Monday, July 29, 2013

वीरेनदा के लिए

वीरेनदा के लिए


पलाश विश्वास

क्या वीरेनदा ऐसी भी नौटंकी क्या जो तुमने आज तक नहीं की

गये थे रायगढ़ कविता पढ़ने और तब से

लगातार आराम कर रहे हो

अस्वस्थता के बहाने

कब तक अस्वस्थ रहोगे वीरेन दा

यह देश पूरा अस्वस्थ है

तुम्हारी सक्रियता के बिना

यह देश स्वस्थ नहीं हो सकता,वीरेन दा


राजीव अब बड़ा फिल्मकार हो गया

फिल्म प्रभाग का मुख्य निर्देशक है इन दिनों

फोन किया कि वीरेनदा का जन्मदिन मनाने दिल्ली जाना होगा

बलि, सब लोग जुटेंगे दिल्ली में

भड़ास पर पगले यशवंत ने तो विज्ञापन भी टांग दिया

किमो तो फुटेला को भी लगे बहुत

देखो कैसे उठ खड़ा हुआ

और देखो कैसे टर्रा रहा है जगमोहन फुटेला,वीरेन दा!


आलसी तो तुम शुरु से हो

कंजूस रहे हो हमेशा लिखने में

अब अस्वस्थ हो गये तो क्या

लिखना छोड़ दोगे?

ऐसी भी मस्ती क्या?

मस्ती मस्ती में बीमार ही रहोगे

हद हो गयी वीरेनदा!


एक गिरदा थे

जिसे परवाह बहुत कम थी सेहत की

दूजे तुम हुए लापरवाह महान

सेहत की ऐसी तैसी कर दी

अब राजधानी में डेरा डाले हों,बरेली को भूल गये क्या वीरेन दा?


अभी तो जलप्रलय से रुबरु हुआ है यह देश

अभी तो ग्लेशियरों के पिघलने की खबर हुई है

अभी तो सुनायी पड़ रही घाटियों की चीखें

अभी तो डूब में शामिल तमाम गांव देने लगे आवाज


बंध नदियां रिहाई को छटफटा रही हैं अभी

लावारिश है हिमालय अभी

गिरदा भी नहीं रहा कि

लिखता खूब

दौड़ता पहाड़ों के आर पार

हिला देता दिल्ली लखनऊ देहरादून

अभी तुम्हारी कलम का जादू नहीं चला तो

फिर कब चलेगा वीरेनदा?

कुछ गिरदा के अधूरे काम का ख्याल भी करो वीरेनदा!


तुमने कोलकाता भेज दिया मुझे

कहा कि जब चाहोगे

अगली ट्रेन से लौट आना

सबने मना किया था

पर तुम बोले, भारत में तीनों नोबेल कोलकाता को ही मिले

नोबेल के लिए मुझे कोलकाता भेजकर

फिर तुम भूल गये वीरेनदा!


अभी तो हम ठीक से शुरु हुए ही नहीं

कि तुम्हारी कलम रुकने लगी है वीरेनदा!

ऐसे अन्यायी,बेफिक्र तो तुम कभी नहीं थे वीरेनदा!


चूतिया बनाने में जवाब नहीं है तुम्हारा वीरेनदा!

हमारी औकात जानते हो

याद है कि

नैनी झील किनारे गिरदा संग

खूब हुड़दंग बीच दारु में धुत तुमने कहा था,वीरेनदा!


पलाश,तू कविता लिख नहीं सकता!


तब से रोज कविता लिखने की प्रैक्टिस में लगा हूं वीरेनदा

और तुम हो कि अकादमी पाकर भी खामोश होने लगे हो वीरेनदा!


तुम जितने आलसी भी नहीं हैं मंगलेश डबराल

उनका लालटेन अभी सुलग रहा है

तुम्हारा अलाव जले तो सुलगते रहेंगे हम भी वीरेनदा!


नजरिया के दिन याद है वीरेन दा

कैसे हम लोग लड़ रहे थे इराक युद्ध अमेरिका के खिलाफ

तुम्हीं तो थे कि वह कैम्पेन भी कर डाला

और लिख मारा `अमेरिका से सावधान'

साम्राज्यवादविरोधी अभियान के पीछे भी तो तुम्हीं थे वीरेनदा!


