Tuesday, June 25, 2013

इच्छाकूप में अनंत छलांग

इच्छाकूप में अनंत छलांग


पलाश विश्वास


1


इच्छाकूप में मेरी वह अनंत छलांग

पृथ्वी का अंत नहीं था वह यकीनन


सपने में मूसलाधार वर्षा,कड़कती बिजलियां

चहकती इंद्रधनुषी घाटियां सुनसान अचानक

अंतरिक्ष अस्त व्यस्त, बहुत तेज हैं सौर्य आंधियां


हिमालय के उत्तुंग शिखरों में परमाणु धमाके

समुंदर की तहों में पनडुब्बियां

ग्लेशियर भी पिघल रहे हैं तमाम

यौनगंधी हवाओं में बारुदी तूफान


ऋतुमती नदी किंतु मौन है


तीर्थस्थलों से मनुष्यों का पाप ढोकर

समुद्र तक पहुंचना, गांव गांव, शहर शहर

कहकहे लगाते बेशर्म बाजार


मंझधार में मांझी भूल गये गीत



युद्धक विमानों का शोर बहुत है

पृथ्वी में इन दिनों

जलमग्न हैं अरण्य, कैद वनस्पति


किंतु दावानल में जलते निशिदिन


विषकन्याओं की सौंदर्यअग्नि में

पिघल रही है पुरखों की अस्थियां


नदी बंधती जहां तहां



2



नदी तब बहती थी मेरे भीतर

उसके होंठों पर थे असंख्य प्रेमपत्र

तब टिहरी जलाशय कहीं नहीं था


गंगोत्री के स्तनों पर थे मेरे हाथ


तृतीय शिवनेत्र की रोषाग्नि से

बची हुई थी आकाशगंगाएं

रतिसुखसमृद्ध थी नदी


सौभाग्यवती कुलवधू


चुलबुली पर्वतकन्या की तपस्यारत

मूर्ति ही देखी थी देवताओं ने


चट्टानें तोड़ती सरपट दौड़ती

तेज धार तलवार सी बहती

अपने ही किनारे चबाती


नदी जनपदों में बाढ़ बनकर

कहर बरपाती कब तक


कब तक यात्रा यह बिन बंधी


षड्यंत्र था कि ब्रह्मकमंडल

में थी कैद जो नदी,परमार्थ

स्वार्थ खींच लाया उसे यहां

और अपनी कोख में सिरजा


उसने यह भारतवर्ष




3



सिहरण थी नदी की योनि में

उल्कापात जारी था पृथ्वी पर


वक्षस्थल में उभार कामोद्दीपक

महाभारत हेतु बार बार

गाभिन वह चुपचाप बहती


अतृप्त यौनाचारमत्त कलि,अवैध संतानें

वर्णशंकर प्रजातियां क्लोन प्रतिरुप


प्रवंचक ब्राह्मणत्व का

पुनरूत्थान


नदी असहाय बहती मौन


ऋतुस्राव के वक्त भी बलात्कृता

किसी थाने में कोई रपट नहीं

कहीं कोई खबर नहीं


इतनी बार इतनी बार

सामूहिक बलात्कार



फिरभी देवी सर्वत्र पुज्यति

या देवि...



4



ग्लेशियर से समुंदर तक नदी के संग संग

मेरी यह यात्रा अनंत

इच्छाकूप की छलांग यह अनंत


यकीनन पृथ्वी का अंत नहीं था वह


नदी के प्रवाह  में पलायन

महात्वाकांक्षाएं जलावतरित

बेइंतहा जलावतन


पीछे छूटा ग्लेशियर

पीछे छूटा पहाड़

छूटा गांव,छूटी घाटियां


वनस्पतियों ने तब भी शोक मनाया


बादल थे अचंभित ठहरे हुए

तालों में तिरती मछलियां रोती सी



चिड़िया भूल गयी थी चहकना


नदी के होंठें पर थी मुस्कान

नदी तब भी बह रही थी

बिन बंधी...


