Wednesday, October 23, 2013

अस्पृश्यता के दंश सांस्कृतिक आंदोलन और विद्रोह सही है,लेकिन कारपोरेट मनुस्मृति राज में अंततः निर्णायक लड़ाई आपको इस वर्चस्ववादी नरसंहार की संस्कृति और अर्थ व्यवस्था के विरुद्ध महज पचासी फीसद नहीं, बल्कि सत्ता वर्ग से बाहर पूरे निनानब्वे फीसद की मोर्चाबंदी के साथ लड़नी है,इसके सिवाय कोई विकल्प बदलाव का है ही नहीं।

अस्पृश्यता के दंश


सांस्कृतिक आंदोलन और विद्रोह सही है,लेकिन कारपोरेट मनुस्मृति राज में अंततः निर्णायक लड़ाई आपको इस वर्चस्ववादी नरसंहार की संस्कृति और अर्थ व्यवस्था के विरुद्ध महज पचासी फीसद नहीं, बल्कि सत्ता वर्ग से बाहर पूरे निनानब्वे फीसद की मोर्चाबंदी के साथ लड़नी है,इसके सिवाय कोई विकल्प बदलाव का है ही नहीं।


Not got social equality, says Jaydev Bapa of Vijapur village

पलाश विश्वास


दैनिक जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित रपटों में प्रधानमंत्रित्व के दावेदार मोदी के गुजरात में अस्पृश्यता के दंश झेल रहे दलितों की आपबीती प्रकाशित हुई है।जूनागढ़ में साठ हजार दलितों ने भारत के अस्पृश्य जननायक व संविधान निर्माता बाबासाहेब अंबेडकर के चरणचिन्हों का अनुसऱम करते हुए हिंदुत्व को तिलांजलि देकर बौद्ध धर्म अपनाया।हिंदू राष्ट्र के एजंडे के तहत नरेंद्र मोदी संघ परिवार और इंडिया इंक सह ग्लोबल जायनवादी त्रिइब्लिसी शैतानी विध्वंसक विश्वव्यवस्ता के प्ऱदानमंत्रित्व के दावेदार हैं जो गुजरात के नरसंहार मामलों में पहले से कटघरे में हैं।


य़े रपटें अंग्रेजी और हिंदी में भारत के सर्वश्रेष्ठ कारपोरेट मीडिया की ओर से प्रकाशित प्रसारित है।कोई अंबेडकर वादी या मानवाधिकार संगठनों की रपटें नहीं हैं ये.इसलिए इसकी निष्पक्षता पर सवाल खड़े नहीं किये जा सकते।


जिस राम मंदिर आंदोलन के जरिये देश भर की बहुजन मूलनिवासी जनता को हिंदुत्व की पैदल सेना में तब्दील कर दिया गया और आज पूरा देश नमो नमो है,उसी राममंजिर में गुजरात के अस्पृश्यों को प्रवेशाधिकार नहीं है।


हज्जाम अस्पृश्यों की हजामत नहीं बनाते।क्योंकि उन्हें ऊंची जातियों के बहिस्कार का व्यवसायिक डर है।बच्चे साथ खेलते हैं,लेकिन सात खाना नहीं खा सकते। हर दलित जुबान पर जाति व्यवस्था के अभिशाप की अल अलग दास्तां है।


नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व में आसण्ण कारपोरेट हिंदू राष्ट्र भारत .जहां कारपोरेट अश्वमेध अभियान में अस्पश्य भूगोल में निरंतर जनसंहार संस्कृति को अंजाम दिया जाता है,जहां हर कहीं असुरों महिषासुरों के वध का इंतजाम है,जहां हिमालय का चप्पा चप्पा मंगोलियाई नस्ल के विजातीय जनसमुदायों के कारण भारतीयआर्य साम्राज्य के विद्वेष और भेदभाव का शिकार है.जहां अनार्य पूर्वोत्तर और कश्मीर में सशस्त्र सैन्य बल विशेषाधिकार कानून के तहत 1958 से निरंतर सुरक्षा बलों के सामूहिक बलात्कार और नरसंहार के कानूनी रक्षाकवच मिले हुए है,जहीं हर आदिवासी,अस्पृश्य और शरणार्थी इलाका युद्धबंदी है,जहां शैतानी औध्योगिक महागलियारा डीएमआईसी और कोलकाता अमृतसर कारीडोर के तहत देहाती भारत के चौतरफा सत्यानाश का इंतजाम है,जहां इस राष्ट्र में युद्धकारोबारियों के हित में बोपाल गैस त्रासदी की निरतंरता परमाणु संधियों और परमाणु संयंत्रों से लेकर अंतरिक्ष अभियान और डिजिटल बायोमेट्रिककारोपोरेट आधार योजना तक व्याप्त हैं,वहां मूलनिवासी बहुजनों की ही शामत नहीं आने वाली है,इस कारपोरेट उत्तरआधुनिक मनुस्मृति व्यवस्था में अस्पृश्यता,बहिस्कार और जनसंहार के शिकार होंगे वे तमाम लोग भी जो हैं तो वंचित निनानब्वे फीसद में शामिल,लेकिन खुद को सवर्ण मानते हुए सबसे ज्यादा अस्पृश्यता का अभ्यास करते हैं।


मसलन बंगाल,जहां वर्ण व्यवस्था का इतिहास नहीं है। यहां पांडेय और टैगोर तक दलितों की उपाधि है और हर ब्राह्मण उपाधि  के साथ मुखर्जी,बनर्जी,गांगुली,चटर्जी ,चक्रवर्ती जैसे कुछेक अपवादों को छोड़कर शूद्र और अस्पृश्य जातिया हैं। क्षत्रिय और वैश्य वर्ण बंगाल में ही ही नहीं। भले ही कुछ जातियां वैश्य या क्षत्रिय होने का दावा करें। झैसे ऐसा दावा करके बौद्ध धर्म से धर्मांतरित शूद्र और अस्पृश्यजातियों का जमनेऊ धारण पूर्वक ब्राह्मणीकरण हुआ है।


बंगाल में सबसे बड़ा उत्सव दुर्गोत्सव है,जहां शूद्रों और अस्पृश्यों की छोड़िये,सभी गैर ब्राह्मण जातियों के साथ अस्पृश्यता बरती जाती है।असुरो ौर महिषासुररों का वेध के बिना जहां कोई धर्म कर्म नहीं हो सकता।भारत में दशकों तक जनविश्वास घात के अपराधी वामपंथियों ने ममता बनर्जी के धार्मिक राजकाज औऱ अखंड चंडीपाठ  के बाद अपने कामरेडों को इसी धर्म कर्म की इजाजत दी है,जिसका विचारधारा से कोई संबंध नहीं है। मार्क्स और माओ,लेनिन का उद्धरण देने से पहले बंगाल में ब्राह्मममोर्चे के एकाधिकारवादी शासन के इतिहास पर भी गौर करें कामरेड।


इसी तरह कर्नाटक,वाम राज्य केरल, पेरियार भूमि तमिलनाडु के द्रविड़ राजकाज और क्रांति भूमि आंद्रे के चप्पे चप्पे में सर्वव्यापी अस्पृश्यता बदस्तूर कायम है।


अभी हमारे लोग इस दुश्चक्र को समझ ही नहीं रहे कि मनुस्मृति व्यवस्था का धर्म से कुछ भी लेना देना नहीं है, यह विशुद्ध अर्थव्यवस्था है और इसका मूलाधार नस्ली भेदभाव है। मौजूदा वैश्विक कारपोरेट विश्वव्यवस्था के मध्य धर्म अब कारपोरेट राजकाज है,जिसके ममता बनर्जी,वामपंथी और नरेंद्रमोदी जैसे क्षत्रप हैं।दरअसल मुक्तिकामी जनगण का महासंघर्ष का प्रस्थानबिंदू अश्वेत अनार्य अस्तित्व के स्वीकार के बिना नहीं हो सकता।यह कोई क्षेत्रीय या राष्टीयअस्मिता का मामला भी नहीं है।हमें वैश्विक मुक्ति संघर्ष के तारों से अपने को जोड़े बिना इस आर्थिक महातिलिस्म के गैस चैंबर में आहिस्ते आहिस्ते अपने अपने वधस्थल पर असुरों और महिषासुरों की तरह वध होते जाना है।


अफ्रीकी वंशी मुक्ति योद्धा मैल्कम एक्स के मुताबिक प्रभुसत्तावर्ग ने हमारी पहचान के सारे प्रतीक और चिह्ने खत्म कर दिये हैं।अगर हम अपनी मौजूदा हालत की वजह नहीं जानते तो यकीनन कभी हमारी गुलामी और नरकयंत्रणा के समापन के आसार हैं ही नहीं।


बुनियादी सवाल देहात के साथ कृषि समाज व लोक की गणहत्या का है।


मूलनिवासी बहुजन और अस्पृश्य भूगोल के लोग सत्तावर्स्व के इतिहास के मानसिक गुलाम हैं।उन्हीकी दी हुई पहचान के मोहताज हैं और उनकी अपनी कोई पहचान नहीं है। आंखें बंद करके हम लोग रटते रहते हैं कि हजारों सालों से हम गुलाम हैं। हमारी आस्था उनके धर्म कर्म और मिथकों में हैं। ये सारे मिथक हमारे वध को शास्त्रसम्मत सिद्ध करते हैं।भारत विभाजन से पहले तक,प्राचीन इतिहास को छोड़ दें,भारतीय कृषि ने कभी आत्मसमर्पण नहीं किया।जिस बंगाल में मुस्मिम लीग का जन्म हुआ वहां किसानों के बीच भारत विभाजन के रक्त रंजित दौर में भी गजब की एकता रही है जबकि जनसंख्यास्थानांतरण के दरम्यान भी तेबागा आंदोलन जारी रहा। शासकों और प्रभुवर्ग ने किसान और आदिवासी विद्रोह को जाति और धर्म से जैसे जोड़ा,उसीतरह पूरे इतिहास को प्रभुवर्ग के आर्थिक हितों से जोड़ दिया गया। उसी के मुताबिक मिथक गढ़े गये।


ईस्ट इंडिया के भारत विजय अभियान के दौरान भारत भर में शूद्र राजाओं का राज रहा है। इसीलिए लार्ड क्लाइव ने शोभाबाजार के राजा नवकृष्ण देव के यहां महिषासुर वध के लिए महिषमर्दिनी पूजा और महिषमर्दिनी को ही चंडी बनाने के मिथक बनवाये,जो जमींदारी के अवसान तक विशुद्ध सत्ता कारोबार था और बंगाल में  जमींदारी बचाओ स्वदेशी आंदोलन के मध्य सार्वजनीन हो गया।अब बंगाल में परिवर्तन के बाद मां माटी मानुष की सरकार ने इस नरसंहार आटोजन को धार्मिक राजकाज में तब्दील कर दिया। वामपंथी भी तुरतफुरत चंडीपाठ में शामिल होने की गरज से धर्म क्रम कीआजादी तक आ गये।