अब जब लड़ाई हो गयी बहुत कठिन

पूरा देश हुआ वधस्थल

खुले बाजार में हम सब नंगे खड़े हैं आदमजाद!

तब यह अकस्मात तुम

खामोशी की तैयारी में क्यों लगे हो वीरेनदा?


आलोक धन्वा ने सही लिखा है!

दुनिया रोज बनती है, सही है

लेकिन इस दुनिया को बनाने की जरुरत भी है वीरेनदा!


दुनिया कोई यूं ही नही बन जाती वीरेनदा!

अपनी दुनियाको आकार देने की बहुत जरुरत है वीरेनदा!

तुम नहीं लिक्खोगे तो

क्या खाक बनती रहेगी दुनिया, वीरेनदा!



इलाहाबाद में खुसरोबाग का वह मकान याद है?

सुनील जी का वह घर

जहां रहते थे तुम भाभी के साथ?

तुर्की भी साथ था तब

मंगलेश दा थे तुम्हारे संग

थोड़ी ही दूरी पर थे नीलाभ भी

अपने पिता के संग!


इलाहाबाद का काफी हाउस याद है?

याद है इलाहाबाद विश्वविद्यालय?

तब पैदल ही इलाहाबाद की सड़कें नाप रहा था मैं

शेखर जोशी के घर डेरा डाले पड़ा था मैं

100,लूकरगंज में

प्रतुल बंटी और संजू कितने छोटे थे

क्या धूम मचाते रहे तुम वीरेनदा!

तब हम ख्वाबों के पीछे

बेतहाशा भाग रहे थे वीरेनदा!

अब देखो,हकीकत की जमीन पर

कैसे मजबूत खड़े हुए हम अब!

और तुम फिर ख्वाबों में कोन लगे वीरेनदा!


अमरउजाला में साथ थे हम

शायद फुटेला भी थे कुछ दिनों के लिए

तुम क्यों चूतिया बनाते हो लोगों को ?

हम तुम्हारी हर मस्ती का राज जानते हैं वीरेनदा!

कोई बीमारी नहीं है

जो तुम्हारी कविता को हरा दें, वीरेनदा!

अभी तो उस दिन तुर्की की खबर लेने बात हुई वीरेनदा!

तुम एकबार फिर दम लगाकर लिक्खो तो वीरेनदा!


तुमने भी तो कहा था कि धोनी की तरह

आखिरी गेंद तक खेलते जाना है!

खेल तो अभी शुरु ही हुआ है, वीरेनदा!


जगमोहन फुटेला से पूछकर देखो!

उससे भी मैंने यही कहा था वीरेन दा!

अब वह बंदा तो बिल्कुल चंगा है

असली सरदार से ज्यादा दमदार

भंगड़ा कर रहा है वह भी वीरेनदा!


यशवंत को देखो

अभी तो जेल से लौटा है

और रंगबाजी तो देखो उसकी!

जेलयात्रा से पहले

थोड़ा बहुत लिहाज करता था

अब किसी को नहीं बख्शता यशवंत!

मीडिया की हर खबर का नाम बन गया भड़ास,वीरेनदा!

अच्छों अच्छों की बोलती बंद है वीरेनदा!


हम भी तो नहीं रुके हैं

तुमने भले जवानी में बनायो हो चूतिया हमें

कि नोबेल की तलाश में चला आया कोलकाता!

अपने स्वजनों को मरते खपते देखा तो

मालूम हो गयी औकात हमारी!


यकीन करो कि हमारी तबीयत भी कोई ठीक

नहीं रहती आजकल

कल दफ्तर में ही उलट गये थे

पर सविता को भनक नहीं लगने दी

संभलते ही तु्म्हारे ही मोरचे पर जमा हूं,वीरेनदा!


तुम्हारी जैसी या मंगलेश जैसी

प्रतिभा हमने नहीं पायी

सिर्फ पिता के अधूरे मिशन के कार्यभार से

तिलांजलि दे दी सारी महत्वाकांक्षाएं

और तुरंत नकद भुगतान में लगा हूं,वीरेनदा!


