हैं।


ये तमाम सुधार आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण का एजंडा है।


ये तमाम अधूरे कार्य भारत की नई बनने वाली केंद्र सरकार के अनिवार्य कार्यभार हैं।


इसी एजंडा को अपनाने के लिए राममंदिर की तिलांजलि के बिना कारपोरेट समर्थन असंभव है और देस में सर्वभूतेषु मोदी भी असंभव है।


इसीलिए बंधु,राममंदिर का मुद्दा अब संघ एजंडा में सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं है।


विकास या आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण के एजंडा के कार्यान्वयन का घोषणापत्र  है हर संघी पदक्षेप का तात्पर्य। लेकिन इसका कहीं यह मतलब भी नहीं कि वह रामरथी लालकृष्ण आडवानी के बलिदान से अपने हिंदुत्व के एजंडे का परित्याग कर चुका है या काशी से मुरली मनोहर जोशी के स्थानांतरण मार्फत उसने अपने चरित्र से विचलन भी नहीं अंगीकार किया है।


हम पहले से निरंतर लिखते रहे हैं कि नस्ली हिंदुत्व की विशुद्धता जनसंहारी रक्तपात की फसल है तो उसी खेत की उपज है यह मुक्त बाजार।


विकास का मायने चुआड़ विद्रोह,भील विद्रोह,मुंडा विद्रोह,संथाल विद्रोह,संन्यासी विद्रोह,गोंड विद्रोह,नील विद्रोह में शामिल हमारे तमाम पूर्वजों से लेकर शहीदेआजम भगत सिंह और स्वत्ंत्र भारत में जल जंगल जमीन नागरिकता और मानवाधिकार के लिए लड़ रहे हर व्यक्ति को मालूम है।


बहुसंख्य जनगण को अपनी पैदल सेना बनाये रखने के लिए डायवर्सिटी की समरसी समावेशी चादर ओढ़कर धर्मोन्मादी मुख से विकास का अखंड जाप है यह और वहविकास सचमुच गुजरात माडल का विकास है।


सर्वेश्वर के लकड़बग्घे का मायने बदल गया है।






लकड़बग्घा तुम्हारे घर के करीब आ गया है

Posted by Reyaz-ul-haque on 3/30/2014 11:59:00 AM



सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता. देखिए कि लकड़बग्घा कितने करीब आ गया है और उसके चेहरे पर खून के निशान कितने ताजा हैं. आपकी लाठी और लालटेन कहां है?


उस समय तुम कुछ नहीं कर सकोगे


अब लकड़बग्घा

बिल्कुल तुम्हारे घर के

करीब आ गया है

यह जो हल्की सी आहट

खुनकती हंसी में लिपटी

तुम सुन रहे हो

वह उसकी लपलपाती जीभ

और खूंखार नुकीले दांतों की

रगड़ से पैदा हो रही है।

इसे कुछ और समझने की

भूल मत कर बैठना,

जरा सी गलत गफलत से

यह तुम्हारे बच्चे को उठाकर भाग जाएगा

जिसे तुम अपने खून पसीने से

पोस रहे हो।

लोकतंत्र अभी पालने में है

और लकड़बग्घे अंधेरे जंगलों

और बर्फीली घाटियों से

गर्म खून की तलाश में

निकल आए हैं।

उन लोगों से सावधान रहो

जो कहते हैं

कि अंधेरी रातों में

अब फरिश्ते जंगल से निकलकर

इस बस्ती में दुआएं बरसाते

घूमते हैं

और तुमहारे सपनों के पैरों में चुपचाप

अदृश्य घूंघरू बांधकर चले आते हैं

पालने में संगीत खिलखलिता

और हाथ-पैर उछालता है

और झोंपड़ी की रोशनी तेज हो जाती है।


इन लोगों से सावधान रहो।

ये लकड़बग्घे से

मिले हुए झूठे लोग हैं

ये चाहते हैं

कि तुम

शोर न मचाओ

और न लाठी और लालटेन लेकर

इस आहट

और खुनकती हंसी

का राज समझ

बाहर निकल आओ

और अपनी झोंपड़ियों के पीछे

झाड़ियों में उनको दुबका देख

उनका काम-तमाम कर दो।


इन लोगों से सावधान रहो

हो सकता है ये खुद

तुम्हारे दरवाजों के सामने

आकर खड़े हो जाएं

और तुम्हें झोंपड़ी से बाहर

न निकलने दें,

कहें-देखो, दैवी आशीष बरस

रहा है

सारी बस्ती अमृतकुंड में नहा रही है

भीतर रहो, भीतर, खामोश-

प्रार्थना करते

यह प्रभामय क्षण है!


इनकी बात तुम मत मानना

यह तुम्हारी जबान

बंद करना चाहते हैं

और लाठी तथा लालटेन लेकर

तुम्हें बाहर नहीं निकलने देना चाहते।

ये ताकत और रोशनी से

डरते हैं

क्योंकि इन्हें अपने चेहरे

पहचाने जाने का डर है।

ये दिव्य आलोक के बहाने

तुम्हारी आजादी छीनना चाहते हैं।

और पालने में पड़े

तुम्हारे शिशु के कल्याण के नाम पर

उसे अंधेरे जंगल में

ले जाकर चीथ खाना चाहते हैं।

उन्हें नवजात का खून लजीज लगता है।

लोकतंत्र अभी पालने में है।


तुम्हें सावधान रहना है।

यह वह क्षण है

जब चारों ओर अंधेरों में

लकड़बग्घे घात में हैं

और उनके सरपरस्त

तुम्हारी भाषा बोलते

तुम्हारी पोशाक में

तुम्हारे घरों के सामने घूम रहे हैं

तुम्हारी शांति और सुरक्षा के पहरेदार बने।

यदि तुम हांक लगाने

लाठी उठाने

और लालटेन लेकर बाहर निकलने का

अपना हक छोड़ दोगे

तो तुम्हारी अगली पीढ़ी

इन लकड़बग्घों के हवाले हो जाएगी

और तुम्हारी बस्ती में

सपनों की कोई किलकारी नहीं होगी

कहीं एक भी फूल नहीं होगा।

पुराने नंगे दरख्तों के बीच

वहशी हवाओं की सांय-सांय ही

शेष रहेगी

जो मनहूस गिद्धों के

पंख फड़फड़ाने से ही टूटेगी।

उस समय तुम कुछ नहीं कर सकोगे

तुम्हारी जबान बोलना भूल जाएगी

लाठी दीमकों के हवाले हो जाएगी

और लालटेन बुझ चुकी होगी।

इसलिए बेहद जरूरी है

कि तुम किसी बहकावे में न आओ

पालने की ओर देखो-

आओ आओ आओ

इसे दिशाओं में गूंज जाने दो

लोगों को लाठियां लेकर

बाहर आ जाने दो

और लालटेन उठाकर

इन अंधेरों में बढ़ने दो

हो सके तो

सबसे पहले उन पर वार करो

जो तुम्हारी जबान बंद करने

और तुम्हारी आजादी छीनने के

चालाक तरीके अपना रहे हैं

उसके बाद लकड़बग्घों से निपटो।


अब लकड़बग्घा

बिल्कुल तुम्हारे घर के करीब

आ गया है।


ये एक महीना जी गया तो जी जाउंगा : वीरेन डंगवाल

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Details Category: [LINK=/article-comment.html]सुख-दुख...[/LINK] Created on Monday, 31 March 2014 13:10 Written by राहुल पांडेय
Rising Rahul : वीरेन दा, आपसे तो मुझे न जाने कि‍तने सालों पहले मि‍लना था, पर मैं खुद में बंद आदमी खुद से कभी इतना बाहर ही न आ पाया कि उस यायावरी से जुड़ सकूं, जि‍सने ताजिंदगी आपको बखूबी बरता। अभी भी मुझे खुद से बाहर आने में काफी दि‍क्‍कत है, पर दुख ये है कि अब आपके पास समय कम है...

अभी तक दि‍माग में आपके वो शब्‍द गूंज रहे हैं और शरीर का हर रोंया खड़ा हो जा रहा है कि 'ये एक महीना जी गया तो जी जाउंगा।'


आगे आपने न जोड़ा, न कहा, पर हमने समझ लि‍या और आपकी अनकही हम कभी स्‍वीकार भी न करेंगे वीरेन दा, बता दे रहे हैं अभी से। और हां, Yashwant को बोलने दीजि‍ए एलि‍यन एलि‍यन... मुझे आप बहुत खूबसूरत लगे... ठीक उतने, जि‍तने कि आप हैं।

[B]पत्रकार राहुल पांडेय के फेसबुक वॉल से.[/B]

[HR]

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Sunday, March 30, 2014

BJP for action against illegal migrants from Bangladesh: Rajnath Singh

BJP for action against illegal migrants from Bangladesh: Rajnath Singh

 BJP President Rajnath Singh, party's UP incharge Amit Shah (left) and Lalji Tandon being garlanded at a programme in Lucknow on Thursday. (PTI Photo)BJP President Rajnath Singh, party's UP incharge Amit Shah (left) and Lalji Tandon being garlanded at a programme in Lucknow on Thursday. (PTI Photo)

Bharatiya Janata Party President Rajnath Singh on Sunday said people who came from Bangladesh after 1971 and settled in Assam or elsewhere in the country should be treated as illegal migrants and necessary action be taken against them.

“Everybody knows that there has been a huge influx of people of a particular community from Bangladesh during the last four decades and certain political parties have patronised them for vote-bank politics,” Singh said a rally at Karimganj in Barak Valley.

“If BJP comes to power, we’ll institute an inquiry to find out how so many people of a particular community could enter the country illegally and settle down,” Singh said.

“If, however, anybody comes with proper passport, visa or work permit, we have no problem with that but we cannot accept if they do not go back and settle down here,” the BJP chief said.

“In the case of Hindus being harassed in Bangladesh and forced to flee that country, we cannot treat them as refugees, but must be sympathetic to their cause,” he said.

“BJP does not believe in distinction between different religions or on division of the country on the basis of religion as was done during the time of Independence,” he said.