तो जनाब इस नस्ली कारपोरेट विश्वव्यवस्था में सारी धर्मांधता के लिए अकेले नरेंद्रमोदी या अकेले संघ परिवार को दोषी ठहराकर कारपोरेट विकल्प अपनाकर हम अपना मुक्तिमार्ग कहां खोज रहे हैं और इसका क्या हश्र होना है,इस पर विचार होना है।


सांस्कृतिक आंदोलन और विद्रोह सही है,लेकिन कारपोरेट मनुस्मृति राज में अंततः

निर्णायक लड़ाई आपको इस वर्चस्ववादी नरसंहार की संस्कृति और अर्थ व्यवस्था के विरुद्ध महज पचासी फीसद नहीं, बल्कि सत्ता वर्ग से बाहर पूरे निनानब्वे फीसद की मोर्चाबंदी के साथ लड़नी है,इसके सिवाय कोई विकल्प बदलाव का है ही नहीं।




  1. Gujarat orders probe into conversion of Dalits - Indian Express

  2. www.indianexpress.com/news/gujarat-orders...conversion-of.../1183167/

  3. Oct 16, 2013 - The Gujarat government has ordered an inquiry into the mass conversionof Dalits to Buddhism at Dungarpur village in Junagadh district on ...

  4. Conversions in Gujarat: Whom does Modi represent? - Kashmir Times

  5. www.kashmirtimes.com/newsdet.aspx?q=24153

  6. 6 days ago - Thus, hype and euphoria to the contrary, the conversions at Junagarhhave resonantly brought to common light what many commentators have ...

  7. Thousands of dalits to embrace Buddhism in Junagadh - Times Of ...

  8. articles.timesofindia.indiatimes.comCollectionsDalits

  9. Oct 12, 2013 - Thousands of dalits to embrace Buddhism in Junagadh ... "Over 30,000 families have completed the process of conversion by filling out forms ...

'Became Buddhist for haircut, shave... mental untouchability persists'

Gopal Kateshiya : Nakhda, Mon Oct 21 2013, 09:17 hrs

At Vishal Hadmatiya village in Bhesan taluka, 21 km from Junagadh, a statue of Dr B R Ambedkar greets visitors. It's been a week since all the 60 families in this Dalit neighbourhood 'converted' to Buddhism at an event in Junagadh. The organisers of the event have claimed that a total of 60,000 Dalits converted to Buddhism.

Dahya Vaghela, 65, a respected elder, says he attended the conversion rally for a 'haircut and shave'. "Local barbers refuse to give me a haircut or shave, saying that he will not get any upper caste customers. So I have to travel all the way to Junagadh. We also have a separate temple," he says. Paintings and photographs of Ambedkar adorn the walls of his house.

While Dalit families in the area get water from the same tank as upper caste Hindus, they are not allowed to enter the local Ram temple.

"My children play with upper caste children. But they have to sit separately while eating their lunch. They ask me why they are not allowed to eat with those children," says Dahya's son, Magan, 35, a farm labourer.

"The main issue is of self-pride. The concept of defilement due to physical contact with a Dalit has waned, but mental untouchability still persists. The contempt that an upper-caste Hindu shows towards a Dalit is humiliating. While the situation will not change overnight, embracing Buddhism is an ideological revolution which will bear fruit in future. Maharashtra is witnessing a change six decades after Ambedkar and others led by him embraced Buddhism," says Ravji Vaghela, Dahya's brother who retired as a head postmaster.

"Our descendants can now simply say they are Buddhists when someone asks them about their caste. They would thus be saved of the humiliation attached with the term Dalit," he adds.

http://www.indianexpress.com/news/became-buddhist-for-haircut-shave...-mental-untouchability-persists/1185035/


अस्पृश्यता का कोई शास्त्रीय आधार नहीं है। परमेश्वर के घर का दरवाजा किसी के लिए बंद नहीं और यदि वह बंद हो जाए तो परमेश्वर नहीं।

लोकमान्य तिलक


अस्पृश्यता एक ऐसा सर्प है जिसके सहस्र मुख हैं और जिसके प्रत्येक मुख में जहरीले दांत दिखाई पड़ते हैं। यह इतनी विस्तृत है कि इसकी परिभाषा नहीं दी जा सकती। यह इतनी जबर्दस्त है कि इसे अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए मनु अथवा प्राचीन स्मृतिकारों की आवश्यकता नहीं पड़ती।

महात्मा गांधी


संयुक्त राष्ट्र संघ की महा सभा ने "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा करते समय उसकी उद्देशिका लिखने के बाद उसके अनुच्छेद ४ में लिखा था---किसी भी व्यक्ति को दास या गुलाम बनाकर नही रखा जाएगा, सभी प्रकार की दासता और दास व्यापार निषिद्ध होगा,१ संयुक्त राष्ट्र महासभा ने ऐसा उदघोषित कर मानव जाति में शताब्दियों से चली आ रही एक बडी बुराई के विरुद्ध जंग छेड़ी है । दरसल दास प्रथा में मनुष्य का मनुष्य द्वारा शोषण एवं उत्पीडन होता है तथा दास व्यापार में मनुष्य द्वारा मनुष्य पर भारी अत्याचार होता है । उपरोक्त महासभा ने इस् रक्षा उपाय मे यह चेतावनी भी दी थी कि यदि मनुष्य के इन अधिकारों की कानूनों के माध्यम से प्राप्ति नही कराई गई तो इसके भयावह परिणाम हो सकते है ।


महासभा ने इन "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा" की उद्देशिका मे लिखा है ---यदि मनुष्य के अत्याचार और उत्पीडन अंतिम अस्त्र के रूप मे विद्रोह का अवलंब लेने के लिए विवस नही किया जाना है तो यह आवश्यक है की मानव अधिकारों का संरक्षण विधि सम्मत शासन द्वारा किया जाना चाहिए २ । इसके साथ ही महासभा ने मानव अधिकार अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा मे अपने संकल्प को अंगीकृत करते हुए तथा उसमे आथिक-सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं का उपबंध जोड़ते हुए उसकी उद्देशिका मे इसका तर्क बताया था कि इस् प्रसंविदा के पक्षकार राज्य यह मानकर कि ये अधिकार मानव देह की अन्तरनिहित गरिमा से व्युत्पन्न है ३ । इन अनुच्छेदों का करार करते है । देखा जा सकता है कि "मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा" के अनुच्छेद ४ के नजदीक भारत के संविधान मूल अधिकार वाले अध्याय के अनुच्छेद २३ (१) में इसी प्रकार का प्रावधान रखा गया है--मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात्श्रम प्रतिषिद्ध किया जाता है और इस् उपबंध का कोई भी उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा ।



अस्पृश्यता : ज्या व्यक्तीच्या वा वस्तूच्या स्पर्शाने विटाळ होतो, तिच्या ठिकाणची विटाळकारक म्हणून कल्पिलेली खोटी अदृश्य शक्ती. हिंदू समाजात या शक्तीची कल्पना आढळून येते. जन्म-व मृत्यु-समयाचे सोयरसुतक, स्त्रीचे मासिक रजोदर्शन, निंद्य कृत्यामुळे झालेला दोष अशा गोष्टी व्यक्तीपुरत्या किंवा कुटुंबापुरत्या मर्यादित असतात. असल्या विटाळास काळाची मर्यादा असते. शुद्धीकरणानंतर विटाळातून व्यक्तीची व कुटुंबाची सुटका होऊन त्याचा दर्जा पूर्ववत होतो. म्हणजेच अस्पृश्यता अशा प्रसंगात नैमित्तिक असते. परंतु काही लोकांच्या बाबतीत ही अस्पृश्यता कायमची असते आणि त्यांच्या शुद्धीकरणास समाजाची मान्यता नसते, शास्त्राचा आधार नसतो; तेव्हा त्यांच्या जातीजमाती बनतात. अशा लोकांना अस्पृश्यता जन्मतःच चिकटते.

भारतीय समाजात शेकडो जाती अस्पृश्य समजल्या जातात. १९६१च्या जनगणनेत भारतातील एकूण लोकसंख्येपैकी ६,४५,११,३१३ म्हणजे लोकसंख्येच्या १४·६७ टक्के लोक अस्पृश्य म्हणून नोंदविले गेले आहेत. महाराष्ट्रात २२·२७ लक्ष अस्पृश्य आहेत. महाराष्ट्राच्या एकूण लोकसंख्येच्या ५·६३ टक्के व भारतातील सर्व लोकांच्या ३·४६ टक्के एवढी ही लोकसंख्या आहे. या अस्पृश्य जातींची संख्या सबंध भारतात जवळजवळ ५०० आहे. महाराष्ट्रात सु. ७८ आहे. त्यांत मुख्यतः महार, मांग, चांभार, ढोर किंवा डोहार या जाती लोकसंख्येच्या मानाने महाराष्ट्रात मोठ्या आहेत. खेड्यात अस्पृश्यांच्या वस्त्या मुख्य गावठाणापासून अलग असतात. महाराष्ट्रात ह्या वस्त्या पूर्वेस अगर उत्तरेस असतात. अस्पृश्य जातीत जन्माला आलेला माणूस जन्मभर अस्पृश्यच राहतो व त्याला कोठल्याही शुद्धीकरणाने स्पृश्य होता येत नाही, अशी हिंदू रूढींची परंपरागत कल्पना आहे.

अस्पृश्य जरी धर्माने हिंदू असले, तरी त्यांना हिंदूंच्या चातुर्वर्ण्यव्यवस्थेत स्थान नाही; म्हणून त्यांना ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आणि शूद्र या चार वर्णांखालचा पंचम वर्ण किंवा प्रतिलोम संकर जाती समजतात. अस्पृश्यांना अंत्यज, अतिशूद्र, दलित, हरिजन इ. नावे आहेत. वर्गीकृत किंवा अनुसूचित जाती म्हणूनही ते ओळखले जातात. काही अस्पृश्यांना विशेषतः महारांना महाराष्ट्रात 'भूमिपुत्र', 'थोरल्या घरचे' असेही संबोधले जाते. तसेच दक्षिणेकडे 'आदिद्रविड' आणि 'आदिकर्नाटक' नावाच्या अस्पृश्य जाती आहेत. अस्पृश्य जातीच्या उपपत्तीविषयी ही नावे उब्दोधक आहेत.

