Saturday, February 28, 2015

भूमि अधिग्रहण का प्रलाप


भूमि अधिग्रहण का प्रलाप
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क्यों टीन टपरिया छीन रहे
क्यों फूस छपरिया छीन रहे

सब चोर छिनैतों के साए हैं
आज जो हम पर छाए हैं

कैसे इनसे बच पाएंगे
अब कैसे हम जी पाएंगे

पूंजी का बुलडोजर है
नीचे कितने ही घर है

कब तक जीना डर डरकर
धरती कांपे रह रहकर

निकले हैं जन रस्तों पर
भूमि बचाएंगे लड़कर

मुझको कवियों से कहना है
बोलो कब तक ढहना है

जिसमें अपने लोग नहीं हैं
सोज़ नहीं है सोग नहीं है

जो खुद में घुटकर रह जाएगी
वह कविता अब मर जाएगी

जंगल छीने नदियां छीनीं
फ़सलें छीनीं बगिया छीनी

धरती लेकिन नहीं मिलेगी
फूल जले तो आग खिलेगी
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शब्द रचनाकार के लिए सार्थक तभी होते हैं जब वह उनकी सतर्क सुधि लेता है. उन्हें उलटता – पुलटता है, बेज़ान और घिस गए शब्दों की जगह नए शब्द तलाशता और तराशता है. जीवन – कर्म से शब्दों की संगति बैठाता है. कर्म के आलोक में ही शब्द रौशन होते हैं. शब्दों के अलाव के पास हमें सम्बन्धों और संवेदना की ऊष्मा मिलती है. पर जब हर जगह प्रलाप और विलाप हो तब एक कवि को लगता है कि यह आखिर हुआ क्या? जीवन और जीने के सरोकार सब इस प्रलाप के भंवर में डूबते जा रहे हैं. घर और घर वापसी जैसे मूल्य किस तरह एक खाई में गिरने जैसा लगने लगता है. और आकाश में उड़ना खुद कवि के शब्दों में – 'उड़ते हुए चंद लोगों द्वारा न उड़ पानेवालों के कोमल पंखों को मसल देने का है. और जन्म वह तो मां के गर्भ और पिता के गर्व के बीच उलझ गया है. भूमि अधिग्रहण का प्रलाप दरअसल 'क्यों टीन टपरिया छीन रहे/ क्यों फूस छपरिया छीन रहे' की वास्तविकता है.

शिरीष कुमार मौर्य की ग्यारह नई कविताएँ आपके लिए. सार्थक, सृजनात्मक और समृद्ध अनुभव से लबरेज़.

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जीवन जो कुछ प्रलापमय है 
शिरीष कुमार मौर्य
http://samalochan.blogspot.in/2015/03/blog-post.html

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