“BJP believes in politics of humanity and not of religion. In Assam, we make no difference between Hindus and Muslims, but illegal migrants who are a threat to the indigenous population, will not be tolerated,” he said.

“Earlier, before BJP came to power in 1998, India was considered a weak country and this was a matter that always hurt Vajpayeeji. After coming to power, he decided that India will carry out nuclear tests and though many countries opposed it, he went on with the tests,” he said.

“Powerful countries threatened to stop economic aid and imposed sanctions, but we finally emerged strong and no country considers us weak now,” Singh said.

Saturday, March 29, 2014

न्याय की गुहार अनसुनी और मानवाधिकार सिरे से लापता

न्याय की गुहार अनसुनी और मानवाधिकार सिरे से लापता

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


बीरभूम के लाभपुर में आदिवासी कन्या से सामूहिक बलात्कार के मामले में पीड़िता की सुरक्षा बंदोबस्त में नाकामी के लिए सर्वोच्च न्यायालय नें बंगाल की मां माटी मानुष सरकार की कठोर भर्त्सना की है और कहा है कि बंगाल में पुलिस और प्रशासन नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में पूरीतर तरह नाकाम है।सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को पीड़िता को महीने भर में पांच लाक रुपये के भुगतान का आदेस दिया है।स्त्री उत्पीड़न और मानवाधिकार हनन का यह बंगीय परिदृश्य है।यह कोई राजनीतिक बयान नहीं है जैसे कि वाममोर्चा चेयरमैन बंगाल में आपातकाल बताते रहते हैं।देश में न्यायिक प्रक्रिया बहाल करने की सर्वोच्च संस्था की यह टिप्पणी खतरे की घंटी है।


न्याय और कून के राज के लिए नागरिकों को स्थानीय सत्ता-केंद्रों की मदद पर निर्भर रहना होगा, जैसा कि अभी पश्चिम बंगाल में देखने को मिलता है। .अपहरण , बलात्कार , राहजनी , अपराध के कई चेहरे । राजनीतिक हिंसा, दमन, उत्पीड़न, कमजोर तबके पर और महिलाओं पर अत्याचार। हर किसी  को हर वक्त राष्ट्र और राजनीति का उन्मुक्त आश्वासन कि न्याय अवश्य  मिलेगा।लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि न्याय की गुहार सिर्फ गुहार बनके रह जाती है अनसुनी और अपराधी छुट्टा घूमते रह जाते हैं।राजनीतिक संरक्षण से बाधित होती है न्यायिक प्रक्रिया।कानून के राज में सभी नागरिक समान है। लेकिन हालत यह है कि  न्याय के  रक्षक ही भक्षक बन जाते हैं। भारतीय लोक गणराज्य में न्याय नहीं,कानून का राज नही तो तो क्या क्या करेगा आम आदमी?आज फिर पुरुषतंत्र स्त्री उत्पीड़न के विरुद्ध फर्जी प्रतिवाद का जश्न मना रहा है। जबकि हमारी जेहन में गुवाहाटी की सड़क पर दिनदहाड़े नंगी कर दी गयी आदिवासी लड़की के लिए न्याय की आवाज बुलंद हो रही है।हमारी आंखों में इंफल की उन नग्न माताओं का प्रदर्शन आज भी जिंदा है,जो सैन्य शक्ति क बलात्कार की चुनौती दे रही हैं तबस लगातार। भारतीय लोक गणराज्य में फिलवक्त कोई स्त्री कहीं भी सुरक्षित नहीं है। हमने ऐसा मुक्त बाजार चुना है कि पुरुषतंत्र की नंगी तलवारे हर पल स्त्री के वजूद को कतरा कतरा काट रहा है।


पश्चिम बंगाल सरकार के रवैये से नाराज राज्य के दुष्कर्म पीड़ितों के परिजनों ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से गुहार लगाकर भी देख लिया। ये परिजन अपने प्रियजनों के साथ हुए दुष्कर्म की जांच सीबीआई से कराने का दबाव बनाते रहे हैं।लेकिन न्याय की गुहार अनसुनी ही रह गयी।24 परगना जिले के कमदुनी गांव और मुर्शिदाबाद जिले के खरजुना और रानीताला गांवों के लोगों के दिल्ली पहुंचने का बंदोबस्त रेल राज्य मंत्री और कांग्रेस के नेता अधीर चौधरी ने किया था। जिनके विरुद्ध मुर्शिदाबाद में कई आपराधिक माले लंबित हैं।दुष्कर्म के अपराधों पर टालमटोल भरा रवैया अपनाने के लिए इन तीनों गांवों के लोग मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की सरकार से खासा नाराज हैं।


बारासात के कामदुनी गांव में सात जून,2013  को परीक्षा से लौट रही एक 20 वर्षीय युवती के साथ दुष्कर्म किया गया और उसके बाद उसकी हत्या कर दी गई। ममता बनर्जी 10 दिनों बाद पीड़िता के घर गईं। कुछ महिलाओं ने जब उनके खिलाफ प्रदर्शन किया तो ममता आपा खो बैठीं। उन्होंने महिलाओं को चुप होने और माकपा की राजनीति न करने को कहा। बाद में उन्होंने दावा कि गांव में उनकी हत्या की साजिश रची गई थी। प्रदर्शन में माओवादी शामिल थे। राजनीतिक हस्तक्षेप से इस मामले को रफा दफा कर दिया गया।उल्टे ग्रामीणों के राष्ट्रपति से मिलने से तृणमूल कांग्रेस नाराज हो गयी। न्याय और कानून व्यवस्था बहालकरने के बजाय मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहती रही कि कुछ लोग उनकी सरकार की बदनामी करने का प्रयास कर रहे हैं।



तो दूसरी तरफ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एसएफआई नेता सुदीप्तो गुप्ता की मौत पर संगठन की ओर से किए जा रहे विरोध प्रदर्शनों पर सवाल खड़ा करते हुए कहा कि यह एक दुर्घटना थी। वहीं छात्र नेता की हिरासत में पिटाई से मौत होने संबंधी आरोपों के बीच कोलकाता पुलिस ने मीडिया से संयम बरतने को कहा।बाद में हुआ यह तक कि दिल्ली मे एसएफआई की बदसलूकी के शिकार हो गयी ममता खुद और ममता बनर्जी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की होने वाली अहम मुलाकात रद्द हो गई । योजना आयोग में वामपंथी कार्यकर्ताओं के विरोध पर ममता की नाराजगी की पृष्ठभूमि में बैठक रद्द हुई । नतीजा यह निकला कि यह मामला महज राजनीतिक मुद्दा बनकर रह गया।न्याय की गुहार अनसुनी ही रह गयी।


सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार कानून जिस कश्मीर में और इरोम शर्मिला के अनंत आमरण अनशन के बावजूद जारी है, सलवा जुड़ुम की जद में देश का जो आदिलवासी भूगोल है।भूमि संघर्षों का बथानीटोला जिस मध्य बिहार में है और खैरांजलि जैसा परिदृश्य जहा हैं,उनकी चर्चा बहुत हो चुकी है।आगामी लोकसभा के मद्देनजर कोई कानून के राज की अनुपस्थिति नहीं करता,न्याय से वंचित बहुसंख्य जनगण जिन्हें राजकाज के लिए अपने मताधिकार का प्रयोगकरना है,उनकी सुधि कोई नहीं ले रहा है।देश के अनेक हिस्सों में आज भी भारतीय कानून लागू नहीं है।


बंगाल में पार्टीबद्ध न्याय प्रक्रिया और पार्टीबद्ध कानून व्यवस्था की विरासत बेसक पैंतीस साल की वाम विरासत है।नंदीग्राम,सिगुर,केशपुर, वानतला, मरीचझांपी,नेताई, मंगलकोट,जंगलमहल,आनंद मार्गियों को जिंदा जलाने की घटनाएं वाम मोर्चे के सत्ता में वापसी के रोड ब्रेकर बनी हुई हैं।डायन बताकर स्त्री हत्या की जघन्य परंपरा बदस्तूर जारी है।


सवाल यह है कि परिवर्तन के बाद क्या इस परंपरा में कोई व्यवधान आया है या नहीं। जो नागरिक समाज और जो चमकीले चेहरे वामविरोधी भूमि आंदोलन के वक्त पार्टीबद्धता के दायरे को तोड़कर सड़कों पर थे, वे न सिर्फ नये सिरे से ज्यादा मुखरता के साथ पार्टीबद्ध हो गये हैं बल्कि मानवाधिकार और कानून के राज में उनके मोर्चे पर सन्नाटा छा गया है। वे तमाम आदरणीय व्यक्तित्व अपनी अपनी प्रतिबद्धता और सरोकार के नकदीकरण में निष्णात है।


सत्ता मलाई का जायका लेते लोगों को यह होश भी नहीं रहा कि परिवर्तन के बाद हालात सुधरने के बजाय बिगड़ ही रहे हैं। दिल्ली और मुंबई में स्त्री उत्पीड़न के तमाम मामलों  में फैसले आ रहे हैं।उम्र कैद और फांसी तक की सजा हो रही है छह महीने के भीतर।इसके बावजूद पूरे पैंतीस साल के बाद भी मरीचझांपी प्रकरण की जांच शुरु ही नहीं हुई है।आनंदमार्गियों को जिंदा जलाने की घटना के बाद भी साढ़े तीन दशक बीत गये हैं और आज तक कोई सुनवाई नहीं हुई है। राजनीतिक बंदियों की रिहाई का आंदोलनथम सा गया है।


स्त्री उत्पीड़न तो मां माटी मानुष सरकार के राजकाज में अमावस्या रात है जिसकी किसी सुबह का शायद ही किसी को इंतजार हो।वीभत्स तम बलात्कार कांड बंगाल का रोजनामचा है।राजनीतिक हिंसा का सिलसिला जारी है।बेदखली अभियान प्रोमोटर बिल्डर राज का अनिवार्य अंग है तो कानून व्यवस्था बहाल करने के लिए संबद्ध अफसरों के हाथ पांव अब भी बंधे हैं। वाम शासन के दौरान बिना लोकल कमिटी की इजाजत के थाने में एफआईआर तक दर्ज नहीं होता था। आज वह हालत बदल गयी है,कोई दावा नही कर सकता।कोयलांचल हो या महानगर या उपनगर या नया कोलकाता या सीमाव्रती इलाके सर्वत्र अपराधियों के हौसले बुलंद हैं जो र्जनीतिकदलों के रथी महारथी भी हैं।