अस्पृश्य जातीच्या उत्पत्तीविषयी अनेक मते आहेत. डॉ. ⇨ आंबेडकरांच्या मते, शेतीच्या शोधानंतर काही भटक्या जमाती एके ठिकाणी वस्त्या करून राहू लागल्या. त्यांच्या जास्त उत्पन्नामुळे त्यांच्यावर इतर भटक्या जमाती स्वाऱ्या करीत. त्यांच्यात वारंवार होणाऱ्या युद्धांमुळे बऱ्याच जमातींची संघटना कोलमडली. अशा संघटना कोलमडलेल्या जमातींच्या लोकांना सुस्थिर झालेल्या लोकांनी जवळ केले. स्वसंरक्षणाच्या दृष्टीने त्यांना गावाच्या वेशीजवळ जागा दिल्या व समाजातील हीन व गलिच्छ धंदे करावयास लावले. यातून त्यांच्या मते आजच्या अस्पृश्य जातींचा जन्म झाला. परंतु भारताबाहेरील समाजांत अशा प्रकारचे समाज का निर्माण झाले नाहीत, याचे शास्त्रशुद्ध उत्तर मिळत नाही. स्टॅन्ली राइस या विद्वानाच्या मते आर्यांच्या पूर्वी भारतात आलेल्या द्रविडांनी येथे त्यांच्यापूर्वी राहणाऱ्या लोकांना गलिच्छ कामे करावयास भाग पाडले व त्यांना अस्पृश्य बनविले. परंतु वांशिक वैशिष्ट्यांच्या मापनावरून अस्पृश्य हे आर्य किंवा द्रविडांपेक्षा वंशदृष्ट्या वेगळे असावेत, असे वाटत नाही. हिंदू व बौद्ध यांच्या भांडणातून अस्पृश्यांचा जन्म झाला, असेही डॉ. आंबेडकर यांनी एके ठिकाणी म्हटले आहे. गोमांस खात असल्यामुळे अस्पृश्य जाती निर्माण झाल्या, असेही म्हटले जाते. परंतु अस्पृश्यतेच्या उत्पत्तीविषयी सर्वमान्य असे सिद्धांत अजून मांडले गेले नाहीत. त्याचप्रमाणे कोणत्या काळात अस्पृश्यता रूढ झाली, हेही निश्चितपणे सांगता येत नाही.

वैदिक वाङ्‌मयात व बौद्ध ग्रंथांतून चांडाळ या अस्पृश्य जातीचा उल्लेख आढळतो. परंतु वैदिक काळात चांडाळ हे अस्पृश्य असल्याचा उल्लेख सापडत नाही. स्मृतिग्रंथात ब्राह्मण स्त्री व शूद्र पुरुष यांच्या संबंधातून चांडाळाची उत्पत्ती झाली, असा उल्लेख आहे. चांडाळांनी गावाबाहेर राहावे, मेलेल्या व्यक्तीचे कपडे वापरावे, फुटक्यातुटक्या भांड्यांतून जेवावे व लोखंडाचे दागिने वापरावे, अशा प्रकारचे अनेक दंडक मनुस्मृतीत सांगितले आहेत.

अस्पृश्य जातींस बऱ्याच सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व राजकीय निर्बंधांना तोंड देऊन जगावे लागले आहे. त्यांची घरे गावापासून आजही दूर असतात. अनेक ठिकाणी, अस्पृश्यांनी दगडी किंवा दुमजली घरे बांधू नयेत, असा उच्च जातींनी पूर्वी दंडक घातला होता. पेशवेकाळात पुणे शहराच्या हद्दीत, सकाळी व सायंकाळी, ज्या वेळी सावल्या लांब पडतात त्या वेळी, महार-मांगांना येण्यास मज्जाव होता, असा उल्लेख सापडतो. कारण उच्चवर्णीयांना या सावलीमुळेही विटाळ होत असे. अस्पृश्यांना रस्त्यात थुंकण्याची मनाई होती. म्हणून ते गळ्यात अडकविलेल्या भांड्यात थुंकत. पादत्राणे वापरणे, सोन्याचांदीचे दागिणे घालणे, छत्री वापरणे, डोक्यास साफा बांधणे, कोट-अंगरखा घालणे, झोपण्यास खाट वापरणे इ. अनेक बाबतींत निर्बंध होते. लग्नात पालखीतून अगर घोड्यावरून वरात काढणे, ढोल वाजविणे इ. बाबींवरून आजही दंगे होतात. अस्पृश्यांना मंदिरप्रवेशास मज्जाव होता. त्यांच्या विहिरी वेगळ्या, नदीवरील पाणवठेही  वेगळे व प्रवाहाच्या खालच्या दिशेला म्हणजे उच्चवर्णीयांच्या पाणवठ्यानंतर असायचे व अजूनही आहेत. त्यांच्या धार्मिक समारंभात व लग्नकार्यात ब्राह्मण पौरोहित्य करीत नाहीत. न्हावी, परीट इ. बलुतेदार त्यांची कामे करीत नाहीत. असल्या प्रकारचे निर्बंध भारतातील वेगवेगळ्या प्रदेशांत वेगवेगळ्या प्रकारचे आढळतात. दक्षिणेत ते जास्त कडकपणे पाळले जातात. उत्तरेकडे त्यांची तीव्रता कमी आहे.

वैशिष्ट्याची बाब म्हणजे अस्पृश्य जातीतही उच्च-नीच स्तररचना व आपापसात अस्पृश्यताही आढळते व त्याप्रमाणे त्यांचे सामाजिक परस्परसंबंध ठरविले जातात. काही अस्पृश्य मेलेल्या गुराढोरांचे मांस खात असत. अगदी अलीकडे ते बऱ्याच प्रमाणात बंद झाले आहे. मैला साफ करणे व तो डोक्यावरून वाहून नेणे, असली घृणास्पद कामेही अस्पृश्यांच्या वाट्याला आली आहेत. या सर्व बाबतींत हीन किंवा गलिच्छ व्यवसाय यांना अस्पृश्यता चिकटलेली दिसून येते.

शतकानुशतके असली हीन वागणूक हिंदू समाजातील लाखो लोकांना मिळाली. बौद्ध, जैन, महानुभाव, शीख इ. पंथांनी जातिभेद व अस्पृश्यता या कल्पनांच्या विरोधी विचार सांगितले; परंतु या विचारांनुसार प्रत्यक्ष सामाजिक जीवनात आचरण घडले नाही. म्हणून ते अस्पृश्यता नाहीशी करू शकले नाहीत. सर्व भारतीय व महाराष्ट्रीय संतांनीही चातुर्वर्ण्याची बैठक मान्य केलेली दिसते. १९ व्या शतकाच्या उत्तरार्धानंतर अस्पृश्यता नष्ट करण्याचे आंदोलन सुरू झाले. ज्योतिबा फुले, स्वामी दयानंद, श्रद्धानंद, विठ्ठल रामजी शिंदे, सावरकर, शशिपाद बंदोपाध्याय यांची नावे अस्पृश्यता-निवारक म्हणून घेतली जातात. तसेच बडोद्याचे महाराज सयाजीराव गायकवाड व कोल्हापूरचे महाराज शाहू छत्रपती यांनीही या कामात पुढाकार घेतला. विठ्ठल रामजी शिंदे यांनी १९०६ साली 'डिप्रेस्ड क्लासेस मिशन' सुरू करून या कामास चालना दिली. दुसऱ्या गोलमेज परिषदेत अस्पृश्यांच्या वतीने डॉ. आंबेडकर यांनी अस्पृश्यांकरिता कायदेमंडळात स्वतंत्र प्रतिनिधित्व मागितले. नंतरच्या 'कम्युनल अवॉर्ड'मध्ये हे स्वतंत्र प्रतिनिधित्व देण्यात आले. यामुळे अस्पृश्य हे हिंदूंपासून कायमचे अलग पडतील, म्हणून महात्मा गांधींनी कम्युनल अवॉर्डविरुद्ध प्राणांतिक उपोषण आरंभिले. त्यावर तडजोड म्हणून काही प्रतिष्ठित नागरिकांच्या मध्यस्थीने महात्मा गांधी व डॉ. आंबेडकर यांच्यात वेगळा करार झाला. तो ⇨पुणे करार  म्हणून प्रसिद्ध आहे. त्यामुळे अस्पृश्यांनी स्वतः निवडलेल्या प्रतिनिधींना संयुक्त मतदारसंघातून उभे करावे, असे ठरले. याचाच परिणाम म्हणून 'हरिजनसेवक संघ' नावाची देशव्यापी संस्था उदयास आली. आजही ही संस्था अस्तित्वात असून अस्पृश्यांची सर्वांगीण उन्नती हे तिचे मुख्य ध्येय राहिले आहे. भारतात सध्या अस्पृश्यता-निवारणाचे काम करीत असलेल्या संस्थांमध्ये 'आर्य-समाज', 'रामकृष्ण मिशन', 'सर्वसेवासंघ', 'भारतीय डिप्रेस्ड क्लासेस लीग' व 'संत गाडगे महाराज मिशन' ह्या आणिखी प्रमुख संस्था आहेत. गांधीजींनी हरिजनांना मंदिरात प्रवेश मिळावा म्हणून उपवास केला. अस्पृश्यांनी डॉ. आंबेडकरादी पुढार्‍यांच्या नेतृत्वाखाली आपल्या पुष्कळशा लांच्छनास्पद गोष्टी टाकून दिल्या. बर्‍याच ठिकाणी आपला सामाजिक दर्जा वाढविण्यासाठी अस्पृश्यांनी गलिच्छ धंदे सोडले, मृत जनावरांचे मांस खाण्यास व गोमांसभक्षणाचा त्याग केला, स्वत:ची व आपल्या जातींची नावे बदलली व शेवटी डॉ. आंबेडकरांनी १४ ऑक्टोबर १९५६ ला आपल्या लक्षावधी अनुयायांसह हिंदू धर्माचा त्याग करून बौद्ध धर्माचा स्वीकार केला.