दो तीन साल रह गये

फिर रिटायर होना है

सर पर छत नहीं है

हम दोनों डायाबेटिक

बेटा अभी सड़कों पर

लेकिन तुमहारी तोपें हमारे मोर्चे पर खामोश नहीं होंगी वीरेनदा!

तुमने चेले बनाये हैं विचित्र सारे के सारे,वीरेनदा!

उनमें कोई खामोशी के लिए बना नहीं है वीरेनदा!

तुम्हें हम खामोशी की इजाजत कैसे दे दें वीरेनदा!



बहुत हुआ नाटक वीरेन दा!

सब जमा होंगे दिल्ली में

सबका दर्शन करलो मस्ती से!

फिर जम जाओ पुराने अखाड़े में एकबार फिर

हम सारे लोग मोर्चाबंद हैं एकदम!

तुम फिर खड़े तो हो जाओ एकबार फिर वीरेनदा!


फिर आजादी की लड़ाई लड़ी जानी है

गिरदा भाग निकला वक्त से पहले,वीरेनदा!


और कविता के मोर्चे पर तुम्हारी यह खामोशी

बहुत बेमजा कर रहा है मिजाज वीरेनदा!


तुम ऐसे नहीं मानोगे

तो याद है कि कैसे अमरउजाला में

मैंने जबरन तुमसे अपनी कहानी छपवा ली थी!


अब बरेली पर धावा बोल तो नहीं सकता

घर गये पांच साल हो गये

पर तुमने कहा था कि

पलाश,तू कविता लिख ही नहीं सकता!


तुम्हारी ऐसी की तैसी वीरेनदा!

अब से एक से बढ़कर एक खराब कविता लिक्खूंगा वीरेनदा!

भद तुम्हारी ही पिटनी है

इसलिए बेहतर है,वीरेनदा!

जितना जल्दी हो एकदम ठीक हो जाओ,वीरेनदा!


और मोर्चा संभालो अपना,वीरेनदा!

हम सभी तुम्हारे मोर्चे पर मुश्तैद हैं वीरेनदा!

और तुम हमसे दगा नहीं कर सकते वीरेनदा!


वीरेन डंगवाल

वीरेन डंगवाल


*

जन्म: 05 अगस्त 1947


जन्म स्थान

कीर्ति नगर, टेहरी गढ़वाल,उत्तराखंड, भारत

कुछ प्रमुख

कृतियाँ

इसी दुनिया में (1990), दुष्चक्र में सृष्टा (2002)

विविध

रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार(1992), श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1994), शमशेर सम्मान(2002), साहित्य अकादमी पुरस्कार(2004) सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से से विभूषित।

जीवनी

वीरेन डंगवाल / परिचय

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Viren Dangwal


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वीरेन डंगवाल

http://hi.wikipedia.org/s/1cdb

मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से

वीरेन डंगवाल

वीरेन डंगवाल


जन्म:

५ अगस्त १९४७

कीर्ति नगर, टेहरी गढ़वाल, उत्तराखंड,भारत

कार्यक्षेत्र:

कवि, लेखक

राष्ट्रीयता:

भारतीय

भाषा:

हिन्दी

काल:

आधुनिक काल

विधा:

गद्य और पद्य

विषय:

पद्य

साहित्यिक

आन्दोलन:

नई कविता,

प्रमुख कृति(याँ):

दुष्चक्र में सृष्टा

साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत


वीरेन डंगवाल (५ अगस्त १९४७)साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी कवि हैं। उनका जन्म कीर्तिनगर, टेहरी गढ़वाल, उत्तराखंड में हुआ। उनकी माँ एक मिलनसार धर्मपरायण गृहणी थीं और पिता स्वर्गीय रघुनन्दन प्रसाद डंगवाल प्रदेश सरकार में कमिश्नरी के प्रथम श्रेणी अधिकारी। उनकी रूचि कविताओं कहानियों दोनों में रही है। उन्होंने मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली, नैनीताल और अन्त में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की।[1]