घाटाल के सत्तादल प्रत्याशी बांग्ला फिल्म के स्टार नंबर वन जब बलात्कार का मजा लेने का फार्मूला बताते हैं तो पता चलता है कि कामदुनी से लेकर वीरभूम तक तमाम बलात्कारकांडों की जांच  का क्या हश्र होना है।मध्यमग्राम,बारासात से लेकर मध्य कोलकाता के पार्क सर्कस में उत्पीड़ित जीवित या मृत स्त्रिया सिंगुर में बलात्कार के बाद जिंदा जला दी गयी तापसी मलिक की नियति याद दिलाती है।


কোর্টের নির্দেশে পাঁচ লক্ষ ধর্ষিতাকে


বীরভূমের লাভপুরে গণধর্ষণ কাণ্ডে নির্যাতিতা আদিবাসী তরুণীর নিরাপত্তা ব্যবস্থা সুনিশ্চিত না করায় রাজ্য সরকারকে তীব্র ভর্ত্‍সনা করল সুপ্রিম কোর্ট৷ শুক্রবার এই গণধর্ষণ মামলার রায় দিতে গিয়ে দেশের সর্বোচ্চ আদালত বলেছে, নাগরিকের মৌলিক অধিকার রক্ষাতে সম্পূর্ণ ব্যর্থ হয়েছে রাজ্য পুলিশ ও প্রশাসন৷ রাজ্য সরকারকে এক মাসের মধ্যে নির্যাতিতার কাছে পাঁচ লক্ষ টাকা পৌঁছে দেওয়ার নির্দেশ দিয়েছে আদালত৷


ওই ঘটনায় অভিযোগ নেওয়া থেকে শুরু করে পুলিশি তদন্তের পরতে পরতে নানা অসঙ্গতিও শীর্ষ আদালতের নজর এড়ায়নি৷ সেই সব অসঙ্গতির কথা তুলে সুপ্রিম কোর্ট রাজ্য সরকারকে সতর্কও করে দিয়েছে৷ দেশের সর্বোচ্চ আদালতের নির্দেশের পর এদিন সন্ধ্যাতেই জেলাশাসক জগদীশ প্রসাদ মীনার নির্দেশে জেলা প্রশাসনের এক আধিকারিক নির্যাতিতার কাছে পাঁচ লক্ষ টাকা পৌঁছে দিয়ে আসেন৷ প্রসঙ্গত, গণধর্ষণের শিকার ওই তরুণীকে জেলা প্রশাসন একটি হোমে রেখেছে৷ সুপ্রিম কোর্টের বক্তব্য হল, কোনও ক্ষতিপূরণই এমন ক্ষেত্রে নির্যাতিতার জন্য যথেষ্ট নয়৷ তা সত্ত্বেও যেহেতু রাজ্য সরকার নির্যাতিতার মৌলিক অধিকার রক্ষার ক্ষেত্রে গুরুতর ব্যর্থতার নজির রেখেছে, তার জন্যই ক্ষতিপূরণ দরকার৷ রাজ্য সরকার অবশ্য ঘটনার পরপরই ৫০ হাজার টাকা ক্ষতিপূরণ বাবদ দিয়েছিল৷


লোকসভা ভোটের মুখে লাভপুর-কাণ্ডে সুপ্রিম কোর্টের এই রায়ে রাজ্য সরকার চরম অস্বস্তিতে পড়েছে৷ দু'দিন আগেই সারদা-কাণ্ডেও সিবিআই তদন্ত হতে পারে বলে সর্বোচ্চ আদালত ইঙ্গিত দিয়েছে৷ পরপর এই দু'টি ঘটনাতেই সুপ্রিম কোর্টের ভূমিকা নিয়ে রীতিমতো উদ্বিগ্ন রাজ্য প্রশাসন৷ তবে সুপ্রিম কোর্টের মতামত নিয়ে সরকারের তরফে কেউ কোনও প্রতিক্রিয়া জানাননি৷ লাভপুর থানার সুবলপুর গ্রামে সালিশি সভার ফতোয়ায় আদিবাসী তরুণীকে গণধর্ষণের অভিযোগটিকে কেন্দ্র করে সুপ্রিম কোর্ট প্রথম থেকেই কড়া অবস্থান নিয়েছিল৷ ২২ জানুয়ারি লাভপুর থানায় অভিযোগ দায়ের হওয়ার পরই গ্রাম্য সালিশিতে গণধর্ষণের ফতোয়ার খবর শুধু এ রাজ্যে বা দেশে নয়, বিদেশেও নিন্দার ঝড় তোলে৷ পরদিন বিভিন্ন সংবাদ মাধ্যমে খবরটি প্রকাশিত হওয়ার ২৪ ঘণ্টার মধ্যে স্বতঃপ্রণোদিত হয়ে সুপ্রিম কোর্টে মামলাটি রুজু করেছিলেন প্রধান বিচারপতি পি সদাশিবম৷ যা রীতিমতো নজিরবিহীন৷ এর আগে ২০০৭ সালে ১৪ মার্চ নন্দীগ্রামে গুলি চালনার ঘটনায় কলকাতা হাইকোর্ট স্বতপ্রণোদিত হয়ে মামলা করে এবং সিবিআই তদন্তের নির্দেশ দেয়৷


আদিবাসী সমাজের বাইরের এক বিবাহিত যুবকের সঙ্গে সম্পর্ক গড়ে তোলার অভিযোগে সুবলপুর গ্রামের সালিশি সভায় তরুণীটিকে গণধর্ষণের ফতোয়া দেওয়া হয়েছিল বলে অভিযোগ ওঠে৷ সেই ফতোয়া মেনে নিগ্রহ করা হয় ওই যুবতীকে৷ ওই অভিযোগে ১৩ জনকে পুলিশ গ্রেপ্তারও করেছিল৷ নিম্ন আদালতে সেই মামলা এখনও বিচারাধীন৷ কিন্ত্ত দু'মাস পার হতেই নিজেদের রুজু করা মামলাতে শুক্রবার চূড়ান্ত রায় দিয়ে দিল প্রধান বিচারপতি পি সদাশিবমের নেতৃত্বাধীন বেঞ্চ৷ ওই বেঞ্চের বাকি দুই সদস্য হলেন, বিচারপতি সারদ অরবিন্দ ববরে এবং এম ভি রামানা৷ হাসপাতালের চিকিত্‍সায় সুস্থ হওয়ার সুবলপুর গ্রামের ওই তরুণী ও তাঁর মাকে প্রশাসনের ব্যবস্থাপনায় সিউড়ির কাছে একটি হোমে রাখা হয়েছে৷ রায়ে সরাসরি তার উল্লেখ না থাকলেও ওই ধরনের ব্যবস্থাপনার সমালোচনা করেছে সুপ্রিম কোর্টের বেঞ্চ৷ শীর্ষ আদালতের মতে, থাকার অন্তর্বর্তী ব্যবস্থা সাময়িক নির্যাতিতাকে সুরক্ষা দিতে পারে মাত্র, কিন্ত্ত তাদের জন্য দীর্ঘস্থায়ী পুনর্বাসন জরুরি৷


সুপ্রিম কোর্টের নির্দেশ, নিগৃহীতার নিরাপত্তা সুনিশ্চিত করার জন্য সংশ্লিষ্ট এলাকার সার্কেল ইন্সপেক্টরকে রোজ তাঁর আবাস পরিদর্শন করতে হবে৷ এই মামলার প্রসঙ্গে সুপ্রিম কোর্টের প্রধান বিচারপতির নেতৃত্বাধীন ওই বেঞ্চ অতীতের একাধিক মামলার কথাও টেনে এনেছে৷ তার মধ্যে উল্লেখযোগ্য হল, ২০০৬ সালের লতা সিং বনাম উত্তরপ্রদেশ সরকার মামলা, ২০১১ সালের আরু মুগম সারভাই বনাম তামিলনাড়ু সরকার মামলা, ২০১০ সালের শক্তি বাহিনী বনাম কেন্দ্রীয় সরকার মামলা ইত্যাদি৷ ওই সব মামলার উল্লেখ করে সুপ্রিম কোর্ট বলেছে, মোদ্দা কথা হল সংবিধানের একুশ নম্বর ধারায় ভারতীয় নাগরিকদের বিবাহ ক্ষেত্রে পছন্দের স্বাধীনতাকে স্বীকার করে নেওয়া হয়েছে৷ কিন্ত্ত অধিকাংশ ক্ষেত্রেই দেখা যাচ্ছে, পুলিশ-প্রশাসন এসব ক্ষেত্রে অযাচিত ভাবে হস্তক্ষেপ করছে৷ আবার কখনও পুলিশ-প্রশাসন নাগরিকের মৌলিক অধিকার রক্ষায় যথাযথ ভূমিকা নিচ্ছে না৷ তারই পরিণতি হিসেবে এ ধরনের ঘটনা ঘটছে৷