स्वयं एवं अपने पूर्वजों को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने वाले व स्वयं को ही भारतीय संस्कृति विरासत का एकलौता वारिश घोषित करने वाले हिन्दू धर्म व समाज, जिसमें 'अस्पृष्यता' जैसी अमानुशिक प्रथा विद्यमान थी, जिसकी मान्यता के अनुसार अस्पृश्यों (अछूतों) का न केवल स्पर्श हिन्दूओं को अपवित्र एवं भ्रष्ट बना देता था, अपितु दृष्टिवर्जियों की दृष्टि स समीप्यवर्जियों का एक निश्चित सीमा से पास आना भी अपवित्र एवं भ्रष्ट बना देता था। इन अस्पृश्यों द्वारा वितरित की जाने वाली अपवित्रता से बचने के लिए ही श्रेष्ठ हिन्दुओं ने ब्रह्मा के औरस पुत्रों के निर्देशन में यह प्रावधान बनाया था कि, सार्वजनिक स्थलों पर आते-जाते समय अछूत अपने कमर में झाड़ू व गले में हांडी बाँधे तथा हाथ में फटा हुआ बांस लेकर जमीन पर पीटते हुए चलें, यदि बांस न हो तो हाथ की कलाई में काला धाग बांधे और 'बचो-बचो' की आवाज करते हुए चलें ताकि अन्य हिन्दू उसके संपर्क में आकर अपवित्र या भ्रष्ट न हो सकें।


अस्पृश्यता के उद्भव एवं विकास के उपर अनेकों पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानों व स्वयं परम्परा पुत्र हिन्दुओं ने अपने-अपने मतों का विवेचन किया है। जिसमें परम्परा पुत्र हिन्दुओं की मान्यता के अनुसार 'अस्पृश्यता अति-प्राचीन काल से चली आ रही है क्योंकि उसका उल्लेख धर्म-सूत्रों एवं स्मृतियों में किया गया है। वशिष्ठ धर्म-सूत्र, आपस्तम्ब धर्म-सूत्र, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति और अत्रि स्मृति में 'अन्त्य' का आपस्तम्ब धर्म-सूत्र, विष्णु धर्म-सूत्र, मनुस्मृति और नारद स्मृति में 'बाह्य' का गौतम धर्म-सूत्र, वशिष्ठ धर्म-सूत्र, मनु स्मृति, महाभारत के शांति पर्व और मध्यमांगरिस में 'अन्त्यवासिन' का और व्यास स्मृति, विष्णु धर्म-सूत्र, मनु स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, वृहद्यम स्मृति और अत्री स्मृति में 'अन्त्यजों' का उल्लेख किया गया है, जिसे परम्परा पुत्र हिन्दू अछूत मानते हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश, धर्म-सूत्रों एवं स्मृतियों में उन जातियों का नामोल्लेख नहीं किया गया है, जो 'बाह्य', 'अन्त्यज' एवं 'अन्त्यवासिन' की श्रेणी में आती है। मध्यमांगरिस में सात 'अन्त्यवासिन', अत्रि स्मृति में भी सात 'अन्त्यवासिन' एवं व्यास स्मृति में बारह 'अन्त्यजों' का उल्लेख किया गया है।


डॉ. अम्बेडकर ने धर्म-सूत्रों एवं स्मृतियों में उल्लिखित जातियों के नामों की तुलना 1935 के भारत सरकार अधिनियम के 'आर्डर इन कौन्सिल' में उल्लिखित अछूत जातियों के नामों से किया है। जिसकी कुल संख्या 429 है और जो 1911 के जनगणना आयुक्त द्वारा अपनाए गए अस्पृश्य के मध्य विभेद मूलक निर्धारित दस मानदण्डों को पूरी करती हैं। दोनों के तुलनात्मक अध्ययन में एकमात्र 'चमार' जाति का नामोल्लेख दोनों सूचियों में मिलता है। अन्य किसी का नाम नहीं है। यदि धर्म-सूत्रों एवं स्मृतियों में वर्णित जातियां ही वर्तमान समय की अछूत जातियां होती तो उनका नाम 'आर्डर इन कौंसिल' में भी होता चूंकि उन जातियों का नाम 'आर्डर इन कौंसिल' में नहीं है, इसलिए धर्म-सूत्रों एवं स्मृतियों में वर्णित जातियाँ को अछूत नहीं माना जा सकता।

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'वाईब्रेंट गुजरात' के सौराष्ट्र की जसदान तहसील के कनेसरा गांव में एक नन्हा-सा दलित बालक अपनी दादी से कहता है, 'मुझे एक गिलास पानी तो दो। बहुत प्यास लगी है'। वे उत्तर देती हैं, 'तुम्हारी मां को घर आ जाने दो। वे बहुत दूर से पानी लेने गयी हैं। जब वे वापस आ जावेंगी, तब हम दोनों पानी पियेंगे'। लड़का पूछता है, 'मेरी मां को एक मटका पानी लाने के लिए इतनी दूर तक क्यों जाना पड़ता है? गांव की हौदी में तो ढेर सारा पानी है'। दादी को इस प्रश्न का उत्तर बहुत अच्छी तरह से मालूम है परन्तु वे उस छोटे-से बालक को समझा नहीं सकतीं।


यह संक्षिप्त बातचीत, गुजरात के कुछ हिस्सों में व्याप्त अस्पृश्यता की भयावहता की ओर संकेत करती है -यह वही गुजरात है जहां की नरेन्द्र मोदी सरकार बार-बार कहती है कि "आल इज वेल"।


उस छोटे से बच्चे की मां जया मकवाना, गांव से तीन किलोमीटर से भी ज्यादा दूर से पानी भरकर लाती है। वह कहती है, "हमारे गांव में नर्मदा का पानी पीने के लिए इस्तेमाल किया जाता है परन्तु ऊंची जातियों के लोग हम लोगों को पानी नहीं लेने देते"।


जसदान तहसील के दस गांवों में लगभग ९०० दलित परिवार रहते हैं। इस क्षेत्र में कोली जाति का दबदबा है। दलित गंभीर जलसंकट से जूझ रहे हैं परन्तु इसका कारण सूखा नहीं वरन जातिगत भेदभाव है। गांव में नर्मदा का पानी आसानी से उपलब्ध है परन्तु दलितों को उस पानी के उपयोग की इजाजत नहीं है। प्रभुत्वशाली जाति के किसानों के खुद के ट्यूबवेल हैं और उन्हें उनकी आवश्यकताओं के पूर्ति के लिए नर्मदा के पानी की जरूरत नहीं पड़ती।


खडवारी गांव में हैण्डपंप है परन्तु किसी दलित को उसके इस्तेमाल की इजाजत नहीं है। दलित स्वयं को ठगा हुआ सा महसूस करते हैं क्योंकि उनके प्रयासों से ही गांव में हैण्डपंप की सुविधा उपलब्ध करवाई गई है। अपना नाम न छापने की शर्त पर गांव का एक दलित व्यक्ति कहता है, "इस गर्मी में दलित महिलाओं और बच्चों को पानी के लिए कई मील पैदल जाना पड़ता है। बाहुबली जाति के लोग हमें हैण्डपंप से पानी नहीं भरने देते। वे कहते हैं कि हम पानी तभी ले सकते हैं जब वे अपने लिए पानी भर लें"। जैसी कि अपेक्षा की जा सकती है, जिला प्रशासन दलितों के साथ किसी भी तरह के भेदभाव से इंकार करता है।


'नवसर्जन' व 'राबर्ट के. केनेडी सेन्टर फार जस्टिस एण्ड


ह्यूमनराईट्स' द्वारा तैयार की रपट 'अन्डरस्टेडिंग अनटचेबिलिटी' (समझें अस्पृश्यता को) कहती है कि गुजरात में ९० प्रकार की अस्पृश्यताएं व्यवहार में हैं। दलितों को सार्वजनिक स्त्रोतों से पानी नहीं लेने दिया जाता, वे मंदिरों में प्रवेश नहीं कर सकते और आज भी गुजरात में १२ हजार से अधिक लोग सिर पर मैला ढोने के काम में लगे हुये हैं। वे अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ लड़ भी नहीं सकते क्योंकि पुलिस और प्रशासन उनकी मदद नहीं करता। विरोध करने पर उनका सामाजिक बहिष्कार भी किया जाता है।


अहमदाबाद जिले की धनधूका तहसील के गलसाना गांव में रहने वाले लगभग १०० दलित परिवारों की बदहाली, राज्य में वंचित वर्गों की स्थिति को प्रतिबिंबित करती है। ऊंची जातियों के लोग उन्हें गांव के मंदिरों के प्रांगण तक में नहीं घुसने देते। इस साल फरवरी में, सुरेन्द्र नगर के मुली स्वामीनारायण मंदिर के महन्त स्वामी, स्वामी कृष्णवल्लभ ने गांव के मंदिर में दलितों को प्रवेश दिलवाने की पहल की थी परन्तु उनका प्रयास सफल न हो सका। ऊंची जातियां ने ऐसा नहीं होने दिया। गलसाना गांव के दलित रहवासी सुनील परमार कहते हैं, "जिस दिन प्रवेश करवाया जाना था, उस दिन गांववालों और मंदिर के पुजारियों ने यह तय कर लिया कि मंदिर के पट खोले ही नहीं जायेंगे"।


अगर राज्य के कुछ हिस्सों में ये हालात हैं तो फिर मोदी की दलित पुजारी वाली घोषणा का क्या होगा? यहां यह उल्लेखनीय है कि मोदी सरकार ने यह प्रस्ताव किया है कि दलितों को मंदिरों में विवाह, जन्म आदि से जुड़े कर्मकाण्ड संचालित करवाने का प्रशिक्षण दिया जाये।


सन् २०१२ में न्यायमूर्ति के.जी. बालाकृष्णन की अध्यक्षता में, गुजरात दौरे पर आए 'राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग' के एक दल ने यह पाया कि गुजरात के ७७ गांवों के दलितों को सामाजिक बहिष्कार के चलते मजबूरी में अपने गांव से पलायन करना पड़ा है। जाने-माने गुजराती लेखक कानूभाई आचार्य कहते हैं, "यद्यपि राज्य के शहरी इलाकों में दलितों के साथ भेदभाव में कमी आई है परन्तु गांव में अब भी यह बहुत आम है। सौराष्ट्र, कच्छ और उत्तरी गुजरात के गांव में छुआछूत प्रचलित है। पिछले दो सालों से कुछ दलित परिवार दीसा के मामलतदार (तालुका स्तर के भू-राजस्व अधिकारी) के कार्यालय के बाहर विरोध-स्वरुप धरना दिए हुए हैं क्योंकि उनका सामाजिक बहिष्कार कर, ऊंची जातियों के 'दरबारों' (अनौपचारिक अदालतों) ने उन्हें गांव छोड़ने पर मजबूर कर दिया है। आज तक उनकी आवाज नहीं सुनी गयी है"।