बाईस साल की उम्र में उन्होनें पहली रचना, एक कविता लिखी और फिर देश की तमाम स्तरीय साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में लगातार छपते रहे। उन्होनें १९७०- ७५ के बीच ही हिन्दी जगत में खासी शोहरत हासिल कर ली थी। विश्व-कविता से उन्होंने पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख्त, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊश रोजेविच और नाज़िम हिकमत के अपनी विशिष्ट शैली में कुछ दुर्लभ अनुवाद भी किए हैं। उनकी ख़ुद की कविताएँ बाँग्ला, मराठी, पंजाबी, अंग्रेज़ी, मलयालम और उड़िया में छपी है। वीरेन डंगवाल का पहला कविता संग्रह ४३ वर्ष की उम्र में आया। 'इसी दुनिया में' नामक इस संकलन को रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (१९९२) तथा श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (१९९३) से नवाज़ा गया। दूसरा संकलन 'दुष्चक्र में सृष्टा' २००२ में आया और इसी वर्ष उन्हें 'शमशेर सम्मान' भी दिया गया। दूसरे ही संकलन के लिए उन्हें २००४ का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी दिया गया। समकालीन कविता के पाठकों को वीरेन डंगवाल की कविताओं का बेसब्री से इन्तज़ार रहता है। वे हिन्दी कविता की नई पीढ़ी के सबसे चहेते और आदर्श कवि हैं। उनमें नागार्जुन और त्रिलोचन का-सा विरल लोकतत्व, निराला का सजग फक्कड़पन और मुक्तिबोध की बेचैनी और बौद्धिकता एक साथ मौजूद है। पेशे से हिन्दी के प्रोफ़ेसर। शौक से बेइंतहा कामयाब पत्रकार। आत्मा से कवि। बुनियादी तौर पर एक अच्छे- सच्चे इंसान। उम्र ६० को छू चुकी। पत्नी रीता भी शिक्षक। दोनों बरेली में रहते हैं। वीरेन १९७१ से बरेली कॉलेज में हिन्दी पढाते हैं। उन्हें २००४ में उनके कविता संग्रह दुष्चक्र में सृष्टा के लिए साहित्य अकादमी द्वारा भी पुरस्कृत किया गया है।[2]

संदर्भ[संपादित करें]

  1. "वीरेन डंगवाल की छह कविताएँ" (एचटीएमएल). रचनाकार. अभिगमन तिथि: २००९.

  2. "वीरेनदा के बारे में" (एचटीएमएल). वीरेन डंगवाल. अभिगमन तिथि: २००९.

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12 comments:

  1. वीरेन जी मेरे प्रिय कवि है। स्वस्थ होने की कामना करता हूं भाई।

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    1. वीरेन दा हमारी जान हैं।कवि तो बाद में हैं। वे हमारे वजूद में शामिल हैं।जैसे गिरदा ।

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  2. कविता अच्‍छी है ।बधाई पलाश जी

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    1. धन्यवाद. लेकिन कविता तभी सार्थक होगी,जब वीरेनदा को यह लिखने के लिए प्रेरित कर सके।इसकी कसौटी यही है।

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  3. http://virendradangwal.blogspot.in/2008/11/blog-post.html

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  4. वीरेनदा के बारे में
    अवैधानिक चेतावनी :
    ये शायद साहित्य की दुनिया की पहली जीवनी है जिसमें जीवनी से पहले चेतावनी को महत्व दिया गया है। चेतावनी इसलिये क्योंकि भूल से भी कोई इसे वीरेन डंगवाल पर शोध या वीरेन डंगवाल समग्र समझने का धोखा ना खा जाये। यह शोध इसलिये नहीं है क्योंकि इसमें निष्कर्ष नहीं है कि वीरेन डंगवाल क्या हैं? उनकी सीमाएं और संभावनाएं कहाँ तक हैं? वगैरा.. यह ब्लॉग वीरेन डंगवाल समग्र इसलिये नहीं है, क्योंकि उन्हें देखने के लिये दो आंखें और समझने के लिये एक दिमाग नाकाफी है। ये ब्लॉग उनके बारे में मोहब्बत और श्रृद्धा के उद्वेगों का नतीजा है। इसमे दिमाग की कसरत की कसर रह जाने की भी मुक्कमल संभावना है। सो इसे संभल कर ही पढ़ा जाये। लेखक की तरफ़ से किसी बात की गारंटी नही है पर यहाँ जितना लिखा है, है सभी सच ही...