লাভপুর-কাণ্ডে স্বতঃপ্রণোদিত ভাবে মামলা রুজু করার পর রাজ্য সরকারের রিপোর্টের উপর কখনই ভরসা রাখতে পারেনি দেশের শীর্ষ আদালত৷ মামলাটি রুজু হওয়ার দিনেই বীরভূমের জেলা বিচারক ও মুখ্য বিচারবিভাগীয় ম্যাজিস্ট্রেটকে ঘটনাস্থল পরিদর্শন করে রিপোর্ট দিতে সুপ্রিম কোর্ট নির্দেশ দিয়েছিল৷ কিন্ত্ত ওই বিচারকদের রিপোর্টও যে তাদের খুশি করতে পারেনি, শুক্রবারের রায়ে তা স্পষ্ট৷ ওই রায়ে জানানো হয়েছে, অভিযুক্তদের বিরুদ্ধে পুলিশের ব্যবস্থা গ্রহণ সম্পর্কে কোনও তথ্য ছিল না ওই রিপোর্টে৷ বরং নানা অসঙ্গতি ছিল তাতে৷ অসন্ত্তষ্ট আদালত গত ৩১ জানুয়ারি রাজ্যের মুখ্যসচিবের কাছে বিস্তারিত রিপোর্ট তলব করে৷ একই সঙ্গে অতিরিক্ত সলিসিটর জেনারেল সিদ্ধার্থ লুথরাকে আদালত-বান্ধব নিযুক্ত করেছিল সুপ্রিম কোর্ট৷ তাঁর পর্যবেক্ষণেই আদালতের নজরে এসেছিল পুলিশের অসঙ্গতিগুলি৷ যেমন, অনির্বাণ মণ্ডল নামে যিনি প্রথম ঘটনাটিতে এফআইআর দায়ের করেছিলেন, তাঁর উপস্থিতিকে অপ্রাসঙ্গিক মনে করেছে সুপ্রিম কোর্ট৷ তাছাড়া ভারতীয় দণ্ডবিধি অনুযায়ী এ ধরনের ঘটনায় মহিলা অফিসারের মাধ্যমে অভিযোগ গ্রহণ বাধ্যতামূলক হলেও তা মানা হয়নি৷


সালিশি সভা একটি গ্রামের ব্যাপার হলেও ফতোয়া দেওয়ার ওই সভাতে যে সংলগ্ন গ্রাম বিক্রমুর ও রাজারামপুরের মানুষ উপস্থিত ছিলেন, তাও সুপ্রিম কোর্টের নজর এড়ায়নি৷ সালিশি সভা ২০ জানুয়ারি রাতে হয়েছিল কি না, তা নিয়ে এফআইআর ও জুডিশিয়াল অফিসারদের রিপোর্টে ফারাক ধরা পড়েছে সুপ্রিম কোর্টের পর্যবেক্ষণে৷


साझा संस्कृति संगम : प्रभात पटनायक का उदघाटन आलेख ~ सम्पूर्ण पाठ

साझा संस्कृति संगम के उद्घाटन में प्रभात पटनायक  के आलेख का सम्पूर्ण पाठ
साझा संस्कृति संगम के उद्घाटन में प्रभात पटनायक  के आलेख का सम्पूर्ण पाठ

नवउदारवाद और सांप्रदायिक फ़ासीवाद का उभार ~ प्रभात पटनायक


नवउदारवाद और सांप्रदायिक फ़ासीवाद का उभार ~ प्रभात पटनायक


जनतंत्र की वैधता के लिए अवाम के बीच इस यक़ीन की जरूरत पड़ती है कि वे जनतांत्रिक प्रक्रिया में शिरकत करके अपनी जि़दगी में बेहतरी ला सकते हैं। यह यक़ीन झूठा भी साबित हो सकता है, यह केवल एक भ्रांति भी हो सकता है। जब यह भ्रांति नही रहती तो लोग न केवल जनतंत्र के बारे में सर्वनिषेधवादी होने लगते हैं, बल्कि उन्हें यह भी लगने लगता है कि वे अपने इन प्रयत्नों से अपनी जिंदगी में बेहतरी नहीं ला सकते। इस तरह की हताशा उन्हें किसी 'उद्धारक' या 'अवतारी पुरुष'' की खोज की ओर ले जाती है जिसमें उन्हें बेहतर ज़िंदगी दे पाने की अभूतपूर्व ताक़त की झलक दिखायी देती हो और जो उनको बदहाली से उबार सके। अवाम तब 'तर्कबुद्धि के पक्ष में' नहीं रह जाते, वे अतर्क की दुनिया में विचरण करने लगते हैं।

वित्तीय पूंजी के वर्चस्व के ज़माने में ऐसे 'उद्धारकों' और 'अवतारी पुरुषों' को अजीबोग़रीब तरीक़े से उस कारपोरेट क्षेत्र के द्वारा गढ़ा जाता है या उछाला जाता है, या ऐसे मामलों में जहां वे अपने कारनामों से उठने लगते हैं, कारपोरेट वित्तीय पूंजी अपने नियंत्रण वाले मीडिया का इसके लिए इस्तेमाल करती है, उनका निज़ाम कारपोरेट निज़ाम का समानार्थी हो जाता है। फ़ासीवाद का बीज-बिंदु यही है। (मुसोलिनी ने, जैसा कि हमें याद यहां याद आ रहा है, लिखा था कि फ़ासीवाद को वास्तविक अर्थो में कॉरपोरेटवाद कहना समीचीन होगा क्योंकि इसमें राजसत्ता कॉरपोरेट सत्ता में विलीन हो जाती है) इस तरह अवाम के, जनतंत्र के माध्यम से अपनी ज़िंदगी बेहतर बनाने की प्रक्रिया में यक़ीन के ख़ात्मे से वे हालात पैदा होते हैं जिनमें फासीवाद फलता फूलता है।


इसकी मिसाल जर्मनी के 'वेइमार रिपब्लिक' में देखी जा सकती है। अवाम की नज़रों में 'वेइमार रिपब्लिक' की वैधता ख़त्म हो चुकी थी क्योंकि वर्सीलीज़ संधि के फलस्वरूप मित्र शक्तियों ने हर्जाने का जो बोझ अवाम पर डाला था जिसकी वजह से अवाम की बढ़ती हुई बदहाली दूर कर पाने में एक के बाद एक चुनाव से बनी सरकार कामयाब न हो पायी थी। जनतंत्र की वैधता से यक़ीन उठ जाना ही वह विशेष कारण बना जिसने अवाम को नाज़ीवाद के आकर्षण के जाल में फंसा लिया। 'वेइमार रिपब्लिक' की असफलता को कम से कम उस शांति संधि में तलाश तो किया जा सकता है (जिसके खि़लाफ़ अर्थशास्त्री केंस ने आवाज़ उठायी थी)। मगर आज 'ग्लोबलाइजे़शन' के इस ज़माने में उसी तरह अवाम के बीच राजनीतिक प्रक्रिया के माध्यम से बेहतर ज़िंदगी जी पाने में यक़ीन का ख़ात्मा हो गया है, साथ ही इस यक़ीन के ख़ात्मे की जड़ें इसी व्यवस्था के भीतर हैं। नव-उदारवाद के तहत यह प्रवृत्ति उभरती है कि जनतांत्रिक सस्थाओं की शक्ति पर से विश्वास उठ जाये और इसी से जुड़ा हुआ अतर्क बुद्धि का और फ़ासीवाद का विकसित होना है।

इसी तथ्य को दूसरे तरीक़े से समझा जा सकता है: नव-उदारवाद राजनीति के क्षेत्र को 'अंत' यानी 'क्लोज़र' की ओर धकेलता है जहां लोगों के सामने राजनीतिक विकल्पों में आर्थिक नीतियों पर एकरूपता दिखायी देती है, इससे अवाम की जिंदगी के हालात में उनके द्वारा चुने गये विकल्प से बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता। यह 'अंत' या क्लोज़र केवल 'नज़रिये' का मामला नहीं है। दार्शनिक हेगेल ने इस ऐतिहासिक प्रक्रिया को प्रशियाई राजसत्ता के गठन के साथ आये अंत के रूप में देखा था। दर्शनशास्त्र में हेगेलवाद के विकास के समांतर ही अर्थशास्त्र में जो नया सिद्धांत विकसित हुआ, उसने भी पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के उभार के साथ इतिहास के अंत की बात की थी। मगर ये सिर्फ 'नज़रिये' ही थे। इसके विपरीत, नव-उदारवाद एक साथ दो स्थितियां पैदा करता है, एक ओर वह एक वास्तविक मोड़ ले आता है जहां अवाम के सामने सचमुच का राजनीतिक विकल्प लाने के बजाय राजनीति के अंत की दशा या विकल्पहीनता होती है, इसकी प्रवृत्ति विकल्पों को एक जैसा बना देने की होती है जिससे अवाम के माली हालात में कोई सुधार नहीं होता। और यही वजह है कि अवाम की हताशा उन्हें अतार्किकता व फ़ासीवाद की ओर धकेलती है। मगर सवाल उठता है कि नवउदारवाद, 'अंत' का यह रुझान, क्यों उत्पन्न करता है? आइए, इस सवाल पर ग़ौर करें।

इसका जो सबसे अहम कारण है, उसे ज़्यादातर लोग जानते हैं, इसलिए इस पर यहां ज़्यादा बात करना ज़रूरी नहीं। 'ग्लोबलाइजे़शन' के साथ जुड़ा यह तथ्य है कि यह मालों व सेवाओं की पूरी दुनिया में आवाजाही की आज़ादी देता है, इन सबसे ऊपर, पूंजी की आवाजाही की आज़ादी है जिसमें वित्तीय पूंजी भी शामिल है। इस युग में जहां पूंजी तो पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लेती है, देश उसी जगह राज्य-राष्ट्र बने रहते हैं। हर देश की आर्थिक नीतियां 'निवेशकों का भरोसा' बनाये रखने के विचार से नियंत्रित होती है, यानी भूमंडलीकृत पूंजी को फ़ायदा पहुंचना चाहिए, वरना वह पूंजी एकमुश्त उस देश को छोड़ कर कहीं और चली जायेगी, इस तरह वह देश बुरी तरह आर्थिक संकट की खंदक में जा गिरेगा। इस तरह के आर्थिक संकट में फंसने से बचने की ख़्वाहिश देश की तमाम राजनीतिक संरचनाओं को मजबूर करती है कि वे उसी एजेंडे को लागू करें जो भूमंडलीकृत पूंजी को मंजूर हो। यह तब तक चलता है जब तक कोई देश खुद ग्लोबलाइज़ेशन के दायरे में रहना जारी रखना चाहता है यानी वह पूंजी पर और व्यापार पर नियंत्रण लगाने की सोच कर भूमंडलीकरण की सीमा से बाहर जाने की कोशिश नहीं करता। इससे अवाम के सामने किसी सही विकल्प का चुनाव रह ही नहीं जाता। वे जिसे भी चुनें, जिस किसी की सरकार बने, वह घूम फिर कर उन्हीं 'नवउदारवादी' नीतियों पर चलती है।