गुजरात के गांव में दलितों के शासनतंत्र का हिस्सा बनने का भी प्राणपन से विरोध किया जाता है। गुजरात सरकार की 'समरस योजना' के अन्तर्गत कमला मकवाना नामक एक दलित महिला लखवाड गांव की सरपंच चुनी गयी। परन्तु उनके पूर्ववर्ती सरपंच, जो कि स्थानीय प्रभुत्वशाली पटेल जाति के थे, ने उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया। उनके और उनके परिवार के खिलाफ अमानत में खयानत का मुकदमा दायर कर दिया गया। उन्हें और उनके परिवार के सभी सदस्यों को जेल जाना पड़ा क्योंकि उनके पास जमानत भरने के लिए भी पैसे नहीं थे। ऐसा आरोपित है कि गांव के पूर्व सरपंच प्रहलाद पटेल और उपसरपंच रातीलाल पटेल नहीं चाहते थे कि कमला गांव की सरपंच बने। हाल में, एक एनजीओ की मदद से कमला को जमानत मिल सकी।


दलितों को न केवल परेशान किया जाता है वरन प्रभावशाली लोगों के इशारे पर उन पर शारीरिक हमले भी होते हैं। हाल में, इसी साल अप्रैल में, जूनागढ़ के मेयर को अम्बेडकर नगर में एक घर में तोड़फोड़ करने, एक दलित पर हमला करने और एक गाड़ी को आग के हवाले करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था।


राजनैतिक-सामाजिक स्तर पर तो दलित भेदभाव के शिकार हैं ही, पुलिस भी उन पर अत्याचार करने में पीछे नहीं है। सुरेन्द्र नगर जिले के थानगढ़ शहर में पुलिस द्वारा किया गया गोलीचालन, दलितों के विरूद्ध पुलिस के अत्याचारों का सबसे ताजा उदाहरण है। इस गोलीचालन में तीन दलित मारे गये थे, जिनमें से दो अवयस्क थे। दलित कार्यकर्ता राजू सोलंकी कहते हैं, "२३ सितम्बर २०१२ को विरोध प्रदर्शन कर रहे दलितों पर गुजरात पुलिस ने 'कारबाईन' से गोलियां चलाईं। उसके पहले न तो उन पर लाठीचार्ज किया गया, न पानी की फुहारें छोड़ी गयीं और ना ही आंसू गैस का इस्तेमाल हुआ। "


इसी तरह की 'कारबाईन' का इस्तेमाल सन् २००८ में मुंबई पर हमला करने वाले कसाब व अन्य आतंकवादियों के खिलाफ किया गया था।'क्या ये दलित आतंकवादी थे? राजू सोलंकी पूछते हैं। दलित कार्यकर्ता जिग्नेश मेवानी कहते हैं, "यद्यपि राज्य के अपराध अनुसंधान विभाग ने साफ-साफ कहा है कि भीड़ हिंसक नहीं थी परन्तु फिर भी पुलिस ने उस पर गोलियां चलाईं। आज तक पुलिस ने थानगढ़ के दलितों पर लादे गये झूठे मुकदमे वापस नहीं लिये हैं। उन पर आपराधिक षडयंत्र रचने और हत्या करने आरोप लगाये गये हैं"।


दलित अधिकारों के लिए संघर्षरत 'नवसर्जन' नामक एनजीओ के कार्यकारी निदेशक मंजूला प्रदीप कहते हैं,'"राजकोट और थानगढ़ की घटनाओं से यह साफ है कि जिन लोगों पर कानून लागू करने की जिम्मेदारी है, वे दलितों के प्रति गहरे पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। ऐसा लगता है कि पुलिस अपनी मनमर्जी से यह तय करती है कि वह किसकी रक्षा और मदद करेगी और किसकी नहीं"।


गुजरात में ऐसी कई घटनाएं हुईं है जिनसे ऐसे लगता है कि पुलिस जानबूझकर अन्याय के खिलाफ दलितों के संघर्ष को कुचलना चाहती है। अरविन्द मकवाना नाम के एक दलित युवक को पंचमहल जिले के वैद गांव में केवल चड्डी पहनाकर पूरे गांव में घुमाया गया। उसका अपराध यह था कि उसने ऊंची जाति के एक सेवानिवृत्त पुलिस इंस्पेक्टर का किसी मुद्दे को लेकर विरोध किया था। बरासकांठा जिले के पथवाड़ा पुलिस थाने में अरविन्द चैहान नामक एक दलित युवक पुलिस हिरासत में मारा गया। दशरथ सोलंकी ने ढोलका पुलिस स्टेशन के सामने आत्महत्या कर ली क्योंकि पुलिस वालों ने व्यापार में उसके साझेदार, जो कि ऊंची जाति का था, के खिलाफ रपट लिखने से इंकार कर दिया था।


इन गंभीर व चिंतनीय हालातों के बीच एक अच्छी खबर यह है कि गुजरात की न्यायपालिका इस तरह की घटनाओं का स्वमेव संज्ञान लेकर दोषियों को सजा दे रही है।


'टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज' के एक रपट, गुजरात सरकार के इस दावे की पोल खोलती है कि राज्य में सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा समाप्त हो गयी है। रपट कहती है, "वाईब्रेंट गुजरात में १२,००० से अधिक लोग सिर पर मैला ढोने के काम में लगे हुए हैं। इनमें से ९० प्रतिशत को कोई सुरक्षा उपकरण उपलब्ध नहीं कराये जाते हैं और वे अपने हाथों से मैला साफ़ करने पर मजबूर हैं"। रपट के अनुसार, २४५६ परिवारों के १२,५०६ व्यक्ति इस घिनौने काम को कर रहे हैं. उनमें से ५० प्रतिशत, खुले में पड़ा मैला उठाते हैं। तथ्य यह है कि यह अध्ययन केवल १०,००० से अधिक आबादी वाले शहरी क्षेत्रों में किया गया था. जाहिर है कि रपट में उन हजारों छोटे-बड़े गाँवों और कस्बों के हालात का जिक्र नहीं है जहाँ जातिगत भेदभाव, अस्पृश्यता और सिर पर मैला ढोने की प्रथा प्रचलित हैं.


वाल्मीकि समाज के परषोत्तम वाघेला, जो कि 'गरिमा अभियान' के संस्थापक-सदस्य हैं, का दावा है कि गुजरात में ३५,००० सफाई कर्मचारी हैं जिनमें से ९० प्रतिशत वाल्मीकि समाज के हैं। सफाई कर्मचारियों की एक बड़ी संख्या को आज भी हाथों से मैला साफ़ करना पड़ता है.


सामाजिक व मानवाधिकार कार्यकर्ता विद्याभूषण रावत बताते हैं कि, "कुछ सालों पहले, 'इंदिरा आवास योजना' पर मेरे अध्ययन के दौरान मुझे पता चला कि वाल्मीकि समाज के लोगों को अन्य समुदायों के आसपास घर नहीं दिए जाते हैं। बल्कि अन्य जातियों के लोगों को वाल्मीकि समाज से 'सुरक्षित' रखने के लिए, मोदी सरकार ने अलग से 'वाल्मीकि आवास योजना' शुरू की, जिसके अंतर्गत इस समाज के लोगों के मकान एकदम अलग-थलग, गांव के सुदूर कोने पर, बनाये जाते हैं।"


[B]अर्नोल्ड क्रिस्टी का लिखा यह लेख फारवर्ड प्रेस के जून 2013 अंक में छपा है. फॉरवर्ड प्रेस भारत की पहली संपूर्ण अंग्रेजी–हिंदी मासिक पत्रिका है जो भारत के दलित और पिछड़े वर्ग पर एक नजरिया प्रदान करती है. फारवर्ड प्रेस से संबंधित किसी भी प्रकार की जानकारी प्राप्त करने के लिए   पर मेल या 011-46538687 पर फोन कर सकते हैं.[/B]




नारायण गुरु का आविर्भाव दक्षिणी राज्य केरल में ऐसे वक्त में हुआ था, जब वहां अस्पृश्यता घृणित रूप में मौजूद थी. कुछ जातियों के लोगों को न केवल अछूत माना जाता था, बल्कि उनकी छाया भी अन्यों को अपवित्र कर देती थी. एक समान आराध्य और धर्म को मानने के बावजूद इन लोगों को मंदिरों (और विद्यालयों) में प्रवेश से वंचित रखा गया था. ऐसे वक्त में नारायण गुरु इस सामाजिक जड़ता को तोड़ने और समाज में रचनात्मक बदलाव लाने में सफल रहे थे. तिरुअनंतपुरम के निकट आरूविपुरम में नेय्यार नदी के तट पर 1888 में शिव मंदिर की स्थापना के जरिये उन्होंने इस मान्यता को ठुकरा दिया कि मंदिर का पुजारी केवल ब्राह्मण ही हो सकता है. अन्य मंदिरों में जिनका प्रवेश वर्जित था, वे भी यहां निर्बाध आ सकते थे. यहां किसी के लिए कोई भेदभाव नहीं था, न जाति का, न धर्म का और न ही आदमी और औरत का. इस मंदिर के निकट ही श्री नारायण गुरु ने अपना आश्रम बनाया था. साथ ही एक संस्था बना कर मंदिर संपदा की देखरेख और श्रद्धालुओं के कल्याण की व्यवस्था की थी. इसे बाद में श्री नारायण धर्म परिपालन योगम् (एसएनडीपी) नाम से जाना गया. बाद के दशकों में इस संस्था ने अनेक मंदिर और शिक्षण संस्थानों की स्थापना की.

श्री नारायण गुरु 1904 में कोझीकोड के तटीय उपनगर वर्कला के सुंदर पर्वतीय क्षेत्र शिवगिरि आ गये. यहां उन्होंने दो मंदिरों और एक मठ की स्थापना की. 1928 में अपनी महासमाधि तक उन्होंने यहीं साधना की थी. शिवगिरि आकर ही गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने श्री नारायण गुरु के दर्शन किये थे और उनके कार्यो की सराहना की थी. शिवगिरि में 1932 से हर साल तीन दिवसीय (30 दिसंबर से एक जनवरी) सालाना आयोजन होता है, जिसमें लाखों श्रद्धालु शामिल होते हैं. कहा जा सकता है कि आज के केरल में दिख रहे सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक विकास की नींव श्री नारायण गुरु और उनके द्वारा स्थापित एसएनडीपी ने रखी थी. श्री नारायण गुरु की शिक्षाओं को इस साल से केरल के स्कूली पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया है.