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  5. वीरेंद्र डंगवाल मतलब वीरेनदा
    ये आजाद ख्याल इंसान आजादीवाले साल ५ अगस्त १९४७ में कीर्तिनगर, टिहरी में (तब उत्तर प्रदेश में था अब उत्तराँचल प्रान्त में) पैदा हुआ था। उनकी माँ एक मिलनसार धर्मपरायण गृहणी थीं और पिता स्वर्गीय रघुनन्दन प्रसाद डंगवाल प्रदेश सरकार में कमिश्नरी के प्रथम श्रेणी अधिकारी।

    उनकी रूचि कविताओं कहानियो दोनों में रही है। बाईस साल की उम्र में उन्होनें पहली रचना, एक कविता लिखी और फिर देश की तमाम स्तरीय साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में लगातार छपते रहे। उन्होनें १९७०- ७५ के बीच ही हिन्दी जगत में खासी शोहरत हासिल कर ली थी।

    उनकी प्रसिद्ध कृतियों में हैं इसी दुनिया में (कविता संग्रह), नाजिम हिकमत की कवितायें (अनुवाद)।

    अब तक उन्हें रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (1992), श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1994) तथा शमशेर सम्मान (२००२) मिल चुका है। पेशे से हिन्दी के प्रोफ़ेसर। शौक से बेइंतहा कामयाब पत्रकार। आत्मा से कवि। बुनियादी तौर पर एक अच्छे- सच्चे इंसान। उम्र ६० को छू चुकी। पत्नी रीता भी शिक्षक। दोनों बरेली में रहते हैं।

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  6. वीरेन बरेली कॉलेज में हिन्दी पढाते हैं। बरेली के अमर उजाला अख़बार के स्थानीय संपादक हैं। उनके दो बेटे प्रशांत और प्रफुल्ल कारपोरेट अधिकारी हैं और सेटल हो चुके हैं। शिक्षक वीरेनदा के लगभग सभी पुराने चेले आज बडे आदमी बन चुके हैं। दरअसल वीरेन जी को बडे आदमी बनाने संवारने का शौक है। उनकी भगवान् में काफी श्रद्धा है मगर वो भगवान् को मख्खन नहीं लगाते दुष्चक्र में सृष्टा में उनकी इसी नामवाली कविता दरअसल इसी तरह की सोच का नतीजा है।

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  7. मुलाहिजा हो...