हम यह अपने देश में भी देख रहे हैं। यूपीए सरकार और एनडीए सरकार और यहां तक कि 'थर्ड फ्रंट' की अल्पायु सरकार भी आर्थिक नीतियों के मामले में एक जैसी सरकारें ही रहीं। आज भी, जब चुनावी विकल्प के रूप में राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी का शोरशराबा हो रहा है, आर्थिक नीतियों के स्तर पर शायद ही कोई बुनियादी फ़र्क़ हो। सचाई तो यह है कि मोदी खुद इस बात पर ज़ोर देता है कि उसमें 'शासन करने' की यू.पी.ए. के मुक़ाबले बेहतर क्षमता है, आर्थिक नीतियों के मामले में कोई बुनियादी अंतर नहीं जिनसे अवाम की बदहाली दूर हो सके। इससे यही साबित होता है कि भूमंडलीकरण के इस दौर में अवाम के सामने आर्थिक नीतियों के स्तर पर वास्तविक विकल्प मौजूद नहीं है। इस बुनियादी तथ्य के अलावा इस युग में देश के वर्गीय ढांचे में कुछ ऐसे बदलाव आये हैं जिनकी वजह से भी विकल्प की ओर बढ़ पाने में दुश्वारी आ रही है। इन तब्दीलियों में एक बुनियादी तब्दीली यह है कि मज़दूरों और किसानों की शक्ति में कमी आयी है। चूंकि राज्यसत्ता की रीतिनीति तो वित्तीय पूंजी को खुश करने की है, इससे उसकी भूमिका बड़ी पूंजी के हमले से छोटे कारोबार और उत्पादन की रक्षा करना या मदद करना नहीं रह जाती। इस असुरक्षा के माहौल में छोटे उत्पादक, मसलन किसान, दस्तकार, मछुआरे, शिल्पी आदि और छोटे व्यापारी भी शोषण की मार झेलने के लिए छोड़ दिये जाते हैं। यह शोषण दोहरे तरीक़े से होता है, एक तो प्रत्यक्ष तौर पर बड़ी पूंजी उनकी संपदा जैसे उनकी ज़मीन वग़ैरह को कौडि़यों के मोल ख़रीद कर, दूसरे, उनकी आमदनी में गिरावट पैदा करके। इससे लघु उत्पादन के माध्यम से उनकी जि़ंदा बने रहने की क्षमता कम रह जाती है। अपनी आजीविका के साधनों से वंचित ये लोग काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन करते हैं, इससे बेरोज़गारों की पांत और बढ़ती जाती है।

इसके साथ ही नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था में नये रोज़गार भी सीमित ही रहते हैं, भले ही आर्थिक विकास में तेज़ी दिखायी दे रही हो। उदाहरण के तौर पर, भारत में आर्थिक विकास की चरमावस्था में भी रोज़गार की विकास दर, 2004-5 और 2009-10 में नेशनल सेम्पल सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक 0.8 प्रतिशत ही रही। जनसंख्या की वृद्धि दर 1.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही और इसे ही काम के लायक जनसंख्या की वास्तविक वृद्धि दर माना जा सकता है। इसमें उन लघु उत्पादकों को भी जोड़ लें जो अपनी आजीविका से वंचित हो जाते हैं और रोज़गार की तलाश में शहर आ जाते हैं तो बेरोज़गारी की विकास दर 1.5 प्रतिशत से ज़्यादा ही ठहरेगी। उसमें केवल 0.8 प्रतिशत को रोज़गार मिलता है। तो इसका मतलब यह है कि बेरोज़गारों की रिज़र्व फ़ौज की तादाद में भारी मात्रा में इज़ाफ़ा हो रहा है। इसका असर मज़दूर वर्ग की सौदेबाज़ी की ताक़त पर पड़ता है। वह ताक़त कम हो जाती है। इस तथ्य में एक सचाई और जुड़ जाती है, यानी बेरोज़गारों की सक्रिय फ़ौज और रिज़र्व फ़ौज के बीच की अंतर-रेखा का मिट जाना। हम अक्सर सक्रिय फ़ौज को पूरी तरह रोज़गारशुदा मान कर चलते हैं, रिज़र्व फ़ौज को पूरी तरह बेरोज़गार। मगर कल्पना करिए, 100 की कुल तादाद में से 90 को रोज़गारशुदा और 10 को बेरोज़गार मानने के बजाय, यह मानिए कि ये अपने समय के 9/10 वक़्त तक ही रोज़गार में हैं, इससे वह धुंधली अंतर-रेखा स्पष्ट हो जायेगी जिसे हम रोज़गार में 'राशन-प्रणाली'' या सीमित रोज़गार अवसर की प्रणाली के रूप में देख पायेंगे। दिहाड़ी मज़दूर की तादाद में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, स्थायी और अस्थायी नौकरियों में लगे लोग, या खुद कभी कभी नये काम करने वाले लोग जो किसानों के पारंपरिक कामों से हट कर हैं, यही दर्शाते हैं कि रोज़गारों में सीमित अवसर ही उपलब्ध हैं। बेरोज़गारों की तादाद में बढ़ोतरी जहां मज़दूरों की स्थिति को कमज़ोर बनाती है। वहीं रोज़गारों के सीमित अवसर इन हालात को और अधिक जटिल बना रहे हैं।

'रोज़गारों के सीमित होने के नियम' में तब्दीली के अलावा रोज़गार पाने के नियम भी बदले हैं जिनके तहत स्थायी नौकरियों के बजाय ठेके पर काम कराने की प्रथा चल पड़ी है। हर जगह 'आउटसोर्सिंग' के माध्यम से बड़े ठेकदारों से काम लिया जाता है जो भाड़े पर वही काम कराते हैं जो पहले उस विभाग में स्थायी कर्मचारी करते थे ;रेल विभाग इसका उल्लेखनीय उदाहरण है। इससे भी मज़दूरों की सौदेबाज़ी की, यानी हड़ताल करने की क्षमता में कमी आयी है। दो अन्य तथ्य इसी दिशा का संकेत देते हैं। एक उद्योगों का निजीकरण जो कि भूमंडलीकरण के दौर में तीव्र गति हासिल कर रहा है। यूनियन सदस्यों के रूप में मज़दूरों का प्रतिशत पूरी पूंजीवादी दुनिया में प्राइवेट सेक्टर के मुक़ाबले पब्लिक सेक्टर में ज़्यादा है। अमेरिका में जहां प्राइवेट सेक्टर में केवल 8 प्रतिशत मज़दूर यूनियन सदस्य हैं, वहीं सरकारी क्षेत्र में, जिसमें अध्यापक भी शामिल हैं, कुल संख्या का एक तिहाई यूनियन सदस्य है। सरकारी क्षेत्र का निजीकरण इस तरह यूनियन सदस्यता में कमी लाता है और इस तरह मज़दूरों की हड़ताल करने की क्षमता कम होती जाती है। फ्रांस में पिछले दिनों कई बड़ी हड़तालें हुईं हैं तो इसकी एक वजह यह भी है कि सारे विकसित पूंजीवादी देशों के पब्लिक सेक्टरों के यूनियनबद्ध मज़दूरों की संख्या के मुक़ाबले फ्रांस में उनकी तादाद अभी भी सबसे ज़्यादा है।

एक और कारक भी है, जिसे 'रोज़गार बाज़ार में लचीलापन' कहते हैं, जिसके द्वारा मज़दूरों के एक सीमित हिस्से को ;फै़क्टरी में एक ख़ास संख्या के मज़दूरों से ज़्यादा रोजगारशुदा होने पर श्रम कानूनों के तहत जो सुरक्षा मिली हुई है; जैसे मज़दूरों को निकालने के लिए तयशुदा समय का नोटिस देना, उसे भी ख़त्म करने की कोशिश चल रही है। यह अभी भारत में नहीं हो पाया है,, हालांकि इसे लागू करवाने का दबाव बहुत ज़्यादा है। 'रोज़गार बाज़ार में लचीलापन' का यह दबाव कम अहम लग सकता है क्योंकि इसका असर सीमित मज़दूरों की तादाद पर ही दिखायी दे सकता है, मगर इसका मक़सद उन मज़दूरों से हड़ताल करने की क्षमता छीन लेना है जो अहम सेक्टरों की बड़ी बड़ी इकाइयों में काम कर रहे हैं और जिनकी हड़ताल क्षमता सबसे ज़्यादा है। ये तमाम तब्दीलियां यानी मज़दूरों की संरचना में, सौदेबाज़ी की उनकी क्षमता में, क़ानून के तहत मिले उनके अधिकारों में आयी तब्दीलियां मज़दूर वर्ग की राजनीति की ताक़त को कमज़ोर बनाने में अपनी भूमिका निभा रही हैं। ट्रेड यूनियनों के कमज़ोर पड़ने का असर स्वतः ही मजदूर वर्ग के राजनीतिक दबाव के कमज़ोर होने में घटित होता है, एक वैकल्पिक सामाजिक-आर्थिक समाधान आगे बढ़ाने की उसकी क्षमता भी कमज़ोर होती है, और उसके इर्द-गिर्द अवाम को लामबंद करने में दुश्वारियां आती हैं।  इस तरह कारपोरेट-वित्तीय पूंजी भूमंडलीकृत पूंजी से गठजोड़ करके जितनी ताक़तवर होती जाती है, उतनी ही मज़दूर वर्ग, किसान जनता और लघु-उत्पादकों की राजनीतिक ताक़त में कमज़ोरी आती है, वे ग़रीबी और ज़हालत की ओर धकेल दिये जाते हैं। भूमंडलीकरण का युग इस तरीके़ से वर्ग-शक्तियों के संतुलन में एक निर्णायक मोड़ ले आया है। 