इसी श्री नारायण गुरु की प्रेरणा से उनके भक्तों ने केरल के पड़ोसी राज्यों में भी ऐसे मंदिरों की स्थापना की थी, जिसके दरवाजे सभी मनुष्यों के लिए खुले थे. इन्हीं में मंगलोर के कुद्रोली में 1912 में स्थापित प्रतिष्ठित श्री गोकर्णनाथेश्वर मंदिर भी है, जिसमें प्राण प्रतिष्ठा खुद श्री नारायण गुरु ने की थी.


अस्पृश्यता की जड़ें

धर्मपाल के लेख "हमारे अज्ञानता की जड़े गहरी हैं" को अधूरा छोड़ते हुए मैं यह लेख दे रहा हूं. चंद्रभूषण ने यह सवाल उठाया है कि "पेशवाई राज्य में अछूतों के लिए गले में हांड़ी, हाथ में झाड़ू लेकर चलने का प्रावधान अंग्रेजों ने तो नहीं बनाया था। जिस महार रेजीमेंट ने 1857 में दुबारा हिंदुस्तान जीतकर अंग्रेजों को सौंपा वह राज-समाज की ठेठ भारतीय अवधारणा से ही उपजी थी- इस हकीकत को न धर्मपाल बदल सकते हैं न संजय तिवारी। धर्मपाल जैसे संडे हिस्टोरियन की भूमिका इतिहास के अध्ययन में केवल अनुपूरक की ही हो सकती है। इसके बजाय उन्हें किसी गुप्त रहस्य के खोजी के रूप में प्रस्तुत करके इतिहास का स्थानापन्न बनाना केवल अतीतजीवी कुलीन वर्ग का हितसाधन करेगा। वह भी केवल मरीचिका के रूप में, क्योंकि असत्य, अर्धसत्य या चुने हुए मनचाहे सत्य से किसी का वास्तविक हितसाधन कभी संभव ही नहीं है…" इस सवाल पर अनूप शुक्ल की पूरक

टिप्पणी " पढ़ रहे हैं आपके लेख धर्मवीरजी का लिखा हुआ। चंद्रभूषणजी की टिप्पणी के बारे में आपके जवाब का इंतजार है!"

इसलिए धर्मपाल के ही लिखे एक लेख से इन सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं.


अस्पृश्यता की जड़े

धर्मपाल

आज हिन्दुस्तान में हमारे अपने बारे में जो तस्वीर बनी है वह बहुत हद तक अंग्रेजों द्वारा बनाई गयी है. ऐसा नहीं है कि वह कोई साजिश वगैरह के तहत किया गया हो. उन्हें राज करना था तो कुछ तो ऐसा करना था कि राज-काज स्थाई हो. लेकिन एक कारण और रहा है. उनका अपना संसार जिस प्रकार चलता था उसी से उनकी दृष्टि बनी थी और वे हमको भी उसी दृष्टि से देखते थे. इसलिए हमारे लिए जरूरी है कि हम पहले यूरोप को समझें. इससे हमें यह समझ में आ सकता है कि आज हमारे समाज के बारे में जो तस्वीर हमारे मन में बनी है वह ऐसी क्यों है? यहां मैं भारत में अस्पृश्यता की भावना की खासतौर से चर्चा करूंगा.

1750 से अंग्रेजों ने भारत पर अपना प्रभुत्व जमाना आरंभ किया था. तभी से अस्पृश्यता की भावना बढ़ी और अधिक से अधिक लोगों को अस्पृस्य माना जाने लगा. तभी से अंग्रेजों ने भारत की स्मृतियों में से अपनी मान्यता और काम के उद्धरण लेने शुरू कर दिये और हमें कहा कि आपके शास्त्र यही कहते हैं. शुरू के दिनों में जब उनके पांव यहां जमने लगे तो उन्होंने बाकी के शास्त्रों का अंग्रेजी में अनुवाद भले ही रोक दिया हो लेकिन मनुस्मृति का अनुवाद जारी रखा. हम अंग्रेजों से 200-250 साल सीधे संपर्क में रहे लेकिन हमारे अधिक पश्चिमीकृत लोगों को भी यूरोप व इंग्लैंण्ड की पुरानी सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक व्यवस्था के बारे में अधिक जानकारी नहीं है. 1900 इस्वी तक तो इग्लैण्ड में ऊंच-नीच की धारणा व्यापक थी. इग्लैण्ड के 90 प्रतिशत लोग "लोअर आर्डर" में माने जाते थे. वैसे ही जैसे पिछले 200 सालों में हमारे यहां अधिकांश लोग पिछड़े और अस्पृश्य माने जाने लगे.

भारतीयों की यह मान्यता रही है कि हमेशा से यानी बहुत प्राचीन काल से वे भारत के वासी रहे हैं. शताब्दियों से इग्लैण्ड व यूरोप में ऐसी कोई मान्यता नहीं है. आज से हजार वर्ष पहले तक तो यूरोप के अधिकांश क्षेत्रों में यूरोप के बाहर से और यूरोप के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र पर आक्रमण होते रहे. वहां पहले से बसे अधिकांशतः लोगों को समाप्त कर दिया जाता था. जो बचे रह जाते थे उनको दास बना लिया जाता था. इग्लैण्ड से बाहर का अंतिम आक्रमण उत्तर यूरोप के नारमन लोगों का हुआ. उन्होंने 1066 ईस्वी के करीब इग्लैण्ड पर विजय प्राप्त की और 25-30 वर्षों में ही यहां की पूरी राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था बदल डाली. इसका परिणाम यह हुआ कि इग्लैण्ड में पहले से बसे लोग दासत्व की स्थिति में पहुंच

http://visfot.com/blog/archives/126


हरिजन आन्दोलन

http://hi.wikipedia.org/s/fbn

मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से

हिंदू समाज में जिन जातियों या वर्गों के साथ अस्पृश्यता का व्यवहार किया जाता था, और आज भी कुछ हद तक वैसा ही विषम व्यवहार कहीं कहीं पर सुनने और देखने में आता है, उनको अस्पृश्य, अंत्यज या दलित नाम से पुकारते थे। यह देखकर कि ये सारे ही नाम अपमानजनक हैं, सन् 1932 के अंत में गुजरात के एक अंत्यज ने ही महात्मा गांधी को एक गुजराती भजन का हवाला देकर लिखा कि अंत्यजों को "हरिजन" जैसा सुंदर नाम क्यों न दिया जाए। उस भजन में हरिजन ऐसे व्यक्ति को कहा गया है, जिसका सहायक संसार में, सिवाय एक हरि के, कोई दूसरा नहीं है। गांधी जी ने यह नाम पसंद कर लिया और यह प्रचलित हो गया।

परिचय[संपादित करें]

वैदिक काल में अस्पृश्यता का कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। परंतु वर्णव्यवस्था के विकृत हो जाने और जाति पाँति की भेद भावना बढ़ जाने के कारण अस्पृश्यता को जन्म मिला। इसके ऐतिहासिक, राजनीतिक आदि और भी कई कारण बतलाए जाते हैं। किंतु साथ ही साथ, इसे एक सामाजिक बुराई भी बतलाया गया। "वज्रसूचिक" उपनिषद् में तथा महाभारत के कुछ स्थलों में जातिभेद पर आधारित ऊँचनीचपन की निंदा की गई है। कई ऋषि मुनियों ने, बुद्ध एवं महावीर ने कितने ही साधु संतों ने तथा राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती प्रभृति समाजसुधारकें ने इस सामाजिक बुराई की ओर हिंदू समाज का ध्यान खीचा। समय समय पर इसे मिटाने के जहाँ तहाँ छिट पुट प्रयत्न भी किए गए, किंतु सबसे जोरदार प्रयत्न तो गाँधी जी ने किया। उन्होंने इसे हिंदूधर्म के माथे पर लगा हुआ कलंक माना और कहा कि "यदि अस्पृश्यता रहेगी, तो हिंदू धर्म का - उनकी दृष्टि में "मानव धर्म" का - नाश निश्चित है।" स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिए गाँधी जी ने जो चतु:सूत्री रचनात्मक कार्यक्रम देश के सामने रखा, उसमें अस्पृश्यता का निवारण भी था। परंतु इस आंदोलन ने देशव्यापी रूप तो 1932 के सितंबर मास में धारण किया, जिसका संक्षिप्त इतिहास यह है-

लंदन में आयोजित ऐतिहासिक गोलमेज़ परिषद् के दूसरे दौर में, कई मित्रों के अनुरोध पर, गांधी जी सम्मिलित हुए थे। परिषद् ने भारत के अल्पसंख्यकों के जटिल प्रश्न को लेकर जब एक कमेटी नियुक्त की, तो उसके समक्ष 12 नवंबर, 1931 को गांधी जी ने अछूतों की ओर से बोलते हुए कहा - "मेरा दावा है कि अछूतों के प्रश्न का सच्चा प्रतिनिधित्व तो मैं कर सकता हूँ। यदि अछूतों के लिए पृथक् निर्वाचन मान लिया गया, तो उसके विरोध में मैं अपने प्राणों की बाजी लगा दूँगा।" गांधी जी को विश्वास था कि पृथक् निर्वाचन मान लेने से हिंदू समाज के दो टुकड़े हो जाएँगे, और उसका यह अंगभंग लोकतंत्र तथा राष्ट्रीय एकता के लिए बड़ा घातक सिद्ध होगा, और अस्पृश्यता को मानकर सवर्ण हिंदुओं ने जो पाप किया है उसका प्रायश्चित्त करने का अवसर उनके हाथ से चला जाएगा।

गोलमेज परिषद् से गांधी के आते ही स्वातंत्र्य आंदोलन ने फिर से जोर पकड़ा। गांधी जी को तथा कांग्रेस के कई प्रमुख नेताओं को जेलों में बंद कर दिया गया। गांधी जी ने यरवदा जेल से भारत मंत्री श्री सेम्युएल होर के साथ इस बारे में पत्रव्यवहार किया। प्रधान मंत्री को भी लिखा। किंतु जिस बात की आशंका थी वही होकर रही। ब्रिटिश मंत्री रैमजे मैकडानल्ड ने अपना जो सांप्रदायिक निर्णय दिया, उसमें उन्होंने दलित वर्गों के लिए पृथक् निर्वाचन को ही मान्यता दी।