    कमाल है तुम्हारी कारीगरी का भगवान, क्या-क्या बना दिया, बना दिया क्या से क्या!
    छिपकली को ही ले लो,कैसे पुरखोंकी बेटी
    छत पर उल्टासरपट भागती छलती तुम्हारे ही बनाए अटूट नियम को।
    फिर वे पहाड़!
    क्या क्या थपोड़ कर नहीं बनाया गया उन्हें?
    और बगैर बिजली के चालू कर दी उनसे जो नदियाँ, वो?
    सूंड हाथी को भी दी और चींटीको भी
    एक ही सी कारआमद अपनी-अपनी जगह
    हाँ, हाथी की सूंड में दो छेद भी हैंअलग से
    शायद शोभा के वास्ते
    वर्ना सांस तो कहीं से भी ली जा सकती थी
    जैसे मछलियाँ ही ले लेती हैं गलफड़ों से।
    अरे, कुत्ते की
    उस पतली गुलाबी जीभ का ही क्या कहना!
    कैसी रसीली और चिकनी टपकदार,
    सृष्टि के हरस्वाद की मर्मज्ञ
    और दुम की तो बात ही अलग
    गोया एक अदृश्य पंखे की मूठ
    तुम्हारे ही मुखड़े पर झलती हुई।
    आदमी बनाया,
    बनाया अंतड़ियों और रसायनों का क्या ही तंत्रजाल
    और उसे दे दिया कैसा अलग सा दिमाग
    ऊपर बताई हर चीज़ को आत्मसात करने वाला
    पल भर में ब्रह्माण्ड के आर-पार
    और सोया तो बस सोया
    सर्दी भर कीचड़ में मेढक सा
    हाँ एक अंतहीन सूची है भगवान तुम्हारे कारनामों की,
    जो बखानी न जाए जैसा कि कहा ही जाता है।
    यह ज़रूर समझ में नहीं आता कि
    फिर क्यों बंद कर दिया अपना इतना कामयाब कारखाना?
    नहीं निकली कोई नदी पिछले चार-पांच सौ सालों से
    जहाँ तक मैं जानता हूँ न बना कोई पहाड़ या समुद्र
    एकाध ज्वालामुखी ज़रूर फूटते दिखाई दे जाते हैं कभी-कभार।
    बाढ़ेँ तो आयीं खैर भरपूर,
    काफी भूकंप,तूफ़ान खून से लबालब हत्याकांड अलबत्ता हुए खूब
    खूब अकाल, युद्ध एक से एक
    तकनीकी चमत्कार
    रह गई सिर्फ एक सी भूख,
    लगभग एक सी फौजी वर्दियां जैसे
    मनुष्यमात्र की एकता प्रमाणित करने के लिए
    एक जैसी हुंकार, हाहाकार!
    प्रार्थनाग्रृह ज़रूर उठाये गए एक से एक आलीशान!
    मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से
    वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुम्बद-मीनार
    ऊँगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून!
    आखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर
    तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार?
    अपना कारखाना बंद कर के किस घोंसले में जा छिपे हो भगवान?
    कौन - सा है वह सातवाँ आसमान?
    हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान !!!

    वीरेन दा की सारी कविताएँ कुदरत के इसी तरह के रहस्यों और विरोधाभासों पर एक अद्भुत और अनोखी नज़र हैं। उनकी रचनाओं में आज की जिंदगी का हाल है तो भी एक अपूर्व अंदाजे बयां के साथ।

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  8. इतने भले नहीं बन जाना

    [B]-वीरेन डंगवाल-[/B]

    इतने भले नहीं बन जाना साथी
    जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
    गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कुव्वत सारी प्रतिभा
    किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
    ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?

    इतने दुर्गम मत बन जाना
    सम्भव ही रह जाय न तुम तक कोई राह बनाना
    अपने ऊंचे सन्नाटे में सर धुनते रह गए
    लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना

    इतने चालू मत हो जाना
    सुन-सुन कर हरक़ते तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
    बग़ल दबी हो बोतल मुँह में जनता का अफसाना
    ऐसे घाघ नहीं हो जाना

    ऐसे कठमुल्ले मत बनना
    बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना
    दुनिया देख चुके हो यारो
    एक नज़र थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो
    पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
    कठमुल्लापन छोड़ो
    उस पर भी तो तनिक विचारो

    काफ़ी बुरा समय है साथी
    गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती
    अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
    जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
    संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
    इनकी असल समझना साथी
    अपनी समझ बदलना साथी

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  9. [B]तस्वीरें अपलोड की जा रही हैं, इसलिए सभी तस्वीरों को देखने के लिए इस पेज को रिफ्रेश करते रहें...[/B]

    [B][IMG]http://bhadas4media.com/images/b4m5bday/2DSC_9200.jpg[/IMG][/B]

    [B]बाएं से मुकेश कुमार, आनंद स्वरूप वर्मा और केदारनाथ सिंह : [/B]वरिष्ठ पत्रकार मुकेश कुमार के हाल में ही आए कविता संग्रह का अवलोकन करते वरिष्ठ व जाने-माने कवि केदारनाथ सिंह.

    [B][IMG]http://bhadas4media.com/images/b4m5bday/2DSC_9202.jpg[/IMG][/B]

    आयोजन से ठीक पहले जलपान और बातचीत में मशगूल लोग.

    [B][IMG]http://bhadas4media.com/images/b4m5bday/2DSC_9204.jpg[/IMG][/B]

    [IMG]http://bhadas4media.com/images/b4m5bday/2DSC_9207.jpg[/IMG]

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  10. umda
    page
    http://www.facebook.com/ushayadavusha

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