इस परिवर्तन के दो अहम नतीजे ग़ौर करने लायक़ हैं। पहला, वर्गीय राजनीति में गिरावट के साथ 'पहचान की राजनीति' वजूद में आती है। दरअसल, 'पहचान की राजनीति' एक भ्रामक अवधारणा है क्योंकि इसमें अनेक असमान, यहां तक एक दूसरे के एकदम विपरीत तरह के आंदोलन समाहित हैं। यहां तीन तरह के अलग अलग संघटकों की पहचान की जा सकती है। एक, 'पहचान से जुडे़ प्रतिरोध आंदोलन' जैसे दलित आंदोलन या महिला आंदोलन, जिनकी अपनी अपनी विशेषताएं भी हैं; दूसरे, 'सौदेबाज़ी वाले पहचान आंदोलन' जैसे जाटों की आरक्षण की मांग जिसकी आड़ में वे अपनी स्थिति मज़बूत बना सकें; तीसरे, 'पहचान की फ़ासीवादी राजनीति'; जिसकी स्पष्ट मिसाल सांप्रदायिक फासीवाद है, जो हालांकि एक ख़ास 'पहचान समूह' से जुड़ी हुई है और दूसरे 'पहचान समूहों' के खि़लाफ़ ज़हरीला प्रचार करके उन पर हमला बोलती है। इस राजनीति को कॉरपोरेट वित्तीय पूंजी पालती पोसती है और इसका वास्तविक मक़सद उसी कॉरपोरेट जगत को मज़बूती प्रदान करना होता है, न कि उस पहचान समूह के हितों के लिए कुछ करना जिनके नाम पर वह राजनीति संगठित होती है।

जहां ये तीनों तरह की 'पहचान राजनीतियां' एक दूसरे से काफ़ी जुदा हैं, वर्गीय राजनीति में आयी कमज़ोरी का अहम असर उन सब पर है। इस तरह की राजनीति ऐसे किसी ख़ास पहचान समूह को 'पहचान के नाम पर सौदेबा़जी की राजनीति' के माध्यम से एक उछाल प्रदान करती है जो अपने वर्गीय संगठनों के तहत कोई असरदार काम नहीं कर सकते। इस राजनीति से 'पहचान की फ़ासीवादी राजनीति' को भी बल मिलता है क्योंकि कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजात का वर्चस्व इस तरह की राजनीति को बढ़ावा देता है। जहां तक 'प्रतिरोध के पहचान आंदोलनों' का सवाल है, वर्गीय राजनीति के चौतरफ़ा कमजोर पड़ने से उनमें भी प्रगतिशीलता का तत्व कमज़ोर हुआ है और इससे वे भी अधिक से अधिक 'सौदेबाज़ी की पहचान राजनीति' की ओर धकेल दिये गये हैं। कुल मिलाकर, वर्गीय राजनीति में गिरावट से 'पहचान की राजनीति' के ऐसे रूपों को मज़बूती हासिल हुई है जो व्यवस्था के लिए कोई ख़तरा पैदा नहीं करते बल्कि उल्टे, अवाम के एक हिस्से को दूसरे के खि़लाफ़ खड़ा करके इस व्यवस्था के लिए किसी आसन्न ख़तरे की संभावना को कमज़ोर ही करते हैं। इससे उस नयी संरचना के विचार को आघात पहुंच रहा है जिसमें, देश के भीतर जाति आधारित सामंती व्यवस्था के तहत 'पुरानी व्यवस्था' को ढहा कर, उसकी जगह 'नयी सामुदायिक व्यवस्था' की स्थापना पर बल था, जो कि हमारे जनतंत्र की मांग है।

इस आघात का एक और पहलू है, जो इस समाज के लंपटीकरण से जुड़ा है। पूंजीवादी समाज की यह ख़ासियत है कि इसकी सामाजिक स्वीकार्यता इस व्यवस्था के तर्क से उद्भूत नहीं होती, बल्कि तर्क के बावजूद होती है। ऐसी दुनिया जिसमें मज़दूर अपनी तरह तरह की गुज़र बसर की जगहें छोड कर एक जगह ठूंस दिये जाते हैं, जहां वे अकेले अकेले पड़ जाते हैं, एक दूसरे के साथ बुरी तरह प्रतिस्पर्धा कर रहे होते हैं, जैसी कि पूंजीवाद के तर्क की मांग है, वह दुनिया सामाजिक रूप से असुरक्षा से घिरी दुनिया ही होगी ;जिसे शायद ही 'समाज' की संज्ञा दी जा सके। पूंजीवाद के तहत सामाजिक वजूद इसलिए संभव होता है क्योंकि इसके नियमों के विपरीत मज़दूर शुरू में एक दूसरे से अनजान होते हैं, बाद में वे अपने 'समूह' बना लेते हैं जो कि ट्रेड यूनियनों के माध्यम से वर्गीय संगठनों में विकसित हो जाते हैं। यही वह 'नया सामुदायिक समाज' हो सकता है जिसका अभी हमने जि़क्र किया है।

अतीत में पूंजीवाद के तहत इस तरह के समाज का विकास संभव हुआ था क्योंकि बड़े पैमाने पर आबादी के बड़े शहरों में आ जाने से और नयी अनुकूल श्वेत बस्तियों में बस जाने से स्थानीय कामगारों की फ़ौज के रूप में उनकी तादाद सीमित रही और ट्रेड यूनियनें शक्तिशाली हो गयीं। आज तीसरी दुनिया के मज़दूरों के लिए इस तरह की संभावनाएं मौजूद नहीं हैं, और नव-उदारवाद ने, जैसा कि हम देख रहे हैं, बेरोज़गारों की तादाद बढ़ा दी है, जबकि ट्रेड यूनियनों और मज़दूरवर्ग की सामूहिक संस्थाओं को कमज़ोर कर दिया है। अलग थलग पड़ जाने से लंपट सर्वहारावर्ग की वृद्धि हो रही है। आपसी सामाजिक रिश्तों में लगातार गिरावट या उनकी नामौजूदगी उन मेहनतकशों को, जो भिन्न प्रकार के रहन सहन के हालात से निकल कर आते हैं, लंपटीकरण की ओर धकेल देती है। यह एक सच्चाई है कि इस तरह का लंपटीकरण सारे पूंजीवादी समाजों में मौजूद है, मगर उन पर विकसित समाजों के मज़दूर वर्ग के सामूहिक संस्थानों का नियंत्रण रहता है, जो कि इधर नव-उदारवादी निज़ाम में ढीला भी हो रहा है, मगर तीसरी दुनिया के समाजों में तो उन संस्थानों का नियंत्रण बेअसर हो रहा है जो कि नव-उदारवाद की भयंकर चपेट में आ गये हैं। भारत में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों में इधर जो बढ़ोतरी हो रही है, इस घटना विकास के बारे में मेरे नज़रिये से मेल खाती है।

नवउदारवाद के युग में मजदूर वर्ग को संगठित करने में आने वाली कठिनाइयों का अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि मारुति फ़ैक्टरी में, जो कि दिल्ली राजधानी क्षेत्र के इलाके़ में ही क़ायम है, अगर कोई मज़दूर किसी ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता से बात करता हुआ या किसी पर्चे के साथ पकड़ा गया तो वह नौकरी से मुअत्तिल हो सकता है। नव-उदारवादी व्यवस्था का एक और बिंदु है जिसकी ओर मैं ध्यान दिलाना चाहूंगा। इसका संबंध 'भ्रष्टाचार' से है। इस तरह की अर्थव्यवस्था की ख़ासियत यह है कि इसमें बड़ी पूंजी में लघु उत्पादकों के शोषण का रुझान होता है। मगर लघु संपति उसका एकमात्र निशाना नहीं होती। उसकी प्रवृत्ति तो मुफ़्त में या कम क़ीमत पर आम संपत्ति हड़प लेने की होती है जिसमें सिर्फ़ लघु उत्पादकों की संपत्ति ही नहीं, आम संपत्ति, आदिवासियों की संपत्ति और राज्य की संपत्ति शामिल है। नव-उदारवाद का युग उस प्रक्रिया को घटित होते हुए देख रहा है जिसमें पूरी निर्ममता से 'पूंजीसंचय की आदिम प्रक्रिया' चल रही है जिसके लिए राज्य तंत्र की ओर से सहमति या साझेदारी ज़रूरी होती है। ऐसी सहमति प्राप्त कर ली जाती है जिसके लिए भूमंडलीकरण के ज़माने में हर राष्ट्र-राज्य पर नीतिगत मामलों का दबाव बना हुआ है, उस सहमति के लिए जो भी क़ीमत अदा करनी होती है, वह दे दी जाती है और उसी को हम 'भ्रष्टाचार' कहते हैं।