13 सितंबर, 1932 को गांधी जी ने उक्त निर्णय के विरोध में आमरण अनशन का निश्चय घोषित कर दिया। सारा भारत काँप उठा इस भूकंप के जैसे धक्के से। सामने विकट प्रश्न खड़ा था कि अब क्या होगा। देश के बड़े बड़े नेता इस गुत्थी को सुलझाने के लिए इकट्ठा हुए। मदनमोहन मालवीय, च. राजगोपालचारी, तेजबहादुर सप्रू, एम. आर. जयकर, अमृतलाल वि. ठक्कर, घनश्याम बिड़ला आदि, तथा दलित वर्गों के नेता डाक्टर अंबेडकर, श्रीनिवासन्, एम. सी. राजा और दूसरे प्रतिनिधि। तीन दिन तक खूब विचारविमर्श हुआ। चर्चा में कई उतार चढ़ाव आए। अंत में 24 सिंतबर को सबने एकमत से एक निर्णीत समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए, जो "पूना पैक्ट" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पूना पैक्ट ने दलित वर्गों के लिए ब्रिटिश भारत के अंतर्गत मद्रस, बंबई (सिंध के सहित) पंजाब, बिहार और उड़ीसा, मध्यप्रांत, आसाम, बंगाल और संयुक्त प्रांत की विधान सभाओं में कुल मिलाकर 148 स्थान, संयुक्त निर्वाचन प्रणाली मानकर, सुरक्षित कर दिए, जबकि प्रधानमंत्री के निर्णय में केवल 71 स्थान दिए गए थे, तथा केंद्रीय विधान सभा में 18 प्रतिशत स्थान उक्त पैक्ट में सुरक्षित कर दिए गए। पैक्ट की अवधि 10 वर्ष की रखी गई, यह मानकर कि 10 वर्ष के भीतर अस्पृश्यता से पैदा हुई निर्योग्यताएँ दूर कर दी जाएँगी।

सर तेजबहादुर सप् डिग्री और श्रीजयकर ने इस पैक्ट का मसौदा तत्काल तार द्वारा ब्रिटिश प्रधान मंत्री को भेज दिया। फलत: प्रधान मंत्री ने जो सांप्रदायिक निर्णय दिया था, उसमें से दलित वर्गों के पृथक् निर्वाचन का भाग निकाल दिया।

समस्त भारत के हिंदुओं के प्रतिनिधियों की जो परिषद् 25 सिंतबर, 1932 को बंबई में पं. मदनमोहन मालवीय के सभापतित्व में हुई, उसमें एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसका मुख्य अंश यह है - आज से हिंदुओं में कोई भी व्यक्ति अपने जन्म के कारण "अछूत" नहीं माना जाएगा, और जो लोग अब तक अछूत माने जाते रहे हैं, वे सार्वजनिक कुओं, सड़कों और दूसरी सब संस्थाओं का उपयोग उसी प्रकार का कर सकेंगे, जिस प्रकार कि दूसरे हिंदू करते हैं। अवसर मिलते ही, सबसे पहले इस अधिकार के बारे में कानून बना दिया जाएगा, और यदि स्वतंत्रता प्राप्त होने से पहले ऐसा कानून न बनाया गया तो स्वराज्य संसद् पहला कानून इसी के बारे में बनाएगी।

26 सितंबर को गांधी जी ने, कवि रवींद्रनाथ ठाकुर तथा अन्य मित्रों की उपस्थिति में संतरे का रस लेकर अनशन समाप्त कर दिया। इस अवसर पर भावविह्वल कवि ठाकुर ने स्वरचित "जीवन जखन शुकाये जाय, करुणा धाराय एशो" यह गीत गाया। गांधी जी ने अनशन समाप्त करते हुए जो वक्तव्य प्रकाशनार्थ दिया, उसमें उन्होंने यह आशा प्रकट की कि, "अब मेरी ही नहीं, किंतु सैकड़ों हजारों समाजसंशोधकों की यह जिम्मेदारी बहुत अधिक बढ़ गई है कि जब तक अस्पृश्यता का उन्मूलन नहीं हो जाता, इस कलंक से हिंदू धर्म को मुक्त नहीं क लिया जाता, तब तक कोई चैन से बैठ नहीं सकता। यह न मान लिया जाए कि संकट टल गया। सच्ची कसौटी के दिन तो अब आनेवाले हैं।"

इसके अनंतर 30 सितंबर को पुन: बंबई में पंडित मालवीय जी की अध्यक्षता में जो सार्वजनिक सभा हुई, उसमें सारे देश के हिंदु नेताओं ने निश्चय किया कि अस्पृश्यतानिवारण के उद्देश्य से एक अखिल भारतीय अस्पृश्यताविरोधी मंडल (ऐंटी-अन्टचेबिलिटी लीग) स्थापित किया जाए, जिसका प्रधान कार्यालय दिल्ली में रखा जाए, और उसकी शाखाएँ विभिन्न प्रांतों में और उक्त उद्देश्य को पूरा करने के लिए यह कार्यक्रम हाथ में लिया जाए - (क) सभी सार्वजनिक कुएँ, धर्मशालाएँ, सड़कें, स्कूल, श्मशानघाट, इत्यादि दलित वर्गों के लिए खुले घोषित कर दिए जाएँ, (ख) सार्वजनिक मंदिर उनके लिए खोल दिए जाएँ, (ग) बशर्ते कि (क) और (ख) के संबंध में जोर जबरदस्ती का प्रयोग न किया जाए, बल्कि केवल शांतिपूर्वक समझानेबुझाने का सहारा लिया जाए।""

इन निश्चयों के अनुसार "अस्पृश्यता-विरोधी-मंडल" नाम की अखिल भारतीय संस्था, बाद में जिसका नाम बदलकर "हरिजनसेवक-संघ" रखा गया, बनाई गई। संघ का मूल संविधान गांधी जी ने स्वयं तैयार किया।

हरिजन-सेवक-संघ ने अपने संविधान में जो मूल उद्देश्य रखा वह यह है-"संघ का उद्देश्य हिंदूसमाज में सत्यमय एवं अहिंसक साधनों द्वारा छुआछूत को मिटाना और उससे पैदा हुई उन दूसरी बुराइयों तथा निर्योग्यताओं को जड़मूल से नष्ट करना है, जो तथाकथित अछूतों को, जिन्हें इसके बाद "हरिजन" कहा जाएगा, जीवन के सभी क्षेत्रों में भोगनी पड़ती हैं, और इस प्रकार उन्हें पूर्ण रूप से शेष हिंदुओं के समान स्तर पर ला देना है।"

"अपने इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए हरिजन-सेवक-संघ भारत भर के सवर्ण हिंदुओं से संपर्क स्थापित करने का प्रयत्न करेगा, और उन्हें समझाएगा कि हिंदूसमाज में प्रचलित छूआछूत हिंदू धर्म के मूल सिद्धांतों और मानवता की उच्चतम भावनाओं के सर्वथा विरुद्ध है, तथा हरिजनों के नैतिक, सामाजिक और भौतिक कल्याणसाधक के लिए संघ उनकी भी सेवा करेगा।""

हरिजन-सेवक-संघ का प्रथम अध्यक्ष श्री घनश्यामदास बिड़ला को नियुक्त किया गया, और मंत्री का पद सँभाला श्रीअमृतलाल विट्ठलदास ठक्कर ने, जो "ठक्कर बापा" के नाम से प्रसिद्ध थे। श्रीठक्कर ने सारे प्रांतों के प्रमुख समाजसुधारकों एवं लोकवेताओं से मिलकर कुछ ही महीनों में संघ को पूर्णतया संगठित कर दिया।

गांधी जी ने जेल के अंदर से ही हरिजन आंदोलन को व्यापक और सक्रिय बनाने की दृष्टि से तीन साप्ताहिक पत्रों का प्रकाशन कराया-अंग्रेजी में "हरिजन", हिंदी में "हरिजन सेवक" और गुजराती में "हरिजन बंधु"। इन साप्ताहिक पत्रों ने कुछ ही दिनों में "यंग इंडिया" और "नवजीवन" का स्थान ले लिया, जिनका प्रकाशन राजनीतिक कारणों से बंद हो गया था। हरिजन प्रश्न के अतिरिक्त अन्य सामयिक विषयों पर भी गांधी जी इन पत्रों में लेख और टिप्पणियाँ लिखा करते थे।

कुछ दिनों बाद, ठक्कर बापा के अनुरोध पर अस्पृश्यतानिवारणार्थ गांधी जी ने सारे भारत का दौरा किया। लाखों लोगों ने गांधी जी के भाषणों को सुना, हजारों ने छुआछूत को छोड़ा और हरिजनों को गले लगाया। कहीं कहीं पर कुछ विरोधी प्रदर्शन भी हुए। किंतु विरोधियों के हृदय को गांधी जी ने प्रेम से जीत लिया। इस दौरे में हरिजनकार्य के लिए जो निधि इकट्ठी हुई, वह दस लाख रुपए से ऊपर ही थी।

हरिजनों ने अपना जन्मजात अधिकार प्राप्त करने का साहस पैदा हुआ। सवर्णों का विरोध भी धीरे धीरे कम होने लगा। गांधी जी की यह बात लोगों के गले उतरने लगी कि "यदि अस्पृश्यता रहेगी तो हिंदू धर्म विनाश से बच नहीं सकता।"

हरिजन-सेवक-संघ ने सारे भारत में हरिजन-छात्र-छात्राओं के लिए हजारों स्कूल और सैकड़ों छात्रालय चलाए। उद्योगशालाएँ भी स्थापित कीं। खासी अच्छी संख्या में विद्यार्थियों को छात्रवृत्तियाँ और अन्य सहायताएँ भी दीं। हरिजनों की बस्तियों में आवश्यकता को देखते हुए अनेक कुएँ बनवाए। होटलों, धर्मशालाओं तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों के उपयोग पर जो अनुचित रुकावटें थीं उनको हटवाया। बड़े बड़े प्रसिद्ध मंदिरों में विशेषत: दक्षिण भारत के मंदिरों में हरिजनों को सम्मानपूर्वक दर्शन पूजन के लिए प्रवेश दिलाया।

देश स्वतंत्र होते ही संविधान परिषद् ने, डॉ. अंबेडकर की प्रमुखता में जो संविधान बनाया, अस्पृश्यता को "निषिद्ध" ठहरा दिया। कुछ समय के उपरांत भारतीय संसद् ने अस्पृश्यता अपराध कानून भी बना दिया। भारत सरकार ने अनुसूचित जातियों के लिए विशेष आयुक्त नियुक्त करके हरिजनों की शिक्षा तथा विविध कल्याण कार्यों की दिशा में कई उल्लेखनीय प्रयत्न किए।