जारी वह अनंत छलांग



5



संवेदनाएं दम तोड़ रही थीं

आत्मीयता बंधन तोड़ रही थी

फूलों की महक पीछा छोड़ रही थी


फलों का स्वाद कह रहा था अलविदा



जोर से बह रही हवाएं एक साथ

चीड़, बांज और देवदार के जंगल शोकसंतप्त



सेब के बगीचे खामोश

खुबानी की टहनियां झुकी सी

स्ट्राबेरी की गंध दम तोड़ती


समूचा पहाड़ था चुपचाप खड़ा


सिर्फ कुल्हाड़ियों की आवाज थी

कगारें तोड़ती धार थी

और थी अकेली बहती पतवार


उत्तुंग हिमाच्छादित शिखरों ने भी

देखा निर्लिप्त मेरा पलायन


कुहासे की गोद में

चुपचाप सो रही थी पृथ्वी


चारों दिशाएं गूंज रही थी, भोर संगीत


इच्छाकूप की गहराइयों में थी

सीढ़ियां  अनंत फिसलनदार

मीनारे थीं अनंत


सिर्फ डूबते जाना था


डूबने में भी था चढ़ने का अहसास

पहाड़ से उतरकर


फिर कहां चढ़ोगे, बंधु?


एक नया सा आसमान था मेरी आंखों में


रंग जिसका नीला तो कतई न था

तिलस्मी संसार एक जरुर

और अय्यारियों का करिश्मा एक के बाद एक


फिर भी चंद्रकांता संतति थी नहीं कहीं


पग पग बदल रही थीं उड़ानें,हवाई यात्राएं

बदल रही थीं महात्वाकांक्षाएं रोज शक्ल अपनी


सारे आंखर बेअदब हो गये अकस्मात

बेमायने हो गये भाषाई सेतु

सारे समीकरण थे विरुद्ध, विरुद्ध थे जातिगणित


तलवारें बरस रही थीं चारों ओर से


घत लगाकर हो गये कितने आतंकवादी हमले

फिर बारुदी सुरंगें तमाम


अंधाधुंध फायरिंग अविराम गोलीबारी, बमवर्षा

मुठभेड़, युद्ध, गृहयुद्ध के हर मुकाम पर


लेकिन असमाप्त फिरभी वह अनंत छलांग



6



मैंने दिव्यचक्षु से नदियों को

ग्लेशियरों की बांहों में सुबकते देखा


मैंने देखी ऋतुमती घाटियां गर्भवती असहाय


हिमपात जारी आदि अनंतकाल से

मैं सिर्फ दौड़ता ही रहा


भागता रहा मैं....


नदियां क्या फिर बोलेंगी किसी दिन

नदियां क्या अंतःस्थल खोलेंगी किसी दिन


बहुत जरुरी है नदियों की पवित्रता

इस पृथ्वी को जीवित रखने के लिए


शुक्र है, इच्छाकूप में मेरी अनंत छलांग

के बावजूद पृथ्वी  का अंत नहीं हुआ


अंततः



(परिचय - 4, अक्तूबर, 2002 में प्रकाशित)








4 comments:

  1. कविता का का यह पुनर्पाठ है या मूल पाठ ? सचमुच यह एक प्रभावशाली कविता है जो आरम्भ में कवि के अतीत की ओर यात्रा करती अनुभव होती है मगर जल्दी ही समूचे ब्रह्माण्ड में से हमारे वर्तमान को नोंचकर हमारे सामने हू-ब-हू खड़ा कर देती है... और हम ही हैं वह, जो एकदम मादरजाद नंगे अपनी ही आँखों के सामने खुद को खड़े दिखाई दे रहे हैं.
    पलाश, इस कविता के पाठ को एक नए सूर्योदय के रूप में प्रस्तुत करने के लिए बधाई.

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  2. यह कविता पुनर्पाठ नहीं है। जैसी लिखी और जैसे छपी,उसी तरह पेश है।
    पलाश विश्वास

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  3. बहुत गहरी और गंभीर कविताएं है पलाश जी।

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  4. धन्यवाद,अनिता जी!

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