हम जिसे 'भ्रष्टाचार' कहते हैं, वह असल में एक तरह का टैक्स है जिसे राज्य तंत्र वसूल करता है जिसमें 'राजनीतिक वर्ग' भी सबसे बड़े हिस्से के रूप में शामिल होता है। यह टैक्स बड़ी पूंजी के द्वारा 'पूंजीसंचय की आदिम प्रक्रिया' से अर्जित लाभ पर वसूला जाता है। यह ग़ौरतलब है कि 'भ्रष्टाचार' के बड़े -बड़े मामले जो भारत में इधर प्रकाश में आये हैं, जैसे टू-जी स्पेक्ट्रम या कोयला ब्लाकों की औने पौने दामों पर आवंटन की प्रक्रिया आदि, उन्हें बेचने का फ़ैसला लेने वालों को बदले में जो धन मिला उसे हम 'भ्रष्टाचार' कहते हैं। इस तरह 'पूंजी संचय की आदिम प्रक्रिया' पर यह एक तरह का टैक्स है और इस प्रक्रिया में इधर जो तेज़ी दिखायी देती है, उसके मूल में नवउदारवादी दौर में पूंजी संचय की आदिम प्रक्रिया का बड़े पैमाने पर मौजूद होना ही है। 'भ्रष्टाचार' के रूप में इस तरह के टैक्स के स्वरूप को दो कारकों के संदर्भ से ख़ासतौर पर देखा जा सकता है। पहला कारक है, राजनीति का माल में तब्दील हो जाना। यह सच है कि भिन्न भिन्न राजनीतिक संरचनाएं जो नव-उदारवादी निज़ाम के तहत काम कर रही हैं, अलग अलग आर्थिक एजेंडा नहीं रख सकतीं, तो उनमें अवाम की सहमति किसी नये तरीके़ से लेने की होड़ रहती है। इसके लिए ख़ास कि़स्म से अपनी 'मार्केटिंग' के लिए, प्रचार करने वाली भाड़े की फ़र्मों का सहारा लेना पड़ता है और उन्हें मीडिया को 'कैश दे कर ख़बर बनवाने' का उपक्रम करना पड़ता है, हेलीकाप्टर भाड़े पर ले कर ज़्यादा से ज़्यादा जगहों की यात्रा करनी होती है जिससे अपनी सूरत ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को नज़र आ सके, वगै़रह वगै़रह। ये सारे काम बहुत ज़्यादा ख़र्चीले हैं जिसकी वजह से राजनीति को संसाधन जुटाने का काम करना पड़ता है, राजनीतिक पार्टियां किसी भी तरह संसाधन जुटाती ही हैं।

इसके अलावा, 'राजनीतिक वर्ग' को काम चलाने के लिए संसाधन जुटाने पड़ते हैं, मगर फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में उसकी भूमिका बहुत अहम नहीं रह जाती। विश्व बैंक और आइ एम एफ़ के अधिकारी रह चुके अफ़सर या बहुराष्ट्रीय बैंको और वित्तीय संस्थानों के आला अफ़सर अर्थव्यवस्था चलाने के लिए तेज़ी से नियुक्त किये जा रहे हैं, यानी 'ग्लोबल वित्तीय समुदाय' के लोग ही सरकारों के फ़ैसलाकुन पदों पर बिठाये जाते हैं क्योंकि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को पारंपरिक राजनीतिक वर्ग के हाथों में अर्थ नीति संबंधी फैसले लेने का दायित्व सौंपना सहन नहीं। पारंपरिक राजनीतिक वर्ग को इस पर गुस्सा आना स्वाभाविक है, मगर वह इससे कुछ हासिल कर लेता है तो उसे समझौता करने से कोई गुरेज भी नहीं। और यह 'कुछ' पूंजी के आदिम संचयन के लाभ में से मिलने वाले अंश या टैक्स के रूप में होता है जिसे हम 'भ्रष्टाचार' कहते हैं और उसकी ज़रूरत इसलिए भी पड़ती है क्योंकि राजनीति माल में तब्दील हो चुकी है।

'भ्रष्टाचार' इस तरह नव-उदारवादी ऩिजाम में बहुत सक्रिय भूमिका अदा करता है। यह 'राजनीतिक वर्ग' में अचानक आये 'नैतिक' पतन का परिणाम नहीं है, यह नव-उदारवादी पूंजीवादी व्यवस्था का अपरिहार्य हिस्सा है। 'भ्रष्टाचार' का जो असर नव-उदारवादी पूंजीवाद पैदा करता है, उससे कॉरपोरेट वित्तीय अभिजात को एक दूसरी वजह से फ़ायदा होता है। यह 'राजनीतिक वर्ग' को बदनाम करके छोड़ता है, वह संसद को और जनतंत्र के दूसरे प्रातिनिधिक संस्थानों को कलंकित करा देता है, और साथ ही, अपने नियंत्रण वाले संचारमाध्यमों के फ़ोकस द्वारा चालाकी से यह सुनिश्चित कर लेता है कि 'भ्रष्टाचार' के इन कारनामों से पैदा हुए नैतिक कलंक की कालिख उसके काम में बाधा न बने। 'भ्रष्टाचार' विमर्श इसके रास्ते में आने वाले रोड़ों को साफ़ करते हुए कॉरपोरेट निज़ाम के युग की शुरुआत आसान बना देता है।

बात दरअसल और आगे जाती है। हमने देखा है कि नव-उदारवाद का दौर बेरोज़गारी के सापेक्ष आकार को बढ़ाता है, जिसके चलते वह निरपेक्ष दरिद्रता की शिकार आबादी के सापेक्ष आकार में भी बढ़ोत्तरी करता है। छोटे उत्पादक- चाहे वे अपने पारंपरिक व्यवसाय में लगे रहें या रोज़गार के अवसर की तलाष में शहरी इलाक़ों, जहां ऐसे अवसर आवश्यकता से कम ही हैं, की ओर चले जाएं- उनका निरपेक्ष जीवन-स्तर और बदतर हो जाता है। कामगारों की तादाद में जो नया इज़ाफ़ा होता है, उसे बढ़ती बेरोज़गारी के कारण अपने पुरखों के मुक़ाबले व्यक्तिगत स्तर पर बदतर भौतिक जीवन-स्थितियां झेलनी पड़ती हैं। और वे कामगार भी, जो बाक़ायदा रोज़गार पा लेते हैं, श्रम की रिज़र्व फ़ौज के बढ़ते सापेक्ष आकार द्वारा थोपी गयी आपसी होड़ की वजह से उदारीकरण से पहले के दौर का वास्तविक वेतन-स्तर हासिल नहीं कर पाते। कामगार आबादी के न सिर्फ़ बड़े, बल्कि बढ़ते हुए हिस्से को प्रभावित करती भयावह ग़रीबी आम बात हो जाती है।

यह ऐसा नुक्ता  है जिसे उत्सा पटनायक लंबे समय से सामने लाती रही हैं। नेशनल सेंपल सर्वे के आंकड़ों पर आधारित उनके निष्कर्ष बताते हैं कि 2100 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन ('शहरी ग़रीबी' के लिए आधिकारिक सीमा रेखा) से कम पाने वाली शहरी आबादी 1993-94 में जहां 57 फ़ीसद थी, वहीं 2004-5 में वह बढ़ कर 64.5 फ़ीसद हो गयी और 2009-10 में 73 फ़ीसद हो गयी। 2200 कैलारी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन ('ग्रामीण ग़रीबी' के लिए आधिकारिक सीमा रेखा) से कम पाने वाली ग्रामीण आबादी इन्हीं वर्षों में क्रमशः 58.5, 69.5 और 76 फ़ीसद थी। यह ग़ौरतलब है कि उच्च जीडीपी बढ़ोत्तरी के दौर में, जिसके भीतर 2004-5 से 2009-10 तक के साल आते हैं, ग़रीबी में ज़बर्दस्त बढ़त हुई। संक्षेप में, नव-उदारवाद के तहत ग़रीबी में बढ़ोत्तरी एक ऐसी व्यवस्थागत परिघटना है जिसकी जड़ें इस तरह के अर्थतंत्र की फि़तरत का ही हिस्सा हैं; जी.डी.पी. की ऊंची बढ़ोत्तरी से ग़रीबी दूर हो, यह ज़रूरी नहीं।

लेकिन कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजन और उसके द्वारा नियंत्रित मीडिया जिस विमर्श को बढ़ावा देता है, वह 'भ्रष्टाचार' को जनता की आर्थिक बदहाली का, और इसीलिए बढ़ती ग़रीबी का, कारण बताता है। इस तरह नवउदारवाद के व्यवस्थागत रुझान का दोश मुख्य किरदार निभाने वाले कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजन के सर नहीं मढ़ा जाता, बल्कि 'राजनीतिक वर्ग' और संसद समेत उन तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं के मत्थे मढ़ दिया जाता है जहां यह राजनीतिक वर्ग मौजूद होता है। इस तरह जनता को मुसीबत में झोंकने का व्यवस्था का अंतर्निहित रुझान विडंबनापूर्ण तरीक़े से जनता की निगाह में व्यवस्था को एक सहारा देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, उसी कॉरपोरेट पूंजी के शासन को वैधता देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो इस काम में मुख्य किरदार निभा रहा होता है।

यह बात संकट के ऐसे दौर में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जैसे दौर से इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था गुज़र रही है। ऊंची बढ़त का दौर निकल गया है, जो कि कतई हैरतअंगेज़ नहीं; हिंदुस्तान में ऊंची बढ़त का चरण अंतरराष्ट्रीय और घरेलू 'बुलबुले' के मेल पर क़ायम था। इस 'बुलबुले' को देर-सबेर फूटना ही था। पहला वाला 2008 में फूटा, और दूसरा कुछ साल बाद। इस संकट का मतलब है कि रोज़गार की वृद्धि दर में और कमी आ रही है, जिससे कि कामगार जनता जो बढ़त के समय भी पीसी जा रही थी, उसकी हालत तो और ख़राब हो ही रही है, वह शहरी मध्यवर्ग जो बढ़त का महत्वपूर्ण लाभार्थी था, उसकी भी हालत ख़राब हो रही है। लेकिन कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजन की देखरेख में 'राजनीतिक वर्ग' के खि़लाफ़ खड़ा किया गया विमर्श न सिर्फ़ जनता के गुस्से को आर्थिक व्यवस्था और संसद समेत लोकतांत्रिक संस्थाओं के खि़लाफ़ जाने से रोकता है, बल्कि यह समझ भी बनाता है कि आज ज़रूरत एक अधिक 'ताक़तवर', अधिक निर्मम नव-उदारवाद की है। और यह चीज़ 'भ्रष्टाचार' में लिप्त 'राजनीतिक वर्ग' मुहैया नहीं करा सकता, जबकि कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजन और 'विकास पुरुष' के रूप में पेश किए जा रहे नरेंद्र मोदी जैसे उसके भरोसेमंद राजनीतिक एजेंट करा सकते हैं। इस तरह कॉरपोरेट शासन यानी फ़ासीवाद के लिए राह हमवार की गई है। कहने की ज़रूरत नहीं कि फ़ासीवाद की ओर संक्रमण को किसी एकल कड़ी के रूप में, एक घटना के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए जो किसी विशेष व्यक्ति के सत्ता में आने से घटित होती है। इस मामले में हमें 1930 के दशक की सोच में नहीं फंसना चाहिए। आज के हिंदुस्तान में तो पहले से ही ऐसे अनेक क्षेत्र हैं, मिसाल के लिए उत्तरप्रदेश, जहां 'आतंकवादी' होने के संदेह पर ही किसी मुसलमान युवक को गिरफ़्तार किया जा सकता है और बिना सुनवाई, बिना जमानत के सालों-साल जेल में रखा जा सकता है। उसे क़ानूनी मदद भी नहीं मिल सकती क्योंकि वक़ील आम तौर पर किसी 'आतंकवादी' की पैरवी करने से इंकार कर देते हैं; और वे वक़ील, जो क़ानूनी मदद पहुंचाने की हिम्मत रखते हैं, सांप्रदायिक-फ़ासीवादी ताक़तों के हाथों हिंसा झेलते हैं। अगर आरोपित की खुशकि़स्मत से एकाध दशक के बाद सुनवाई पूरी हो जाए और कि़स्मत ज़्यादा अच्छी हुई तो समुचित क़ानूनी बचाव के बग़ैर भी निर्दोष क़रार दिया जाए, तब भी जनता की निगाह में एक 'आतंकवादी' होने का कलंक उस पर लगा ही रहता है और उसे नौकरी नहीं मिलती; और जिन लोगों ने उसे गिरफ़्तार करके जेल में अपनी जि़ंदगी के बहुमूल्य वर्ष बिताने के लिए मजबूर किया, उन पर कभी कोई कार्रवाई नहीं होती।