संसद् और राज्यों की विधान सभाओं में सुरक्षित स्थानों से जो हरिजन चुने गए, उनमें से अनेक सुयोग्य व्यक्तियों को केंद्र में एवं विभिन्न राज्यों में मंत्रियों के उत्तरदायित्वपूर्ण पद दिए गए। विभिन्न सरकारी विभागें में भी उनकी नियुक्तियाँ हुई। उनमें स्वाभिमान जाग्रत हुआ। आर्थिक स्थिति में भी यत्किंचित् सुधार हुआ। किंतु इन सबका यह अर्थ नहीं कि अस्पृश्यता का सर्वथा उन्मूलन हो गया है। स्पष्ट है कि समाजसंशोधन का आंदोलन केवल सरकार या किसी कानून पर पूर्णत: आधारित नहीं रह सकता। अस्पृश्यता का उन्मूलन प्रत्येक सवर्ण हिंदू का अपना कर्तव्य है, जिसके लिए उसका स्वयं प्रयत्न अपेक्षित है।


ग्राम सभा से स्वीकृत दावों पर लेना है मालिकाना अधिकार-अखिलेन्द्र

दुद्धी तहसील परिसर में आईपीएफ का हुआ महासम्मेलन

20 नवम्बर को लखनऊ पहुंचेगे आदिवासी

अखिलेन्द्र प्रताप सिंह

सोनभद्र, 23 अक्टूबर 2013, माननीय हाईकोर्ट के आदेश के बाद गांव स्तर पर वनाधिकार समितियों के पुनर्गठन की प्रक्रिया शुरू होना जनांदोलन की जीत है। हमें हर हाल मेंवनाधिकार कानून के तहत ग्राम सभा से स्वीकृत दावों पर मालिकाना अधिकार हासिल करना है और जो दावे छूट गए हैं उन्हें जमा कराने के लिए चौतरफा आंदोलन को तेज करना होगा। वन भूमि पर अपने पुश्तैनी कब्जे पर मालिकाना अधिकार हासिल करने का यह अंतिम मौका है, जिसे किसी भी कीमत पर हमें हासिल करना है।

यह बातें कल मंगलवार को आइपीएफ के दुद्धी तहसील पर आयोजित महा सम्मेलन के मुख्य अतिथि आइपीएफ के राष्ट्रीय संयोजक अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने कहीं। महा सम्मेलन में बभनी, दुद्धी और म्योरपुर ब्लाक से हजारों की संख्या में आदिवासी और वनाश्रित लोग उपस्थित रहे। उन्होंने कहा कि यदि सरकारों और जनप्रतिनिधियों ने अपनी जबाबदेही पूरी की होती तो हमें हाईकोर्ट न जाना पड़ता और गरीबों को इस कानून का लाभ मिल गया होता।

सम्मेलन में अखिलेन्द्र ने कहा कि जिस मोदी के गुजरात माडल का देश में माहौल बनाया जा रहा है उसका मतलब कारपोरेट परस्त राज का है जिसमें किसानों और मजदूरों की बर्बादी ही होगी। मोदी की राजनीति आदिवासी और सामाजिक न्याय विरोधी भी है उनके गुजरात में एक लाख से भी ज्यादा वनाधिकार के दावे गैरकानूनी ढंग से निरस्त कर दिए गए और आदिवासी इलाके में देश में सबसे ज्यादा कुपोषण गुजरात में है, इसलिए इसके बहकावे में न आए। उन्होंने कहा कि गोड़, खरवार जैसी आदिवासी का दर्जा पायी जातियां उच्चतम न्यायालय तक के आदेश के बाद भी चुनाव में अपने लिए सीट नहीं पा सकीं। उ0 प्र0 में लाखों की संख्या में रहने वाला कोल आदिवासी होते हुए भी आदिवासी का दर्जा हासिल न कर सका जबकि उसकी बिरादरी से सांसद तक बने। इस नाते आज  इन तबकों के अधिकारों के लिए चौतरफा आंदोलन खड़ा करना होगा और दिल्ली व राज्य की सरकारों को घेरना होगा। आगामी 20 नवम्बर को प्रदेश के वाम-जनवादी दलों के साथ मिलकर आइपीएफ इन्हीं सवालों पर लखनऊ में रैली करेगा।

सम्मेलन को सामाजिक न्याय मोर्चा के जिलाध्यक्ष चौ0 यशवंत सिंह, आइपीएफ के प्रदेश संगठन प्रभारी दिनकर कपूर, प्रमोद चौबे, इंद्रदेव खरवार, शाबिर हुसैन, राजेन्द्र गोड़, रामदेव गोड़, मो0 हनीफ, सुरेन्द्र पाल, डा0 चंद्रदेव गोड़ आदि ने सम्बोधित किया। सम्मेलन का संचालन शम्भूनाथ गौतम और अध्यक्षता बलबीर सिंह गोड़ ने की।

करवाचौथ का व्रत नहीं रखा तो पत्नी को जबरन पिलाया फिनाइल

विजय ने जब पत्नी महेश कुमारी से करवा चौथ का व्रत रखने के लिए कहा, तो उसने यह कहते हुए साफ इंकार कर दिया कि जब वह उससे प्यार ही नहीं करता तो फिर वह व्रत क्यों रखे. उसके मना करते ही वह गुस्से में लाल पीला हो गया और फिनाइल की बोतल उठाकर जबरन पत्नी को पिला दी…

पूर्वी दिल्ली के कल्याणपुरी इलाके में पति-पत्नी के झगड़े में महिला ने करवा चौथ का व्रत रखने से इनकार कर दिया, तो नाराज होकर एक पति ने अपनी पत्नी को जबरन फिनाइल पिला दिया.

फाइल फोटो

महिला को लाल बहादुर शास्त्री हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया है, जहां उसकी हालत खतरे से बाहर बताई जा रही है. पुलिस ने मामला दर्ज कर महिला के 40 वर्षीय पति विजय को गिरफ्तार कर लिया.

पुलिस को मिली जानकारी के अनुसार विजय अपने परिवार के साथ कल्याणपुरी इलाके में रहता है. उसका छोटी-छोटी बातों को लेकर अक्सर अपनी पत्नी महेश कुमारी से झगड़ा होता रहता था. करवाचौथ के दिन सुबह से ही दोनों झगड़ रहे थे.

विजय ने जब पत्नी महेश कुमारी से करवा चौथ का व्रत रखने के लिए कहा, तो उसने साफ इनकार कर दिया. उसका कहना था कि जब वह उससे प्यार ही नहीं करता है, तो फिर वह उसकी लंबी उम्र की कामना के लिए करवा चौथ का व्रत क्यों रखे.

इस बात को लेकर उन दोनों के बीच खूब झगड़ा हुआ. कुछ देर के लिए विजय घर से बाहर चला गया. सुबह 11 बजे के करीब वह वापस घर पहुंचा और दोबारा अपनी पत्नी से करवाचौथ का व्रत रखने के लिए कहा. उसके मना करते ही वह गुस्से में लाल पीला हो गया. आरोप है कि उसने फिनाइल की बोतल उठाकर जबरन अपनी पत्नी को पिला दी.

पत्नी को फिनाइल पिलाने के बाद विजय गालियां देते हुए घर से बाहर चला गया. घर पर मौजूद विजय की 18 साल की बेटी ने शोर मचाकर पड़ोसियों को बुलाया. पडोसियों के मुताबिक घर में महेश कुमारी बेहोश पड़ी हुई है. उन्होंने उसे हॉस्पिटल में दाखिल कराया. हॉस्पिटल से ही पुलिस को सूचना दी गई. पुलिस ने हॉस्पिटल पहुंचकर महिला के बयान दर्ज किए. इस मामले में मुकदमा दर्ज कर उसके पति को गिरफ्तार कर लिया गया .

(नवभारत टाइम्स से साभार)

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Campaign Against Untouchability - Mahatma Gandhi

  1. Campaign Against Untouchability ... against the segregation of the so-called "untouchables" in the electoral arrangement planned for the new Indian constitution.

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  1. Focusing on Untouchability ignores the root cause of the problem, all the more so as Article 17 of the Indian Constitution, which bans Untouchability, confines its ...

untouchability - Indian Kanoon

  1. indiankanoon.org/search/?formInput=%20untouchability%20
    Constitution Of India 1949 17. Abolition of Untouchability Untouchability is abolished and its practice in any form is forbidden ... enforcement of any disability ...

fight against untouchability | Just another WordPress.com weblog

  1. fightagainstuntouchability.wordpress.com/
    Oct 30, 2008 - [**Some information above taken from: Smita Narula, Broken People: Caste Violence Against India's Untouchables (Human Rights Watch, ...


Untouchability

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For other uses, see Untouchable (disambiguation).
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Untouchability is the social-religious practice of ostracizing a minority group by segregating them from the mainstream by social custom or legal mandate. The excluded group could be one that did not accept the norms of the excluding group and historically included foreigners, house workers, nomadic tribes, law-breakers and criminals and those suffering from a contagious disease. This exclusion was a method of punishing law-breakers and also protected traditional societies against contagion from strangers and the infected. A member of the excluded group is known as an Untouchable or Paria.

The term is commonly associated with treatment of the Dalit communities, who are considered "polluting" among the people of South Asia, but the term has been used for other groups as well, such as the Burakumin of JapanCagots in Europe, or the Al-Akhdam in Yemen. Untouchability has been made illegal in post-independence India, and Dalits substantially empowered, although some prejudice against them continues, especially in rural pockets dominated by certain other backward caste (OBC) groups.[1]

Untouchability in practice[edit]

Untouchables of MalabarKerala (1906)

Untouchability and discrimination[edit]

In the name of untouchability, Dalits have faced work and descent-based discrimination at the hands of the dominant castes. Instances of this discrimination at different places and times included:[2]

  • Prohibition from eating with other caste members
  • Provision of separate glasses for Dalits in village tea stalls
  • Discriminatory seating arrangements and separate utensils in restaurants
  • Segregation in seating and food arrangements in village functions and festivals
  • Prohibition from entering into village temples
  • Prohibition from wearing sandals or holding umbrellas in front of higher caste members
  • Prohibition from entering other caste homes
  • Prohibition from riding a bicycle inside the village
  • Prohibition from using common village path
  • Separate burial grounds
  • No access to village's common/public properties and resources (wells, ponds, temples, etc.)
  • Segregation (separate seating area) of Dalit children in schools
  • Sub-standard wages
  • Bonded labour
  • Social boycotts by other castes for refusing to perform their "duties"

Government action in India[edit]

The 1950 national constitution of India legally abolished the practice of untouchability and provided measures for positive discriminationin both educational institutions and public services for Dalits and other social groups who lie within the caste system. These are supplemented by official bodies such as the National Commission for Scheduled Castes and Scheduled Tribes.

Despite this, instances of prejudice against Dalits still occur in some rural areas, as evidenced by events such as the Kherlanji massacre.

Untouchable groups[edit]

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See also[edit]

References[edit]

External links[edit]

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