इसी तरह, दिल्ली के पास मारुति कारख़ाने के सौ से ज़्यादा मज़दूर महीनों से बिना किसी सुनवाई के, बिना ज़मानत या पैरोल के, जेल में बंद हैं। उन पर एक व्यक्ति की हत्या का संदेह है (जिसकी हत्या करने का कोई कारण सीधे-सीधे नज़र नहीं आता) और इसे लेकर कोई समुचित जांच अभी तक नहीं हुई है। यह स्थिति, जिसे मैं 'मोज़ाइक फ़ासीवाद' की स्थिति कहता हूं, इस मुल्क में पहले से मौजूद है। अगर कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजन द्वारा समर्थित सांप्रदायिक-फ़ासीवादी तत्व अगले चुनाव के बाद सत्ता में आते हैं तो उन्हें लंपट तत्वों के बाहुबल पर फलते-फूलते स्थानीय सत्ता-केंद्रों की मदद पर निर्भर रहना होगा, जैसा कि अभी पश्चिम बंगाल में देखने को मिलता है। ये स्थानीय सत्ता-केंद्र कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजन से सीधे-सीधे जुड़े नहीं हैं और इसीलिए सीधे-सीधे इन्हें फ़ासीवादी नहीं कहा जा सकता; पर वे शिखर पर एक फ़ासीवादी व्यवस्था को बनाये रखने में मददगार हो सकते हैं। दूसरे शब्दों में, देश  'मोज़ाइक फ़ासीवाद' से 'फ़ेडरेटेट फ़ासीवाद' की ओर बढ़ सकता है और ज़रूरी नहीं कि एक एकल एपीसोड के रूप में एकीकृत फ़ासीवाद का तजुर्बा हो।

इनमें से कोई बात इस पर्चे की बुनियादी बात को बदलती नहीं है। वह बात यह कि नवउदारवाद से पैदा हुआ 'राजनीति का अंत' फ़ासीवाद की ओर संक्रमण की ज़मीन तैयार करता है और यह संक्रमण उस तरह के संकट के दौर में तेज़ी पकड़ लेता है जिस तरह के संकट से हम आज गुज़र रहे हैं। स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि इन हालात में प्रगतिशील ताक़तें क्या कर सकती हैं? हेगेलीय दर्शन से उलट और इतिहास का अंत वाले अंग्रेजी राजनीतिक अर्थशास्त्र से उलट, मार्क्स ने सर्वहारा को बदलाव के एजेंट के रूप में देखा था जो सिर्फ़ इतिहास को आगे नहीं ले जाता बल्कि खुद 'इतिहास के फंदे' से मानव जाति के निकलने की सूरत भी बनाता है।

यह बुनियादी विश्लेषण आज भी वैध है, और हमारी गतिविधियों को इससे निर्देशित होना चाहिए, बावजूद इसके कि नवउदारवाद ने वर्गीय राजनीति को कमज़ोर किया है। लेकिन इस कमज़ोरी को देखते हुए ज़रूरत इस बात की है कि न सिर्फ़ मज़दूरों को संगठित करने के लिए नये क्षेत्रों की ओर बढ़ा जाये, मसलन अब तक असंगठित रहे मज़दूरों और घरेलू कामगारों को संगठित करना, बल्कि वर्गीय राजनीति के लिए नये कि़स्म के हस्तक्षेप भी किये जायें।


वर्गीय राजनीति को अधिक सोद्देश्य तरीक़े से 'पहचान की प्रतिरोध राजनीति' में हस्तक्षेप करना चाहिए, और उसे महज़ पहचान की राजनीति से ऊपर उठाना चाहिए। इसे अधिक सोद्देश्य विधि से दलितों, मुसलमानों, आदिवासी आबादी और महिलाओं के प्रतिरोध को संगठित करना चाहिए, और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अगर एक पहचान समूह को किसी दूसरे की क़ीमत पर राहत मुहैया करायी गयी है तो दूसरे को भी बोझ की ऐसी सिरबदली के खि़लाफ़ प्रतिरोध के लिए संगठित किया जाए। वर्गीय राजनीति और 'पहचान की प्रतिरोध राजनीति' का अंतर, दूसरे शब्दों में, इस बात में निहित नहीं है कि इनके हस्तक्षेप के बिंदु अलग-अलग हैं, बल्कि इस तथ्य में निहित है कि वर्गीय राजनीति 'पहचान की प्रतिरोध राजनीति' के मुद्दों पर भी अपने हस्तक्षेप को स्वयं 'पहचान समूह' से परे ले जाती है। अलग तरह से कहें तो जातिसंबंधी या स्त्री के उत्पीड़न के मुद्दों पर हस्तक्षेप करने में विफलता स्वयं वर्गीय राजनीति की विफलता है, वर्गीय राजनीति का लक्षण नहीं।

इसी तरह, वर्गीय राजनीति को एक वैकल्पिक कार्यसूची के सवाल को खुद संबोधित करना चाहिए। इसे व्यवस्था के खि़लाफ़ संघर्ष में, एक 'संक्रमणकालीन मांग' के तौर पर, जनता के 'अधिकार' के रूप में बदहाली को रोकने वाले उपायों के सांस्थानीकरण पर ख़ास तौर से फ़ोकस करना चाहिए। मिसाल के लिए, इसे सार्वभौमिक अधिकारों के एक समूह- जैसे खाद्य अधिकार, रोज़गार का अधिकार, मुफ़्त स्वास्थ्य सेवाओं का अधिकार, एक ख़ास स्तर तक मुफ़्त गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, और एक सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित करने के लिए वृद्धावस्था पेंशन तथा विकलांगता मदद का अधिकार- के सांस्थानीकरण के लिए अभियान चलाना चाहिए और अवसर मिलने पर इन्हें अमल में लाना चाहिए।


यह सब पहली नज़र में महज़ एन.जी.ओ. की कार्यसूची जैसा लग सकता है जिसका वर्गीय राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं। लेकिन वर्गीय राजनीति और पहचान की राजनीति या एन.जी.ओ. राजनीति के बीच बुनियादी अंतर मुद्दों को लेकर उतना नहीं है जितना इन मुद्दों को बरतने के पीछे निहित ज्ञानमीमांसा में है। वर्गीय राजनीति जब मुद्दों को उठाती है तो व्यवस्था के अतिक्रमण के ज़रिये ही उनके समाधान की संभावना को देखती है; और यह तथ्य उसे बाधित करने के बजाय ऐसे मुद्दों को उठाने के लिए प्रेरित करता है। दूसरी ओर एन.जी.ओ. राजनीति सिर्फ़ ऐसे मुद्दों को उठाती है, या मुद्दों को उसी हद तक उठाती है, जहां वे व्यवस्था के भीतर हल होने के लायक़ हों। वस्तुतः इस पर्चे का मुख्य बल इसी रूप में वर्गीय राजनीति संबंधी नज़रिये को बदलने पर है।

यह तर्क, कि मुल्क के पास इन अधिकारों की मांग को पूरा करने के लिए संसाधन नहीं हैं, ठीक नहीं है। इनके लिए कुल घरेलू उत्पाद का लगभग 10 फ़ीसदी ही दरकार होगा; और भारत जैसे मुल्क में, जहां अमीरों से बहुत कम टैक्स वसूला जाता है, वहां इस काम के लिए अतिरिक्त संसाधन जुटाना कोई बहुत बड़ी चुनौती नहीं है। इसके मुमकिन होने में सबसे बड़ी बाधा नवउदारवादी शासन है, और ठीक इसी वजह से वामपंथ को बामक़सद इस मामले को उठाना चाहिए। जहां भी वाम ताक़तें सत्ता में आती हैं, उन्हें संसाधनों को जुटाने के लिए जिस हद तक जाना मुमकिन हो, जाना चाहिए।

सबसे अधिक जिस चीज़ की ज़रूरत है, वह है नवउदारवाद के वैचारिक वर्चस्व को स्वीकार न करना। लोकतंत्र पर नवउदारवाद के हमले को रोकने और लोकतंत्र की हिफ़ाज़त से आगे समाजवाद के संघर्ष तक जाने के लिए नवउदारवादी वर्चस्व को नकारना और नवउदारवादी विचारों के खि़लाफ़ प्रति-वर्चस्व गढ़ने का प्रयास करना एक शर्त है। विचारों के इस संघर्ष में लेखकों की भूमिका केंद्रीय है। 

(हूबहू जैसा कहा ....... )


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प्राइमरी का मास्टर